बाढ़ का बढ़ता संकट
भारत डोगरा
वैज्ञानिक जिस तरह के बदलते मौसम की तस्वीर हमारे सामने रख रहे हैं, उसमें प्राय: वर्षा की मात्रा बढ़ने पर वर्षा के दिन कम होने की बात कही गई है । दूसरे शब्दों में अपेक्षाकृत कम समय में कुछ अधिक वर्षा होने की संभावना है । कम समय में अधिक वर्षा होगी तो बाढ़ की संभावना बढ़ेगी ।
भारत में तो इस वर्ष की समस्या विकट है ही, पड़ोसी देशों पाकिस्तान और चीन में भी प्रलयंकारी स्थिति उत्पन्न हुई है । बड़े बाँध बनाने मेंे तो चीन भारत से भी कहीं आगे रहा है तथा वहां की कुछ सबसे विशाल व प्रतिष्ठित बाँध परियोजनाएँ तो बाढ़ नियंत्रण के बड़े दावे कर रही थीं । यह समय तो बाढ़ में फँसे लोगों के बचाव व राहत का है, पर आगे चलकर यह भी सोचना होगा कि बाढ़ नियंत्रण के उपायों में निवेश का समुचित लाभ भारत तथा पड़ोस के देशों को क्यों नहीं मिला और बाढ़-नियंत्रण नीतियों-परियोजनाआें में क्या बदलाव जरूरी है ।
वैसे तो देश के बड़े भाग में बाढ़ की समस्या काफी समय से व्यापक रूप में उपस्थित रही है, पर जलवायु बदलाव के दौर में यह और गंभीर हो सकती है तथा इसके रूप में कुछ और बदलाव आ सकते हैं । वैज्ञानिक जिस तरह के बदलते मौसम की तस्वीर हमारे सामने रख रहे हैं, उसमें प्राय: वर्षा की मात्रा बढ़ने पर वर्षा के दिन कम होने की बात की गई है ।
इसी तरह ग्लोबल वार्मिंग के दौर में ग्लेशियर अधिक पिघलने से भले ही दीर्घकालीन जलसंकट उत्पन्न हो, पर कुछ वर्षोंा तक इससे नदियों में जल की मात्रा बढ़ सकती है व अपेक्षाकृत कम वर्षा की स्थिति में भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो सकती है । गलेशियरों के नीचे बनी नई झीलों के अवरोध हटने पर फ्लेश फ्लड या अचानक अधिक वेग की बाढ़ आ सकती है । लद्दाख में बादल फटने को भी कुछ विशेषज्ञ जलवायु बदलाव से जोड़ रहे हैं ।
बड़े बाँधों के बारे में प्राय: यह देखा गया है कि अधिक वर्षा होने पर उनमें इतना जल छोड़ने की स्थिति आ जाती है अधिक वेग की और अधिक विनाशक बाढ़ -नियंत्रण को कम महत्व देने व बाँध-प्रबंधन में गलतियों के बारे में सवाल उठाए गए हैं । आगे यह सवाल उठाना और जरूरी है कि इन सभी बाँधों से पानी छोड़ने से आई बाढ़ों के अनुभव को देखते हुए कई अन्य महँगी समस्याआें से भी जुड़े बाँध निर्माण को बाढ़ नियंत्रण का उपाय कब मानते रहेंगे ?
इसी तरह कुछ स्थानों पर तटबंध निर्माण की जरूरत को मानते हुए भी बड़े पैमाने के अधिकांश तटबंधों के निर्माण की उपयोगिता पर भी प्रश्नचिन्ह लगे हैंक्योंकि इन तमाम तटबंधों के निर्माण के बाद भी न केवल बाढ़ आ रही है । अपितु इन क्षेत्रों की कई अन्य समस्याएँ भी पहले से और विकट हो गई है । तटबंधों के बीच फँसे परिवार तो बहुत ही बुरी स्थिति में हैं, पर तटबंध बार-बार टूटने से या अन्य कारणों से कुछ स्थानों पर बाढ़ की समस्या अधिक विकट रूप में उपस्थित हुई
हैं । नहरों के ठीक रखरखाव के अभाव में उनमें दरारें पड़ने की संभावना बढ़ जाती है । इस वर्ष पंजाब-हरियाणा में यह विनाशकारी बाढ़ का महत्वपूर्ण कारण बना ।
जिन नदियों में गाद-मिट्टी की मात्रा अधिक होती है (जैसा कि हिमालय की अनेक नदियों में है ) उन पर बाँध व तटबंध निर्माण की उपयोगिता और भी संदिग्ध है । हिमालय व अन्य पर्वतों में भू-स्खलन की और गंभीर होती समस्या अपने आप में बड़ी चिंता का कारण है तथा साथ ही इससे नीचे के मैदानों में बाढ़ की समस्या और विकट होती जा रही है । बढ़ते भू-स्खलन के कारण अनेक पर्वतीय आवासों, गाँवों व सड़कों का अस्तित्व संकट में है । अनेक गाँवों की हालत ऐसी हो गई है कि किसी बड़े हादसे से बचाने के लिए उन्हेंअन्यत्र बसाना होगा । यह समस्या बहुत हद तक मानव निर्मित कारणों से बढ़ी है । विभिन्न निर्माण कार्योंा के लिए संवेदनशील तथा कच्च्े पर्वतों में विस्फोटकों का अंधाधुँध उपयोग किया गया है । बाँध-निर्माण के क्षेत्र में विशेषकर भू-स्खलन बढ़ गए हैं । टिहरी जलाशय के किनारे के अनेक गाँवों में स्थिति गंभीर है । सड़क निर्माण में पर्याप्त् सावधानी न बरतने के कारण भी भू-स्खलन की समस्या विकट होती है । हिमालय जैसे अधिक भूकम्प वाले क्षेत्र बढ़ते रहे तो भूक म्प से होने वाली क्षति भी बहुत बढ़ जाएगी ।
भू-स्खलनों से नदियों में गाद व मलबा गिरता है तो उनमें बाढ़ की संभावना बढ़ती है । यदि मलबे से किसी नदी का प्रवाह रूक जाए व कृत्रिम झील बन जाए, तो यह झील टूटने पर बहुत प्रलयंकारी बाढ़ आती है, जैसा कि कुछ वर्ष पहले उत्तराखंड मेंकनोदिया गांव की बाढ़ के समय देखा गया । यदि भू-स्खलन में भारी चट्टानें व मलबा बाँध के जलाशय (जैसे टिहरी जलाशय) में गिर जाए, तो भी बहुत प्रलयंकारी बाढ़ आ सकती है । दूसरी ओर वन-रक्षा व हरियाली बढ़ाकर तथा भू-संरक्षण उपायों से भू-स्खलन कम किया जा सकता है ।
इस तरह जहाँ विभिन्न कारणों से अधिक वेग की अचानक बाढ़ आने की आशंका बढ़ रही है, वहीं अनेक स्थानों पर बाढ़ के पानी के देर तक रूके रहने से जल-भराव की समस्या विकट हो रही है । सकड़ों, हाईवे, रेल लाइनों, तटबंधों, नहरों आदि के निर्माण में निकासी व पुलिया पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया जिससे यह समस्या बढ़ी है । लेह में बाढ़ के अधिक विनाशकारी होने का कारण निकासी का अभाव बताया गया है । सदियों से बाढ़ से प्रभावित कुछ क्षेत्रों में पहले बाढ़ के साथ जीना इसलिए सरल था कि बाढ़ का पानी बड़ी मात्रा में आता था पर तेजी से निकल भी जाता था । उसके साथ आई उपजाऊ मिट्टी से बाद में अच्छी खेती होती थी, परंतु अब देर तक जल-भराव रहने के कारण खेती समय पर नहीं हो पाती तथा मच्छरों और बीमारी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है । शहरों में निर्माण कार्योंा में असावधानी, निकासी की गड़बड़ी व मलबों के ढेर के कारण जल-भराव की समस्या तेजी से बढ़ रही है । पॉलीथिन के बढ़ते कूड़े ने भी यह समस्या बढ़ाई है ।
जहाँ पहले वर्षोंा का बहुत-सा-पानी तालाबों, पोखरों में सजा जाता था, वहाँ इनके अतिक्रमण या इन्हें पाट दिए जाने के कारण वह बाढ़ उत्पन्न करता है व रिहायशी इलाके या खेती को क्षतिग्रस्त करता है । अनेक क्षेत्रों में आज भी बाढ़ और सूखे दोनों का समाधान यह है कि इन तालाबों, पोखरों को साफ व गहरा किया जाए । तब वर्षा का बहुत-सा पानी इन तालाबों में समा जाएगा व सूखे के दिनों में राहत देने के साथ-साथ भू-जल में वृद्धि भी करेगा । जहाँ-जहाँ छोटे चेक डेम, मेढ़बंदी, टॉवर हार्वेस्टिंग वआदि उपायों में वर्षा के जले को यिाा संभव रोगा जाएगा, बाढ़ व सूखे दोनों से रक्षा कार्य साथ-साथ होगा ।
प्राय: माना जाता है कि पूरब में ज्यादा बारिश होती है और पश्चिम में कम । पर इस मानसून के आरंभिक दिनों को देखें तो पश्चिम (राजस्थान व गुजरात) में बाढ़ आई हुई थी जबकि पूर्व में वर्षा कम थी । इस स्थिति में विशालकाय परियोजनाआें से स्थिति और बिगड़ सकती है । ऐसी योजनाएँ कागज पर आकर्षक लग सकती है पर नदियों के प्राकृतिक बहाव से खिलवाड़ ही करेंगी और तबाही मचाएँगी । ***
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