प्रकृति और अर्थव्यवस्था
डॉ. रामप्रताप गुप्त
विकास के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण के विनाश को अर्थव्यवस्था की अनिवार्यता मान लिया गया है । इस विभीषिका के मूल्यांकन की आवश्यकता है । विश्व के अनेक देश अपने सकल घरेलू उत्पाद में इसकी गणना करते हैं । भारत इस तरह की गणना न कर अपनी अर्थव्यवस्था को अत्यंत मजबूत बताकर सकल घरेलू वृद्धि दर में उछाल की कहानी कह रहा है । राष्ट्रीय आज गणना की वर्तमान पद्धति में वर्ष भर में वस्तुआें और सेवाआें के शुद्ध उत्पादन को शामिल किया जाता है, परंतु इस बात का कोई लेखा जोखा नहीं लिया जाता है कि इनके उत्पादन की प्रक्रिया में कितनी पर्यावरणीय क्षति हुई है । वर्तमान में हमारी राष्ट्रीय आय गणना की प्रणाली तो ऐसी है कि उत्पादन की प्रक्रिया में अगर सारे वन काट दिए जाएं, उपजाऊ मिट्टी को नष्ट कर भूमि को बंजर बना दिया जाए, नदियों, झीलों के पानी को प्रदूषित कर दिया जाए, वह पीने के काबिल भी न रहे, तटीय समुद्र की सभी मछलियां नष्ट कर दी जाएं, वायुमण्डल को प्रदूषित कर उसमें सांस लेना भी कठिन बना दिया जाए तो भी हमारी राष्ट्रीय आय के अनुमानोंमें इन प्रतिकुल प्रभावों का कोई विपरीत असर नहीं होगा तथा उसमें कोई कमी नहीं आएगी। इन सब कमियों के फलस्वरूप हमारी राष्ट्रीय आय और उसकी वृद्धि दर राष्ट्रीय कल्याण को ठीक-ठीक प्रदर्शित नहीं करती है । राष्ट्रीय आय की अवधारणा में इन कमियों को देखते हुए अब हरित राष्ट्रीय आय की अवधारणा विकसित की गई है। `हरित राष्ट्रीय आय' की गणना में वर्ष में वस्तुआें एवं सेवाआें के शुद्ध उत्पादन के योग में से उत्पादन की प्रक्रिया में देश के पर्यावरण और पारिस्थतिकी को जो क्षति पहंुचाती है, उसके मौद्रिक मूल्य को कम कर दिया जाता है । ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान द्वारा सीमित गणना के आधार पर तैयार एक रिपोर्ट ``हरित राष्ट्रीय आय सन् २०४७'' प्रकाशित की है । इसमें बताया गया है कि वर्तमान में देश में अशुद्ध पेयजल एवं प्रदूषित वायु के कारण प्रतिवर्ष ६ लाख लोग मृत्यु या रूग्णता के शिकार होते हैं, जिसकी कुल लागत राष्ट्रीय आय के ३.६ प्रतिशत के बराबर आती है । इसी संस्थान द्वारा सन् १९९७ के लिए अनुमान लगाया था कि वन क्षेत्र और वनों की सघनता में कमी के फलस्वरूप इमारती लकड़ी एवं अन्य उत्पादों में आई कमी, जलस्त्रोतों में आई गिरावट, कृषि उत्पादन में कमी, वायुमण्डल के प्रदूषण में वृद्धि आदि के रूप में होने वाली क्षति राष्ट्रीय आय के १० प्रतिशत के बराबर थी । संस्थान ने यह भी अनुमान लगाया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण सन् २१०० तक भारत को होने वाली क्षति उसकी राष्ट्रीय आय से ९ से १३ प्रतिशत के बराबर रहेगी । इन सब क्षतियों को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय आय की वर्तमान गणना प्रणाली में कोई व्यवस्था नहीं है । बल्कि कई बार तो इस क्षति के कुछ अंशोंको राष्ट्रीय आय में घनात्मक योगदान के रूप में शामिल कर लिया जाता है । उदाहरण के लिए वनों को नष्ट करने की प्रक्रिया में जो इमारती लकड़ी या अन्य प्रकार की लकड़ियां प्राप्त् होती है, उसके मुल्य में बराबर की राशि उस वर्ष की राष्ट्रीय आय में शामिल कर ली जाती है । यह सब इसलिए होता है क्योंकि राष्ट्रीय आय की गणना में पर्यावरण को पहुंचाने वाली क्षति का कोई लेखा जोखा नहीं रखा जाता है, बल्कि उस क्षति के प्रतिकूल प्रभावों का सामना करने के लिए जो कदम उठाए जाते हैं उन्हें सकारात्मक योगदान के रूप में राष्ट्रीय आय में शामिल कर लिया जाता है । इसे इस उदाहरण सेे समझिए, मान लीजिए किसी सीमेंट कारखाने से निकलने वाले धूल के कणों के कारण आसपास के गांवों के निवासी, श्वास संबंधी रोगोंे के शिकार होते हैं तो उनकी चिकित्सा हेतु उत्पादित