शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

९ पर्यावरण परिक्रमा


टिकाऊ पर्यावरण के लक्ष्य से भटका देश

सहस्त्राब्दि विकास के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में शामिल टिकाऊ पर्यावरण को २०१५ तक हासिल करने में विफलता की चेतावनी देते हुए पर्यावरणविद् राजेंद्र कुमार पचौरी ने कहा कि इस चूक से सबसे अधिक कृषि प्रभावित होगी ।
श्री पचौरी ने कहा कि जलवायु परिवर्तन ने पर्यावरण फर सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव डाला है । इसके कारण मौसम संबंधी कई बदलाव आए हैं । टिकाऊ पर्यावरण संबंधी लक्ष्य को हासिल करने में विफलता के कारण सुखाड़, अतिवृष्टि और भूमि अवनयन जैसी समस्याएं आएगी । संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन समिति ने बताया कि भूमि अवनति के कारण बीते कुछ वर्षोंा में १० से ११ फीसदी कृषि योग्य भूमि की क्षति हुई है । हमें पर्यावरण तंत्र की गुणवत्ता को अक्षुण्ण रखने के गंभीर प्रयास करने होंगे ।
पर्यावरणविद डॉ. आर.के.पचौरी के नेतृत्व वाले टेरी और भारत स्थित नीदरलैंड मिशन के बीच समझौता प्रपत्र पर हस्ताक्षर हुए ताकि पानी और ऊर्जा जैसे अहम क्षेत्रोंमें सहयोग को बढ़ावा दिया जा सके । द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टीटयूट टेरी के महानिदेशक पचौरी ने नीदरलैंड के यूट्रेक्ट प्रांत के क्वीस कमिश्नर आर. राबर्डसन के साथ समझौता प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद कहा कि विज्ञान और प्रौद्योगिक तथा नवाचार के जरिए हम उन लोगोंकी जीवनशैली में बदलाव ला सकते हैं जो संसाधनों की कमी के कारण हाशिए पर
हैं ।

म.प्र. में नर्सरियों की ग्रेड तय करेगा बागवानी बोर्ड

पांच सितारा होटलों के ठाट-बाट से तो हम सब वाकिफ हैं ही । लेकिन अब अगर आपकी मुलाकात पांच सितारा गुलाब या चमेली से हो तो ताज्जुब न करें । होटलों की ही तर्ज पर जल्दी ही मध्यप्रदेश में नर्सरियां भी वन स्टार से लेकर फाइव स्टार तक की रेटिंग से लैस नजर आएंगी ।
नर्सरियों में बीजों, पौधों व फूलों की गुणवत्ता और वहां की व्यवस्थाआें के आधार पर स्टार रेटिंग दी जाएगी । रेटिंग का निर्धारण राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड करेगा । सबसे बेहतरीन नर्सरी की पांच सितारा रेटिंग
मिलेगी । इसी तरह उनसे कमतर नर्सरियों को चार सितारा और अन्य रेटिंग मिलेगी । रेटिंग की व्यवस्था पूरे देश में लागू की जा रही है । इसके तहत अगले एक साल के भीतर प्रदेश की तमाम मॉडल नर्सरियों को रेटिंग मिल चुकी होगी । रेटिंग के बाद बोर्ड समय-समय पर इसकी निगरानी भी करेगा । जरूरी नहीं है कि जो रेटिंग एक बार मिल चुकी है हमेशा वही बनी रहेगी ।
महाराष्ट्र सहित कुछ चुनिंदा राज्यों में नर्सरी एक्ट बने हुए हैं । इस वजह से वहां बीजों और पौध की गुणवत्ता का तमाम रिकार्ड रखा जाता है । लेकिन म.प्र. सहित अन्य तमाम
राज्यों में इस तरह के कोई कानून नहीं है । इसी वजह से राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड ने रेटिंग की व्यवस्था लागू की है ताकि हर प्रदेश में कुछ ऐसी नर्सरियों को चिन्हित किया जा सके जिनकी विश्वसनीयता सुनिश्चित हो और किसान व आम जनता वहां से बेफिक्र होकर बीज या पौधे खरीद सकें ।
प्रदेश में छोटी-बड़ी मिलाकर हजारों नर्सरियों हैं लेकिन उद्यानिकी विभाग से मान्यता प्राप्त् नर्सरियों की संख्या १९५ है ।

