गैस त्रासदी : प्रभाव, घाव और अभाव
अज़हर हाशमी
त्रासदी की तोप में बरबादी की बारूद भरी हुई होती है । सन् १९८४ की दो और तीन दिसंबर की दरम्यानी रात में घटित भोपाल गैस त्रासदी ऐसी ही तोप की तरह थी, जिसने मासूमों की मुस्कानें छीनी, सुहागनों का सिंदूर उजाड़ा, हवाआें में जहर घोला, जिसकी वजह से शहर में कहर डोला । भोपाल में यूनियन काबाईड के कारखाने से रिसी गैस ने तोप की तरह काम किया था ।
जिसने जिंदगियों का काम तमाम कर दिया था । इस इस गैस त्रासदी के प्रभाव को चिन्हित करते हुए प्रसिद्ध पत्रकारद्वय डोमिनीक लापियर और जोवियर मोरो ने लिखा था - इस विषैली गैस के गुबार ने पांच लाख से अधिक भोपालियों को प्रभावित किया था, दूसरे शब्दों में शहर के हर चार निवासी में से तीन इससे पीड़ित थे ।
आंखों और फेफड़ों के बाद सबसे अधिक प्रभावित होने वाले अंगों में मस्तिष्क, मांसपेशियां, अस्थिजोड़, लीवर, गुर्दे, प्रजनन-तंत्र, स्नायु तंत्र तथा प्रतिरक्षा-तंत्र शामिल थे । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् के अनुसार ५२१२६२ लोग प्रभावित हुए थे ।
इस आंकड़े में वे पीड़ित शामिल नहीं थे जो भोपाल के स्थायी निवासी नहीं थे और वे जिनका कोई नियत घर नहीं था अथवा जो घूमंतु जातियों के थे । इसमें वे पीड़ित भी शामिल नहीं थे, जो इस त्रासदी से अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए, जैसे वे बच्च्े जो मां की कोख में थे अथवा जो उसके बाद पैदा हुए जब उनके माता-पिता जहरीली गैस से प्रभावित हो चुके थे । अनेक पीड़ित ऐसी देशा में पहुंच चुके थे कि, उनके लिए हिलना-डुलना भी असंभव था । कई लोग अकड़न, असहाय खराश अथवा दोहरे माइग्रेन से प्रभावित हो गए थे । बस्तियों की ये महिलाएें भोजन पकाने के लिए चूल्हें नहीं जला सकती थी, क्योंकि धुएं के फेफड़ों में बैठ जाने की दशा में उनसे खून बाहर आने का खतरा था । दुर्घटना के दो हफ्ते बाद बचे हुए लोगों को पीलिया की महामारी ने अपनी चपेट में ले लिया, जिनकी रोगों से लड़ने की प्रतिरक्षा प्रणाली खत्म हो चुकी थी । कई मामलों में तंत्रिका तंत्र के प्रभावित होने से कुछ लोगों के शरीर में एेंठन थी तथा कुछ को लकवा मार गया था, कुछ अचेत हो गए तो कुछ काल का ग्रास बन गए ।
मनोवैज्ञानिक दुष्परिणामों का आकलन करना तो और भी कठिन है । इस त्रासदी के बाद शुरूआत के महीनों में एक नया ही लक्षण पैदा हो गया था। डॉक्टर उसे मुआवजा तंत्रिका रोग कहने लगे थे । सबसे अधिक गंभीर मानसिक प्रभाव था घबराहट के साथ उदासी, कमजोरी और भूख की कमी के बचे हुए लोगों में से अधिकांश में सूनापन और निराशा पैदा कर दी थी । इससे कभी कभी वे इस विनाश को ईश्वर-दण्ड के रूप में देखते थे । घबराहट से अनेक लोग निराश होकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गए थे ।
यह बात हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक भोपाल बारह बजकर पांच मिनट में लेखक लापियर और मोरो ने भी लिखी है । यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस ने तोप की तरह काम करके जिंदगियों का काम तमाम कर दिया था, जिसके बाद रही-सही कसर व्यवस्था की विसंगतियों ने पूरी कर दी । मेरे मत से एंडरसन (यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन सर्वेसर्वा) ने थंडरसन के रूप में यमदूत की तरह कार्य किया था लेकिन लीपापोती करके उसे देवदूत के रूप में वंडरसन की तरह पेश किया गया था ।
जनता को यह मुगालता देकर कि एंडरसन फ्रंटडोर से लाया जा रहा है, उसे दरअसल बैकडोर से गुपचुप बाहर भेज दिया गया । इसके बाद बयानों के बवंडर चलते रहे लेकिन गैस त्रासदी के पीड़ित हाथ मलते रहे । घंटिया बजती रही । फाइलें सजती रही, फिर ऐसा दौर आया कि फाइलों पर धूल जमती गई । पीड़ितों की तकदीर में परेशानी रमती रही । न्यायिक प्रक्रिया का भी सहारा लिया गया । मुआवजा भी मिला, मगर वह ऊंट के मुंह में जीरा रहा । कुल मिलाकर गैस त्रासदी का प्रभाव आज भी घाव और अभाव ही है ।
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