शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

८ जैव विविधता वर्ष


जैवविविधता से ही बचेगी मानवता
डॉ. किशोर पंवार

पृथ्वी पर व्याप्त् जैवविविधता ही हमारे जीवन का मूलाधार है । प्रकृति ने एक भी जीव या वनस्पति ऐसा नहींबनाई जिसका हमारे जीवन को बनाए रखने में कोई योगदान न हो । प्रत्येक की अपनी उपयोगिता है । परन्तु हम आज एकरसता के फेर में पड़ कर जैवविविधता के प्रति उदासीन हो गए हैं । पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए यह एक अनिवार्यता है ।
हमारी पृथ्वी तो एक ही है । परन्तु इस एकता में अनेकता के कई नजारे देखे जा सकता हैं । भांति-भांति के जंगल, पहाड़, नदी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और तरह-तरह के लोग । जंगल व पहाड़ भी एक जैसे नहीं, कई किस्सों के हैं । जंगल की बात करें तो कहीं सदाबहार तो कुछ जगहों पर शुष्क पर्ण पाती । कहीं मिश्रित भी । बर्फ के पहाड़ भी हैं और नग्न तपती चट्टानों वाले पहाड़ भी ।
रेत के टीलोंे और रेगिस्तान की अलग ही छटा है । कहीं मीलों तक फैले हरे-भरे घांस के मैदान हैं तो कहीं मीलों तक फैले मरूस्थल । जीवों की बात करें तो नाना प्रकार के रंग-गिरंगे पक्षी । हवा मेंइठलाती फूलों पर मंडराती तितलियां । जमीन पर विचरने वाले जलचर और हवा में अठखेलियां करते
नभचर । इसके अलावा बसने वाले लोग भी तरह-तरह के । गोरे भी काले भी, लम्बे भी नाटे भी । उभरी आंख नांक वाले तो चपटी नाक और धंसी आंख वाले । मैदानी भी पहाड़ी भी । पुरवासी भी और आदिवासी भी ।
जीव-जंतुआें की यही विविधता वैज्ञानिक शब्दावली में जैवविविधता कहलाती है । किसी एक स्थान पर मिलने वाले समस्त जीवों के प्रकारों को ही उस स्थान की जैवविविधता यानि बायोडायवरसिटी कहा जाता है । यह स्थानीय और वैश्विक दोनों ही तरह की होती है । इस वक्त दुनियाभर में जैवविविधता पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है । इसी को ध्यान में रखते हुए यह २०१० वर्ष अंतर्राष्ट्रीय जैवविविधता वर्ष के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है । जंगल के उपकारों से हर कोई वाकिफ है । तो फिर ऐसी बेरूखी क्यों ? याद रखिए हमारा सबका भविष्य दांव पर लगा है ।
एक मोबाईल कम्पनी का विज्ञापन संवेदनशील मन को बार-बार झकझोरता है । विज्ञापन में बताया गया था कि यहां जंगल, भोजन, पानी, हवा नहीं है । तो क्या हुआ, मोबाइल की तरंगे तो हैं । कितना बेतुका मजाक है ये । जैवविविधता खतरे में है लम्बी-चौड़ी सड़कों के निर्माण, बड़े-बांधों, उद्योगों व शहरीकरण के लिए जमीन लगती है । इनके कारण प्राकृतिक आवास स्थल नष्ट हो रहे हैंऔर वहां रह रहे जीव-जन्तु व पेड़-पौधों सब एक झटके में नष्ट हो जाते हैं । जनसंख्या के दबाव और विकास की चाहर में चलते जहां कल घने जंगल थे वहां अब शहर हैं । कुछ वर्षोंा पूर्व जहां गांव थे वहां शहर बस गए हैं और जहां कल तक जंगल थे वहां अब खेती की जा रही है ।
जंगलों पर अतिक्रमण बढ़ता ही जा रहा है । पता नहीं यह दुष्चक्र कब थमेगाा । जंगल नष्ट होने से प्राकृतिक आवास समाप्त् हो जाते हैं और वन्य जीवों के साथ ही कई किस्मों की वनस्पतियां भी खत्म हो जाती हैं । जैवविविधता को दूसरा बड़ा खतरा वन्य जीवों के अवैध शिकार से है । हमारे शेर, बाघ, हिरण, चीता और खरगोश सब जानवर खतरे मेंें हैं । उनकी चमड़ी, सींग, कस्तूरी, पंजे, नाखून और हडिडयों तक पर लालचीह और ि वलासी मनुष्यों की बुरी नजर है । शेर ओर बाघों को लेकर तो ऐसा लगता है कि मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की ।
बिना सोचे समझे शहरीकरण और औद्योगिकरण किया जा रहा है । ऐसा विकास जैवविविधता का दुश्मन है । छोटे-बड़े तालाबों को पाटने से जलीय विविधता खतरे में पड़ जाती है । जल प्रदूषण हो या वायु प्रदूषण इनके बढ़ने से जैवविविधता घटती जाती है । नदियों व झीलों में प्रदूषण बढ़ने वहां रह रहे संवेदी किस्म के प्राणी ओर वनस्पतियां विलुप्त् हो जाते हैं । केवलवे ही जीव बचते हैं जिनमें प्रदूषण के साथ होता है । मिट्टी के प्रदूषण से जमीन के अन्दर रहने वाले केचुएं, बेक्टीरिया, अन्य प्रकार के कीट और शैवालों की संख्या एवं गुणात्मकता दोनों घट जाती है ।
दुनिया भर में जीवों की लगभग ३ करोड़ जातियां हैं । ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां जैवविविधता अत्यनत सघन रूप में है तथा यहां विलुप्तीकरण की कगार पर पहुंचने वाली दुर्लभ प्रजातियां की अधिकता मिलती है । इन्हीं क्षेत्रों को जैवविविधता के हाटस्पाट कहा जाता है । विश्व में लगभग २५ ऐसे हाटस्पाट
चिन्हित किए गए हैं इनमें से दो, पूर्वी हिमालय एवं पश्चिमी घाट भारत में हैं ये ऐसे स्थान हैं जहां प्रजातियों की प्रचुरता है और वे संकटग्रस्त हैं तथा स्थानिक हैं अर्थात ये दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती । हमारे देश में लगभग २३५ पौध प्रजातियां एवं १३८ जन्तु प्रजातियों को संकटग्रस्त घोषित किया जा चुका है । संकटग्रस्त पौधों में घटपर्णी, सर्पगन्धा, बेलाडोना, चन्दन, चिलगोजा आदि प्रमुख
हैं ।
इन पेड़-पौधों और जन्तुआें का अपना महत्व है । कुछ महत्वपूर्ण औषधियां हैं तो कुछ विचित्र वनस्पतियां व कुछ सुन्दरतम जीव हैं । यह विविधता, विचित्रता कहीं आर्थिक पक्ष से जुड़ी हैं तो कहीं इसका सौन्दर्य बोध अमूल्य है ।
सवाल यह है कि इस जैव विविधता को कैसे बचाया जाए ? ऐसा नहीं है कि सब हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं ? अपने-अपने स्तर पर सभी प्रयास कर रहे हैं । परन्तु जब तक इस महायज्ञ में स्थानीय स्तर पर जन भागीदारी नहीं होगी हमारी इस विरासत को बचाना मुश्किल है । शिकारी घात लगाए बैठा है वो शेर का शिकार भी करता है और सागौन का भी । हमें मिल जुलकर उसके हौंसले पस्त करना होंगे ।
जैवविविधता शब्द का सबसे पहले प्रयोग वाल्टर जी रासेन ने १९८६ में किया था । तब से यह शब्द जीव विज्ञानियों एवं पर्यावरणवादियों के लिए एक महत्वपूर्ण शब्द बन गया है । जैवविविधता हमें प्राकृतिक आपदाआें के खतरे से बचाती है । पानी कम पड़े तो भी देसी गेहूँ की किस्में अंधी पैदावार दे देती हैं । कीटों का प्रकोप हो या बीमारियों का, जैवविविधता के कारण कुछ किस्मों पर प्रकोप कम होने से नुकसान कम होता है । जैवविविधता आड़े वक्त भी कोई ऐसा जीव खोज लिया जाए, जिससे कैंसर और एड्स जैसी भयावह बिमारियों की रोकथाम हो
सके । पूर्व में ऐसा भी हो चुका है । टेक्स और विन्का रोजिया इसके उदाहरण हैं ।
परन्तु खेद इस बात का है कि हम से कुछ लोगोंको ऐसी विविधता रास नहीं
आती । वे चाहते हैं कि देश के सभी खेतों में गेहूं,चावल या फिर सोयाबीन ही उगे । जरा सोचिए, कम संसाधनों में जीने वाले बाजार, मक्का और ज्वार जैसे अल्प संख्यकों का फिर क्या होगा ? कुछ लोग हैं जो चाहते हैं कि देश में सभी लोग एक ही रंग के कपड़े पहने या एक जैसी पगड़ी पहने । कोई तो उन्हें समझाएं कि तरह - तरह के फूल-पत्तियों से सजा गुलदस्ता ज्यादा खूबसूरत लगता है बजाए एक ही जैसे फूलों से लदी डाली के । ध्यान रहे जीवन का आनंद एकरसता में नहीं विविधता में है ।
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