शहरी जिंदगी बढ़ाती है रोग प्रतिरोधक क्षमता

वैज्ञानिकों ने एक नए शोध में पाया है कि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के मुकाबले शहरों में रहने वाले लोग आनुवांशिक रूप से संक्रमण से लड़ने में अधिक सक्षम होते हैं ।
वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि शहरों ने मानव के विकास क्रम को प्रभावित किया है । शहरोंभागदौड़ की जिंदगी के चलते बीमारियों को फैलने मेंमदद करने वाली इस जीवनशैली का अध्ययन करने वाले युनिवर्सिटी आफ लंदन के शोधकर्ताआें ने पाया कि शहर के बाशिंदों के शरीर में एक विशेष प्रकार का जीन पाया जाता है जो तपेदिक और कुष्ठ रोग के प्रति उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ता
है । शोधकर्ताआें ने यह भी पाया कि शहरी जिंदगी उसके निवासियों को बिमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है । लेकिन इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि इन लोगों की आने वाली पीढ़ियां इन संक्रमणों के प्रति बचाव सीख लेंगी ।
विकास क्रम जैव विज्ञानी इयान बार्नेस ने बताया कि शोध बताता है कि विकास क्रम की प्रक्रिया चल रही है । उन्होंने लाइव साइंस को बताया कि शहरीकरण ने मानव जीनोम पर प्रभाव डाला है । बार्नेस और उनकी टी टीम ने एक जनेटिक वेरिएंट पर ध्यसान केन्द्रित किया, जिसका नाम एसएलसी-११, ए-११७२९५५ डीईएल-४ है । यह ऐसे विषाणुआें के प्रति प्राकृतिक प्रतिरोध से जुड़ा है, जो कोशिकाआें के भीतर घूमता रहता है ।

प्रदेश का पहला मोर संरक्षण केन्द्र होगा मंगरोला में

म.प्र. की आध्यात्मिक नगरी उज्जैन के चिंतामण गणेश मंदिर पहुंच मार्ग से करीब एक किमी दूर ८०० की आबादी वाला छोटा सा गांव मंगरोला है । यहां की आबोहवा ने राष्ट्रीय पक्षी मोर को लंबे समय से रोके रखा है । नतीजतन अब कई मोर इस गांव की पहचान बन चुके हैं लेकिन ... करीब तीन महीने में कूड़ा-करकट और कुत्तों के शिकार की वजह से मोरों की मरने की संख्या में इजाफा हो गया । लिहाजा, ग्रामीण लामबंद हुए व उन्होंने प्रशासन से गांव में पड़ी ५ बीघा सरकारी जमीन को मोर संरक्षण केन्द्र के लिए आवंटित करने की गुहार लगाई ।
कलेक्टर डॉ.एम.गीता ने गांव का दौरा कर हालात जाने व प्रस्ताव को मंजुरी देने पर सहमति जताई । अब ग्राम पंचायत की बैठक में सरकारी जमीन के लिए दोबारा ठहराव-प्रस्ताव कर जनपद को भिजवा कर संरक्षण के काम की पहल की जाएगी ।
ग्रामीणों ने इस केन्द्र का नाम मयूर पार्क रखना तय किया है ।
मंगरोला निवासी जितेन्द्र ठाकुर के मुताबिक पार्क को तीन हिस्सों में बनाने की योजना है । पहला हिस्सा सामान्य रहेगा जिसमें चौकीदार के लिए व्यवस्था होगी । दूसरे हिस्से में मोरों के दाना-पानी का प्रबंध किया जाएगा और तीसरे हिस्से में घना जंगल लगाया जाएगा यहां पूरी तरह से अंधेरा हरहेगा ताकि मोर आसानी से अंडे दे सके । इस पूरे मामले में सरकारी रूप से आर्थिक मदद की जरूरत भी है ।
श्री ठाकुर ने बताया मोरों के बचाव के लिए गांव के युवा आगे आए व मोर संरक्षण संस्थान समिति बनाने का निर्णय लिया । समिति बनी तो बाकायदा रजिस्ट्रेशन भी हुआ । समिति में यूं तो सात सदस्य हैं लेनिक गांव के हर बाशिंदे को समिति में ही माना जाता है ताकि सभी का सहयोग इस पुनीत काम में मिल
सके ।

मूत्र से इंर्धन बनाने की तैयारी

विज्ञान ने अब मूत्र का भी एक इस्तेमाल ढूँढ लिया है । र्स्कोटलैंड की हैरियट-वॉट यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ता मूत्र से इंर्धन बनाने की तैयारी कर रहे हैं । अनुसंधानकर्ताआें
ने एक ऐसा तरीका खोज निकाला है, जिसके जरिए ये पता लगाया जा सके कि मूत्र में मौजूद तत्वों का स्तेमाल ज्वलनशील हाइड्रोजन या मीथेनॉल के विकल्प के रूप में किया जा सकता है या नहीं ।
इंसान और पशुआें के मूत्र में मौजूद यूरिया यानी कार्बामाइड एक रासायनिक तत्व हैं जिसका इस्तेमाल खाद और उर्वरक बनाने में किया जाता है । कार्बामाइड के इस्तेमाल से बनाए जा रहे इस इंर्धन से कम प्रदूषण फैलाने वाला, किफायती और आसानी से लाने ले जाने योग्य इंर्धन बनाया जा सकता है । फिलहाल यूरिया का इस्तेमाल भारी वाहनों में होता है, ताकि इंर्धन में मौजूद प्रदूषण फैलाने वाले खतरनाक तत्वों को कम किया जा
सके ।
इंर्धन में यूरिया के इस्तेमाल को दुनियाभर में आसान बनाने के लिए इन दिनों संसाधन जुटाए जा रहे हैं । अनुसंधानकर्ता शानवेन ताओ और उनके सहयोगी रींग लैन फिलहाल इस इंर्धन का एक प्रारूप बनाने की तैयारी में हैं ।
मूत्र में मौजूद यूरिया से बनने वाले इंर्धन का इस्तेमाल खासतौर पर पनडुब्बियों, सैनिक वाहनों और दूरदराज के इलाकों जैसे रेगिस्तान और दूरदराज के द्वीपों पर बिजली बनाने के लिए किया जा सकता है । डॉ. ताओ ने कहा कि मैं चीन के इस ग्रामीण इलाके में पला, बढ़ा हूँ । मुझे पता था कि यूरिया का इस्तेमाल गाँवों में रासायनिक खाद के रूप में होता है, जब मैंने रसायन विज्ञान पढ़ा तब इस तरह का इंर्धन बनाने के बारे में सोचा ।
उनका कहना था फिलहाल हम इस इंर्धन का केवल एक नमूना तैयार कर रहे हैं , लेकिन अगर इसका इस्तेमाल पर्यावरण के लिए सुरक्षित और व्यासवसायिक रूप से इस्तेमाल होने वाली इंर्धन के तौर पर हो सकेगा तो हमें बेहद खुशी होगी । इससे दुनियाभर के में लोगों को फायदा होगा । यह नमूना फ्यूल सेल्स की मदद से बनाया जा रहा है, जो रासायनिक तत्वों को विद्युत ऊर्जा में बदलते हैं । फिलहाल फ्यूल सेल्स में केवल हाइड्रोजन और मीथेनॉल का इस्तेमाल होता है ।
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