निरन्तर बढ़ रही है ग्लोबल वार्मिंग गैसें
ग्लोबल वार्मिंग के लिए उतरदायी गैसों के उत्सर्जन में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हो रही है । संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) के जलवायु विशेषज्ञ वैज्ञानिकों ने बताया कि एंडीज, अलास्का और द. पैसेफिक में स्थित मौसम केन्द्रों (वेदर स्टेशन) से जमा डाटा से साफ है कि यह बढ़ोतरी रिकॉर्ड लेवल से हो रही है । विश्व मौसम विज्ञान केन्द्र (डब्ल्यूएमओ) के अनुसार हवा में मौजूद हीट ट्रैपिंग कार्बन डाइऑक्साइड के कण १७५० के बाद अभी सबसे ज्यादा ३९ प्रतिशत की मात्रा में मौजूद है ।
ग्लोबल वार्मिंग के दूरगामी प्रभावों को अंदाज कर यूएन (संयुक्त राष्ट्र संघ) अपने सदस्य देशों के सहयोग से यूएन फ्रेमवर्क कंवेन्शन्स ऑन क्लाइमेट चेज के तत्वाधान में वैशिवक सम्मेलनों के जरिए इसके उपाय ढूंढने की कोशिश में लगी है । हालांकि सम्मेलनों के मुद्दे राजनैतिक फायदे के कारण अमल में कम ही लाए जा रहे है और यह समस्या विश्व समुदाय के लिए अधिक भयावह होता चली जा रही है ।
कार्बन डाइऑक्साइड के बाद मिथेन गैस सबसे ज्यादा जलवायु को नुकसान पहुंचा रही है । कैदल फार्मिग और लैंडफिल साइट्स से निकलने वाली यह गैस १८ प्रतिशत बढ़ी है । लेकिन चौकाने वाली खबर है कि नाइट्रस ऑक्साइड पिछले १० वर्षो में बहुत तेजी से बढ़कर ओजोन परत के क्षरण में सहायक सिद्ध हो रहा है । १०० वर्षो के दौरान इसके प्रभाव को मापने के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि यह इतने ही वर्षो में कार्बन डाई ऑक्साइड के प्रभावों से २९८ गुना ज्यादा घातक है । यह उर्वरक और ट्रॉपिकल मिट्टी और सागरों के तल से निकलता है ।
ओरेजन स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका के वैज्ञानिक एंड्रीयास स्मीट्नर के अनुसार कार्बन डाईऑक्साइड की भूमिका को मौसम वैज्ञानी बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे है। उनके अनुसार वर्तमान में वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग का अध्ययन करने के लिए १५० वर्षो के आंकड़ों का अध्ययन करते है । लेकिन स्मीट्नर ने सबसे नजदीकी (रीसेंट) आईस एज (हिम युग) २१००० वर्ष पूर्व तक, के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाला कि नए मॉडल के अनुसार प्री-इंडस्ट्रियल लेवल से दोगुनी वृद्धि के बावजूद जलवायु में १.७ डिग्री से २.६ डिग्री सेंटीग्रेड तक की वृद्धि ही हुई है ।
भारत ने विकसित देशों से साफ कहा है कि वह कार्बन उत्सर्जन पर किसी तरह की कानूनी बाध्यता नहीं मानेगा । डरबन में चल रहे जलवायु सम्मेलन में उसने इस आरोप का भी खंडन किया कि वह वार्ता को बिगाड़ने की कोशिश कर रहा है । वार्षिक सम्मेलन के पहले सप्तह में भारतीय पक्ष ने सभी देशों को स्पष्ट संदेश दिया । उसके मुताबिक जलवायु परिवर्तन के मसले पर भारत की नीतियां स्पष्ट, अनुकूल और सहानुभूति भरी हैं । चीन दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के साथ भारत इस मुद्दे पर क्योटो प्रोटोकॉल को लागू करने पर जोर दे रहा है । इसके तहत कार्बन उत्सर्जन करने की जिम्मेदारी सबसे पहले विकसित और अमीर देशों को उठानी है ।
दूसरी तरफ विकसित देश इस मसले पर विकासशील देशों को अंतरराष्ट्रीय कानून के जरिए बांधने की कोशिश कर रहे हैं । इसके विरोध में भारत ने २८ नवम्बर २००९ को ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन के साथ मिलकर गठजोड़ बनाया था । भारत की इस कोशिशों की वजह से अंतराष्ट्रीय समुदाय ने उसे जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर बातचीत को बिगाड़ने वाला करार दिया है ।
हर मिनट ९ हेक्टेयर जंगल हो रहे खत्म
