महाराष्ट्र : पराम्परागत फसलों की वापसी
सुश्री अपर्णा पल्लवी
महाराष्ट्र के सहयाद्री क्षेत्र में प्रचलित एक पौष्टिक मोटे अनाज का बीज दोनों किनारों पर नुकीला दिखता है । परंतु जंगली दिखने वाला दुर्लभ पौष्टिकता से भरपूर यह अन्न बाजार के प्रभाव से विलुप्त् होता जा रहा है । अहमदनगर जिले के कृषि विभाग एवं स्थानीय कृषि विश्वविद्यालयों के पास इस फसल की कोई जानकारी तक नहीं है जिससे कि इसका वैज्ञानिक नामकरण कर सकें । परंतु स्थानीय महादेव कोली एवं ठकार आदिवासी इसे बतु कहकर पुकारते हैं । तेजी से विलुिप्त् की ओर बढ़ रहे इस अनाज को लोक पंचायत नामक स्थानीय संस्था ने स्थानीय फसलों एवं बीजों को बचाने के अपने अभियान के तहत गत वर्ष पुर्नस्थापित किया । यह संस्था पिछले १५ वर्षां में संगमनेर एवं अकोले तहसील के २२ गांवो में स्थानीय फसलों की १२० किस्मों को संरक्षित एवं पुर्नस्थापित कर चुकी है जिसमें धान, मोटे अनाज, फलियां, तिलहन एवं सब्जियां शामिल हैं । संस्था के अध्यक्ष सारंग पांडे का कहना है कि आदिवासियों को प्रोत्साहित करना आसान नहीं था । अपनी स्थानीय फसल पद्धति का परित्याग कर टमाटर और प्याज एवं हाईब्रीड अनाज जैसी नकद फसल उगाने लगे थे । दो वर्षोंा के भीतर ही दो अनमोल पौष्टिक अनाज देओथान बाजरा और धान की विभिन्न किस्में जिसमें खुशबुदार कालभात एवं काला सा दिखने वाला साधारण धान, खांड्या नामक मूंगफली एवं फलियों की अनेक किस्में विलुिप्त् के कगार पर पहुंच गई थी । आदिवासियों का झुकाव नकद फसल की ओर होने की एक वजह यही भी थी कि इससे प्राप्त् धन से वे आसानी से बाजार से खाद्यान्न खरीद सकते हैं । श्री पांडे का कहना है कि भोजन के बजाए धन उनकी समझ में आया कि इन नई किस्मों में वैसा स्वाद नहीं है जैसा कि स्थानीय फसलों में होता है । इतना ही नहीं उनकी समझ में आया कि उनमें स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं जैसे थकान एवं एनिमिया बढ़ती जा रहीं है जो कि पहले कमोवेश दुर्लभ थी । परंतु वे अपनी नवअर्जित नकद शक्ति को छोड़ने को तैयार नहीं थे । अतएव संस्था ने मध्यमार्ग अपनाया और किसानों से कहा कि वे नकद फसलें तो बोएं लेकिन थोड़ा सा टुकड़ा पारम्परिक फसलों के लिए सुरक्षित कर दें । नवनाथ काले, संगमनेर तहसील के पुखरी बालेश्वर गांव के उन किसानों में से थे जिन्होंने इस प्रक्रिया को सबसे पहले अपनाया । वे अपने ५ हेक्टेयर के खेत में प्याज और हाईब्रीड बाजरा लगाते थे । ६ वर्ष पूर्व उन्होंने ०.४ हेक्टेयर में देओथान बाजरा बोया । पहले ही वर्ष में परिणाम सामने आए । श्री काले बताते है कि आप देओथान बाजरा और हाईब्रीड बाजरा की तुलना ही नहीं कर सकते । इसे खाने के बाद उनके परिवार की भूख में वृद्धि हुई एवं छोटी लेकिन दिखाई देने वाली बीमारियों जैसे थकान, जकड़न एवं दर्द, सुस्ती एवं कमजोरी दूर हो गई । इससे चारा भी अधिक हुआ । काले अब दुगनी जगह में इसकी खेती करते हैं और बाजरा के अतिरिक्त विलुिप्त् के कगार पर खड़ी कई तरह की स्थानीय फलियां जिसमें हुल्गा प्रमुख हैं, भी लगाने लगे है । अकोले पंचायत के शिरपंंुजे खुर्द एवं धनमवान गांव के किसानों ने लालभात धान बोना प्रारंभ कर दिया है । उनका कहना है कि कालभात की उपज थोड़ी कम जरूरी होती है परंतु इसके जल्दी पकने अकाल प्रतिरोधकता, कम उपजाऊ भूमि पर लग जाना और बिना किसी रासायनिक खाद के प्रयोग से पैदावार की वजह से यह दीर्घावधि हेतु बेहतर विकल्प है । अगर धान के नजरिए से देखें तो हाईब्रीड का उत्पादन अधिक है । परंतु इसका भूसा निकालकर चावल बनाते हैं तो १०० किलोग्राम हाईब्रीड धान से ५० किलो चावल बनता है, परंतु कालभात धान का छिलका पतला होने के कारण इससे ७५ किलो चावल निकलता है । श्री पांडे और उनका दल जब और भीतर के गांवों में गया तो उन्हें जैसे खजाना ही हाथ लग गया हो । वहां पर महिलाएं स्थानीय मोटे अनाजों जैसे बतु आदि उपजा रही हैं । साथ ही वहां पर उपवास के दौरान भोजन को लेकर भी अनूठी सांस्कृतिक प्रथा से उनका साक्षात्कार हुआ जो कि पौष्टिकता की कमी को पूर्ण करने का प्रयास करती है । इस दौरान आसानी से पचने वाले पौष्टिक अनाज भागर, राजगिरा और बतु एवं अरबी का प्रयोग होता है । स्थानीय निवासियों के अनुसार भागर नसों को ठंडा करता है, राजगिरा खून बनाता है और बतु इतनी ताकत देता है जितनी कि कोई अन्य अनाज नहीं देता । इनका उपयोग करना स्वास्थ्यप्रद है । पारम्परिक भोजन के लाभों के प्रति जागरूकता के बावजूद अधिकांश किसानों ने हाईब्रीड फसलें उपजाना अभी नहीं छोड़ा है । बदलते मौसम और असंतुलित बारिश की वजह से भी किसान इन्हें लगाने में हिचक रहे हैं । उनका कहना है कि `अधिकांश मिलेट (मोटे अनाज) लम्बे होते है, इनका तना कोमल होता है और यह मद्धम बारिश की झड़ी में फूलते हैं । परंतु अब एकाएक तेज बारिश आ जाती है और हमारी फसलें या तो बारिश के मध्य अंतर की वजह से या भारी बारिश से नष्ट हो जाती है । बतु सरीखी फसल तो तेज बारिश के एक झोंके से बर्बाद हो जाती हैं । खंड्या नामक अत्यधिक पौष्टिक मूंगफली भी असंतुलित वर्षा का शिकार हो जाती है । इसे पकने में ६ महीने लगते हैं और पानी भी अधिक लगता है । इसलिए अब किसान इसे पूरे खेत में नहीं लगाते । वहीं दूसरी ओर गांव में तेेल निकालने की सुविधा समाप्त् होने का असर खुरसानी एवं जवास जैसे तिलहनों के उत्पादन पर पड़ा है । इसके अलावा पारम्पारिक अन्न केवल भूसा निकालने से ही प्रयोग में नहीं आ पाते । इनको प्रयोग में लाने हेतु अन्य प्रक्रियाआें का पालन करना होता है । नई पीढ़ी या तो इस प्रक्रिया से अनभिज्ञ है या श्रम नहीं करना चाहती । इस वजह से भी इनके उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है । विपरीत परिस्थितियों के बावजूद देओथान बाजरा एवं कालभात धान पुर्नस्थापित हो गए हैं । इसकी वजह यह है कि ये किसी भी तरह की मिट्टी में लग जाते हैं और अनियमित वर्षा भी इन पर अधिक प्रभाव नहीं डालती । लोक पंचायत के जरिए इन किस्मों को व्यावसायिक सफलता भी मिली है और ये स्थानीय बाजार में अन्य किस्मों के मुकाबले १० प्रतिशत अधिक मूल्य पर बिक रहीं हैं । लोक पंचायत ने निर्णय लिया है कि वह इन दो किस्मों का समुदाय आधारित पेटेंट जैव विविधता एवं किसान अधिकार कानून के अंतर्गत करवाएगी । श्री पांडे का कहना है कि हम चाहते है कि सभी १२० स्थानीय किस्मों के बीजों का पेटेंट स्थानीय समुदाय के नाम पर हो, जो कि शताब्दियों से इनका संरक्षण कर रहे हैं । उनका यह भी कहना है कि इस कार्य में मुश्किलें आ सकती हैं परंतु हम उनका मुकाबला करेंगे । ***
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