गरीबी मापने के नए पैमाने
सेव्वी सौम्य मिश्रा
गरीबी के निर्धारण में शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाआें को सम्मिलित करना स्वागत योग्य है । इसी के साथ यह बात भी उभर कर आई है कि गरीबों की संख्या में ९ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । परंतु वास्तविकता में यह आकड़ा इससे कहीं ज्यादा है । आवश्यकता इस बात की है कि गरीबी रेखा को नापने की एक न्यायोचित व्यवस्था विकसित की जाए जो कि अंतत: योजना आयोग को एवं सरकार को बाध्य करे कि वे अपनी गतिविधियों को गरीबी उन्मूलन की दिशा में निर्देशित करें । नवीनतम आंकड़ों से ज्ञात हुआ है कि भारत पूर्वानुमानों से ज्यादा गरीब मौजूद हैं । २००४-०५ हेतु गरीबी मापने के नए तरीकों से उभरे संशोधित अनुमानों के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या जो कि पूर्वानुमानों के अनुसार २८.३ प्रतिशत थी, से बढ़कर ३७.२ प्रतिशत पर पहुँच गई है । नए अनुमानों में खाद्य पदार्थोंा, मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाआें और शिक्षा को भी सम्मिलित किया गया है जबकि पूर्वानुमानों में मात्र प्रतिव्यक्ति कैलोरी उपभोग को ही गिना जाता था । इनके समावेशीकरण की अनुशंसा अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर जो कि आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य रहे हैं की अध्यक्षता वाली समिति ने की थी। समिति द्वारा अपानाई गई नई विधि के हिसाब से १९९३-९४ मं गरीबी के अनुमान ३६ प्रतिशत से बढ़कर ४५.३ प्रतिशत हो गए है । दूसरी वास्तविकता यह है कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या १९९३-९४ में ४५.३ से घटकर २००४-०५ में ३७.२ प्रतिशत रह गई है । दिल्ली स्थित राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त एवं नीति संस्थान के प्रोफेसर एन.आर. भानुमूर्ति का कहना है कि विकास के कारण १९९४ से २००५ के मध्य गरीबी में कमी आई है । गैर कृषि गतिविधियों में हुई वृद्धि से ही यह विकास हुआ है । हालांकि यह आलोचना का विषय है कि वृद्धि के बावजूद गरीबी में उतनी कमी नहीं आई जितनी की उम्मीद थी । अगर समिति के अनुशंसाआें को स्वीकार कर लिया गया तो प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की वजह से देश पर अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ने की आशा है। नई प्रक्रिया द्वारा प्रकाश में आए गरीबी के आंकड़ों को प्रयोग में लाने से सरकार पर खाद्य सब्सिडी निर्धारण में अधिक खर्च वहन करना होगा । भोजन का अधिकार मामले के आयुक्तों के मुख्य सलाहकार बिराज पटनायक का कहना है कि वैसे १९९४ और २००५ के मध्य गरीबी में गिरावट आई है परंतु सन् २०१० के अनुमान गरीबों की बढ़ती जनसंख्या की ओर इशारा कर रहे हैं । उनका कहना है कि २००४-०५ के बाद से खाद्य पदार्थोंा के बढ़ते मूल्य इसके लिए जिम्मेदार हैं । २००४-०५ में विद्यमान गरीबी को मापने के लिए राष्ट्रीय सेम्पल (नमूना) सर्वेक्षण के ६१वें दौर को आधार बनाया गया था अभी तक न्यूनतम खर्च की गणना खाद्य पदार्थोंा पर होने वाले व्यय के आधार पर की जाती थी । इसके अनुसार ग्रामीण गरीब को प्रतिदिन २४०० कैलोरी और शहरी गरीब को प्रतिदिन २१०० कैलोरी उपलब्ध होना चाहिए । नई गणना प्रक्रिया के अंतर्गत भोजन, मूलभूत शिक्षा व स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च को ध्यान में रखा गया है । इसके अंतर्गत शिक्षा पर होने वाले व्यय का आधार ५ से १५ वर्ष तक के बच्चें को स्कूल में भेजने में होने वाले औसत व्यय एवं स्वास्थ्य व्ययों का निर्धारण भी उपचार की लागत एवं अस्पताल में भर्ती होने पर होने वाले औसत व्यय को बनाया गया है गरीबी के निर्धारण में सन् १९७३-७४ के कैलोरी उपभोग को आधार बनाने के सिद्धांत पर प्रश्न उठने के बाद योजना अयोग ने तेंदुलकर समिति का गठन किया था । इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृृषि संगठन ने प्रति व्यक्ति न्यूनतम कैलोरी आवश्यकता को संशोधित कर १८०० कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रदान कर दिया है । अब भारतीय स्वास्थ्य शोध परिषद (आईसीएमआर) को यह दायित्व सौंपा गया है कि वह भारत के लिए कैलोरी उपभोग का पुननिर्धारण करे । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के सहायक प्रोफेसर हिमांशु, जिन्होंने रिपोर्ट के प्रारूप निर्माण में कमेटी की मदद की है का कहना है कि उस समय (पूर्ववर्ती पंचवर्षीय योजनाआें में) यह माना गया था कि राज्य शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए खर्च वहनकरेगी । परंतु राज्य ने इस दिशा में अधिक कुछ नहीं किया और नागरिकों का इन मदों पर खर्च बढ़ता ही गया । वहीं भानुमूर्ति का कहना है कि संशोधित प्रणाली अधिक उपयुक्त है । दूसरी ओर जेएनयू के अर्थशास्त्र विभाग का कहना है कि भारत जैसे विकासशील देश जो कि विश्व भूख सूचकांक में काफी ऊपर हैं, के लिए आवश्यक है कि उनके खाद्य व्यय में कैलोरी उपभोग हेतु भत्ते का प्रावधान हो ।' वहीं पटनायक का कहना है कि गरीबी निर्धारण हेतु मात्र मूलभूत अस्तित्व स्तर को बनाए रखने, सरकारी विद्यालयों में मूलभूत शिक्षा और मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाआें की बात की जाती है। यह तो कमोवेश दरिद्रता की रेखा ही है ।' श्री पटनायक का कहना है कि गरीबी रेखा की वर्तमान परिकल्पना का आधार है गांव में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन १५ रूपए व शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन १९ रूपए का व्यय । यह पिछले अनुमानों क्रमश: १२ वे १७ रू. से अधिक है । परंतु इसके बावजूद यह उपभोग के न्यूनतम स्तर से काफी कम है ।' वहीं प्रवीण झा का कहना है कि नई प्रणाली से भी कोई हल सामने नहीं आ रहा है । क्योंकि हमारे पास मूल्य सूचकांक का कोई विश्वसनीय स्त्रोत नहीं है । साथ ही जिलेेवार आंकड़ों की उपलब्धता आवश्यक है क्योंकि यहां मूल्यों में विभिन्नता विद्यमान है । इसी के साथ हमारे पास कोई ऐसा मूल्य सूचकांक भी उपलब्ध नहीं है जो कि उपभोग की प्रवृत्ति में आए परिवर्तनों को भी ध्यान में रखता हो ।' वैसे सन् २०१० के अनुमान राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ६६वें दौर पर निर्भर होंगे जो कि जून २०१० तक ही उपलब्ध हो पाएगें ।***
बजट में देश के पर्यावरण की अनदेखी
देश में पर्यावरण की स्थिति अत्यंत गंभीर होते हुए भी बजट में इसकी लगभग उपेक्षा ही की गई है । जो कुछ छोटी-मोटी घोषणाएँ की गई हैं, वे ऊँट के मुँह में जीरे के समान ही हैं । एलईटी व सीएफएल बल्ब एवं सोलर उपकरण सस्ते करने से थोड़ा-बहुत ग्लोबल वार्मिंग प्रभाव कम करने में सहायता हो सकती है । राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा निधि की स्थापना एक अच्छा प्रयास है, परंतु दुनिया में राज करने वाली पेट्रोलियम लॉबी क्या इसे सफल होने देगी ? इस निधि हेतु राशि, इसका संगठन एवं कार्ययोजना आदि ज्यादा स्पष्ट नहीं है । मिशन स्वच्छ गंगा- २०२० हेतु वित्त वर्ष २०१०-११ में राशि २५० करोड़ से बढ़ाकर ५०० करोड़ की की गई है, जो स्वागतयोग्य तो है परंतु इससे गंगा कितनी शुद्ध होगी यह भविष्य ही बताएगा । तमिलनाडु के तिरूवर में स्थित कपड़ा उद्योग से पैदा प्रदूषण को रोकने हेतु भी २०० करो़़ड रू. का प्रावधान बजट में रखा गया है । पश्चिमी बंगाल मेंे कुछ क्षेत्रों से नदियों के तटबंध सुधारने हेतु भी कुछ प्रावधान बजट में किया गया है । बजट के उपरोक्त सारे प्रयास देश की बिगड़ी पर्यावरणीय स्थिति के संदर्भ में नगण्य हैं । पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट में ८८ में से ७५ औद्योगिक क्षेत्र (८५ प्रश) बुरी तरह प्रदूषित बताए गए थे ।
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