कार्बन कटौती के लक्ष्यों पर ५५ देशों की हामी
संयुक्त राष्ट्र के समक्ष ५५ देशों ने २०५० तक अपने हिस्से की ग्रीनहाउस गैसों में कटौती की प्रतिबद्धता जताई है । वैश्विक उत्सर्जन में इन देशों का योगदान ७८ फीसदी है । अमरीका, चीन, यूरोपीय संघ और भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े प्रदूषणकारियों ने २०२० तक उत्सर्जन में कटौती की अपनी पिछली प्रतिबद्धताआें को ही दोहराया है । कोपेनहेगन में दिसम्बर में जलवायु पर वार्ता के बाद यह समझौता सामने आया । समझौते के मुख्य बिंदु थे - वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना, विकासशील देशों को दीर्घावधि में सौ अरब डॉलर का वित्त मुहैया कराना और अल्पकाल में गरीब एवं ज्यादा संवेदनशील देशों को ३० अरब डॉलर का वित्त मुहैया कराना सहायता राशि को इकठ्ठा करने और इसके वितरण के लिए स्पष्ट प्रणाली नहीं है लेकिन अगले चरण का समझौता मई में बान में होना है । चीन ने २००५ की तुलना में वर्ष २०२० तक कार्बन तीव्रता को ४० से ४५ फीसदी तक घटाने की प्रतिबद्धता दोहराई है जबकि भारत ने २० से २५ फीसदी कार्बन उत्सर्जन कटौती की बात कही है । मैक्सिको ने अभी तक अपने लक्ष्य के बारे में रिपोर्ट नहीं सौपी है । समझौते का मसौदा २९ देशों ने तैयार किया लेकिन सिद्धांत रूप में इसे अमरीका, चीन, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने सम्मेलन के अंतिम कुछ घंटों में तैयार किया । ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्तरी अमरीका में पेड़ों के विकास पर असर पड़ा है और पिछले २०० सालों की तुलना मेंं सबसे तेज गति से बढ़ रहे हैं । अखबार द इंडिपेंटेंड में छपी रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने दुनिया के सबसे पुराने पेड़ों के विकास का अध्ययन कर यह नतीजा निकाला है । अध्ययन में ५५ क्षेत्रों में लगाए गए तरह-तरह के पेड़ों के विकास का २५ वर्षो तक अवलोकन किया गया वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पेड़ों का विकास पिदले २०० सालों की तुलना में सबसे अधिक रहा है।
जीव-जन्तुआें की ४१ हजार प्रजातियों पर मंडराया खतरा
दुनियाभर में बेजुबान जीव जन्तुआें पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं । आवास स्थलों में इंसानी घुसपैठ और विपरीत परिस्थितियों के चलते ४१ हजार से अधिक प्रजातियां विलुप्त् होने के कगार पर हैं । अंतराष्ट्रीय संरक्षण संघ आईयूसीएन के आंकड़ों पर नजर डाले तो हालात अत्यंत गंभीर हैं जिन पर विचार करना लाजिमी हो जाता है। इस समय धरती पर जीव जंतुआें और पेड़-पौधों की लगभग ४१ हजार प्रजातियां विलुप्त् होने के कगार पर खड़ी हैं । जैव विविधता के ह्रास की दर निरंतर बढ़ रही है और इसे रोकने की तुरंत जरूरत है,ताकि पशु पक्षियों और पेड़ पौधों की खतरे में पड़ी प्रजातियों को संरक्षित किया जा सके । इस ओर समाज के हर तबके को सोचने की जरूरत है । रिपोर्ट के अनुसार जैव विविधता की दर में निरंतर हो रही कमी और इंसानी हस्तक्षेप के चलते विलुप्त् होने वाली प्रजातियों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है । यदि सरकारों ने समय पर सही कदम नहीं उठाए तो यह स्थिति और भी भयावह हो सकती है । वर्ष २००६ तक खतरे की जद में आने वाली प्रजातियों की संख्या १६ हजार ११८ थी, लेकिन अब यह संख्या ४१ हजार से ऊपर पहुंच चुकी है । प्रत्येक चार स्तनधारियों में एक, आठ पक्षियों में से एक तथा उभयचरों जलचरों और थलचरों की एक तिहाई आबादी खतरे में है ।
क्या महासागरों में खत्म हो जाएगा जीवन ?
