भुआकृति नियोजन और पर्यावरण
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल
वर्तमान समय नियोजन का है जिसने अपनी परिस्थितियों एवं शक्तियों को जितना अच्छी प्रकार से नियोजित कर लिया वही तो विकास के प्रतिमान गढ़ता गया । स्पर्धा के इस अंधे युग में हमें भू आकृति एवं भूदृश्यों के प्रति सचेत होना ही पड़ेगा । यद्यपि भारतीय जीवन दर्शन एवं चिंतन में सुक्ष्मातिसूक्ष्म शक्तियों के नियोजन कि पुरातन और सनातन परम्पराएँ हैं । जिनके बल पर आदिम से आधुनिक के बीच भारत ने न केवल तरक्की की है वरन वह जगत गुरू भी रहा है और महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है किंतु आधुनिक काल में अमेरिका के टेनेसी घाटी परियोजना के क्रियान्वयन ने विश्व का ध्यान गतिक आकारिकी की और आकर्षित किया इसी प्रकार से भारत में दामोदर घाटी परियोजना अस्तित्व मान हुई थी । दरसल भौतिक पर्यावरण का प्रभाव मानुषी क्रियाआें एवं अनुक्रियाआें पर व्यापक रूप से पड़ता है । हम यह बात शिद्दत से जानते हैं कि बीहड़ ईलाके असामाजिक तत्वों के शरणस्थली होतेहैं । यदि इन बीहड़ एवं असुरक्षित क्षेत्रों के भूआकृति नियोजन एवं विकास पर समुचित ध्यान दिया जाए तो न केवल उर्वर धरती का उपयोगी परिक्षेत्र बढ़ाया जा सकता है वरन पर्यावरण सुधार के साथ जन जीवन को भी संवारा जा सकता है । नदियों के बेसिन पर बार बार आने वाली बाढ़ को भी नियंत्रित किया जा सकता है तथा प्राकृतिक संसाधनों को विकसित एवं परिरक्षित किया जा सकता है । भू-आकृति एवं भूदृष्य नियोजन में कुछ भौतिक एवं नैतिक जिम्मेदारियों का नियोजन भी जरूरी है आज चारो और बहुमंजिला भवनों का निर्माण तेजी से हो रहा है । मजिल पर मंजिल रखते हुए गगन की उँचाईयों को छू लेना चाहिए । हमारे बिल्डर किंतु रियल स्टेट की प्रतिस्पर्धा में तथ अतिउत्साह में वह भूकम्प के प्रति अतिसंवेदनशील इलाको में ऐसा भारी निर्माण करने की भूल कर रहे हैं । क्या वह धरती की भूगर्भित हलचलों से अंजान है । यह विचारणीय प्रश्न है अत: सरकारों के साथ-साथ सामान्यजन को भी इस दिशा में उत्तरदायी होना होगा । हिमालय के पहाड़ो पर हमने सघन वनों का विनाश किया है और अस्थिर भूमि पर कांक्रीट के जंगल खड़े करने से भी गुरेज नहीं किया है । यह चिंतनीय एवं निंदनीय है । क्यों कि कटे हुए पहाड़ का मलवा असंतुलित एवं अनियंत्रित होकर भू स्खलन बढ़ाता है । जिससे पहाड़ी नदियों में गाद भरती है एवं बाढ़ आती है । जल के प्रभाव में अवरोध खड़े हो जाते हैं नाजुक पर्वतों को खोदना आत्मघाती है । हमें पहाड़ों को काटने की बजाय वनी करण द्वारा उन्हें पेड़ों का कवच पहनाना चाहिए पहाड़ों के सरसब्ज रहने से ही नदियों का प्रवाह संतुलित रहता है । नदियों पर बड़े बाँधों का निर्माण भू-आकारिकी से खिलवाड़ ही कहा जायेगा क्यों कि प्रकृति की संतुलित शक्तियों पर जब हम अतिरिक्त बोझ लादते हैं तो प्रकृति की नियामक व्यवस्था चरमराती है और आपदा आती है ।टिहरी बाँध परियोजना के आरम्भ और अंत तथा निर्माण एवं ध्वंस के बीच अनेक द्वन्द एवं विवादों को हमने देखा तथा समझा है । नदियो पर बाँध बनाकर उनके जल का उपयोग जल विद्युत एवं सिंचाई मे करना बड़ा भुआकारिक अनुप्रयोग होता है । इससे मानुषी समाज जहाँ थोड़ा सा कुछ पाता है, वहीं बहुत कुछ खोता है । क्योंकि इसके लिए नदियों को मीलों दूर तलक अंधी सुरंग में डालकर हम उनका प्राकृतिक निर्झर रूप बदल डालते है । दरअसल हमे अलौकिक प्राकृतिक सम्पदाआें को निहित स्वार्थ में भौतिक सम्पत्ति के रूप मे देखते हैं । नदियाँ पहाड़ों से टकराकर सर्पाकार गति में बहती है तो प्रवाहित जल प्राकृतिक रूप से शुद्ध होता है किन्तु बंधन में इन नदियों की यह नैसर्गिक शक्ति समाप्त् हो जाती है । नदी की स्वभाविक गति भौतिकता के बंधन में नहीं वरन सागर में विसर्जित होने में है । भू-आकृतिक को बदलने में परिवहन की महती भूमिका होती है । विकसित परिवहन एवं संचार साधनों को किसी भी राष्ट्र की उन्नति का सूचक कहा जाता है । सड़क मार्ग, रेल मार्ग के साथ हवाई अड्डों तथा अन्य परिवहन साधनों का व्यापक विस्तार हमारे देश में भी हुआ है । अनेक महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बनी हैं किन्तु कोई भी निर्माण करने से पूर्व प्रकृति के अवदान को समझना जरूरी है। स्थलाकृति चट्टानों को प्रकृति, शैलिकी (लिथोलोजी) आदि का सम्यक ज्ञान जरूरी है ताकि निर्माण के दरम्यान कोई नई समस्या खड़ी न हो । किसी भी सड़क मार्ग का निर्माण करने में अथवा उसके चौड़ीकरण में पेड़ों का बलिदान क्या कम होता है और अब तो भौतिकता के व्यामोह में फोरलेन सड़कों का विस्तार व्यापकता से हो रहा है । क्या हमने विचार किया है कि विकास के प्रतिमान गढ़ते हुए आदमी क्या खो रहा है ? देश में खुशहाली प्रगति एवं विकास का नारा देकर कई-कई लेन वाले मार्गो का निर्माण किया जा रहा है । देश के चार महानगरों को जोड़ने वाली महत्वाकांक्षी स्वर्ण चर्तुभुज योजना अस्तित्वमान हो चुकी है । अब उत्तर प्रदेश शासन ने राज्य में गंगा एक्सप्रेस नामक महत्वाकांक्षी परियोजना का प्रस्ताव किया है । ग्रेटर नोएडा के ताज एक्सप्रेस वे से इस मार्ग का सम्पर्क होगा । यह परियोजना ग्रेटर नोएडा से गाजीपुर तक विस्तारित होगी । परियोजना का नरोरा( बुलन्दशहर) से नारायणपुर (गाजीपुर) तक ७७० किलोमीटर मार्ग गंगा के किनारे से गुजरने तथा शेष भाग उपजाऊ खेती की भूमि को अधिग्रहित करके लिया जायेगा। इस मार्ग पर भारी निर्माण कार्य होगा । सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ७० हजार हरे पेड़ों का बलिदान भी होगा । पर्यावरण विदों को परियोजना पर आपत्ति है । वास्तव में सपनीली परियोजना को अमली जामा पहनाने से पहले उसके संबंधित सभी पहलुआें पर सम्यक विचार विमर्ष जरूरी होगा । क्योंकि ऐसा विकास प्रदूषणकारी होने के साथ-साथ पर्यावरण का हास करता है इससे अधिग्रहित क्षेत्र से लोगों को भी पलायन का दर्द झेलना पड़ता है तथा जीव-जन्तुआें के प्राकृतिक निवासय नष्ट होते हैं यह प्रकृति हमारे साथ-साथ अन्य पशु-पक्षियों की भी है । धरती के गर्भ में यूँ ही हलचल चलती रहती है । फिर गंगा सरीखी पावन नदी से खिलवाड़ व्यापक भूआकारिकी दृश्यावली बदलेगा और यह सर्वथा अनुचित सिद्ध होगा । जल हमारे जीवन हेतु जरूरी तत्व हैं । प्रकृतिक दृश्यावलियों में नदियाँ, सरिताएँ, तालाब झील एवं जल प्रपात आदि स्थलाकृत जलस्रोत होते है । हिमानी एवं परिहिमानी परिक्षेत्रों मे भूजल बहुतायात में मिलता है । चूना पत्थर के पहाड़ों पर चूना की चट्टानों से प्रवाहित होता हुआ वर्षा का जल भूमिगत होता है तथा वही जल धरती से फूटकर जल प्रपात एवं जलस्रोत बनाता है किन्तु अब झीलों में गाद भराव जारी है । प्रश्न यह है कि झीलों के किनारे पर्यटक स्थलों का निमार्ण क्या कम भारी है । यही तो चिंता हमारी है कि प्रदूषण के कारण असमय मर रही । झीलें और धुंधला रही है उनकी दृष्टि तालाबों को पाटकर भूमि पर युद्धस्तर पर आवासीय उपयोग हो रहा है । नदियों के तटों पर अतिक्रमण द्वारा निर्माण जारी है । नदियाँ सूखकर सिमटती जा रही है । इस बीच नदी जोड़ परियोजना का प्रारूप भी सामने आया है किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि जब नदी स्वयं की प्यास नहीं बुझा पा रही हैं तब उनके जल को अन्यत्र जोड़ना क्या धन और श्रम का अपव्यय नहीं होगा ? क्या यह अप्राकृतिक जुड़ाव नदियों की पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण को नष्ट नहीं करेगा । क्या यह हमारे व्यवस्था तंत्र को और भी अधिक भ्रष्ट नही करेगा? विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के नाम पर आज कृषि भी सिकुड़ रही है । कृषि भूमि पर उद्योग स्थापित हो रहे हैं। कृष्य भूमि का रकबा तो घट ही रहा है वह कुपोषण का शिकार भी हो रही है । कीट नाशकों के अंधाधुंध प्रयोग (दुरूपयोग) से नशीली हो गई है धरती । उत्पादन घट गया है । खाद्यान्न कम होने से भूख एवं महंगाई हमारे सामने है । इस सूरतेहाल में कृषि के घटते रूझान पर तुरन्त चिंता एवं चिंतन करने की जरूरत हैं। विकास के नाम पर धरती का बड़ा भाग ऐश्वर्यशाली ड्रीम प्रोजेक्ट्स में लगा दिया जा रहा है । कृत्रिम भूदृश्यावलियों ने प्राकृतिक दृश्यों को नष्ट किया है । प्रकृति विन्यस्त संरचनाएं लुप्त् हो रही है । यूँ तो समय पर वर्षा भरपूर नहीं होती है किन्तु फिर भी बरसात में बाढ़ के दृश्य दिखलाई देते है इसका कारण है नदियों के तटों पर अवैध निर्माण । अनियोजित एवं अनयंत्रित निर्माण नगरों-महानगरों के जल उपवाह (ड्रेनेज) को बिगाड़ देता है। जिससे बाढ़ आती है और पानी के साथ गंदगी घरो में घुस आती है । अब तो उन स्थानों पर भी बाढ़ के दृष्य उपस्थित होने लगे हैं जहाँ यह समस्या नहीं होती थी । जल तो प्रवाह चाहता है जब हम अधिकृति रूप से जलग्रहण क्षेत्रों में अतिक्रमण करते हैं तो वह भी कहर ढाता है और जन जीवन चरमराता है । दरअसल हमने धरती के स्वरूप को बिगाड़ा है । भूआकृतियों को संवारने के नाम पर उनको विकृत कर डाला है विकास की अंधी दौड़ में हम न तो सैद्धांतिक रहें हैं और न ही व्यवहारिक रहे हैं । जबकि पर्यावरणीय प्रबन्धन एवं भूआकारिकी का विवेकपूर्ण अक्षय अनुप्रयोग पर्यावरणविदों एवं आर्थिक नीति निर्माताआें को समन्वय से करनी चाहिए । भौतिक्तावादियों को अपने विरोधाभासी अंतर को कम करना चाहिए । भूविदों के अनुसार भी पर्यावरण सम्मत भूआकारिक के अंतर्गत प्राकृतिक प्रकमों, मानुषी क्रियाकलापोंके तथा इन क्रिया कलापो के अध्यययन एवं इन पर्यावरणीय प्रकरणों पर प्रभाव जनित समस्याआें के निदान में सहायता मिलती है । दरअसल हम प्रकृति को अनुचरी समझने के अपने अहं भाव के कारण अपदाआें से हारते है । संसाधन विदोहन पर्यावरण प्रबन्धन तथा नियोजन के द्वारा हमें भूकृतिकी के व्यवहार मेंढलना होगा तभी हम अपने विकास और विनाश और विनाश के अंतर को समझ सकेंगे । संसाधनों का मूल्य समझ सकेंगे तथा जीवन में नियोजित रहेंगे अन्यथा बाढ़, सूखा, भूस्खलन ज्वालामुखी विस्फोट भूकम्प, सुनामी और तूफान हमें सताते और सचेत करते रहेंगे ताकि हम पर्यावरणीय भू-आकृति नियोजन की अर्थवत्ता को समझकर तदरूप आचरण कर सकें ।***
खतरे में चिड़ियों का अस्तित्व
आंख खुलते ही अपने घर की मुंडेर या पड़ौसी के छज्जे परचीं-चीं करती चिड़ियों के झुंड अब दिखाई नहीं देते । कभी कभार आसमान में उड़ती इक्का दुक्का चिड़िया नजर आती हैं, लेकिन चिड़ियों की कई प्रजातियां लुप्त् होने के कगार पर हैं और कोई आश्चर्य नहीं कि निकट भविष्य में चिड़ियेंा की चहचहाहट कभी सुनाई नहीं पड़े । इंसानी आबादी के पास रहने वाली गौरेया और नीलकंठ लगभग खत्म हो चुके हैं जबकि मैना, बुलबुल, तीतर, हरी और स्लेटी सिर वाली फुदकी एवं फिन बया धीरे - धीरे लुप्त् होती जा रही है । इसका कारण घरों में घोंसले की जगह न होना और चारागाहों का खत्म होना है । फसलों पर अत्यधिक कीटनाशकों के प्रयोग के कारण भी पक्षी लुप्त होते जा रहे हैं । ऊंचे स्थानेां पर रहने वाले पक्षियों की प्रजातियों पर भी संकट कम नहीं है । वहां रहने वाली हार्नबिल, कठफोड़वा, फेंकोलिन, मिनी बेड्स, आदि पर भी अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें