गुरुवार, 9 जुलाई 2009

५ कविता

पर्यावरणीय गीत-गज़ल
-मेहता डॉ. नगेन्द्रसिंह
गीत
तपती धरती तपता अम्बर
उबल रहा है सात समन्दर ।
तेज धूप का तेज बढ़ा है
क्रोध सूर्य का शिखर चढ़ा है
फटी दरारें शुष्क धरा पर
ठूँठ बना हर वृक्ष खड़ा है ।
सूख चुके सब ताल-तलैया
रेत चमकती उसके ऊपर ।
सूरज का यह क्रोध निराला
बाँट रहा है विष का प्याला
वृक्ष नहीं अब काटे कोई
बढ़ जायेगी विष की ज्वाला ।
ताप धरा पर कम हो कैसे
खोज रहा जग इसका मन्तर ।
ग़ज़ल
पेड़ कटा तो घायल हो पाई धरती
धूल-धूआँ से काज़ल हो गई धरती ।
पेड़ बिना मौसम भी गरम हुआ जब
धूप लगी तो तातल हो गई धरती ।
नदी ताल कुएँ से गुम हुआ पानी
प्यास लगी तो बेकल हो गई धरती ।
बाग सभी उजड़ गए शहर की खातिर
चीर-हरण से मुख़्तल हो गई धरती ।
लोभ-स्वार्थ ने लूटा इसका सारा धन
अतिदोहन से पागल हो गई धरती ।
ख्वाब में देखा `मेहता' ने एक दिन
सौर-जगत से ओझल हो गई धरती ।
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