यदि धरती पर पर्यावरण का संकट बरकरार रहा, तो समुद्र में जीवन खत्म हो जाएगा । इसकी वजह है महासागरों के गहरे पानी में कम होती आक्सीजन । यह कुछ वैसा ही नजारा होगा जैसा हजारों साल समुद्र में ज्वालामुखी फटने पर हुआ होगा । महासागरों के अध्ययन बता रहे हैं कि समुद्र में `डैड जोन' बनते जा रहे हैं। धरती पर अनाज उपजाने के लिए उर्वरकों का जमकर उपयोग किया जाता है । मिट्टी मेंे मिले ये रासायनिक उर्वरक नदियों में मिलकर समुद्र में पहुंचते हैं । जिनसे समुद्र की वनस्पति और जीव जंतु नष्ट होते हैं । पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट होता जा रहा है । तब `डेड जोन' बनता है । पूरी दुनिया के सागरों और महासागरों में ऐसे ४०० `डैड जोन' बन चुके हैं। एक और बड़ा खतरा है महासागरों में तेजी से आक्सीजन का कम होना । विशेषज्ञों की राय में इस सदी के अंत तक महासागरों में घुली हुई आक्सीजन के स्तर में ७ फीसदी तक की गिरावट आ सकती है । महासागरों में आक्सीजन केवल बारिश पानी से पहुंचती है । बरसात का पानी या तो धरती में विलीन हो जाता है या समुद्री जलधाराआें में प्रवाहित होकर गहरे महासागरों तक पहुंचता है । जलवायु परिवर्तन के चलते ये दोनों प्रक्रियाएं प्रभावित हो रही हैं । समुद्र की सतह का जल गर्म होकर हल्का हो जाता है और इस प्रक्रिया में पानी में से आक्सीजन निकल जाती है । आक्सीजन की कमी पानी में रहने वाले जीवन को नष्ट करती है ।एक तिहाई से ज्यादा हिस्सों में भू गर्भ जल का संकट ब देश का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा भू गर्भ जल संकट की चपेट मेंहै । कुल ५७२३ ब्लाक में से ८३९ अत्यधिक भू गर्भ जल के दोहन के कारण डार्क जोन में चले गये हैं जबकि २२६ की स्थिति क्रिटिकल और ५५० सेमी क्रिटिकल जोन में है । पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु गंभीर रूप से इस संकट का सामना कर रहे हैं जबकि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, गुजरात और केरल भी इस समस्या से अछूते नहीं है । दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्रों की स्थिति और गंभीर है । दिल्ली के कुल नौ ब्लाक में से सात भू-गर्भ जल के अत्यधिक दोहन के कारण डार्क जोन में चले गए हैं । मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भी यह समस्या शुरू हो गयी हैं । अधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार राज्यों में पंजाब की स्थिति भयावह है जहां १३७ ब्लाक में से १०३ डार्क जोन में, पांच क्रिटिकल और चार सेमी क्रिटिकल जोन में है । हरियाणा के ११३ ब्लाक में से ५५ डार्क , ११ क्रिटिकल और पांच सेमी क्रिटिकल है। रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान के २३७ ब्लाक में से १४० डार्क जोन में है जबकि ५० क्रिटिकल और १४ सेमी क्रिटिकल जोन में है । आन्ध्र प्रदेश में २१९ ब्लाक डार्क जोन में, ७७ क्रिटिकल और १७५ सेमी क्रिटिकल जोन में हैं । तमिलनाडु के ३८५ ब्लाक में से १४२ डार्क,३३ क्रिटिकल और ५७ सेमी किटिकल जोन में है । उत्तर प्रदेश में भी भू गर्भ जल संकट की समस्या शुरू हो गई है । इस राज्य के ८०३ ब्लाक में से ३७ डार्क, १३ क्रिटिकल और ८८ सेमी क्रिटिकल जोन मेंे आ गये हैं । उत्तराखंड की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी है । यहां दो ब्लाक डार्क तथा तीन सेमी क्रिटिकल जोन में हैं । पश्चिम बंगाल में यह समस्या शुरू हुई है । यहां के २६९ ब्लाक में से एक क्रि टिकल और ३७ सेमी क्रिटिकल जोन में है । गुजरात के २२३ ब्लाक में से ३१ डार्क जोन में आ गया है जबकि १२ क्रिटिकल और ६९ सेमी क्रिटिकल जोन में है । केरल के १५१ ब्लाक में से पांच डार्क जोन में है जबकि १५ क्रिटिकल और ३० सेमी क्रिटिकल स्थिति में है । पूर्वोत्तर क्षेत्र के असम, अरूणांचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, उडीसा और बिहार में भूगर्भ जल संकट की समस्या नहीं है।
गंगा पर विश्व बैंक के साथ हुए करार पर सवाल
गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किये जाने के बाद उसे प्रदूषण मुक्त किये जाने की राष्ट्रीय नीति के तहत विश्व बैंक और भारत सरकार में १५००० करोड़ खर्चने को लेकर बनी सहमति पर `गंगा और हिमालय बचाओ' अभियान समिति ने सवाल उठाया है । गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण व विश्व बैंक के उच्च् पदस्थ सूत्रों के अनुसार लगभग दस दिन पूर्व १५००० करोड़ रूपए की सहमति बनने के बाद गंगा नदीकी सफाई का प्रारूप बनाने के लिए आठ, नौ एवं दस फरवरी को दिल्ली में आायेजित संगोष्ठी में गंगा के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण के साथ व्यावहारिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की बात कही गयी । गंगा को लेकर सारे देश में अलख जगा रहे गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य राजेन्द्रसिंह ने कहा कि इस काम में विकास और विज्ञान के साथ तालमेल बैठाया जाएगा । उन्होंने कहा कि अपने उद्गम स्थल से कानपुर तक यह पवित्र नदी एक गंदे नाले में बदल जाती है । हरिद्वार को जो पहचान गंगा से सारे विश्व में हैं वहंा भी औद्योगिक विकास के नाम पर दूसरा कानपुर विकसित किया जा रहा है । इसके साथ ही अन्य वक्ताअेां ने भी गंगा की दशा पर चिंता जताई ।***
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