भारतीय पत्रकारिता दिवस पर
पर्यावरण और मुख्यधारा मीडिया
आशीष कुमार
दुनिया में पर्यावरण का महत्व जितनी तेजी से बढ़ रहा है, मीडिया में पर्यावरण का कवरेज उतनी ही तेजी से कम क्यों हो रहा है ? केवल प्राकृतिक आपदाआें के समय ही मीडिया में हो-हल्ला क्यों मचता है ? सामान्य दिनों में पर्यावरण के मुद्दे क्यों अहम नहीं होते हैं ? पर्यावरण के प्रति मीडिया की उदासीनता को लेकर अब यह सारे सवाले उसके अंदर और बाहर दोनों ही जगहों से उठ रहे है ।
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय मीडिया में पर्यावरण की खबरों को राजनीति, अपराध, खेल व व्यवसाय की खबरों के मुकाबले कम तरजीह दी जाती है । पर्यावरण की खबरों को कुल खबरों के अनुपात में आधी फीसदी से भी कम हिस्सेदारी मिल पाती है । इस मामले में दुनिया के बाकी हिस्सों की तस्वीर भी कोई अलग नहीं ।
एक अध्ययन के अनुसार अमेरिकी टीवी चैनलों पर पर्यावरण के मुद्दे लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं । वहां २०१० में पर्यावरण की खबरों की हिस्सेदारी करीब २ फीसदी थी, जो २०११ में घटकर महज एक फीसदी रह गई । इस अध्ययन में सबसे ज्यादा चौकाने वाला पहलु यह था कि ८५ फीसदी अमेरिकी लोग टीवी या अखबारों में पर्यावरण पर मौजूदा कवरेज के मुकाबले अधिक व गंभीर कवरेज चाहते थे ।
आमतौर पर मुख्यधारा मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सामान्य दिनों में पर्यावरण को लेकर हल्का-फुल्का नजरिया ही पेश करता है । पर्यावरण पत्रकारिता के नाम पर टीवी में केवल स्पॉट रिर्पाटिंग ही देखने को मिलती है । सुनामी, भूकंप, प्राकृतिक आपदाएं ही उन्हें कवरेज के लिए मजबूर कर पाती है । उनके लिए केवल गाउंड जीरों से रिर्पोटिग का ही महत्व है, जिसमें सनसनी हो । इन प्राकृतिक आपदांए की खबरों को भी तथ्यों और गंभीरता के बजाए डरावने अंदाज में पेश किया जाता है । खबरों को देखकर लगने लगता है कि दुनिया आज खत्म हुई या कल खत्म हुई । केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा की कवरेज के दौरान भी यही पैटर्न देखने को मिला था ।
अधिकांश मीडिया चैनलों का केदारघाटी आपदा की स्पॉट रिर्पोटिग करते हुए हादसे व हादसे में हताहत हुए लोगों पर ज्यादा फोकस रहा । मीडिया ने हादसे के कारणों के पीछे के कारकों की जांच पड़ताल करने की ज्यादा जिम्मेदारी नहीं उठाई । प्राकृतिक आपदा के तुरन्द बाद की कवरेज को भीषण दुर्घटना के नजरिए से सही ठहराया जा सकता है, लेकिन असली मुद्दा आपदा के बाद पर्यावरण के नजरिए से इंवेस्टीगेटिव रिपोर्टिग का दिखाई नहीं देना है । राष्ट्रीय मुख्यधारा मीडिया में कहीं भी दिखाई नहीं दिया कि इसके पीछे बड़े बांध, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा किया जा रहा अंधाधुंध खनन, व्यावसायिक उद्देश्यों से नदियों की तलहटी में बनाए जा रहे होटल, अव्यवस्थित धार्मिक पर्यटना भी जिम्मेदार हो सकते हैं ?
पर्यावरण की रिपोर्टिग विज्ञान की रिपोर्टिग से अलग होती है । जब पर्यावरण के मसले पर बात होती है तो इसके साथ आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक पहलु भी जुड़े होते हैं, लिहाजा पर्यावरण पर बात करते समय मीडिया के पास एक बड़ा दायरा होता है । बतौर उदाहरण, यदि कहीं बड़े बांधों का निर्माण किया जा रहा है तो इसमें पर्यावरण के मुद्दे के साथ बांध के निर्माण से जुड़ी कंपनियां, योजना को अनुमति देने वाला सरकारी व राजनीतिक महकमा, योजना के कारण विस्थापन को मजबूर स्थानीय निवासियों के भी हित व अहित जुड़े - जुड़े होते हैं । इन हालतों में मीडिया के लिए समस्या वहां आती है, जब उपरोक्त हित व अहितों के साथ मीडिया के भी हित-अहित भी जुड़े होते हैं या फिर उन हित-अहितों को मीडिया के जरिए साधने की कोशिश की जाती हैं ।
भारतीय परिदृश्य में यह भी देखने को मिलता है कि एक कॉरपोरेट घराना जो बांध बनाने, होटल, खनन या सड़क निर्माण से जुड़ा हुआ है, उसका मीडिया में भी पैसा लगा हुआ है । भारत के तमाम कॉरपोरेट घरानों के या तो समाचार चैनल चल रहे हैं या समाचार चैनलों में हिस्सेदारी है । ऐसे में इन समाचार चैनलों या अखबारों से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि ये पर्यावरण के मसले पर गंभीर नजरिया अपनाएंगे । मीडिया का कोरपोरेट मालिकाना ढांचा इसे पर्यावरण के प्रति इसे बेबाक होकर बोलने से रोकता है ।
पर्यावरण पत्रकारिता के प्रति उदासीन रवैए के पीछे मीडिया का रेवन्यू मॉडल भी कम जिम्मेदार नहीं है । पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे बड़े प्रोजक्टों को चलाने वाली कंपनियों से तमाम मीडिया संस्थानों को सालाना करोड़ों रूपये विज्ञापन के रूप में मिलते हैं । यदि कोई मीडिया संस्थान पर्यावरण के प्रति सहानुभूति रखते हुए कोई खबर चलाने की भी हिम्मत करेगा तो उसको विज्ञापनों के रूप में दी जाने वाली रकम तुरन्त बंद कर दी जाएगी । साथ ही, अन्य मीडिया संस्थान को वही रकम देकर चलाए जा रहे प्रोजेक्ट को विकास के मसीहा के रूप में प्रचारित करवाया जाएगा ।
इसी रणनीति के तहत केदारनाथ की आपदा के दौरान व बाद में टिहरी बांध को बाढ़ से बड़े रक्षक के तौर पर दिखाने की कोशिश की गई थी । कई समाचार चैनलों पर विशेष पैकेज चलाए गए, जिसमें बताने की कोशिश की जा रही थी कि यदि टिहरी बांध न होता तो ऋषिकेश-हरिद्वार से नीचे का सैकड़ों किलोमीटर का मैदानी क्षेत्र बाढ़ के कारण तबाह हो गया होता । टिहरी बांध ने ही केदारघाटी के सैलाब को रोका ।
इस दौरान अखबारों में भी टिहरी प्रोजेक्ट के विज्ञापनों की भी अच्छी खासी संख्या देखी गई । मीडिया व्यवसाय व्यवहार की थोड़ी भी समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति केदारघाटी आपदा के दौरान टिहरी प्रोजेक्ट की महता को बताने वाले टीवी कार्यक्रमों व विज्ञापनों की मंशा को आसानी से समझ सकता है । ऐसे गठजोड़ में मुख्यधारा मीडिया भी संतुलित चुप्पी में ही अपनी सहज भलाई समझता है ।
यही कारण है कि मुख्यधारा मीडिया से ज्यादा वैकल्पिक पत्रिकाआें, ब्लॉग, वेबसाइट व गैर सरकारी संगठनों के पर्चो में पर्यावरण की चर्चा अधिक दिखाई देती है । इन व्यक्गित स्तंभों के सामने मुख्यधारा मीडिया की तरह कोई समझौता करने की मजबूरियां नहीं होती हैं । इसका उन्हें श्रेय दिया जाना चाहिए, जिसकी बदौलत ही पर्यावरण का मसला आम लोगों में एक विचारधारा के रूप में दाखिल हुआ है ।
