शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

५ जनजीवन


पानी में निजीकरण या अपनाकरण
अनुपम मिश्र

पानी की बढ़ती किल्लत से पूरा विश्व अचंभित है । परंतु बजाए ठंडे दिमाग से इसका हल ढूंढने के हड़बड़ी में इस पर कब्जा करने का प्रयास किया जा रहा है ।
आज हर बात की तरह पानी राजनीति चल निकली है । पानी तरल है, इसलिए उसकी राजनीति भी जरूरत से ज्यादा बहने लगी है । देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे प्रकृति उसके लायक पानी न देती हो, लेकिन आज दो घरों, दो गांवों, दो शहरों, दो राज्यों और दो देशों के बीच पानी को लेकर एक लड़ाई हर जगह मिलेगी ।
मौसम विशेषज्ञ बताते हैं कि देश को हर साल मानसून का पानी निश्चित मात्रा में नहीं मिलता, उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति आईएसआई मार्का तराजू लेकर पानी बांटने निकलने वाली पनिहारिन नहीं है । तीसरी-चौथी कक्षा से हम सब जलचक्र पढ़ते हैं । अरब सागर से कैसे भाप बनती है, इतनी बड़ी मात्रा में वह नौतपा के दिनोंमें कैसे आती है । कैसे मानसून की हवाएं बादलों को पश्चिम व पूरब से उठाकर हिमालय तक ला जगह-जगह पानी गिराती है, यह हमारा साधारण किसान भी जानता है । ऐसी बड़ी, दिव्य व्यवस्था मेें प्रकृति को मानक ढंग से पानी गिराने की परवाह नहीं रहती । फिर भी आप पाएंगे कि एकरूपता बनी रहती है ।
पानी की राजनीति ने प्रकृति के इस स्वभाव को भूलने की अक्षम्य गलती की है । इसलिए हम प्रकृति से क्षमा नहीं पा सके हैं। हमने विकास की दौड़ में सब जगह एक सी आदतों का संसार रच दिया है, पानी की एक जैसी खर्चीली मांग करने वाली जीवनशैली को आदर्श मान लिया है । अब सबको एक जैसी मात्रा में पानी चाहिए और जब वह नहीं मिल पाता तो हम सारा दोष प्रकृति व नदियों पर थोप देते हैं । अब हमारे सामने नदियों को जोड़ने की योजना भी रखी गई है । देश के जिस भूगोल ने लाखों साल की मेहनत से इस कोने से उस कोने तब तरह-तरह से छोटी-बड़ी नदियां निकालीं अब हम उसे दोष दे रहे हैं और चाहते हैं कि एक ही नदी कश्मीर से कन्याकुमारी तक क्यों नहीं बही? अभी भी करने लायक छोटे-छोटे कामों के बदले अरबोंरूपये की योजनाआें पर बात हो रही
है । प्रकृतिकी गोद मे कुछ ही पहले तक हजारों नदियां खेलती थी, अब हम उन सबको सुखाकर और चार-पांच नदियों को जोड़कर उनका पानी यहां-वहां ले जाना चाहते हैं ।
जलसंकट, जो प्राय: गर्मियों के दिनोंे में आता था, अब वर्ष भर बना रहता है । ठंड के दिनों में भी शहरों में लोग नल निचौड़ते मिल जाएंगे । राजनीतिक रूप से जो शहर थोड़े संपन्न और जागरूक हैं, उनकी जरूरत पूरी करने के लिए पानी पड़ोस से उधार भी लिया जाता है और कहीं-कहीं तो चोरी से खींच लिया जाता है लेकिन बाकी पूरा देश जलसंकट से उबर नहीं पाता । इस बीच कुछ हजार करोड़ रूपये खर्च करके जलसंग्रह, पानी-रोको, जैसी कई योजनाएं सामने आई हैं । वाटरशेड डेवलपमेन्ट को अनेक सरकारों और सामाजिक संगठनों ने अपनाकर देखा है, लेकिन इसके खास परिणाम नहीं मिल पाए । शायद एक बड़ी गलती हमसे यह हो रही है कि हमने पानी रोकने के समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध तरीकों को पुराना या परंपरागत करार देकर छोड़ दिया है । यदि कुछ लाख साल से प्रकृति ने पानी गिराने का तरीका नहीं बदला है तो हम भी उसके सेवन के तरीके नहीं बदल सकते । आग लगने पर कुआं खोदना पुरानी कहावत है । यही हम करते आ रहे हैं । प्यास लगती है, अकाल की आग लगती है, तो सरकार और समाज के कुआं खोदने पर शायद पानी निकलता भी है पर सरकारी आयोजनोंे और योजनाआें में इस पानी का रंग कुछ और ही दिखता है ।
