गुरुवार, 9 जुलाई 2009

११ वातावरण

तेज़ाबी बारिश के आसार
- नरेन्द्र देवांगन
आज जो बरसात हमें आनंदित करती है, वही निकट भविष्य में एक खतरनाक संकट बन कर बरस सकती है । वैज्ञानिक अध्ययन से पता लगा है कि भारत के आकाश से बरसने वाले स्वच्छ जल के बजाए तेज़ाबी बारिश के नाम से जगप्रसिद्ध पर्यावरणीय विपदा भारतवासियों को भी झेलनी पड़ सकती है । नईदिल्ली स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) के वायुमंडल विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन द्वारा बताया है कि भारत के कई हिस्सों में वर्षा जल की रासायनिक प्रवृत्ति धीरे- धीरे अम्लीयता की ओर बढ़ रही है । इस रिपोर्ट मेंे बताया गया है कि राजधानी दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र मध्यप्रदेश , तमिलनाडु और अंडमान द्वीपो में वर्षा जल की अम्लीयता लगातार बढत़ी जा रही है । फिलहाल यहां होने वाली वर्षा को अम्लीय नहंी कहा जा सकता , लेकिन यदि इस संभावित संकट पर रोक कहा जा सकता ,लेकिन यदि इस संभावित संकट पर रोक लगाने के लिए जल्द ही आवश्यक कदम नही उठाए गए तो हमारे देश मे अम्लीय वर्ष को रहकीकत बनने मे ज्ज़्यादा देर नही लगेगी। अम्लीय वर्षा की मुख्य वजह तेज़ी से बढ़ता वायु प्रदूषण है । कोयला और डीज़ल जैसे जीवाश्म इंर्धनों की लगातार बढ़ती खपत के कारण हवा में सल्फर ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड्स गैसों की मात्रा में तेजी से वृद्धि हो रही है । इसके लिए मोटर वाहनों के अलावा ताप बिजलीघर और इस्पात उद्योग को सबसे बड़ा दोषी माना जा रहा है । सूर्य की तीखी किरणें जब धरती पर मौजूद पानी को भप बनाकर आकाश की ओर खींचती है तो हवा में तैरती ये गैसें भाप ें घुल-मिल जाती हैं । इससे भाप में सलफ्यूरिक और नाइट्रिक अम्ल बन जाते हैं । यही अम्लीय भाप जब बादल बनकर बरसती है तो वर्षा की बूंदें तेज़ाब बरसाने लगती है । वर्षा जल में घुले - मिले रासायनिक प्रदूषक धरती की जीवनदायी मिट्टी, वनस्पतियों, ताल-तलैयों, नदियों आदि पर कहर बरसाने लगते हैं । भारत में जैसे - जैसे औद्योगिकरण और विकास की रफ्तार ज़ोर पकड़ती जा रही है, वैसे - वैसे हवा में वायु प्रदूषकों की मात्रा भी बढ़ती जा रही है । एक अनुमान के अनुसार १९९० में हमारा देश ४४०० किलो टन गंधक (सल्फर) हवा में छोड़ता था, जबकि आज इसकी मात्रा बढ़कर ८५०० किलो टन के आसपास है । हिसाब लगाया गया है कि २०२० में यह मात्रा बढ़कर १९५०० किलोटन हो जाएगी । इस गंभीर स्थिति के पीछे डीज़ल के बढ़ते उपयोग के अलावा इसकी खराब क्वालिटी का भी हाथ है । हमारे यहां इस्तेमाल किए जा रहे डीज़ल में सल्फर की मात्रा ०.५ फीसदी (भार के हिसाब से) है । आजकल भारत में कई राज्यों/ शहरों में कम सल्फर वाले डीज़ल की आपूर्ति की जा रही है , फिर भी पश्चिमी देशों की तुलना में भारतीय डीज़ल कहीं अधिक सल्फरयुक्त है । उदाहरण के तौर पर स्वीडन का डीजल भारतीय डीज़ल की तुलना में कोई ढाई सौगुना अधिक स्वच्छ है । कुछ वर्ष पहले यह मामला उठा तो भारतीय उद्योग महासंघ (सीआईआई) के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष का कहना था कि यदि सरकार डीज़ल के उपयोग को इसी तरह बढ़ावा देती रही तो आई.आई.टी. द्वारा व्यक्त की गई संभावना जल्द ही हकीकत बन जाएगी । आई.आई.टी. के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि तेज़ाबी बारिश के कहर से कोई भी जीव बच नहीं सकता । भले ही वह जीवाणु जैसा सूक्ष्मजीव हो या फिर हमारे जैसा समझदार प्राणी । तेज़ाबी बारिश मिट्टी में मौजूद जीवाणुआें को नष्ट करती है, जिससे पौधों की उत्पादकता पर बुरा असर पड़ता है । दरअसल मिट्टी में अम्ल घुलने की वजह से पेड़- पौधे पोटेशियम, कैल्शियम और मैग्निशियम जैसे पोषक तत्वों को भली प्रकार सोख नहीं पाते । इसके अलावा तेजाबी बारिश के कारण हरी पत्तियों की चिकनी मोटी परत नष्ट हो जाती है, जिससे वे धूप में भोजन बनाने का काम (प्रकाश संश्लषण) ठीक से नहंी कर पाती । तेज़ाबी बारिश वाले पानी में एल्यूमिनियम मौजूद हेाता है , जो मछलियों समेत अनेक जलीय जीवों के लिए ज़हर का काम करता है । यही एल्यूमिनियम जब पक्षियों की खुराक में शामिल हो जाता है तो उनमें अंडे बनने की प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है । तेज़ाबी बारिश में मौजूद रसायनों के प्रभाव से मिट्टी से बेहतर खतरनाक पारा (मरकरी) निकलने लगता है, जो अंतत: नदियो, झीलों आदि में इकट्ठा हो जाता है ।जब इन प्रदूषित नदियों - झीलों में पल रही मछलियों को मनुष्य उदरस्थ करता है तो यही पारा देह में इकठ्ठा होकर बेहद खतरनाक प्रभाव डाता है । तेज़ाबी बारिश के कारण उत्पन्न होने वाला केडमियम हमारे गुर्दोंा में कई प्रकार के विकार उत्पन्न करने के अलावा घाव भी पनपा सकता है । इसी तरह एल्युमिनियम की मौजूदगी से हडि्डयों और दिमाग को क्षति पहुंचती सकती है । विशेषज्ञों का विश्वास है कि जैसे - जैसे भारत का आर्थिक विकास ज़ोर पकड़ेगा, वैसे - वैसे कोयले की खपत भी बढ़ती जाएगी । सन् २०२० तक यह तीन गुना हो सकती है । इससे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, बिहार, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के हिस्सों तथा दक्षिण के तटीय क्षेत्रों में तेज़ाबी बारिश के बादल गहरा सकते हैं । इन क्षेत्रों की मिट्टी पहले ही अम्लीयता की ओर कदम बढ़ा चुकी है । ऐसे में यदि तेज़ाबी बारिश भी शुरू हो गई तो यहंा की भूमि बंजर होकर कृषि के लिए बेकार हो जाएगी । वैज्ञानिकों ने ताप बिजलीघरों के आसपास के क्षेत्रों में २६ फसलों की उत्पादकता पर अध्ययन करके बताया है कि हवा में अधिक सल्फर डाइऑक्साइड के कारण इनकी उपज गिर रही है ।उन्होंने फसलों में अनाज के अलावा फलों, सब्जियों को भी शामिल किया था । एक अध्ययन में सिंगरौली, कोराडी, दादरी, भुसावल और सिक्का के बिजलीघरों के दस किलोमीटर के दायरे के भीतर फसलों की औसत उपज में १३-५९ फीसदी गिरावट दर्ज की गई । इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि देश भर में सल्फर डाइ ऑक्साईड की मात्रा बढ़ती है, तो कृषि उत्पादन पर कितना बुरा असर पड़ेगा ? विडंबना यह है कि ऐसी विकट संभावना उस दौर में बन रही है जब हमें बढ़ती आबादी के भरण - पोषण के लिए खाद्यान्न का उत्पादन प्रति वर्ष ४० से ५० लाख टन बढ़ाना है । तेज़ाबी बारिश पर रोक लगाने के उपाय अजमाने के साथ ही यह जरूरी है कि समस्या को समझने के लिए देश को क्षेत्रवार बांटकर वहां तेज़ाबी बारिश की संभावना को दर्शाया जाए । आम जनता और उद्योगों को बताया जाए कि यदि उनके क्षेत्र में तेज़ाबी बारिश होती है तेा कौन - कौन सी विपदाएं टूट सकती हैं ?यह एक जाना - माना तथ्य है कि प्रदूषण पर रोक लगाने से जनता स्वस्थ रहती है , कृषि उत्पादन बढ़ता है और वनस्पतियों की तादाद में वृद्धि होती है । किसी भी देश को खुशहाल बनाने के लिये ये तीनों चीज़ें आवश्यक हैं । यह सच है कि तेज़ाबी बारिश एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समस्या है, परंतु इस पर रोक लगाने का काम राष्ट्रीय स्तर पर ही करना होगा। ***
सबसे छोटा समुदाय लड़ रहा है, अस्तित्व की लड़ाई
विश्व के सबसे छोटे संगठित धार्मिक समुदाय समैरिटन अपनी जनसंख्या के सिमटते जाने के खतरे के मद्देनजर अब अपने अस्तित्व बचाने की हरचंद कोशिश में जुट गया है । और इसके लिए उसे इंटरनेट, जेनेटिक परीक्षण जैसी आधुनिकतम तकनीकोंके इस्तेमाल से कोई परहेज नहीं है । खुद को मूल इजरायली कहने वाले और खाने, यौन एवं विश्राम के खास तरीकों एवं नियमों को बिना किसी बदलाव अब तक चलाने वाले इस समैरिटन समुदाय की जनसंख्या केवल १४५ सदस्यों तक सिमट गई है । इससे इस समुदाय के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया है । सामुदायिक जीवन की इस जद्दोजहद में इस समुदाय ने अब नई तकनीकों और जीवन संगिनी ढूंढने के आधुनिक तरीकों एवं विवाह से पहले आनुवांशिक रोगों की पहचान जैसे तरीकों का प्रयोग शुरू कर दिया है । समैरिटन समुदाय का जिक्र ईसाइयों की पवित्र किताब बाईबिल में मिलता है । फिलहाल ये लोग इजरायल अधिकृत पश्चिम किनारे वाले इलाके के गिरीजिम पर्वत पर बसे आधुनिक गांव किरयातलुजा में रह रहे है । धार्मिक किताबों में इस पर्वत की बहुत मान्यता है । इनकी आबादी का शेष आधा हिस्सा राजधानी तेल अबीब मेंे रह रहा है । इस समुदाय के १२ आनुवंशिक धर्मगुरूआें में से एक हुसीने कोहेन (६५) भर्राई हुई आवाज में बताते हैं कि इतिहास के पन्नों में दर्ज रोमन साम्राज्य के दौर में उनके समुदाय की आबादी एक लाख से अधिक थी लेकिन आज यह विश्व का सबसे छोटा समुदाय भर रह गया है ।

कोई टिप्पणी नहीं: