सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

१० कविता

बेटों के नाम
शिवकुमार दीक्षित
आखिर मजबूर होकर उन्होंने, अपनी एक बैठक रख ही ली । बड़ी देर तक तो वे एक दूसरे के, आँसू ही पोछते रहे ।उनमें से हर एक रो जो रहा था, और आँसुआें की अविरल धार, सभी की आँखों से झर रही थी ।बिलखते हुए आकाश ने,सर्वप्रथम धरती से ही पूछा,कैसी हो बहिन कैसी हो ?किसी सगौत्री को देख,धरती एक बार फिर फूट पड़ी,और हिचकियों के बीच बोली,क्या बताऊँ, भैया अनन्त भार से दबी मैं अभी भी अनवरतजुटी हूँ उसके पोषण मेंपर मेरे स्तनों से अब दूध नहीं,खून निकल रहा हैऔर अवाक हूँ कि जिसे मैंने दूध पिलाया, वही अब मेरा खून पी रहा है, खून । रक्ताल्पता से फिर वह अचानक निश्चेत हो गई । इधर पहले से रूग्ण आकाश, वायु, जल और अग्नि में कोहराम मच गया ।आकाश ने सिमट कर उसे,पूरी तरह अपनी गोद मे लेना चाहा । पर अपने गह्वरों को देख छिटक गया कि वह तो संक्रमित है । वायु जल्दी-जल्दी पंखा झलनेऔर कृत्रिम श्वास देने आगे बढ़ीपर अपने गर्भ में ग्रीन हाउस गैसे ले जहाँ खड़ी थी, अपराध भाव से वहीं खड़ी रह गई । इधर धरती के माथे पर पसीने की बुंदे और भी चमकने लगीं । जल को भी अपना धर्म याद आया कुछ शीतल छीटों उसके मुख पर छिड़कने का पर वह तो पहले से ही यक्ष प्रश्नों से कीलित थाऔर उसका सेवन तो क्या तनिक स्पर्श भी मौत को सीधा-सीधा निमन्त्रण था ।धरती के ठन्डे होते गात और निस्तेज चेहरे पर अग्नि ने भी चाहा तेजका मरहम लगानापर उसे यादआया वह तो स्वयं भी निस्तेज है । भूख से बिल बिलाते पेटों मेंकिसी समय वह थी जरूर पर जल कर अब तो कभी की राख बन चुकी है । इधर धरती और भी गहरी निश्चेतना में जा रही थी । इस बीच उसके शरीर पर किसी की छाया दिखाई पड़ीशायद दूर आकाश में बड़े-बड़े डेनो वाले गिद्ध मण्डराने लगे थे । ***

1 टिप्पणी:

ASHOK BAJAJ ने कहा…

आपका ब्लॉग अच्छा लगा .कभी ग्राम-चौपाल पर भी पधारें .विजयादशमी की बधाई .
http://www.ashokbajaj.com/