दवाआें का मूल्य, डॉक्टर की फीस आदि के राष्ट्रीय आय में शामिल किए जाने से उसमें वृद्धि होगी । स्पष्ट है कि हमारी राष्ट्रीय आय की गणना में पर्यावरण को पहुंच रही क्षति को शामिल नहीं किए जाने से वह गलत निष्कर्षोंा की ओर ले जाती है । हमारे अर्थशास्त्री एवं सांख्यिकीविद् राष्ट्रीय आय की गणना की इन कमियों से लंबें समय से परिचित रहे हैं । राष्ट्रीय आय की गणना में पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभावों को सर्वप्रथम १९३० की मंदी के पश्चात अमेरिकी राष्ट्रीय आय की गणना में शामिल किया गया था । हाल ही में आर्थिक निष्पादन एवं सामाजिक प्रगति रिपोर्ट जिसे प्रमुख अर्थशास्त्रियों जोसेफ स्टिग्लिट्स,अर्मत्य सेन, ज्यां यॉ फिटोसी के नाम पर स्टिग्लिट्स-सेन-फिटोसी रिपोर्ट कहा जाता है, में राष्ट्रीय आय की गणना की वर्तमान विधि की कमियों की विस्तार से व्याख्या की गई है । इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय आय के आंकड़ों का उपयोग करने वाले हमारे नीति निर्धारक, व्यवसायी आदि उनकी इन कमियों से अवगत नहीं होते हैं । इसी वजह से हरित राष्ट्रीय आय की गणना आवश्यक हो गई है ताकि ये आंकड़े स्थिति की वास्तविकता को बेहतर ढंग से प्रदर्शित कर सकें । हाल ही में भारत के वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि सरकार की सन् २०१५ तक भारत की हरित राष्ट्रीय आय की गणना संयुक्त राष्ट्र के सांख्यिकी विभाग द्वारा विकसित तरीकों पर आधारित होगी, यह तरीका विश्व के सभी राष्ट्रों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। हरित राष्ट्रीय आय की गणना में चार प्रकार के पर्यावरणीय प्रभावों को शामिल किया जाएगा । पर्यावरणीय एवं आर्थिक लेखा में उन सभी घटकों को शामिल किया जाएगा जिनकी अब तक उपेक्षा की जाती है । परंतु अभी तक समंको के स्त्रोत और अध्ययन प्रणाली का विस्तृत विवरण ज्ञात नहीं हो सका है । हरित राष्ट्रीय आय के समंक या आंकड़े राष्ट्रीय आय के पूरक के रूप में प्रयुक्त किए जा सकेंगें । राष्ट्रीय आय के उत्पादन की प्रक्रिया में पर्यावरण में हो रही क्षति का विवरण राज्यों से प्राप्त् सूचनाआें पर आधारित होगा । यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि राज्यों से मंगाए गए विवरण में पर्यावरण की कौन-कौन सी क्षतियां शामिल की जाएंगीं । केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन ने भारत में होने वाली पर्यावरणीय क्षति का अनुमान लगाना प्रारंभ कर दिया है । कुछ राज्यों में जैसे गोआ, कर्नाटक, तमिलनाडु और मेघालय ने कुछ मार्गदर्शी अध्ययन शुरू कर दिए हैं । इन अध्ययनों में जनसेवकों, समाजकर्मियों व मीडिया से संबंधित लोगों को भी शामिल किया गया है । भारत को इस दिशा में चीन से सबक लेना होगा । चीन में राष्ट्रीय आय के उत्पादन की प्रक्रिया में पर्यावरणीय क्षति के बारे में अंतर्राष्ट्रीय अनुमान राष्ट्रीय आय के ८.१२ प्रतिशत के बराबर थे, परंतु चीन ने अपनी आर्थिक प्रगति की ऊंची दर के दावे पर इस अनुमान के प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए इस क्षति के अनुमान को कम करके अर्थात ३.०५ प्रतिशत के बराबर ही बताया है । हमें तो व्यापक दीर्घकालीन हितों की दृष्टिगत रखकर पर्यावरणीय क्षति के जो भी आंकड़े सामने आए हैं उन्हें स्वीकार कर पर्यावरणीय क्षति को कम करने तथा न्यूनतम बनाने की दिशा में कदम उठाने चाहिए । चीन ने तो हरित राष्ट्रीय आय की गणना में भू-जल भण्डारों को क्षति तथा मिट्टी के प्रदूषण की हानि को शामिल ही नहीं किया था । इस तरह की हेराफेरी कर अगर पर्यावरणीय क्षति के बारे में भ्रम बनाए रखना है तो हरित राष्ट्रीय आय की गणना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा ।***
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