निर्वृक्ष होते हुए वन
- डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
इस लेख का आगाज नवगीतकार नईम के गीत को उद्धरित करते हुए कर रहा हूँ -`` वनों को निर्वृक्ष होते देखना कितना कठिन हैदेखना निष्प्राण होते वनों को, कितना कठिन हैएक क्रिया - कर्म की पूरी बुनावटमौत की नजदीक आती हुई आहटवृक्ष - वध का दृश्य स्वर यहदेखना - सुनना कठिन है छीनना रक्षा कवच छल से करण काचश्मदीद गवाह हूँ अपने मरण का आज तो साकेत में हीदेखना सीता हरण हैबसंती निष्पन्न हरियाली वनों को भूमिका दें हरिजनों को, गिरिजनों कोपीठ पर इनके रखा जोदेखना किसका चरण है क्रौंच वध से सवाये हैं दृश्य सारे अपहरण है ये नहंी कोई स्वयंवर खून से लोहित कणों को खोजना कितना कठिन हैआज भी इतिहास के जीवित कथानकविन्ध्य हो या सतपुड़ा या अमरकण्टकनर्मदा को अभय दोपाषाणपुत्रों की बहिन है । '' वास्तव में बड़ा कठिन है किसी कटे वृक्ष को देखना ही । विगत दिनों मेरे शहर चन्दौसी की सीमा पर एक सरसब्ज पेड़ काट डाला गया तो पेड़ों के प्रति आत्मीय लोगों की भीड़ जुट गई और जनविरोध के फलस्वरूप अन्य पेड़ों का कटान रूक गया । यकीनन हमको वृक्ष विनाश की गफलत से बाहर निकलना ही होगा । पेड़ - पौघों के प्रति भावमयी बनना होगा । अस्मिता के रक्षक पेड़ ही तो देते हैं हरित परिधान धरती को । पेड़ ही तो बांधते है भूमि परती को । बहुत कुछ देते हैं पेड़। बहुत कुछ सहते हैं पेड़ । हमारी अस्मिता की रक्षा के लिए पेड़ की नस्लें कुर्बान हो जाती हैं । क्या हम पेड़ों द्वारा हमारे प्रति किये गये उपकारों को अपनी संततियों को समझा रहे हैं । विकास के नाम पर पेड़ ही तो कुर्बान होते जा रहे हैं । हर आरी पेड़ पर ही चलती है और देखते - देखते धराशायी कर दिये जाते हैं सरसब्ज पेड़। एक पेड़ बहुत से जीव जन्तुआें का सहारा होता है । वह सर्वहारा होता है । अपनी इस भावना को अपनी कविता``यह सच है कि ..... पेड़ सरसब्ज था'' को उद्धरित कर रहा हूँ - `` सच तो यह है कि .... नीम सरसब्ज था / वह लहलहा उठता था/ कोमल पत्तियों से / पतझर के बाद / बरसात में निंबोलियां लद जाती थीं पेड़ पर / महकाती थीं/ परिवेश को / झांकते थे पेड़ की कोटरों से / गरदन मटकाते हुए तोते/उछलकूद करती थी गिलहरियां/ शाखाआें पर चढ़ती / फिर पैराशूट की तरह उतरती / अठखेलियां करतीं / गुंजायमान रहता था परिवेश /मधुमक्खियों की भ्रामरी से / जो पेड़ की कोटरों में बनाये गये हाइव (छत्ते) में / जमा करती थी मकरंद पराग /बनाती थीं मधु/ एक दिन अचानक ही / पेड़ काटने का जतन हुआ शुरू/एक - एक करके / काट डाली गयी / पेड़ की बाजू सरीखी /शाखाएं/ धराभूत हो गया सरसब्ज पेड़/ काटने वाले ने / काटने से पूर्ण /उसे सूखा करा देते हुए / प्रस्तावपास करवाया था / किन्तु सच तो यह है कि ....... पेड़ सरसब्ज था । पेड़ वाले स्थान पर / बनना था विकास भवन / इसलिए विकास के नाम पर हो गयी पेड़ की बलि । पेड़ के पास वाले फुव्वारे पर / अब तोते नहीं करते जल से अठखेलियां/मधुमक्खियां हो गयीं निराश्रित/ गिलहरियां हो गयीं गुमसुम उदास/किन्तु वह कहते हैं / हुआ विकास/ सच है कि पेड़ सूखा नहीं था /किन्तु आदमी की भूख ने उसे कर ही दिया / धराभूत और अस्तित्वहीन। सच तो यह भी है कि हम भूल रहे हैं अपनी मनीषा को । अपने पूर्वजों द्वारा दी गयी शिक्षा को । अग्नि पुराण में लिखा है कि प्रमादवश यदि कोई व्यक्ति नगर अथवा वन - उपवन में पेड़ काटता है तो वह घोर नरक (जृम्मण) का दु:ख अवश्य ही भोगता है -`तस्मान्नाछेदयेत् वृक्षान् सपुष्पफलितान् कदा। यदीच्छेत् कुलवृद्धिश्च धनवृद्धिय शाश्वतीम्।।नगरोपवने वृक्षान् प्रमादाद्धि दिनत्रिय: ।स गच्छेन्नरकं नाम जुम्मणं रौद्र दर्शनम् ।।(अग्नि पुराण) वृक्षारोपण करने वाला व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा पाता है - `` प्रतिष्ठाम् ते गमिष्यन्ति ये नरा : वृक्ष रोपका: ।। '' बात केवल प्रतिष्ठा की नहीं वरन अस्मिता की भी है । क्योंकि मिट्टी और जल के संयोग से जो ये नाना प्रकार की वृक्ष प्रजातियां और खाद्यान्न उपजते हैं, उनसे ही प्राणियों का पोषण होता है।-`` ऊवींच नीरसंयोगान्नानावृक्षा प्रजायते '' । वृक्ष हमारे प्राणाधार हैं । वृक्ष सेवा पुण्य प्रदायक है । हर वृक्ष हमें सेवा देता ही देता है । अत: यदि हम किसी वृक्ष की सेवा करें, वृक्ष को जल से सींचे तो पुण्य मिलेगा ही । वाराह पुराण में गोकर्ण महात्मा अध्याय में संदर्भ है कि भूमिदान और गऊदान करने से जो पुण्य फल हमें मिलता है वही पुण्य हमें वृक्षारोपण से मिलता है-`भूमिदानेन ये लोका गोदानेन चकीर्तिता:। ते लोका:प्राप्यते मुक्ति: पादपानां पुरोहणे ।।'(वाराह पुराण) पेड़ सदैव हमारे मुक्तिदाता हैं । मृत्युपरांत आत्मा के तर्पण हेतु जलघट पीपल के पेड़ पर बांधा जाता है ताकि मृतक की आत्मा को शांति मिले । पेड़ तो शांतिदाता है जो जन्मांतर तक साथ निभाता है । मृतक की चिता में काष्ठ ही जलाया जाता है । जरा सोचें पेड़ों का उपकार और उनका संस्कार । ऐसे परोपकारी पेड़ों को अवध्य होना चाहिए। हमारे वांड्गमय में वृक्षों की भूमिका भलीभांति रेखांकित है । वैज्ञानिक दृष्टि से वनों को धरती के फेफड़े सरीखे जाना गया है क्योंकि वृक्ष ही प्राणवायु प्रदायक है । वेद पुराणों में पेड़ों को न काटने के परामर्ष बार - बार दिेय गये हैं। वृक्षारोपण तथा वन संरक्षण हेतु प्रेरित प्रसंग साहित्यमें सर्वत्र दिये गये हंै। प्रदूषण के नियंत्रण में वृक्षों की भूमिका सिद्घ है वृक्ष वायु को शुद्ध करते हैं । ओषजन को नियंत्रित करते है ।वायु की गति को कम करते हैं । वृक्ष ही जलवायु के संरक्षक और ऋतुआें के उद्गाता हैं । अत: हमारा परम् पुनित कर्त्तव्य है कि हम पेड़ लगायें और उन्हें सरसब्ज बनायें । देखा जाये तो पेड़ों की पत्तियों की सरसराहट ही जीवन स्पंदन की आहट होती है । हरियाली वनों सी सुरम्य प्रकृति सुरमय होती है । पेड़- पौधे, पशु- पक्षी और समस्त जीव - जन्तु प्रकृति कि प्रभूतमयी एंव प्रसूतीयी अनुग्रह की परिणति है । प्रकृति में अर्हनिश आनंदित अनहद स्वर गूंजता है । प्रकृति के स्वर हमारी अनुभूतियों को जगा देते हैं । जीवन को सुगंधियों से महका देते हैं । प्रकृति का संगीत ही तो हमें रचनात्मक सर्जना देता है । जंगल के गीत को ऋग्वेद के अरण्यानी सूक्त में इस प्रकार व्यक्त किया गया है -``वृषारवाये वदते यदुपावति चिच्च्कि:।आघाटििाखि धावयन्नरण्य र्निमेहीयते ।।'' (ऋग्वेद अरण्यानी सूक्त १०/१४६/२) अर्थात कोई जन्तु बैल के समान शब्द करता ह । कोई चीं..चीं करता हुआ उसका उत्तर सा देता है । उस समय लगता है कि वे वीणा के प्रत्येक स्वर को निकालते हुए अरण्यावली का यशोगान कर रहे हैें । प्रश्न यह है कि क्या निर्वृक्ष होते वनों में भी रहेगा संगीत जिन्दा ? पेड़ जीवनदाता ही नहीं धरती का श्रृंगार भी हैं । धरती के आभूषण हैं पेड़ । रक्षा कवच हैं ओजाने परत के जो हमारे वातावरण को आच्छादित करती है और सूर्य प्रकाश की पराबैंगनी किरणांे को अवशोषित कर लेती है । किन्तु प्रदूषण ने इस रक्षा कवच को तोड़ा है । पेड़ - पौधे बहुत बड़ा काम चुपचाप करते हैं और हमे आहट भी नहंी होती । पेड़ पौधे ही ऋतुचक्र के नियंता हैं । हरीतिमा से प्रकृति नवयौवना-सी सज जाती है । पर्वत श्रृंखलाआें की थाती, मृगछाला पहने शिव सी नजर आती है । गंगाधर सरीखे पर्वतों से ही जल का निर्झरण होता है । जलधाराएं यज्ञोपवित सी संस्कारी हैं । अरण्यानियों में अहर्निशं वैदिक ऋचाएं सी गुंजायमान रहती हैं । वन देवियां सुदर्शनाएं हैं यही कहती हैं वाल्मिकी रामायण में बडा ही मनोहारी वर्णन मिलता है - ``धर्म परिक्लिस्ता नववारी परिप्लुता मेधा कृष्णा जिन् धरा धारा यज्ञोपवीतिन: प्राधिता इव पर्वता: काषाविरिभहेमिभ: विद्युद्भिराभितादितम् जातामही शस्य वनाभिरामा।'' अर्थात् ग्रीष्म के सूर्य से सूखी धरती अब नये जल के आगमन से मुस्कुरा रही है । पर्वत ऐसे प्रतीत हो रहे हैंजैसे कि मृगछाला पहले हुए हों । जलधाराएं यज्ञोपवित सी लग रही हैं । पर्वत मानों वैदिक ऋचाआें का पाठ कर रहे हैं । विद्युत ऐसे चमक रही है मानों कि आकाश को स्वर्णिम चाबुक से मारा गया हो । हरी-भरी धरती बहुत सुन्दर लग रही है । क्या ऐसे शिवत्व एवं सुन्दरता से परिपूर्ण वनों को काट डालना स्वयं हमारे लिए अभिशाप सिद्ध नहीं होगा । प्रश्न पर जरा विचार करें आधुनिकताके व्यामोह में वृक्ष मर्दन न करें । वनों को निर्वृक्ष न करें। स्वयं को स्वाभाविक एवं प्राकृतिक ढंग से विकसित होने दें ताकि प्रकृति की अमूल्य कृति रूप यह वन प्रांतर सुरक्षित एवं संवध्र्ाित रह सकें । ``हम कृतघ्न नहीं है'' पेड़ों से नजर मिलाकर हम यह कह सकें। ***
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