गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

जल जगत

नदियों से जुड़ा है देश का भविष्य
डॉ. कश्मीर उप्पल

पिछले दिनों इलाहाबाद में नदियों के पुनर्जीवन को लेकर महत्वपूर्ण सम्मेलन का आयोजन किया गया । इसमें देश भर से पानी के क्षेत्र में कार्य कर रहे कार्यकर्ताआें एवं प्रशासनिक अधिकारियों ने भागीदारी की ।
विश्व की अनेक संस्कृतियों की भांति भारतीय संस्कृति का जन्म भी नदियों के किनारे हुआ है । इसीलिए भारतीय संस्कृति में नदियों को सर्वोच्च् स्थान दिया गया है । भारतीय धर्म और संस्कृति में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम स्थल का विशेष महत्व है । अत: इलाहाबाद में दो दिवसीय नदी पुनर्जीवन सम्मेलन का होना अपने आप में पूरे देश की नदियों के शुद्धिकरण का एक संदेश बन जाता है । इस सम्मेलन में भारत की नदियों का भूजल - अधोभूजल पुनर्भरण करके नदियों का प्रवाह सुनिश्चित करने का कार्य कैसे किया जा सकता है, पर विचार-विमर्श किया गया । समाज के सभी वर्गो की सहभागिता से नदियों का प्रवाह सुनिश्चित करने और नदियों का शोषण बंद करने की योजना की रूपरेखा और कार्यक्रम बनाने की गाइडलाइन मिली है । इसमें नदियों के सवाल को पूरे राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में उठाया और देखा गया । सम्मेलन का उद्घाटन २३ सितम्बर को केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय विभाग के प्रमुख सचिव वी.के. सिन्हा ने किया ।
उनका कहना था कि देश की बड़ी नदियां पहले ही प्रदूषित हो चुकी है और अब छोटी नदियों में भी प्रदूषण फैल रहा है । अत: बडी नदियों को बचाने के पहले छोटी नदियों को बचाना होगा । उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि नदियों को पुनर्जीवन देने के लिए दुनिया के सबसे बड़े रोजगार कार्यक्रम केन्द्र सरकार के मनरेगा योजना का बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए । इस संबंध में मनरेगा कानून को बहुत गंभीरता से पढ़ा जाना जरूरी है ।
केन्द्र सरकार के ही ग्रामीण विकास मंत्रालय के संयुक्त-सचिव डी.के. जैन ने बताया कि मनरेगामें कार्यक्रम रखे गये हैं जिनमें से ६-७ कार्यक्रम केवल पानी से संबंधित है । अत: मनरेगा से छोटी-बड़ी नदियों का पुर्नरूद्धार कार्य किया जाना चाहिए । मनरेगा में ५० प्रतिशत कार्यक्रम ग्राम - पंचायतों के माध्यम से किये जाने चाहिए जिन्हें आवश्यकतानुसार ७० से ८० प्रतिशत तक भी बढ़ाया जा सकता है । तमिलनाडु में मनरेगा में १०-१० हजार लोग इस योजना में एक साथ काम करते है ।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष प्रोफेसर एस.सी. गौतम का कहना था कि सर्वप्रथम १९७४ में केन्द्र सरकार द्वारा वाटर एक्ट १९७४ लाया गया था । सनातन धर्म में मृत्यु नहीं होती केवल कायांतरण होता है । वैसे ही कभी कोई नदी मरती नहीं है । भारत सरकार के पास १० हजार वाटरशेड मेप तैयार है जिनकी सहायता से नदियों का उद्धार किया जाना चाहिए । यदि बाढ़ के पानी को छोटी-छोटी डिस्ट्रीब्यूटरी में विभाजित कर छोटी नदी में बड़े-बड़े कुंए बना दिये जायें तो छोटी नदियों को सदानीरा बनाया जा सकता है ।
उत्तरप्रदेश गंगा रिवर बेसिन
अथॉरिटी के डॉ वी.डी. त्रिपाठी के अनुसार व्यक्ति की आयु होती है लेकिन सिस्टम की नहीं इसीलिए सिस्टम को ही मजबूत बनाना चाहिए । अनेक कारणों से भूमिगत जल स्तर नीचे हो जाता है और बाद में उसका स्थान लेने के लिए नदियों का पानी भी नीचे चला जाता है । इसी कारण अधिकांश नदियां सूख जाती है । अत: भूमिगत जलस्तर बढ़ाने के उपायों से नदी को भी जीवित किया जा सकता है ।
उत्तर मध्य संस्कृति मंच के निदेशक आनन्द शुक्ला ने बताया कि संस्कृति मंच म.प्र., बिहार, यू.पी., राजस्थान सहित सात राज्यों में काम करता है । इन राज्यों में मनरेगा और अन्य कार्यक्रमों के बारे में सांस्कृतिक मंच की टोलियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में जन-जागरूकता फैलाने का काम करती है । नदियों के संबंध में लोगों को जोड़ने के काम में यह मंच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।
पर्यावरण शोधकर्ताआें ने सरकार की नीतियों के फलस्वरूप पर्यावरण पर आ रहे कई खतरों की ओर भी ध्यान आकर्षित किया । जामिया मिलिया के प्रोफेसर एवं पर्यावरणविद् विक्रम सोनी ने मुम्बई - दिल्ली के मध्य प्रस्तावित इंड्रस्ट्रीयल कॉरिडोर की एक गोपनीय योजना का उल्लेख करते हुए कहा कि केन्द्र सरकार इस परियोजना के माध्यम से सात नदियों यमुना, चंबल, माही, लोनी, साबरमती, ताप्ती और नर्मदा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है । इस कॉरिडोर के किनारे कई हाईटेक शहर, औघोगिक केन्द्र, तेज रफ्तार सड़क और रेल परियोजना बनेगी । इस परियोजना पर १३ अरब डॉलर खर्च होगा और लगभग २० करोड़ लोग इन प्रस्तावित नये कॉरिडोर के शहरों में बसेंगे । चीन में भी शंघाई - ह्ववांग्हो नदी प्रयोग किया गया है परन्तु उससे वहां का पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ रहा है । नदी का कम से कम ५० प्रतिशत पानी बहकर समुद्र में मिलना ही चाहिए । किसी भी नदी के केवल २५ प्रतिशत पानी का ही उपयोग करना चाहिए ।
तरूण भारत संघ और इस नदी सम्मेलन के आयोजक मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त् राजेन्द्र सिंह ने कहा कि हमारे देश की नदियों को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ाने की नीतियों ने मार डाला है । देश की कुल आय बढ़ाने के लिए सिर्फ उत्पादन पर ही जोर दिया जा रहा है । इससे नदियों का जीवन संकट से भर गया है ।
राजेन्द्र सिंह के अनुसार केन्द्र सरकार एवं नदियों को बचाने में जुटे लोगों के मध्य आपस में बात चल रही है । देश को एक अच्छी नदी-नीति की जरूरत है । इससे नदियों से जुड़े विवादों का समाधान भी होगा । इसके साथ ही नदियों में खनन और नदियों की जमीन पर अतिक्र्र मण को भी रोका जा सकेगा ।
नदियों की सुरक्षा के लिए रिवर-पुलिसिंग कानून बनाने पर भी विचार-विमर्श हो रहा है । इसके अन्तर्गत नदियों के किनारे नदी पुलिस चौकियां स्थापित की जायेगी । इस नदी पुलिस को नदियों में किसी भी प्रकार का प्रदूषण फैलाने वालों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही करने का अधिकार होगा ।
इस सम्मेलन को देश के ११ राज्यों से आये नदी-कार्यकर्ताआें के साथ-साथ कई राज्यों से आये जनप्रतिनिधियों, कानून के विशेषज्ञों और साधु संतों ने भी संबोधित किया । इन सभी ने नदियों के प्रदूषण से होने वाले वीभत्स पर्यावरणीय नुकसान का वर्णन किया ।
पटना के दिनेश कुमार ने बताया कि १९८१ के पूर्व तक नन्दलाल बसु के बनाये चित्रों को बिहार की प्रकृति में देखा जा सकता था । परन्तु नदियां सूख जाने से बिहार की प्राकृतिक और ग्रामीण व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है । पर्यावरण के इस संकट से ही बिहार में माओवादी बनने का संकट बना और बढ़ा है ।
पूर्व महाधिवक्ता एस.एम. काजमी ने कानपुर और इलाहाबाद में बिजली के भारी बिलों के कारण बिजली के शवदाहगृह बंद कर दिये जाने की बात रखी । कानपुर में ८० चमड़ा उद्योगों (टेनरी) का गंदा पानी प्रदूषण नियंत्रण यंत्रों से होकर गंगा में जाता है। प्रतिदिन तीन घंटे बिजली नहीं रहने से गंदा पानी सीधा गंगा नदी में मिलता है ।
झारखंड के पूर्व विधायक सरयू पांडे ने बोकारो के कचरे और सिंगरोली के ताप बिजलीघर से नदियों के प्रदूषित होने का विवरण दिया । बुन्देलखंड के वक्ताआें ने कहा कि बुन्देलखंड की नंदियां यमुना में मिलकर यमुना को जल से परिपूर्ण कर गंगा नदी को भी भरपूर पानी देती हैं । बुन्देलखंड में बीहड़ों का समरूपण कर खेती करने की परियोजना बन रही है । यदि यह योजना क्रियान्वित की जाती है तो इसका बुन्देलखंड की नदियों के साथ-साथ देश की नदियों पर भी खतरनाक प्रभाव पड़ेगा ।
डॉ. कश्मीर उप्पल के अनुसार नर्मदा घाटी विकास परियोजनाआें से लाखों हेक्टेयर वन डूब क्षेत्र में आ गया है । गांवों के कई विस्थापितों के गांवो को दो-दो तीन-तीन बार नई जमीनों पर बसाया गया है । इससे भी वनों की कटाई हुई है । सरकार के पास विस्थापितों के लिए जमीन नहीं बची है । अत: जंगल काटकर विस्थापितों के गांव बसाये जाते हैं । दूसरी ओर वनों को काटने की सरकारी नीति के कारण वन क्षेत्र बहुत कम रह गया है । इससे सतपुड़ा से निकलने वाली सैकड़ों छोटी नदियां सूखकर बरसाती नाला बन गई है । हम सौभाग्यशाली है कि हमारे देश में ग्लेशियरों का काम हमारे वन कर रहे है ।

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