दुनिया भर में वर्ष १९९० से २००५ के हर मिनट नौ हेक्टेयर जंगलों का सफाया किया गया है । वनों के खात्मे पर यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र ने जारी की है । दूसरे शब्दों में हर साल औसतन ४९ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैलेवनों की कटाई की गई । पूरी धरती पर अब तीन फीसदी वन क्षेत्र ही बचा है, जो अपने आप में एक खतरे की घंटी है ।
वनों की तबाई और इसके चलते वन्य जीवों के विलुप्त् होने के यह आंकड़े बहुत भी भयानक हैं । जबकि धरती पर्यावरण के असंतुलन की मार पहले ही झेल रही है । इसके चलते वायु प्रदूषण भी अपने चरम पर है । खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों के अनुसार वनों की यह कटाई इंसानों के आमतौर पर किये जाने वाले विकास कार्यो के नाम पर की है । इसके चलते १५ सालों (१९९० से २००५) में पूरी दुनिया में ७ करोड़ २९ लाख हेक्टेयर में फैली वन संपदा पूरी तरह से खत्म हो चुकी है ।
यानी पिछले १५ सालों में शहर बसाने और विकास के नाम पर हर मिनट ९.३ हेक्टेयर वन उजाड़ दिए गए । नए तथ्यों से यह भी पता चलता है कि वर्ष १९९० से २००० के बीच वनों की कटाई का अनुपात प्रतिवर्ष ४१ लाख हेक्टेयर प्रति वर्ष था जो वर्ष २००० से २००५ के बीच बढ़कर ६४ लाख हेक्टेयर हो गया । हालांकि इस सर्वे में यह भी कहा गया है कि वर्ष १९९० से २००५ के बीच वनों की कटाई उतनी भी नहीं हुई जितनी अधिक पहले मानी जा रही थी । चूंकि वन क्षेत्रों में विस्तार भी पहले की अपेक्षा अधिक पाया गया है ।
एफएओ के वन विभाग के सह निदेशक रोजस ब्रियेल्स के अनुसार पहले वनों का क्षरण दो-तिहाई अधिक माना गया था । इसे पहले १०७.४ मिलियन हेक्टेयर बताया गया था । तब विश्व में वनों की कटाई प्रति वर्ष एक करोड़ ४५ लाख हेक्टेयर मानी गई थी । कटिबंधीय इलाकों में ही अधिक वन काटे गए है । इसमें ज्यादातर वनों को काटकर वहां खेत बना दिए गए है ।
क्या इतिहास बन जाएगा समय ?
दुनियाभर के वैज्ञानिकों का मानना है कि अब अंतरराष्ट्रीय समय के लिए १२० साल पुराने अंतरराष्ट्रीय मानक समय यानी ग्रीनविच मीन टाइम (जीएमटी) को आधार नहीं मानना चाहिए । इसकी जगह परमाणु घड़ी का प्रयोग कना चाहिए ।
पिछले महीने की शुरूआत में लंदन में दुनियाभर में करीब ५० वैज्ञानिकों ने नए समय सीमा को लेकर गहन मंथन किया । इसमें सुझाव दिया कि अब दुनियाभर में चल रहे मानक समय जीएमटी को आधार न मानकर परमाणु घड़ी को मानना चाहिए । इसके लिए जेनेवा में इंटरनेशनल कम्पयुनिकेशन यूनियन की एक मीटिंग अगले वर्ष जनवरी में होगी । इसमें वोट डालकर इस बात का समर्थन किया जाएगा कि क्या अब ब्रिटिश प्रणाली जीएमटी को इतिहास बनाकर परमाणु समय को अपनाया जाए ।
परमाणु समय परमाणु घड़ी से मापा जाता है । परमाणु घड़ी एक साधारण घड़ी की तरह होती है । यह परमाणु भौतिकी के सिद्धांतों पर काम करती है । इसका उपयोग ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) के साथ इंटरनेशनल में भी किया जाता है । रेडियो ट्रांसमीटर में भी यह फायदेमंद है, क्योंकि इसकी आवृति सटीक होती है । रेडियो खगोलविज्ञान में भी समय के निर्धारण के लिए अब इस घड़ी का प्रयोग होने लगा है ।
वैज्ञानिकों का मानना है कि दुनियाभर में सटीक समय का निर्धारण पृथ्वी के घूर्णन से करना सही नहीं है । परमाणु घड़ी की मदद से पूरी दुनिया में सही समय का निर्धारण किया जा सकता है । जीएमटी में ऐसी कई खामियां है जिन्हें अब दूर करने का समय आ गया है । वैज्ञानिकों को इस बात की जानकारी काफी पहले ही मिल गई थी कि अपनी धूरी पर घूमती पृथ्वी की चाल उतनी नियमति नहीं है, जितनी समझी जाती है । इसलिए इसके घूर्णन के आधार पर तय की गई समय की व्यवस्था में सुधार की जरूरत महसूस की गई ।
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