तालाब, बावड़ी जैसे पुराने तरीकों की विकास की गई योजनाआें में बहुत उपेक्षा हुई है । न सिर्फ शहरों में, बल्कि गावों में भी तालाबों को समतल कर मकान, दुकान, मैदान या बस स्टैण्ड बना दिए गए हैं । जो पानी यहां रूककर साल भर ठहरता था तथा उस इलाके के भूजल को उठाता था, उसे हमने नष्ट कर दिया है । उसके बदले हमने आधुनिक ट्युबवेल, नलकूप, हैंडपम्प लगाकर पानी निकाला है । डालना बंद किया और निकालने की गति राक्षसी कर दी और मानते रहे कि सब कुछ हमारे अनुकूल चलेगा, लेकिन अब प्रकृति हमें हर साल चिट्ठी भेजकर याद दिला रही है कि हम गलती कर रहे हैं । इसकी सजा भुगतनी होगी । कभी पानी का प्रबंध और उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य-बोध के विशाल सागर की एक बूंद थी । सागर और बूंद एक दूसरे से जुड़े थे । बूंद अलग हो जाए तो न सागर रहे, न बूंद बचे । सात समुंदर पार से आए अंग्रेजों को न तो समाज के कर्त्तव्य-बोध का विशाल सागर दिख पाया, न उसकी बूंदे । उन्होंने अपने यहां के अनुभव और प्रशिक्षण के आधार पर यहां के राज में दस्तावेज जरूर खोजने की कोशिश की, लेकिन वैसे रिकार्ड राज में रखे नहीं जाते थे । इसलिए उन्होंने मान लिया कि यहां सारी व्यवस्था उन्हीं को करना है, यहां तो कुछ है ही नहीं । पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अकुशल कारीगरांे में बदल दिए गए । ऐसे बहुत से लोग, जो गुनीजनखाना यानी गुणी माने गए जनों की सूची में थे, अनपढ़ असभ्य, अप्रशिक्षित माने जाने लगे ।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि अकाल, सुखा, पानी की किल्लत, ये सब कभी अकेले नही आते । अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है । हमारी धरती सचमुच मिट्टी की एक बड़ी गुल्लक है । इसमें १०० पैसा डालेंगे तो १०० पैसा निकाल
सकेंगे । लेकिन डालना बंद कर देंगे और केवलनिकालते रहेंगे तो प्रकृति चिट्ठी भेजना भी बंद करेगी और सीधे-सीधे सजा देगी । आज यह सजा सब जगह कम या ज्यादा मात्रा मे मिलने लगी हंै । पंजाब और हरियाणा सूखे राज्य नहीं माने जाते, लेकिन आज इनमें भी पानी के बंटवारे को लेकर राजनीतिक कड़वाहट दिख रही है । इसी तरह दक्षिण में कर्नाटक और तमिलनाडु में कोई कम पानी नहीं गिरता,
लेकिन इन सभी जगहों पर किसानों ने पानी की अधिक मांग करने वाली फसलें बोई हैं । और अब उनके हिस्से का पानी उनकी प्यास नहीं बुझा पा रहा है । ऐसे विवादों का जब राजनीतिक हल नहीं निकल पाएगा तो हमें ऊंची अदालत का दरवाजा खटखटाना
होगा । अदालत भी इसमें किसी एक के पक्ष में फैसला देगी तो दूसरे पक्ष को संतोष नहीं
होगा । इसमे मुख्य समस्या प्यास की जरूरत की नहीं बची है और बनावटी प्यास और बनावटी जरूरत लंबे समय तक पूरी नहीं की जा सकेगी । कई बार जब अव्यवस्था बढ़ती जाती है, जन-नेतृत्व ओर सरकारी विभागों का निकम्मापन की बढ़ने लगता है तो दुर्भाग्य से एक ही हल दिखता है राष्ट्रीकरण के बदले निजीकरण कर दो ।
यही हल अब पानी के मामले मे भी आगे रखा जाने लगा है । पहले हमारा समाज न राष्ट्रीयकरण जानता था और न निजीकरण । वह पानी का अपनाकरण करता था । अपनत्व की भावना से उसका उपयोग करता
था । जहां जितना उपलब्ध था, उतना खर्च करता था, इसलिए कम से कम पानी के मामले में, जब तक बहुत सोची-समझी योजनाएं फिर से सामने नहीं आएंगी तब तक हम सब चुल्लु भर पानी में डूबते रहेंगे, लेकिन हमें शर्म नहीं आएगी । ***

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