जी.एम. फसलों को रिझाता नया कानून
भारत डोगरा
प्रस्तावित बायोटेक्नॉलॉजी अथॉरिटी ऑफ इंडिया कानून (ब्राई) के माध्यम से केन्द्र सरकार एक ओर मानव व पशु स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के साथ घातक खेल खेलना चाह रही है वहीं दूसरी ओर इस विषय में राज्य सरकारों के अधिकारों का अतिक्रमण कर वह देश के संघीय ढांचे से भी छेड़-छाड़ का प्रयास कर रही है । आवश्यकता इस बात की है कि इस काननू को संसद में प्रस्तुत करने से पहले व्यापक विचार-विमर्श हो और सरकार जी.एम. फसलों की पक्षधरता से बाज आए ।
हाल के वर्षो में विश्वस्तर पर निरन्तर नए समाचार मिलते रहे हैं कि जी.एम. (जेनेटिकली मोडीफाईड) फसलें कितनी खतरनाक हैं । इसके बावजूद केन्द्र सरकार संसद में शीघ्र ही बॉयोटेक्नालाजी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ब्राई) कानून २०११ प्रस्तुत करने जा रही है, जिससे भारत में जी.एम. फसलों के तेज प्रसार का खतरा पहले की अपेक्षा और बढ़ जाएगा । हालांकि ऐसे विधेयक से उम्मीद तो यह थी कि जी.एम.फसलों के गंभीर खतरों की विश्वस्तर पर व्यापक स्वीकृति के दौर में वह जी.एम. तकनीक के प्रसार को कड़े नियंत्रण में रखेगा परन्तु वास्तव में वह इससे विपरीत दिशा में जा रहा है व जी.एम. फसलों संबंधी निर्णय की प्रक्रिया में केन्द्रीकरण व गोपनीयता को बढ़ा कर जी.एम.फसलों को अधिक छूट देने व ऐसे निर्णय में कॉरपोरेट निहित स्वार्थो के हावी होने की संभावना को बढ़ा रहा है ।
पिछले वर्ष बी.टी. बैंगन पर लगी रोक में पर्यावरण मंत्रालय की महत्वपूर्ण भूमिका थी । चूंकि जी.एम. फसलों से सर्वाधिक खतरे पर्यावरण व स्वास्थ्य संबंधी हैं अत: यह निर्णय प्रक्रिया पर्यावरण मंत्रालय या स्वास्थ्य मंत्रालय के आधीन ही रहनी चाहिए थी पर अब यह बिल विज्ञान व तकनीक मंत्रालय द्वारा लाया जा रहा है जबकि यह मंत्रालय तो जी.एम.फसलों पर अनुसंधान बढाने व उसे आर्थिक सहायता देने से जुड़ा रहा है ।
बी.टी. बैंगन विवाद के दौरान यह स्पष्ट हो गया था कि अनेक राज्य सरकारें जी.एम.फसलों के विरूद्ध है पर ब्राई २०११ विधेयक इस प्रक्रिया में राज्य सरकारों की भूमिका का कम करता है व अब उनकी भूमिका केवल सलाहकार की हो गई है । जबकि निर्णायक शक्ति को केन्द्र सरकार व उसके विज्ञान व तकनीक मंत्रालय मेंकेन्द्रीकृत किया गया है । इतना ही नहीं, निर्णय प्रक्रिया में गोपनीयता बढ़ाई गई है व पारदर्शिता कम की गई है । इस प्रयास पर सही समझ बनाने के लिए जी.एम. तकनीक को भारतीय कृषि में तेजी से बढ़ाने के समय प्रयासों से संबंधित एक खतरनाक कदम के रूप में देखना चाहिए ।
हाल के समय में भारत में जी.एम. फसलों के प्रयोगों व अनुसंधान ने बहुत जोर पकड़ा है । नियमों की अवहेलना करते हुए कई जी.एम.फसलों के खुले खेतों में परीक्षण इस तरह हो रहे हैं, जिससे आसपास की सामान्य फसल में जेनेटिक प्रदूषण का खतरा बहुत बढ़ जाता है । नवीनतम आंकड़ों के अनुसार लगभग १४ फसलों पर खेतों में परीक्षण हो रहे हैं तो अन्य तरह के जी.एम.फसल संबंधी अनुसंधान व प्रयोग ७४ फसलों पर हो रहे हैं । इस तरह हमारी लगभग सभी महत्वपूर्ण खाद्य फसलें किसी न किसी स्तर पर जी.एम.फसलों के अनुसंधान क्षेत्र में आ रही है ।
फरवरी २०१० में जब बी.टी. बैंगन के व्यापारिक स्तर की रिलीज की स्वीकृति देने से पर्यावरण मंत्री ने मना किया था व इस पर प्रतिबंध लगा दिया था तो उस समय उन्होनें एक विस्तृत नोट में बहुत वाजिब कारण बताए थे कि ऐसी खाद्य जी.एम.फसल को स्वीकृति क्यों नहीं दी सकती लेकिन पर्यावरण मंत्रालय के इस निर्णय के बाद जी.एम.फसल के प्रसार से जुड़े स्वार्थो ने अपना प्रचार-प्रसार और तेज कर दिया । उन्होंने जी.एम.फसलों संबंधी निर्णय प्रक्रियापर पर्यावरण मंत्रालय की पकड़ को ही कमजोर करना शुरू किया । इसके अतिरिक्त ऐसे कानून बनवाने का प्रयास किया, जिससे जी.एम.फसल के विरूद्ध आवाज उठाने वालों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की संभावना बढ़ जाए । उन्होंने सरकारी तंत्र में अपनी घुसपैठ मजबूत की व अनेक राज्य सरकरों, कृषि विश्वविघालयों से ऐसे समझौते किए, जिससे बाद में जी.एम. फसलों की अनुमति मिलने पर बहुत तेजी से उन्हें प्रसारित करने की पृष्ठभूमि बन सके व सरकारी तंत्र में जी.एम.फसलों के अनुकूल माहौल बनाया जा सके ।
जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त् की गई फसलों का मनुष्यों व सभी जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है । निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जी.एम.फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं । जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक जेनेटिक रूलेट् (जुआ) के ३०० से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है । इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है । जी.एम. फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है व जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याआें का वर्णन है ।
यूनियन ऑफ कन्सर्नड साइंर्टिस्टस नामक वैज्ञानिकों के संगठन ने कुछ समय पहले अमेरिका में कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग के उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि यह असुरक्षित हैं तथा इनसे उपभोक्ताआें, किसानों व पर्यावरण को कई खतरे है ।
जब भारत में बी.टी. बैंगन के संदर्भ में इस विवाद ने जोर पकड़ा तो विश्व के १७ विख्यात वैज्ञानिकों ने भारत के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई । पत्र में कहा गया है कि जी.एम. प्रक्रिया से गुजरने वाले पौधे का जैव-रसायन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्वों का प्रवेश हो सकता है व उसके पोषण गुण कम हो सकते हैं या बदल सकते हैं । उदाहरण के लिए मक्के की जी.एम. किस्म जी.एम. एमओएन ८१० की तुलना गैर-जी.एम. मक्का से करें तो इस जी.एम. मक्का में ४० प्रोटीनों की उपस्थिति महत्वपूर्ण हद तक बदल जाती है । जीव - जंतुआें को जी.एम. खाद्य खिलाने पर आधारित अनेक अध्ययनों से जी.एम. खिलाने पर आधारित अनेक अध्ययनों से जी.एम. खाद्य के गुर्दे(किडनी), यकृत (लिवर) पेट व निकट के अंगों (गट), रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन व प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) पर नकारात्मक स्वास्थ्य असर सामने आ चुके हैं ।
यह ध्यान में रखना बहुत जरूरी है कि जी.एम.फसलों का थोड़ा बहुत प्रसार व परीक्षण भी बहुत घातक हो सकता है । मूल मुद्दा यह है कि इनसे जो सामान्य फसलें हैं वे भी दूषित हो सकती है । जेनेटिक प्रदूषण बहुत तेजी से फैल सकता है व इस कारण जो क्षति होगी उसकी भरपाई नहीं हो सकती है। यदि एक बार जेनेटिक प्रदूषण फैल गया तो दुनिया भर में अच्छी गुणवत्ता व सुरक्षित खाद्यों का जो बाजार है तथा जिसमें फसलों की बेहतर कीमत मिलती है, वह हमसे छिन जाएगा ।
जेनेटिक प्रदूषण से जी.एम. फसलें उन अन्य किसानों के खेतों को भी प्रभावित कर देंगी, जो सामान्य फसलें उगा रहे हैं । इस तरह जिन किसानों ने जी.एम.फसलें उगाने से साफ इंकार कर दिया है, उनकी फसलों पर भी इन खतरनाक फसलों का असर हो सकता है ।
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