सूर्य ग्रहण के प्रमुख पड़ाव
- माधव केलकर
२२जुलाई २००९ को एक बार फिर भारत के काफी बड़े हिस्से में पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखाई देगा । विछले तीस वर्षो मंे भारत में पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखने का यह कम- से-कम चौथा मौका है अब भारत में भी सूर्य ग्रहण देखने के लिए लोग दूरदराज़ के इलाको तक पँहुचते हंै । विशेष तरह से चश्मे, कैमरे और टेलिस्कोप से लैस होकर लोग ग्रहण का लुत्फ उठाते हैं,बिलकुल मेले जैसा माहौल होता है । इस दौरान अखबारों, पत्रिकाओं और विविध चेनलों पर सूर्य ग्रहण को काफी तव्वजो दी गई है । काफी पहले से पूर्ण सूर्य की पट्टी दर्शाते हुए नक्शे, ग्रहण लगने का समय, पूर्णता का समय, उन खास जगहों के नाम जहाँ से पूर्ण ग्रहण दिखाई देगा जैसी ढेरों जानकारियाँ हाज़िर कर दी जाती है । आम जनता के लिए पूर्ण सूर्य ग्रहण में मज़ा है, कौतुहल है: वही वैज्ञानिक बिरादरी के लिए सूर्य ग्रहण कई समस्याओं के समाधान तलाशने का ़़ ज़रिया । यह सब इतना सहज -सा दिखता है कि ऐसा लगता है कि सूर्य ्रग्रहण विविध पड़ाव पार करके यहाँ तक पहुँचा होगा । यदि सूर्य ग्रहण के इतिहास पर नज़र डालंे तो समझ में आता है कि १७ वीं सदी तक ग्रहण की तारीख और समय की गणनाआें के बार मेंे कई लोगों ने काफी महारत हासिल कर ली थी और पृथ्वी-सूर्य-चाँद की गतियों से भी वे वाकिफ थे । लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि पिछले तीन सौ सालों में सूर्य ग्रहण को लेकर हमारी सोच में काफी बदलाव आया है । इस दौरान सिर्फ छाया के खेल के रूप में न देखते हुए सूर्य ग्रहण को विज्ञान की अन्य शाखाआें के साथ भी जोड़कर देखा जाने लगा । खगोल विज्ञान जैसे विषयों में वैचारिक क्रान्ति लाने में भी सूर्य ग्रहण ने महती भूमिका निभाई है । आइए, पिछले तीन सौ वर्षो में सूर्य ग्रहण के विविध पड़ावों पर एक नज़र डालते हैं । दक्षिणी इग्ंलैड में १७१५ को दिखाई देने वाला पूर्ण सूर्य ग्रहण विविध पड़ावों में से पहला प्रमुख्स पड़ाव था । इस ग्रहण से पहले सूर्य ग्रहण के नक्शे बनाने या प्रकाशित करने की कोई परम्परा नहीं थी । अपवाद स्वरूप १६२६ में जॉन स्पीड और १७०० में कारेल एलार्ड ने छोटे चित्रों के माध्यम से धरती के ग्लोब पर कुछ महाद्वीप दिखाकर, सूर्य ग्रहण वालें इलाको को चिन्हित करने का प्रयास किया था । इसलिए कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम १७१५ के सूर्य ग्रहण के पहले एडमण्ड हैली (जिन्हे हम प्रमुखत: हैली पुच्छल तारे के सन्दर्भ मेंयाद करते हैं )ने सूर्य ग्रहण का नक्शा जारी किया । इस नक्शे में चाँद की छाया इग्लैंड के किस-किस हिस्से से होकर गुज़रेगी,पूर्ण सूर्य ग्रहण की पट्टी की चौथाई, पट्टी में कितने मिनट चाँद सूर्य को ढाँककर रखेगा जैसी सूचनाँए भी दी गई थीं ।हैली के इस नक्शे में पूर्ण सूर्य ग्रहण की पट्टी (चाँद की मुख्य छाया)तो बनी थी,किन्तु खण्ड ग्रहण दिखने वाली पट्टी (चाँद की उपछाया)या इलाकों को नहीं दिखाया गया था ।लेकिन यह तो बस शुरूआत ही थी । १७१५ का खग्रास सूर्य ग्रहण इंग्लैंड में अधिकतम तीन मिनट दिखाई देने वाला था ।हैली ने ग्रहण के दौरान अपने नक्शे की जाँच की व्यवस्था भी की थी उन्होंने लगभग एक दर्जन स्थानौं पर चाँद की मुख्य छाया की चौ़़डाई का अन्दाज़ लगाने और मुख्य छाया में कितने मिनट चाँद सूर्य को ढाँककर रखता है इसे मालूम करने की कोशिश भी की थी । यह पहला मौका था । जब ग्रहण के बारे में इस तरह के ब्यौरे इकट्ठ किए जा रहे थे ।इस ग्रहण के दौरान इकट्ठ जानकारी से एडमण्ड हैली को समझ में आया कि इंग्लैंड में जहाँ-जहाँ पूर्ण सूर्य ग्रहण की पट्टी की जो चौड़ाई उन्होंने निर्धारित की थी उसमें कुछ किलोमीटर का अन्तर आ रहा था, साथ ही चाँद की मुख्य छाया वाली पट्टी के विविध स्थानों पर पूर्ण ग्रहण दिखाई देने की अवधि का जो पूर्वानुमान उन्होंने लगाया था,उसमें भी सुधार की जरूरत है । खैर,हेली ने अपने नक्शों में सुधार तो किया ही साथ ही १७२४ के सूर्य ग्रहण के लिए नक्शा जारी किया । रॉबर्ट ब्राउन, विस्टन जैसे गणितज्ञोें ने भी ग्रहण के नक्शोें की सटीकता पर काम किया जिससे अगले पचास सालों मे इनमें काफी सुधार होते चले गए और ग्रहण सम्बन्धी सटीक नक्शे यूरोप के विभिन्न वैज्ञानिक सोसायटी की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे । जल्द ही ये नक्शे अखबारों में भी प्रकाशित होने लगे और ग्रहण सम्बन्धी जानकारियॉं आम जनता तक आसानी से पहुॅंचने लगीं । सूर्य ग्रहण के आधुनिक इतिहास में दूसरा अहम पड़ाव एस्ट्रोनॉमी में स्पेक्ट्रोस्कोपी का इस्तेमाल किया जाना है । टेलिस्कोप की खोज के बाद सौरमण्डल के ग्रहों के अलावा कई तारों का गहन निरीक्षण का पाना सम्भव हो पाया था । १७८१ मेंयूरेनस और १८४६ में नेपच्यून की खोज से टेलिस्कोप ने धाक जमा ली थी । लेकिन टेलिस्कोप की अपनी सीमाएँ थी । १८३५ में फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगॅस्त कॉम्ते ने कहा था कि आकाशीय पिण्डों के रासायनिक संघटन, उन पर पाए जाने वाले खनिजोंऔर जैविक पदार्थो की जानकारी के लिए किसी और उपकरण आदि की जरूरत होगी । ऑगॅस्त की बातों में दम था । उस समय दूर के तारों की तो बात छोड़िए सबसे पास के तारे सूर्य की रासायनिक बनावट के बारे में भी कोई खास जानकारी हमारे पास नहीं थी। १९वीं सदी में रसायन शास्त्र का सुनहरा दौर चल रहा था । नए तत्वों की खोज हो रही थी । आवर्त सारणी बनाने की कोशिश चल रही थी । न्यूटन द्वारा दिखाए गए सतरंगी स्पेक्ट्रम को देखने के लिए अब बेहतर तकनीक उपलब्ध थी । जर्मनी के फ्राउनहोफर (१७८७-१८२६) ने सूरज के सतरंगी वर्णक्रम को जब उन्नत प्रकाशीय उपकरणों से देखा तो उन्होंने पाया कि इस सतरंगी स्पेक्ट्रम में पाँच छह सौ काली लकीरें भी मौजूद हैं । उन्होंने यही प्रयोग चाँद और अन्य ग्रहों से आने वाले प्रकाश के साथ दोहराया तब भी स्पेक्ट्रम में काली लकीरें दिखाई दे रही थी । सूरज की तरह चमकदार एक और तारे सीरियस से आने वाले प्रकाश के वर्णक्रम में ये काली रेखाएँ मौजूद थी । फ्राउनहोफर ने प्रयोगशाला में निर्मित सफेद रोशनी की जाँच की तो पाया कि यह बिना काली लकीरों वाला सामान्य स्पेक्ट्रम हैं । हालाँकि फ्राउनहोफर इन काली लकीरों के बारे में कुछ खास नहीं बता पाए लेकिन उनके प्रयोगों और अवलोकन से इतना पक्का हो गया कि इन काली रेखाआें का उद्गम सूर्य से ही जुड़ा हैं । अगले३०-४० साल फ्राउनहोफर द्वारा देखी गई काली रेखाआें की कोई व्याख्या सामने नहीं आई। लेकिन सूर्य के स्पेक्ट्रम में इन गहरी-काली लकीरों को अँग्रेजी अक्षर डी से दर्शाया जाने लगा। कुछ वर्षोंा बाद पता चला कि ये डी रेखाएँ सोडियम के स्पेक्ट्रम से मेल खाती है। दो वैज्ञानिकों बुन्सन और किरचॅाफ की जोड़ी ने स्पेक्ट्रोस्कोपी के काम को आगे बढ़ाया । जल्द ही किरचॉफ ने बतया कि कोई भी तत्व जब गैस या वाष्प के रूप में हो तब वह वर्णक्रम की लगभग उन्हीं काली लकीरों को अवशोषित करता है जिन्हें वह खूद उत्सर्जित कर सकता है । किरचॉफ के इन निष्कर्षोंा से वर्णक्रम के विश्लेषण में काफी मदद मिली । साथ ही खगोल विदों को दूर के तारों या अन्य पिण्डों की रासायनिक बनावट को जानने के लिए वहाँ से कोई नमूूना लाने की ज़रूरत नहीं रह गई । बुन्सन और किरचॉफ जानते थे कि हरेक तत्व का अपना एक खास वर्णक्रम होता है - जैसे हमारे फिंगरप्रिंट । इस खासियत की वजह से किसी भी तारे या सूरज की रोशनी के वर्णक्रम की तुलना, धरती पर पहले से ज्ञात तत्वों के वर्णक्रम से करते हुए, सूरज की रासायनिक बनावट के बारे में जानकारी हासिल की जा सकती है । स्ेक्ट्रोस्कोपी की मदद से सूर्य की रासायनिक बनावट को समझने का अहम पड़ाव १८६८ का सूर्य ग्रहण था। १८६८ में भारत से दिखाई देने वाले सूर्य ग्रहण में स्पेक्ट्रस्कोपी के इस्तेमाल से सूर्य ग्रहण में स्पेक्ट्रस्कोपी के इस्तेमाल से सूर्य में मौजूद एक प्रमुख तत्व हीलियम की धरती पर उपस्थिति दर्ज नहीं हुई थी । सूरज की रोशनी में हीलियम खोजने के कुछ साल बाद हीलियम को धरती पर खोजा जा सका । आखिरकार, फ्राउनहोफर रेखाआें की उपस्थिति के बारे में बुन्सन ने बताया कि चमकीली लकीरों का प्रकाश सूरज के गरम गैस वाले हिस्से से आता है और गहरी काली रेखाएँ सूरज की बाहरी अपेक्षाकृत ठण्डे हिस्से द्वारा प्रकाश के अवशोषण की वजह से बनती है । इस दौर की एक प्रमुख घटना थी - सूर्य ग्रहण के फोटोग्राफ लेना। इससे पहले लोग ग्रहण के पलों को यादों में संजोए रखते थे । कभी-कभार ग्रहण के उन पलों का अनुभव कोई लिखकर देता था । कोई कलाकार रंग-कूची की मदद से ग्रहण को कैनवास पर उतार देता । फ्रांस के लुइस डेगुरर ने १८३९ में फोटोग्राफिक प्लेट पर तस्वीर को उभारने में सफलता हासिल की थी । जल्द ही सूर्य प्रकाश के वर्णक्रम की भी तस्वीर ली गई । १८५१ में हुए पूर्ण सूर्य ग्रहण की तस्वीरें भी खींची गई और उन्हें लंदन में प्रदर्शित किया गया । फोटोग्राफी ने खगोल की दुनिया ही बदल दी । फोटोग्राफ और स्पेक्ट्रम खगालीय शोध के प्रमुख औज़ार बन गए और प्रमाण प्रमाण के रूप में मान्य होने लगे । इसके बाद कई तारों, ग्रहों, उपग्रहों, उल्का पिण्डों, आकाश गंगा आदि की तस्वीरें हमारे पास उपलब्ध होने लगीं । सन् १८५० के बाद यातायात और संचार के साधर भी काफी विकसित हो गए थे जिसकी वजह से वैज्ञानिक बिरादरी दुनिया के किसी भी कोने में जाकर सूर्य ग्रहण देख सकती थी । आप भी यह सवाल कर सकते हैं कि जब मोटे तौर पर सूर्य ग्रहण के बारे में काफी बातें मालूम हो गई थीं तो दुनिया के कोने-कोने तक जाकर हर बार सूर्य ग्रहण देखने की ज़हमत क्यों उठाई जा रही थी ? दरअसल, सूरज किन-किन रासायनिक पदार्थोंा से बना और उसके सबसे बाहरी भाग कोरोना के बारे मंे ठोस जानकारी जुटाना अभी भी बाकी था । इसलिए वैज्ञानिक बिरादरी बहुत पहले से उन जगहों का चुनाव कर लेती थी जहाँ से पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखेगा । स्थान का चुनाव करके भारी साजो-सामान और दल-बल के साथ वैज्ञानिक वहाँ पहुँच जाते थे और ग्रहण सम्बन्धी सूक्ष्म अवलोकन करते थे । सूरज का सबसे बाहरी हिस्सा या वायुमण्डल जिसे कोरोना कहा जाता है, वह सिर्फ पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय दिखाई देता है । इसलिए कोरोना के अध्ययन के लिए सूर्य ग्रहण एक खास मौका बनकर आता है । ग्रहण के अलावा भी सूर्य का अध्ययन किया जा सकता है । इन अध्ययनों से भी सूर्य कोरोना, फोटोस्फीयर आदि अलग-अलग भागों के तापमान, सूरज के रासायनिक संघटन और सूर्य में होने वाली रासायनिक क्रियाआें के बारे में काफी जानकारियाँ जुटाई जा सकीं । प्रकाश आकाश को मोड़ता है। २० वीं सदी में सूर्य ग्रहण को अइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत की जाँच की प्रमुख कसौटी बनाया गया । अल्बर्ट आइंस्टाइन ने सापेक्षता के सिद्धांत में स्पेस-टाईम, गुरूत्वाकर्षण, आकाश की वक्रता आदि के बारे में विचार किया था । मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि प्रकाश आकाश (स्पेस) में एक तरंग के रूप में गमन करता है। अत: यह आकाश में परिवर्तन का प्रत्युत्तर दे सकता है । या और सरल शब्दों में कहें तो गुरूत्वाकर्षण आकश में वक्रता उत्पन्न करे और प्रकाश इस वक्र आकाश के समान्तर चले । वक्रता के समान्तर चलना ही वक्र आकाश में सबसे सीधा मार्ग है । इस बात को हम प्रकाश का मुडना कहें या आकाश की वक्रता लेकिन क्या ऐसा वाकई होता भी है या नहीं यह दूर की कौड़ी थी । आइस्टाइन ने भी ख्याली प्रयोग के आधार पर ऐसा कहा था, करके के तो देखा नहीं था । परन्तु कुछ गणनाआें के आधार पर आइस्टाइन ने प्रकाश कितना मुड़ेगा इसका आँकड़ा दिया था । सन् १९१५ के बाद गुरूत्वीय क्षेत्र में प्रकाश के मुड़ने को लेकर प्रयोग की तैयारियाँ शुरू हो चुकी थी। खगोंलविदों का मानना था कि सूरज के ठीक पीछे मौजूद तारे का प्रकाश जब सूरज के पास से गुजरता है तो गुरूत्वाकर्षण की वजह से तारे से आने वाला प्रकाश अपने मार्ग से विचलित हो जाता हैं और प्रकाश किरण थोड़ी मुड़ जाती है । लेकिन प्रकाश किरण थोड़ी मुड़ जाती है । लेकिन प्रकाश किरण के मुड़ने की जाँच सिर्फ पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान ही हो सकती थी । इस जाँच के लिए जरूरी था कि निकट भविष्य में जो भी पूर्ण सूर्य ग्रहण होने वाला है उस समय सूरज के ठीक पीछे पृष्ठभूमि में दिखाई देेने वाले तारा समूह के फोटोग्राफ काफी पहले से ही ले लिए जाएँ और पूर्ण ग्रहण के दौरान काले होते आसमान में जब वह तारा समूह सूरज के पीछे प्रकट होगा तब एक बार फिर उस तारा समूह की तस्वीर ली जाए । चूँकि ग्रहण के समय इस तारे का प्रकाश सूरज के पास से होकर हमारे पास आ रहा होगा इसलिए सूरज के गुरूत्वाकर्षण की वजह से प्रकाश किरण में विचलन होगा । इस फोटो की तुलना काफी पहले लिए फोटो से (जब यह तारा मण्डल सूरज के आस-पास न हो) करने पर प्रकाश के मुड़ने की बात साबित हो जाएगी। अगला सूर्य ग्रहण १९१९ में होने वाला था । २९ मई १९१९ के सूर्य ग्रहण पर सबकी नज़रे टिकी हुइंर् थी । ग्रहण के पीछे की पृष्ठभूमि में दिखाई देने वाले तारा समूह (कूरवशी) के फोटोग्राफ काफी पहले से लिए जा चुके थे । दक्षिणी अमरीका और अफ्रीका में यह पूर्ण ग्रहण दिखाई देने वाला था । इंग्लैड के आर्थर एडिंगटन ने प्रकाश के गठित किए, एक दल ब्राज़ील भेजा गया और दूसरा पश्चिमी अफ्रीका के प्रिंसिपी द्वीप समूह गया जिसकी अगुवाई एडिंगटन कर रहे थे । बादलों की आँखमिचौली के बीच आखिरकार, एडिंगटन फोटो खींचने से सफल रहें । पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान खींचे गए फोटोग्राफ की तुलना पहले से खींचे गए फोटो से करने पर प्रकाश किरण में विचलन की बात साबित होती थी । १९२२ के सूर्य ग्रहण के दौरान एक बार फिर यही सब दोहराकर पुष्टि कर ली गई । जब एक बार सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की परख हो गई तो ब्रह्माण्ड को समझने के लिए एक नज़रिया भी मिल गया। आइंस्टाइन के बाद भी अन्य लोगों ने इस काम को आगे बढ़ाया है । यहाँ पूर्ण सूर्य ग्रहण के सिर्फ तीन प्रमुख पड़ावों की बात की है । ग्रहण के सटीक नक्शे बनाने की शुरूआत, ग्रहण में फोटोग्राफ-स्पेक्ट्रोस्कोपी का इस्तेमाल और सूर्य ग्रहण से सापेक्षता सिद्धांत का संबंध और ब्रह्माण को समझने का एक नज़रिया मिलना । इन पड़ावों से विज्ञान में जाँच पड़ताल और खोजबीन के बहुत से नए दरवाज़े खुले हैं । ***
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