वेटा है दुनिया का सबसे भारी कीट
न्यूजीलैंड के लिटिल बेरियर आइसलैंड में दुनिया का सबसे भारी कीट पाया गया है । इसका नाम है वेटा । ७१ ग्राम की मादा लिंग की इस कीट का वजन साधारण चूहे से तीन गुना ज्यादा है । हैरत की बात तो यह है कि यह कीट गाजर को बहुत ही आसानी से चट कर जाती है । अमेरिका के प्रकृति प्रेमी मार्क मोफेट ने इस कीट की खोज की है । इसका नाम वेटा इसके वजन के आधार पर रखा गया है ।
जब वेटा को मोफेट ने खाने के लिए गाजर दी, तो वह आसानी से खाने लगी । लेकिन ऐसा नहीं है कि वह शाकाहारी हो । इस प्रजाती के कीट पेड़ों की पत्तियों, फलों और अन्य छोटे-छोटे कीटों को अपना भोजना बनाते है ।
मॉफेट ने बताया कि लिटिल बेरियर आइसलैंड में मिला वेटा इस प्रजाति का यह अकेला कीट नही है । पूरे न्यूजीलैंण्ड में इस कीट की ७० प्रजातियां पाई जाती है । हो सकता है कि उनमें कुछ इनसे भिन्न हो । माफेट के अनुसार उन्हें वेटा को तलाश करने में दो दिन का समय लगा ।
चावल है भारत की देन
आज संपूर्ण विश्व में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भोजन चावल ही है । प्रकृति और पारंपरिक किसानों ने करोड़ों वर्षो से आपसी सामजस्य से चावल की लाखों किस्में विकसित की हैं, लेकिन पश्चिमी बीज कंपनियां अब जी.एम. तकनीक के माध्यम से इस नैसर्गिक उत्पाद को नष्ट कर देना चाहते है ।
नviinatam खोज से पता चल रहा है कि पृथ्वी पर चावल का उद्गम आज से करीब ३.५ करोड़ वर्ष पूर्व भारत में हुआ था । महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के एक गांव में पाए गए अवशेषों से यह तथ्य उभरकर आया है । आज संपूर्ण विश्व में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भोजन चावल ही है, प्रकृतिऔर पारंपरिक किसानों ने करोड़ों वर्षो से आपसी सामंजस्य से चावल की लाखों किस्में विकसित की हैं, लेकिन पश्चिमी बीज कंपनियां अब जी.एम. तकनीक के माध्यम से इस नैसर्गिक उत्पाद को नष्ट कर देना चाहते हैं ।
चावल के उद्भव को लेकर चल रहे विवाद ने हाल ही में नया मोड़ ले लिया है । महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के पिस्टुरा नाम गांव में एक पौधे के विश्लेषण के दौरान मिले डायनासोर के गोबर से पता चलता है कि डायनासोर मानवों से बहुत पहले से रेशेदार खाद्यान्न (मुख्य भोजन) का स्वाद ले रहे थे, इस खोज ने चावल की खोज को ३.५ करोड़ वर्ष पीछे तक धकेल कर संभावना जागृत कर दी कि यह भारत में ही विकसित हुआ है । अब यह तक यह माना जा रहा था कि चावल का उद्भव करीब ३ करोड़ वर्ष पूर्व चीन में हुआ था ।
आर.टी.एम. नागपुर विश्व विद्यालय में जीवाश्मा विशेषज्ञ वंदना सामंत जो कि इस दस्तावेज की सह लेखक भी हैं, का कहना है, नए प्रमाण दर्शाते हैं कि घास परिवार पोएसी जिससे कि चावल की प्रजाति ओरिजा का उद्गम हुआ है, जितना सोचा गया था उससे भी पहले से धरती पर विद्यमान है और यह खटी युग (क्रोटेशियस - इंसा से १२ करोड़ ५० लाख वर्ष पूर्व) में भी मौजू थी जिस दौरान डायनासोर काफी संख्या में बढ़ रहे थे, उनका कहना है कि इससे आवृत बीजी वनस्पतियों के उद्गम का काल भी जुरासिक युग के बजाए रक्ताश्म युग (ट्राएसिक, ईसा से १९ करोड़ ५० लाख वर्ष पूर्व) होना माना जा सकता है ।
इस अध्ययन के लिये शोध समूह ने पौधों में जमा सिलिका हेतु गोबर या विष्ठा के नमूनों का विश्लेषण किया गया सामंत का कहना है सिलिका जमाव के प्रयोग से जीन की पहचान संभव है । इसमें चावल की प्रजाति के अवशेष पाए गए है । यह अध्ययन २० सितम्बर के नेचर कम्यूनिकेशंस मेंप्रकाशित हुआ है ।
मंगल पर दिखाई दिए जगह बदलते टीले
वैज्ञानिकों ने पहली बार मंगल ग्रह पर अपनी जगह बदलते बालू के टीलों पर तरंगो का पता लगाया है जिसका सीधा से अर्थ है कि इस लाल ग्रह की रेतीली सतह पर तेज हवाएं हमारी पहले की कल्पना से भी कहीं तेज बहती हैं ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि नासा के अंतरिक्ष यान मार्स रिक नेसांस आर्बिटर से मिली तस्वीरों से पता चलता है कि मंगल ग्रह की सतह पर बालू के टीले हवाआें के बहने से अपनी जगह बदलते रहते हैं और कई बार तो एक ही बार में कई गज तक आगे बढ़ जाते है ।
अमेरिका के जॉन हापकिंस विश्वविद्यालय की व्यावहारिक भौतिकी प्रयोगशाला के खगोल विज्ञानी ओर प्रमुख शोधकर्ता नाथ ब्रिजेज ने कहा कि मंगल ग्रह पर या तो हमारी पहले की कल्पना से अधिक तेज हवाएं चलती हैं या हो सकता है कि इन हवाआें के कारण अधिक मात्रा में बालू अपनी जगह बदलती है । स्पेसडॉटकॉम ने ब्रिजेज के हवाले से कहा कि हमारा मानना था कि मंगल ग्रह पर बालू तुलनात्मक तौर पर स्थिर होती है लेकि इन नए प्रेक्षणों ने हमारी सोच को पूरी तरह बदल डाला है । वैज्ञानिकों को लंबे समय से यह जानकारी है कि ग्रह के बालू के टिब्बे और बालू की तरंगें या तो स्थिर है या वे इतनी धीमी रफ्तार से बढते है कि इसे देख पाना मुश्किल है ।
वैज्ञानिकों के अनुसार मंगल ग्रह पर पाए जाने वाले स्याह बालू के कणें को पृथ्वी के रेगिस्तानों की तुलना में आगे बढ़ पाने में दिक्कत होती है क्योंकि वे बड़े होते है और पृथ्वी की तुलना में मंगल ग्रह का वातावरण हल्का है । वैज्ञानिकों ने परीक्षणों के आधार पर कहा है कि मंगल ग्रह पर बालू के ढेर को आगे बढ़ाने के लिए १३० किलोमीटर की रफ्तार से हवाआें का चलना जरूरी है जबकि पृथ्वी पर १६ किलोमीटर प्रति घंटा से बहने वाली हवाआें से ही ऐसा किया जा सकता है ।
केंचुए आपदाआें से बचाएंगे
वैज्ञानिकों के एक दल ने शोध में निष्कर्ष निकाला है कि प्राकृतिक आपदाआें को रोकने में कें चुए काफी हद तक सहायक साबित होते है।
ब्रिटिश शोधकर्ताआें के एक दल ने महत्वपूर्ण शोध के जरिए इस बात का पता लगाया है । शोधकर्ताआें के मुताबिक केंचुए बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाआें से निपटने में बहुत सहायक होते है । शोधकर्ता के मुताबिक एक केंचुआ दिन भर में अपने वजन की एक तिहाई मिट्टी खोदता है । एक सामान्य केंचुए का वजन आधे आैंस से भी कम होता है । इस प्रक्रिया में मिट्टी की उर्वरकता तो बढ़ती ही है, साथ ही मिट्टी मेंपानी सोखने की क्षमता भी बढ़ती है । शोधकर्ता की मानें तो अगर मिट्टी खोदने की इस प्रक्रिया में लाखों संख्या में केंचुए हो तो बाढ़ के समय धरती ज्यादा पानी सोख पाएगी । इसके अलावा किसान इसका फायदा उठाकर अपनी फसल को तबाह होने से बचा सकते है ।
यह एक कृमि है, जो लंबा, वर्तुलाकार, ताम्रवर्ण का होता है और बरसात के दिनों में गीली मिट्टी पर रेंगता नजर आता है । केंचुआ एनेलिडा संघ का सदस्य है । एनेलिडा विखंड खंडयुक्त द्विपार्श्व सममितिवाले प्राणी है। इनके शरीर के खंडों पर आदर्शभूत रूप से काइटिन के बने छोटे छोटे सुई जैसे अंग होते है । इन्हें सीटा कहते है । सीटा चमड़े के अंदर थैलियों में पाए जाते है और ये ही थैलियां सीटा का निर्माण भी करती है । ***
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