विविधताआें से भरे भारत देश के प्रत्येक हिस्से के लिए विकास का समान मॉडल लागू नहीं किया जा सकता है । पहाड़ी, रेगिस्तानी, मैदानी, समुद्रतटीय इलाकों की जरूरतें, प्राकृतिक ढाचा व सांस्कृतिक बनावट-बुनावटे अलग है । हिमालय, जम्मूकश्मीर, पूर्वोत्तर की संरचना शेष भारत से जुदा है । पर्यावरण के लिहाज से हिमालय के लिए ग्लेशियर का मुद्दा अहम है तो उत्तराखंड के लिए चीड के पेड़ों का अनियंत्रित विस्तार । पूर्वोत्तर के लिए डिफोरेसटेशन का मुद्दा मायने रखता है तो उड़ीसा, झारखंड व छत्तीगढ़ में खनन का । इन सभी मसलों पर पर्यावरण से संबंधित असरदार कवरेज तभी संभव है जब संपादक से लेकर रिपोर्टर तक इसमें रूचि दिखाएं । जब पर्यावरण में हो रही हलचल संपादकों के दिलों में भी टीस पैदा करें ।
मुख्यधारा मीडिया में खबरों के मामले में निर्णय लेने वाले पदों में पर्यावरण से संबंधित कोई पद नहीं है, अपवाद के तौर पर विज्ञान संपादक का पद तो मिल भी सकता है, लेकिन पर्यावरण संपादक जैसा कोई पद नहीं हैं । पर्यावरण की इनवेसिटगेटिव रिपोटिग के लिए समय की जरूरत होती है । ऐसे में संपादकीय विभाग द्वारा सामान्यत: किसी पत्रकार को इतनी छूट नहीं दी जाती है कि वह पूरा समय लेकर मामले की तह तक जा सके । इसलिए पर्यावरण की रिपोर्टिग केवल स्पॉट रिपोर्टिग तक ही सिमट कर रह जाती है । साथ ही संपादकीय विभागों में मानसिक स्तर पर यह आम राय होती है कि सामान्य दिनों में पर्यावरण की खबरें क्राइम व पॉलिटिकल खबरों की तरह पाठकों व दर्शकों को अपील नहीं कर पाती हैं ।
मुख्यधारा मीडिया में पर्यावरण पत्रकारिता के लिए विशेषज्ञों की कमी है । पर्यावरण पत्रकारिता को पूरी तरह से समर्पित पत्रकार गिने-चुने ही हैं । सामान्यत: किसी भी मीडिया हाउस में विज्ञान या पर्यावरण के मुद्दों पर अपने पत्रकारों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था भी नहीं है ।
मीडिया के स्थानीय होने का ट्रेड भी समस्या की प्रमुख वजह है, जिसके कारण पर्यावरण के गंभीर मसले भी केवल स्थानीय संस्करणों में ही छपकर रह जाते हैं, राष्ट्रीय फलक पर बहस का केन्द्र नहीं बन पाते हैं ।
मीडिया संस्थानों के क्षेत्रीय कार्यालयों में पर्यावरण विशेषज्ञ रिपोर्टरों की कमी के कारण पर्यावरण के मुद्दों को ऐसे पेश किया जाता है जिससे वह विकास में बाधक नजर आने लगते हैं । स्थानीय पत्रकार अधिकांश मामलों में पर्यावरण और विकास के साथ जुड़ी हुई गहरी राजनीति को उजागर नहीं कर पाते हैं ।
हालांकि, इन तमाम पहलुआें के बावजूद भी यही कहा जाएगा कि मीडिया का दायरा बढ़ने के साथ लोगों में पर्यावरण की प्रति जागरूकता बढ़ी है । इसकी वजह से ही पर्यावरण का विषय अभिजात्य वर्ग से निकलकर आम लोगों तक पहुंचा पाया है । मीडिया की सक्रियता के कारण ही भारत के समुद्री तटों पर आए फेलिन व हुदहुद जैसे तूफानों से होने वाली संभावित भारी जान-माल की हानि से बचा जा सका है । लेकिन, इस सबके बावजूद पर्यावरण के प्रति मीडिया की वर्तमान भूमिका से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है ।
मीडिया के द्वारा पर्यावरण के मुद्दे को निरन्तरता में देखे जाने की जरूरत है, जिससे विकास और पर्यावरण के आपसी संबंधों की नए सिरे से पड़ताल हो सके । बांध, पानी, नदी व समाज को लेकर एक बड़े फलक पर बात करने की आवश्यकता है । मीडिया के लिए कॉरपोरेट व सत्ता के सवाल ज्यादा अहमियत रखते है या पर्यावरण के यह मीडिया को ही तय करना है ।
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