दिल्ली में प्लास्टिक की थैली पर रोक
देशकी राजधानी में यदि कहीं प्लाास्टिक की थैली दिख गई तो अब तौ डेढ़ साल की सजा व १ लाख तक जुर्माना भी हो सकता है दिल्ली सरकार ने स्थानीय निकाय के अधिकारियो को यह अधिकार दे दिया है कि प्लास्टिक की थैली का प्रयोग करने वाले दुकानदारों, होटलों और अस्पताल के चालान बनाएँ । यह अधिकार संबंंधित अधिकारियो को दिये गए । इस अभियान की शुरूआत पुरानी दिल्ली से होगी, जहाँ प्लास्टिक के गोदाम हैं। अधिकारियों का दल चालान बनाएगा और अर्थदंड दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) तय करेगी । ६ माह पहले ही दिल्ली सरकार ने पॉलीथिन प्रतिबंध की अधिसूचना जारी का दी थी। पर्यावरण सुरक्षा कानुन के तहत सभी स्थानों पर इसके उपयोग को प्रतिबंधित किया था । तापस एनजीओ चलाने वाले वीके जैन ने प्लास्टिक के उत्पादों पर रोक के लिए जनहित याचिका लगा रखी है। इसमें कहा गया है कि यह प्रकृति के खिलाफ है । इससे नालियाँ अवरूद्ध होती हैं, जो पशु इनका सेवन करते हैं, वे मारे जाते हैं, इसलिए केवल कानून के अमल से ही इसे रोका जा सकता है ।
सवा लाख पुराने जीवाणु को फिर सक्रिय करने में सफलता !
जमीन के तीन किलोमीटर नीचे से निकाले गए हिमखंड में बैक्टीरिया पाए गए थे। वैज्ञानिकों को ऐसे बैक्टीरिया या जीवाणुआें को सक्रिय करने में सफलता मिली है जो कि करीब १,२०,००० वर्षो से निष्क्रिय पड़े थे । पूरा किस्सा ये है कि ग्रीनलैंड में ड्रिलिंग के दौरान करीब तीन किलोमीटर की गहराई से निकाले गए हिमखंड में दो अलग-अलग प्रजातियों के जीवाणु मिले थे । हिमखंड के काल के हिसाब से दोनों जीवाणुआें को भी करीब एक लाख २० हजार वर्ष पुराना माना गया है । सामान्य जीवाणुआें से करीब ५० गुना छोटे आकार के इन दोनोंजीवाणुआें को बहुत ही धीरे-धीरे सामान्य माहौल में लाया गया । इस प्रक्रिया में महीनों लगे। एक बार सक्रिय होते ही बैंगनी रंग वाले इन जीवाणुआें ने अपना कुनबा बनाना शुरू कर दिया । यानी ये पूरी तरह सामान्य जीवन जीने लगे । इस चमत्कारिक प्रयोग की रिपोर्ट इस हफ्ते एक अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान जर्नल में छापी है । इस अध्ययन की अगुआई करने वाली वैज्ञानिक जेनिफर लवलैंड कर्ट्ज के अनुसार इस शोध से इस संभावना को बल मिलता है कि मंगल ग्रह या बृहस्पति ग्रह के चाँद यूरोपा के अति-ठंडे माहौल मेंे भी कोई न कोई सूक्ष्म जीव मौजूद हो सकता है । बैक्टीरिया से जुड़ा एक अन्य अध्ययन लंदन में चल रहा है । वैज्ञानिक इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि क्या बैक्टीरिया मौसम को प्रभावित करते हैं ? इस बात के सबूत मिल है कि कुछ खास तरह के जीवाणु की बरसात कराने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । दरअसल, बरसात होने के लिए जरूरी है कि बादलों में मौजूद जलकण जम सकें। जलकण शून्य सेल्सियस तापमान पर ही जम जाए, ये जरूरी नहीं, बल्कि ये उसमें मौजूद अशुद्धियों पर काफी निर्भर करता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि स्यूडोमोनस सिरिन्गे नामक बैक्टीरिया की मदद से जलकण को अपेक्षाकृत ऊँचे तापमान पर हिमकण में बदलना संभव है ।
विकास के साथ बढ़ रही ई-कचरे की समस्या
पर्यावरण को लेकर अभी भी हमारे देश में पूरी तरह जागरूकता नहीं आई । प्रदूषण जैसे अहम् मुद्दे विकास के नाम पर पीछे छुट गए हैं । ऐसे में ई (इलेक्ट्रॉनिक) कचरे के बारे में देश में बिलकुल भी जानकारी नहीं है । न ही इस दिशा में कोई कदम उठते नजर आ रहे हैं । इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से बाजार भरे पड़े है । तकनीक में हो रहे लगातार बदलावों के कारण उपभोक्ता भी नए-नए इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से घर भर रहे हैं । ऐसे में पुराने उत्पादों को वह कबाड़ में बेच देते है और यही से आरंभ होती है ई-कचरे की शुरूआत । ई-कचरे को लेकर कई विकसित देशों में सख्त नियम कानून बनाए हैं तथा उस पर अमल भी आरंभ हो चुका है। जबकि विकासशील देशों में अभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेसल कर्न्वेशन के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक कचरे संबंधी नियमों का पालन होता है । चीन ने अपने यहाँ पर ईकचरे आयात करने पर रोक कुछ महीने पहले ही लगाई है । हांगकांग में बैटरियाँ व केथोड रे ट्यूब का आयात नहीं किया जा सकता । इसके अलावा दक्षिण कोरिया, जापान व ताईवान ने यह नियम बनाया है कि जो भी कंपनियाँ इलेक्ट्रोनिक उत्पाद बनाती हैं वे अपने वार्षिक उत्पादन का ७५ प्रतिशत रिसाइकल करें । वहीं भारत की बात की जाए तो अभी ई-कचरे के निपटान व रिसाइकलिंग के लिए कोई प्रयास शुरू नहीं हुए । देश में तेजी से बढ़ रही कम्प्यूटर व इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की संख्या से भी अब इस तरह के नियम कायदे बनाना जरूरी हो गया है । क्योंकि, इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातु से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं । इन्हें अलग-अलग करने में काफी समय भी लगता है। इस दौरान जो लोग यह काम करते हैं उन्हें भी नुकसान होने की आशंका रहती है। विकसित देशों में अमेरिका की बात करें तो वहाँ प्रत्येक घर में वर्षभर में छोटे-मोटे २४ इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदे जाते हैं । इन पुराने उपकरणों का फिर उपयोग नहीं होता । इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में कितना इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकलता होगा। यह तथ्य भी देखने में आया है कि केवल अमेरिका में ही ७ प्रतिशत लोग प्रतिवर्ष मोबाईल कबाड़ में बेचे जाते है । इससे भी ई-कचरे की समस्या तेजी से बढ़ रही है । इस कचरे से निपटने के लिए संपूर्ण तंत्र को विकसित कर अमल करना होगा। विकसित देश अपने यहाँ के इलेक्ट्रॉनिक कचरे को गरीब देशों को बेच रहे हैं । विकसित देश यह नहीं देख रहे कि गरीब देशों में ई-कचरे के निपटान के लिए नियम-कानून बने हैं या नहीं । इस कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसमें ३८ अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं जिनसे काफी नुकसान भी हो सकता है । जैसे पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर मेंे लगी सीआरटी (केथोड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है । इस कचरे में लेड, मरक्यूरी, कैडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं । अमेरिका के बारे में यह कहा जाता है कि वह अपने यहाँ ८० प्रतिशत ई-कचरा चीन, मलेशिया, भारत, कीनिया तथा अन्य अफ्रीकी देशों में भेज देता है। भारत सहित कई अन्य देशों में हजारों की संख्या में महिला पुरूष व बच्च्े इलेक्ट्रोनिक कचरे के निपटान में लगे हैं । इस कचरे को आग में जलाकर इसमें से आवश्यक धातु आदि निकाली जाती हैं । इसे जलाने के दौरान जहरीला धुआँ निकलता है जो कि काफी घातक होता है । भारत में दिल्ली व बंगलुरू ई-कचरे को निपटाने के प्रमुख केन्द्र है ।
शहरों में बढ़ते वाहनों की समस्या
मुंबई के एक गैर सरकारी संगठन की इस माँग पर उन सभी शहरों को विचार करना चाहिए कि वाहनों की संख्या सीमित की जाए । वाहनों का उत्पादन अपनी गति से चल रहा है । बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाआें से मिलने वाले आसान कर्ज ने वाहन खरीदना आसान बना दिया है । सोच यह हो सकती है कि वाहनों के उत्पादन पर ही नियंत्रण क्यों न लागू किया जाए जो समस्या की जड़ है । दूसरा तरीका यह हो सकता है जो मुंबई में उच्च् न्यायालय ने व्यक्त किया है । न्यायालय ने इस संभावना का पता लगाने के निर्देश प्रशासन को दिए हैं कि सप्तह में एक दिन कारों को सड़क पर न आने दिया जाए । इस विकल्प से वायु प्रदूषण और यातायात की विकराल होती समस्याआें से कुछ हद तक छुटकारा तो मिल सकता है, लेकिन पूरी तरह नहीं । सड़कों की चौड़ाई बढ़ाकर बढ़ते वाहन यातायात की समस्या से पीछा छुड़ाना एक सीमित विकल्प जरूर है परंतु इसमें कई पेचीदगियाँ भी हैं । सड़कों की चौड़ाई बढ़ाने के लिए बरसों पुराने और वैध निर्माणों को तोड़ा जाना जन आक्रोश के साथ-साथ अनेक मानवीय पहलुआें को भी न्यौता देता है । फिर वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या ऐसे प्रयासों को कुछ ही समय के बाद निरर्थक साबित कर देती है । फिर इतना विनाश क्यों ? जाहिर है कि सड़कों पर वाहनों की तेजी से बढ़ती संख्या पर नियंत्रण करने के लिए वाहन मालिकों, वर्तमान और भावी दोनों की मदद लेना ही कारगर हो सकता है । लेकिन वाहनों का उत्पादन फिर भी एक सवाल बना रहेगा । स्थिति काफी जटिल है । इंदौर में ही तेरह लाख से अधिक वाहन होने का अनुमान है । प्रति व्यक्ति एक वाहन की स्थिति आने में कितना समय शेष है इसका अनुमान लगाने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करना पड़ेगी। जबकि वास्तविकता यह है कि वाहनों की पार्किग के लिए जगह अभी ही काफी कम पड़ने लगी है । ***
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