गुरुवार, 9 जुलाई 2009

१ सामयिक

भारतीय दर्शन में जल की महत्ता
- राजीव मिश्र
संसार के सबसे पुराने ग्रंथ ऋग्वेद में जल को महिमामंडित करते हुए कहा गया है कि `` जल में अमृत है , जल विश्व भेषज है '' अर्थात् जल सब रोगों की एक दवा है। वह जल में ऊर्जा (अग्नि) की कल्पना करता है और उसे परम कल्याणकारी बताता है । जल हमें हमारे मन, वाणी, चक्षु, श्रोत तथा आत्मा को तृप्त् करता है । जल हमें रोगों के आक्रमण से भी बचाता है । यजुर्वेद के तैत्त्तरेय आरण्यक में कहा है कि जलाशयों के पास मल-मूत्र आदि नहीं करना चाहिए, थूंकना नहीं चाहिए । अर्थववेद के एक मंत्र में वर्षा और पृथ्वी पर पड़े जल को शुद्घ करके सेवन की बात कही गई है क्योंकि शुद्ध जलपान से अश्वों के समान बल प्राप्त् होता है । जल के प्रति श्रद्धा ही भारतीयों का ऐसा गुण है जो उन्हें अन्य मानव समूहों से भिन्नता प्रदान करता है । यथार्थ में भारतीयों के प्रत्येक उत्सव पर निकटस्थ नदी, तालाब आदि में स्नान करने की प्रथा प्रचलित हे । यही कारण है कि हिंदुआें के अधिकांश तीर्थ विशिष्ट नदियों या सरोवरों के रूप में तथा उन्हीं से संबद्ध है । नदियों के विषय में ऐसी वैज्ञानिक धारणा है कि नदियों का जल विशेष गुण और प्रभाव रखता है । सब जल एक से नहीं होते अर्थात् किसी नदी के जल में कीड़े जल्दी पड़ते हैं, किसी में देर से और किसी में पड़ते ही नहीं है । आजकल लोग कहने लगे हैं कि आने वाला युद्घ जल के लिये होगा । लेकिन भारत में जल की अगर प्रचुरता है तो इसका कारण सदानीरा वर्ष भर जल देने वाली नदियों का उद्गम हिमालय यही पर स्थित है । दुनिया का पांच प्रतिशत से अधिक शुद्घ जल हिमालय की नदियां वर्ष भर में बहा कर लाती हैं । इसके अलावा १७ हजार वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में हिमालय पर स्थायी हिमक्षेत्र हैं जो दक्षिणी ध्रुव के बर्फ क्षेत्र से भी बड़ा है । समूचे उत्तर भारत को पेयजल की आपूर्ति प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से हिमालय से ही होती है क्योंकि सर्वाधिक नदियां भी मध्य हिमालय से ही निकलती है । भारतवर्ष में वैदिक काल से पावन पुण्य सलिला गंगा नदी की महिमा है । भारत की अन्य नदियां की तरह गंगा का जन्म भी हिमालय की गोद में हुआ । एक छोटे से सोते के रूप में गंगा एक तरह से फूट कर बह निकली । इस स्थान को गोमुख कहते हैं । पहाड़ों पर जमी बर्फ को पिघला कर पानी बहकर इस सोते में आ मिला । इस प्रकार गंगा का आकार बढ़ा । गंगा तेजी से नीचे की ओर बहती गई । गंगाजल की महिमा अपरम्पार है। गंगा के स्वास्थ्य संबंधी गुणों का प्राचीन काल से ही उल्लेख मिलता है । चरक ने लिखा है हिमालय से निकलने वाले जल पथ्य हैं । चक्रपाणि दल ने भी सन् १०६० के लगभग लिखा है कि हिमालय से निकलने के कारण गंगाजल पथ्य है । भण्डारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट पूना में अठारहवीं शताब्दी का एक हस्तलिखित ग्रंथ है `भोजन कुतुहूल' । इसमें कहा गया है कि गंगा जल श्वेत, स्वच्छ, अत्यंत रूचिकर , पथ्य भोजन पकाने योग्य, पाचन शक्ति बढ़ाने वाला, सब पापों को नष्ट करने वाला , प्यास को शांत तथा मोह को नष्ट करने वाला , श्रद्घा और बुद्धि को बढ़ाने वाला होता है। टैवर्नियर के यात्रा विवरण से पता चलता है कि उन दिनों हिंदुआें के विवाह के अवसर पर भोजन के पश्चात् अतिथियों को गंगाजल पिलाने का चलन था । इसके लिए बड़ी दूर-दूर से गंगाजल मंगाया जाता था । जो जितना अमीर होता था, उतना ही अधिक गंगाजल पिलाता था । पेशवाआें के लिए गंगाजल पूना जाया करता था ।मराठी पुस्तक `पशवाइरूया सावलीतपून (१९३७) से पता लगता है कि काशी से पूना ले जाने के लिये एक बहंगी गंगाजल का खर्च २० रूपया और पूना से रामेश्वरम् ले जाने के लिये ४० रूपया पड़ता था । गढ़मुक्तेश्वर तथा हरिद्वार से भी पेशवाआें के लिए गंगाजल जाता था। हिमानियां अर्थात ग्लेशियर सदानीरा नदियों के अक्षय जलस्त्रोत कहे जा सकते हैं । पश्चिम हिमालय का बाटी ग्लेशियर विगत १००-१५० वर्षोंा में लगभग ८०० मीटर पीछे हट चुका है । इसी प्रकार केन्द्रीय हिमालय का ग्लेशियर इतने ही वर्षोंा में अब तक १६०० मीटर सिकुड़ चुका है । ध््राुव प्रदेशों में वर्षभर होने वाले हिमपात के बाद हिमालय की ये हिमानियां जल के अक्षय स्त्रोत हैं और हिमालय का लगभग २० प्रतिशत हिस्सा इन्हीं ग्लेशियरों अथवा हिमानियों से आच्छादित हैं । इसके अतिरिक्त आधे से अधिक भाग पर मौसमी बर्फ घिरी रहती है । यदि ये ग्लेशियर २५ मी. प्रतिवर्ष की औसत से पिघलते रहे तो एक दो दशक बाद गंगा नदी एक मौसमी नदी बन कर रह जाएगी । समय के चलते भारतीयों ने इसका महत्व कमतर आंका और जल का दुरूपयोग शुरू हो गया तथा जलसंचय के तौर - तरीकों को नकारा जाने लगा। इस सबके चलते आज जो जलसंकट हमें दिख रहा है उससे उबरने का एकमात्र उपाय यह है कि भारतीय समाज जल की कीमत जाने और उसके संचय के हर संभव तौर तरीके तो अपनाए ही साथ ही साथ उसका दुरूपयोग भी तत्काल बंद करे । ***
जलवायु परिवर्तन के कारण एक साल में हुई ३१५००० मौतें
विश्व में जलवायु परिवर्तन से होने वाली बीमारी, प्राकृतिक आपदा और भूख आदि से प्रतिवर्ष करीब तीन लाख से भी ज्यादा लोगों की मौत होने का अनुमान है और वर्ष २०३० तक यह संख्या पांच लाख तक पहुंच सकता है । जलवायु परिवर्तन से जानमाल के नुकसान की भयावह तस्वीर पेश करने वाली जिनेवा की ग्लोबल ह्मुमनिटेरियन फोरम (जीएचएफ) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मानव जनित इस प्राकृतिक परिवर्तन के कारण प्रतिवर्ष तीन लाख १५ हजार लोगों की मौत हो रही है । जलवायु परिवर्तन से हर साल ३२ करोड़ ५० लाख लोग गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं और अगले २० सालों में यह संख्या दोगुनी होने की आशंका है , जो उस समय विश्व की जनसंख्या का करीब १० फीसदी होगी । रिपोर्ट के मुताबिक धरती का तापमान बढ़ने से सालाना १२५ अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है । और २०३० तक इसके सालाना ३४० अरब डॉलर तक पहुंचने की आशंका है। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव और जीएचएफ के अध्यक्ष कोफी अन्नान ने एक बयान में कहा कि जलवायु परिवर्तन ने पूरे विश्व में करोड़ों लोगों को प्रभावित किया है और इस समय यह मानव जाति के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है । उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन के कारको के लिए सबसे कम जिम्मेदार विश्व का गरीब और कमजोर तबका इससे सबसे पहले और सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है।

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