पर्यावरण से दुश्मनी निभाता विकास
अमिताभ पाण्डेय
मनुष्य और प्रकृति के बीच ऐसे सम्बंध है कि प्रकृति के बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । जल, जंगल, जमीन से मनुष्य को जीवन जीने की शक्ति मिलती है । प्रकृति ने मनुष्य को बिन मांगे अनमोल उपहार दिए हैं । स्वच्छ हवा, साफ पानी, खाद्यान्न के लिए उपजाऊ भूमि, फलदार वृक्ष आदि के साथ ही प्रकृति के अन्य साधन मनुष्य के जीवन को स्वस्थ व ऊर्जावान बनातेहैं । वैज्ञानिकों द्वारा अनेक शोध के उपरांत जो निष्कर्ष निकाले हैं उनसे यह साबित हो गया है कि प्राकृतिक वातावरण को बेहतर बनाए रखते हुए ही मानव जीवन का आनंद लिया जा सकता है । प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाने से मानव जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । इस सर्वमान्य तथ्य का ज्ञान होने के बाद भी मानव जीवन में सुख सुविधाआें के प्रति बढ़ते मोह ने नए-नए आविष्कारों को जन्म दिया है । ऐसे आविष्कार प्रकृति व पर्यावरण के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए जल, जंगल, जमीन, आकाश, पाताल हर तरफ मनमाने प्रयोग किए और प्रकृति के द्वारा उपलब्ध साधनों का हद से अधिक दुरूपयोग किया । अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य प्राकृतिक वातावरण को लगातार नुकसान पहुंचाता चला जा रहा है । वैज्ञानिकों द्वारा बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद प्रकृति से अधिकतम पदार्थ प्राप्त् कर लेने की इच्छा खत्म नहीं होरही । प्रकृति का दोहन खूब हो रहा है । प्राकृतिक संसाधनों के निरंतर एवं असीमित दोहन ने दुनियाभर में पर्यावरण के लिए चिंताजनक स्थिति निर्मित कर दी है । अपने लाभ के लिए मनुष्य द्वारा विकास के नाम पर कई ऐसे आविष्कार भी कर दिए गए जो जल, जंगल, जमीन में जहर घोल रहे हैं, जानवरों की मौत का कारण बन रहे है । प्रकृति के उपहारों का ऐसा दुरूपयोग किया कि धरती, आकाश, पाताल जहां से मिल सकता था उसे लेने में कोई कसर बाकी न रखी । इस बेहिसाब दोहन का यह नतीजा है कि आज पर्यावरण का संकट पूरी दुनिया पर छा गया है । पर्यावरण संकट के दुष्परिणाम अकाल, बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन जैसी आपदाआें के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं । पर्यावरण संकट से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाआें के कारण होने वाली जन-धन आदि की हानि भी विकास की अंधाधुंध रफ्तार को नहीं रोक पाई है । उपजाऊ जमीन, घने जंगल, अनेक प्रकार केजल स्त्रोत सहित अन्य प्राकृतिक संसाधन विकास की सीमा रेखा को खतरा साबित हो चुके विकास की सीमा रेखा को बहस से सर्वसम्मति तक की प्रक्रिया तय नहीं हो पाई हैं । विकास की कोई सीमा रेखा तय न होने का नतीजा यह है कि आज अधिकांश जल स्त्रोत प्रदूषित होकर समािप्त् की ओर जा रहे हैं । जल संकट साल दर साल गहराता जा रहा है । हरी-भरी जमीन जलविहीन होकर रेगिस्तान में बदलने की स्थिति है । हवा में बढ़ता जहरीला धुआं बढ़ते-बढ़ते ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचाने की स्थिति निर्मित कर चुका है । धरती का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है जिसके चलते प्रकृति में अनेक नुकसानदेह परिवर्तन हो रहे हैं । ऐसे हालात में यह जरूरी हो गया है कि विकास को इस प्रकार सीमित व व्यवस्थित बनाया जाए कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कायम रह सके। विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार निर्धारित किया जाए कि उससे प्राकृतिक संसाधनों पर विपरीत प्रभाव न हो । इसके लिए यह भी आवश्यक है कि विकास की कोई गतिविधि शुरू करने के पूर्व ही उससे होने वाली पर्यावरणीय क्षति, प्राकृतिक नुकसान का सही-सही आकलन किया जाए । जहां विकास किया जा रहा है वहां का प्राकृतिक पर्यावरण कैसे बनाए रखा जाए इस बारे में गंभीरता से विचार होना चाहिए। यदि विकास के साथ-साथ पर्यावरण की भी गंभीरता से चिंता की जाए तो बिगड़ती प्राकृतिक स्थिति पर कुछ रोक लगाना संभव है । विकास और पर्यावरण के बीच शासन, प्रशासन, निजी स्तर पर पर्यावरण को ही प्राथमिकता दी जाना चाहिए । केवल सेमिनार, संगोष्ठी में ग्लोबल वार्मिंग पर विशिष्टजनों के बीच चर्चा, चिंतन लिए जनमानस के बीच जागरूकता अभियान को तेजी से चलाए जाने के साथ ही पर्यावरण की दुश्मन बनी कंपनियोंपर भी कड़ी कार्यवाही करना जरूरी है । पर्यावरण को विकास के नाम पर सबसे ज्यादा नुकसान पूंजीपति देशों, पूंजीपतियों, उद्योगों और उद्योगपतियों ने ही पहुंचाया है । अभी स्थिति यह है कि विकास के नाम पर उपजाऊ एवं उपयोगी भूमि को उद्योगपतियों के हवाले किया जा रहा है। इस बारे में पर्यावरण की चिंता करने वालों द्वारा उठाए गए सवाल छोटे-बड़े आंदोलन के आसपास ही सिमटकर रह गए है । सघन वृक्षोेंसे भरे आवासीय क्षेत्र भी व्यावसायिक परिसरों में बदलते जा रहे हैं। हरियाली पर व्यापारी कैसे भारी पड़ते हैं इसका ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में देखा जा सकता है । भोपाल में न्यू मार्केट इलाके को ठीक उसी तरह माना जाता है जैसा कि दिल्ली में कनाट प्लेस है । न्यू मार्केट क्षेत्र के नजदीक स्थित साऊथ तात्या टोपे नगर मेंएक व्यापारिक कंपनी को ऐसी जगह दे दी गई जहां लगभग २०० पुराने मकानों के साथ ही २००० से ज़्यादा पेड़ पौधों को नष्ट करना भी जरूरी हो गया है। इस सौदे को हासिल करने के बाद कंपनी ने सारे मकान जमीदोंज करके आसपास से गुजरने वाले रास्ते बंद किए और अब ५० वर्षोंा से भी पुराने विशाल वृक्षों को काट डालने के पूरे इंतजाम कर लिए है । पर्यावरणवादी संस्थाआें के प्रयास भी इसे नहीं रोक पा रहे है । सवाल यह है कि इलाके के दो हजार से ज्यादा पेड़ काट दिए जाएं व आम जनता के आने-जाने के रास्ते बंद हो जाए तो यह कैसा विकास हैं ? क्या यह विकास वाकई जनहित में है ?
चंद्रयान -१ ने खोजा बर्फ का भंडार
भारत के चंद्रयान -१ ने अमरीकी अंतरिक्ष ऐजेंसी नासा की मदद से चांद के उत्तरी ध््राुव पर बड़ी मात्रा में बर्फ का भंडार खोज निकालाहै । इस अभियान से जुड़े नासा के वैज्ञानिकों का मानना है किचंद्रयान-१ की मदद से चांद के उत्तरी ध््राुव पर कम से कम ६० करोड़ मीट्रिक टन बर्फ का भंडार होने का पता लगाया गया है । चंद्रयान ने नासा के मिनी-एसएआर नाम के हल्के आकार के राडार की मदद से इस खोज में सफलता हासिल की है । वैज्ञानिकों का दावा है कि चांद पर ४० ऐसे छोटे आकार के क्रेटरों का पता लगाया गया है, जो बर्फ से भरे हैं । इन क्रेटरों का व्यास दो से १५ किलोमीटर तक का है ।
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