गुरुवार, 9 जुलाई 2009

१२ ज्ञान - विज्ञान

किताबी परमाणु का निर्माण

एक परमाणु की संरचना के बारे में कल्पना कीजिए, हो सकता है आपके मन में एक ऐसी तस्वीर उभरे जो छोटे सौर मंडल की तरह हो । शायद आपकी कल्पना वास्तविकता से मेल न खाए लेकिन घबराइए मत । वैज्ञानिक एक ऐसा परमाणु बनाने में सफलता प्राप्त् कर चुके हैं जो बिल्कुल किताब के चित्र जैसा दिखेगा । एक सदी पहले जब परमाणु के नाभिक की खोज की गई थी तब सौर मंडल में समरूपता स्वाभाविक थी । यह सोचा गया था कि परमाणु के नाभिक में उपस्थित द्रव्यमान और आवेश एक बल आरोपित करता है जिसके कारण इलेक्ट्रॉन उसका चक्कर लगाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सूर्य का गुरूत्वाकर्षण ग्रहों को उसके चारों ओर घूमने के लिए बाध्य करता है। लेकिन क्वांटम मैकेनिक्स ने इस पुरानी मान्यता को बेकार साबित कर दिया और एक नई धारणा को जन्म दिया कि इलेक्ट्रॉन धंुधले बादल की तरह फैले होते हैं । मगर अब वर्जिनिया विश्वविद्यालय के टॉम गैलागर की टीम ने इलक्ट्रॉन को कैद करने और उन्हें नाभिक के चारों ओर चक्कर लगवाने में सफलता हासिल की है । उन्हें यह प्रेरणा अंतरिक्ष के लेंग्राजे बिन्दुआें से मिली जहंा विभिन्न स्रोतों के गुरूत्व बल एक दूसरे को निरस्त कर देते हैं। इन लोगों ने उसी तरह का वातावरण इलेक्ट्रॉन के लिए तैयार किया नाभिक के आकर्षण बल के प्रतिरोधक के रूप में माइक्रो तरंगों की दिशा बदल-बदलकर इलेक्ट्रॉन को नाभिक के चारों ओर मन माफिक चक्कर लगवाए गए । रोचेस्टर विश्वविद्यालय के कार्लोस स्टॉड का कहना है कि यह भौतिकी का एक खूबसूरत नमूना होने के साथ साथ दर्शाता है कि क्वांटन तंत्रों को किस हद तक क्लासिकल तंत्र का रूप दिया जा सकता है ।



चिम्पैजी भी योजना बनाते है


स्वीडन के फुरूविक चिडियाघर में एक चिम्पैंजी के व्यवहार को देखकर वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि ये प्राणी भविष्य के बारे मेंसोचकर योजना बनाते हैं । सेन्टिनो नाम का यह चिम्पैंजी दर्शकों पर पत्थर फेंककर अपनी नाराज़गी का इज़हार करता है । सैन्टिनो की उम्र इस समय ३० वर्ष है ।उसने किशोरावस्था में ही दर्शकों पर पत्थर फेंकना शुरू कर दिया था । चिड़ियाघर रोज़ाना दर्शकों के लिए निश्चित समय पर खुलता है । इससे पहले ही सैन्टिनो काफी सारे पत्थर इकट्ठे करके रख लेता है । ये पत्थर उसके पिंजड़े के आसपास खोदी गई झील के पानी में मिल जाते हैं। पानी में से पत्थर इकट्ठे करके वह इन्हें एक जगह जमा कर लेता है । इसके अलावा उसके पिंजड़े में सीमेन्ट, कांक्रीट के बनी कृत्रिम चट्टानें भी रखी गई थी। सेंन्टिनो इनमें से भी टुकड़े तोड़- तोड़कर दर्शकों पर फेंकने के लिए जमा कर लेता है । स्वीडन के लुड विश्वविद्यालय के मेंथियास ओस्वाथ का विचार है कि यह व्यवहार दर्शाता है कि सैन्टिनो भविष्य के बारे में सोचता है और उसके लिए योजनाएं बनाता है । उनके अनुसार यह इस बात का प्रमाण है कि चिम्पैंजी मेंभविष्य के प्रति चेतना है । वैसे पहले भी यह देखा गया है चिम्पैंजी भोजन प्राप्त् करने के लिए औज़ार बनाते हैं । मगर सैन्टिनो के व्यवहार में थोड़ा फर्क है। जब वह दिन में पत्थर जमा करने का काम करता है, तो वह यह काम काफी शान्त भाव से करता है । पत्थर फेंकते समय जो गुस्सा उस पर हावी होता है, पत्थर जमा करते समय उनके दिमाग में एक तत्काल ज़रूरत रहती है - क्षुधा की पूर्ति । पत्थर जमा करते समय उसके दिमाग में एक भावी लक्ष्य और योजना होती है क्योंकि उस समय दर्शक तो सामने होते नहीं । ज़ाहिर है कि उसे पता है कि दर्शक ज़रूर आएेंगें । वैसे अन्य व्यवहार वैज्ञानिकों का कहना है कि मात्र एक उदाहरण के आधार पर सामान्य निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा ।

भ्रूण को याद रहता है माँ का नशा

चौंकने की कोई बात नहीं है, बात चूहों की हों रही है । वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि यदि गर्भावस्था के समय मां ने शराब के घूंट पीए हों, तो उसके बच्चें को अल्कोहल मीठा लगता है । वास्तव में एल्कोहल का स्वाद कड़वे और मीठे का मिलाजुला स्वाद होता है। वैज्ञानिकों का विचार है कि इस अवलोकन से इस बात की व्याख्या करने में मदद मिलेगी कि क्यों मनुष्यों में भ्रूणावस्था के दौरान अल्कोहल से संपर्क होने पर बच्च्े में अल्कोहल के प्रति लगाव होने की ज़्यादा संभावना होती है । न्यूयॉर्क स्टेट विश्वविद्यालय के स्टीवन यंगेनटोब और उनके साथी यह देखना चाहते थे कि क्या भ्रूणावस्था में अल्कोहल से सम्पर्क होने पर स्वाद का अहसास बदल जाता है । लिहाज़ा उन्हांने कुछ चुहियाएं लेकर उनमें से कुछ को गर्भावस्था के दौरान शराब की खुराक दी जबकि कुछ चुहियाआें पर साकी की नज़रें इनायत नहीं हुई । इनके बच्चें को तीन तरह के तरल पदार्थ दिए गए। एक में एल्कोहल था, एक में मीठा पानी और तीसरे में कड़वा पानी । देखा गया कि गर्भावस्था में जिन चुहियाआें को अल्कोहल की खुराक मिली थी उनके बच्च्े अल्कोहल और कड़वा पानी ज्यादा चाव से पीते थे । हालांकि मीठे पानी के मामले में दोनों तरह के बच्चें का लगाव एक सा ही था। `शराबी' चुहियाआें के बच्चें को अल्कोहल की गंध भी ज़्यादा भाती थी । शोधकर्ताआें का कहना है कि भ्रूणावस्था में शराब से संपर्क से चूहे कड़वे स्वाद से परिचित हो जाते हैं । इसकी वजह से उनमें कड़वे के प्रति संवेदनशीलता बोथरी पड़ जाती है । इसका परिणाम यह होता है कि इन्हें अल्कोहल का मीठा स्वाद ही महसूस होता है । शोधकर्ताआें का यह भी कहना है कि ये अनुभूतियां जीवन भर के लिए निर्धारित हो जाती हैं । सिर्फ एक वजह से इनमें फर्क आ सकता है । वह यह है कि यदि जन्म के बाद काफी समय तक इन चूहों का संपर्क अल्कोहल से न हो, तो अल्कोहल के प्रति उनका लगाव समाप्त् हो जाता है । निष्कर्ष के रूप में वे कहते हैं कि इसका मतलब है कि बच्चें को जब तक संभव हो, शराब से दूर रखना चाहिए ।

विजयी हावभाव क्या जन्मजात हैं ?

जब हम किसी प्रतियोगिता में जीतते हैं, तो हाथों को हवा में उठाकर लहराना, मुट्ठी बाधना वगैरह जैसे हाव-भाव प्रदर्शित करते हैं । दूसरी ओर हार जाने पर आम तौर पर गर्दन व कंधे झुक जाना, कंधे उचकाना आम बात है और ऐसे हाव भाव लगभग सार्वभौमिक हैं । यानी लगभग सभी संस्कृतियों में विजेता और पराजित एक सी हरकते करते हैं । तो क्या ये हाव - भाव नैसर्गिक हैं, जन्मजात हैं ? इस सवाल का जवाब पाने के लिए कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय की जेसिका ट्रेसी और सैन फ्रांसिस्को राज्य विश्वविद्यालय के डेविड मात्सूमोतो ने नेत्रहीन एथलीट्स का अवलोकन किया । शोधकर्ताआें ने इस अवलोकन के लिए अवसर चुना था २००४ में आयेाजित पैरालिंपिक (विकलांग खेलकूद स्पर्धा) । इस स्पर्धा में कई नेत्रहीन एथलीट्स के फोटोग्राफ्स खींच लिए । बाद में इनकी तुलना उहोंने सामान्य (दृष्टियुक्त) एथलीट्स के इसी तरह के फोटोग्राफ्स से की । तुलना ने दर्शाया कि जन्मांध एथलीट्स जीतेने- हारने पर उसी तरह के हाव - भाव प्रदर्शित करते हैं , जैसे सामान्य एथलीट्स करते हैं । ज़ाहिर है जन्मांध एथलीट!्स ने ये हाव-भाव देखकर तो नहीं सीखें होंगें ।शोधकर्ताआेंके अनुसार यह इस बात का एक प्रमाण है कि विजयी व पराजित हाव-भाव नैसर्गिक हैं। अब अगला सवाल आता है कि आखिर इन हाव भावों का जैव विकास की दृष्टि से क्या महत्व रहा होगा कि ये विकसित हुए । मात्सूमातो को लगता है कि जीतने के बाद स्पष्ट दिखने वाली चेष्टाएं करना शायद इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इससे शेष समाज पर दबदबा बनाने में मदद मिलती है । दूसरी ओर, हारकर शर्मिंदा होना इस बात की स्वीकारोक्ति -सी है कि हां भैया, हार गए , अब बस करो । इससे और टकराव को टालने में मदद मिलती है । कुल मिलाकर इस तरह के व्यवहार के प्रदर्शन से सामाजिक हैसियत स्थापित करने में मदद मिलती है। इसलिए विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि ये व्यवहार सबमें एक समान हों । ***

कोई टिप्पणी नहीं: