भूकंप का रहस्य और विज्ञान
ज्ञानेन्द्र रावत
गौरतलब है कि विश्व की आधारभूत परमसत्ता के दो नाम भारतीय परंपरा में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं - विज्ञान और ब्रह्म । प्रथम से स्वरूप स्पष्ट होता है एवं दूसरे से कार्यरूप विश्व का । भारतीय दर्शन में ब्रह्म किसी हाथ-पांव, नेत्र वाली आकृतिका नाम नहीं, वह विज्ञान को ब्रह्म स्वीकार करता है ।
वर्तमान में प्लेट टेक्टॉनिक सिद्धांत के बहाने भूकंप का अनुमान एवं फिर आपदा प्रबंधन की बात मृग मरीचिका मात्र है । जबकि सर्वत्र इसी की चर्चा है क्योंकि अल्फ्रेड वेगनर की कांटिनेंटल डिफ्रंट थ्योरी से अभिप्रेरित प्लेट टेक्टॉनिक थ्योरी भूकंप के रहस्य को उजागर करने में पूर्णत: असमर्थ है । यह भारत का दुर्भाग्य है कि हम प्लेट टेक्टानिक थ्योरी के माध्यम से आने वाली पीढ़ी को आपदा प्रबंधन को गुर सिखाना चाहते हैं और प्राचीन ऋषि प्रज्ञा की अवहेलना कर बच्चें को यह पढ़ाने से कतई बाज नहीं आते कि आइजक न्यूटन द्वारा सेब के वृक्ष से सेब गिरते देखकर पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत की खोज हुई । नतीजन ब्रह्मांड के महान रहस्य को उजागर करने वाले के रूप में उसकी पूजा होनी लगी ।
हमने उस तथ्य को क्रूरता से मिटा दिया या भुला दिया जिस पर भारतीयों को गर्व होना चाहिए था कि ब्रह्मंड के महान रहस्य गुरूत्वाकर्षण की खोज सबसे पहले कम से कम पांच हजार साल पहले भारतीयों ने की थी ।
हम भीष्म पितामह एवं युधिष्ठिर संवाद में प्रयुक्त महाभारत के शान्तिपर्व अध्याय २६१ में भीष्म द्वारा गुरूत्व एवं गुरूत्वाकर्षण के संदर्भ में युधिष्ठिर को पाठ पढ़ाये जाने वाले उस संदर्भ को भूल गये जब भीष्म पृथ्वी के गुणों को युधिष्ठिर को समझाते है :- भूमै: स्वैथ्ज्ञं गुरूत्वं च काठिन्यं प्रसवात्मता, गन्धो भारश्च शक्तिश्च संघात: स्थापना धूति:... वाह ! विडम्बना देखिये कि अल्बर्ट आइंस्टीन से ही भारतीयों ने जाना कि पिण्ड का रूपांतरण ऊर्जा में और ऊर्जा को रूपातंरण पिण्ड में होता है । इस ब्रह्मंाड के ज्ञात और अज्ञात प्राणियों में इसका श्रेय भी सिर्फ भारतीयों को मिलना चाहिए । आज भी ब्रह्मांड के किसी भू-भाग पर प्राणी मृत्यु के बाद मनुष्य के रूपी मृत पिण्ड को ऊर्जा के स्त्रोतों द्वारा ऊर्जा में परिवर्तित करने का सिद्धांत सिर्फ भारत में है । मृत शरीर अग्नि में रूपान्तरित कर बहत अल्प बचे शेष को पंचमहाभूतों में जल में प्रवाहित करने की परम्परा सिर्फ भारतीयों में ही है ।
थ्योरटिकल फिजिस्क एवं नोबल पुरस्कार से सम्मानित मेसेच्युसेटस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी के वैज्ञानिक फ्रैंक विल्जेक ने अपनी खोजों द्वारा सिद्ध किया है कि ९५ प्रतिशत पिण्ड द्रव्यमान जो हमें ज्ञात है, ऊर्जा का रूपान्तरण है । यह भारतीयों को हजारों साल पहले से मालूम था । इसलिए दुनिया में अकेले भारतीय मृत्यु के बाद मृत पिंड को ऊर्जा में रूपांतरित करने की परम्परा एवं शेष जल में प्रवाहित करने पर आज भी अडिग है ।
गौरतलब है कि विश्व की आधारभूत परमसत्ता के दो नाम भारतीय परम्परा में सर्वत्र प्रसिद्ध है - विज्ञान और ब्रह्म । प्रथम से स्वरूप स्पष्ट होता है एवं दूसरे से कार्यरूप विश्व का । भारतीय दर्शन में ब्रह्म किसी हाथ - पांव, नेत्रवाली महती आकृति का नाम नहीं, वह विज्ञान को ही ब्रह्म स्वीकार करता है, उसक ही उपासना और साधना करता है । अत: विज्ञान ही उस मूल पदार्थ का स्वरूप लक्षण है, जो सम्पूर्ण रूप में अपने विश्वरूप लक्ष्य पदार्थ में व्याप्त् है । कारण कार्य की लक्ष्यभूता अवस्थाआें में व्याप्त् होती है, इसलिए विज्ञान विश्व का कारणभूत स्वरूप लक्षण है चाहे कालपुरूष हो या इतिहासपुरूष । विज्ञानघन महासत्ता से वह प्रकट होता है, उसमें ही उसकी कालयात्रा सम्पन्न होती है ।
ब्रह्म उसी का सनातन कार्यरूप तटस्थ लक्षण विधानघन महासत्ता का ही परिणाम व विकास है । विश्व की परमसत्ता का ही परिणाम व विकास है, विश्व की परमसत्ता के संदर्भ में- विज्ञानं ब्रह्ममेति व्याजानात् श्रूति का यही वैज्ञानिक तात्पर्य है - यह बृंह्ाधर्मी निरतिशय वृहण् विस्तारोन्मुख परमतत्व ही ब्रह्म है, और इसकी निरतिशय बृह्ाधर्मिता या प्रसारणधर्मिता ही उसका विज्ञान व वैज्ञानिक स्वरूप । इस प्रसारणधर्मिता के विज्ञान से ही विश्व के कारणभूत भूतसमुदाय की सुष्टि होती है, विज्ञान में ही उनके अस्तित्व का नियमन होता है, और अन्त में उसमें ही उनका विलय हो जाता है । दुर्भाग्य से भारत में विज्ञान को धर्म एवं अध्यात्मक का विरोधी तत्व ठहराया जाने लगा । जबकि इतिहास गवाह है कि मिथिलांचल एवं बनारस के ज्योतिषाचार्य सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण की पूर्व सूचना एवं उसका बिल्कुल सही समय-काल अपने पंचाग के माध्यम से कम से कम एक वर्ष पहले प्रकाशित किया करते थे, लेकिन वे कभी न तो इसरो और न ही नासा से कोई डाटा प्राप्त् करते थे । वे आखिर बिना विज्ञान के कैसे सही तथ्य पेश करते ? यह सत्य है कि ऋषि परम्परा के समक्ष विश्व की विज्ञानघन महासत्ता का कोई भी तत्व अलक्षित नहीं था । उसने महाकाल की सीमा को लाघंकर सृष्टि के परम वैज्ञानिक रहस्योंको जाना है ।
वर्षो पहले वराहमिहिर ने सूर्यग्रहण और सोलर तूफान से जुड़े स्पॉट का अध्ययन भूकंप की दृष्टि से किया था । सूर्य ग्रहण को उन्होनें भूकंप के कारणों से माना था । बाद में अमरीकी अंतरिक्ष विज्ञान केन्द्र कार्यक्रम नासा ने २०० से ज्यादा भूकंपों पर किये अनुसंधान के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि सूर्यग्रहण भूकम्प के महत्वपूर्ण कारणों में है । इस तथ्य को आज तक नकारा नहीं जा सका है। भारतीयों के लिए यह गर्व की बात है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें