भूमि अधिनियम में वंचितों की अनदेखी
सुश्री अरित्रा भट्टाचार्य
भारत में भूमि रिकार्ड्स को लेकर लापरवाही एक सोची समझी साजिश है । प्रस्तावित भूमि स्तत्वाधिकार अधिनियम भी इसी की अगली कड़ी बन कर न रह जाए इसलिए आवश्यक है कि इस पर व्यापक विचार- विमर्श हो । वैसे इस अधिनियम को ३१ अगस्त तक सार्वजनिक विमर्श में रखा गया था । इस मौके का फायदा उठाकर अधिक से अधिक सुझाव प्रेषित किए गये ।
वर्तमान में लाग भूमि पर अपनी मिल्कियत सिद्ध करने के लिए पट्टों (अनुबंधों) पर निर्भर है । यह प्रणाली अपने आप में समस्याआें की खान है । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति जिसने अपनी भूमि बेच दी है, वह पट्टा अपने पास रख सकता है और मिल्कियत का दावा भी कर सकता है । इस विवाद को कानूनी रूप से सुलझने में वर्षोंा लग सकते हैं । ग्रामीण विकास मंत्रालय के भूमि संसाधन विभाग द्वारा प्रस्तावित इस अधिनियम के मसौदे में कहा गया है कि भूमि के प्रत्येक सौदे को एक केन्द्रीय प्राधिकरण द्वारा दर्ज एवं संभाला जाएगा और वह प्रत्येक संपत्ति को एक विशिष्ट पहचान संख्या (यू.आई.डी.) आबंटित करेगी । विवाद की सिथति में संख्या (नंबर) का इस्तेमाल कर भूमि की स्थिति का पता लगाया जाता है । मंत्रालय के सूत्र का कहना है कि इस तरह के कानून से भूमि का बाजार मुक्त होना और भूस्वामियों के लिए बैंक ऋण तक पहुंच एवं संपत्ति को गिरवी रखने में आसानी होगी, क्योंकि उनके पास भूमि का स्पष्ट स्वत्वाधिकार होगा । परन्तु क्या यह अधिनियम भूमि सुधार का अग्रदूत बन सकता है ?
भोपाल स्थित एकता परिषद, जिसने सन् २००७ में २५,००० भूमिहीन किसानों को दिल्ली की ओर कूच करवाकर भूमि सुधार की ओर केन्द्र का ध्यान आकर्षित किया था के रमेश सिंह का कहना है कि प्रस्तावित अधिनियम सीमांत किसानों के लिए मददगार नहीं होगा । उनका कहना है कि भूमि अधिकारों की बन्दोबस्ती और उन्हें दर्ज किए जाने का अधिकांश कार्य सन् १९३० और १९४० के दशक में हुआ था । आजादी के बाद सभी राजनीतिक दलों ने भूमि अधिकारों के व्यवस्थापन या निपटारे की अनदेखी की है । इसके परिणामस्वरूप पीढ़ियों से भूमि पर खेती करते आए अधिया बटाई वाले किसानों की बेदखली बदस्तुर जारी है क्योंकि उनकी अधिया-बटाई कहीं दर्ज ही नहीं की गई है । यह अधिनियम इस बारे में मूक है । यह अधिनियम समुदाय की मिल्कियत वाली भूमि के संबंध में भी मौन है, जो कि आदिवासियों के बचे रहने के लिए बहुत जरूरी है ।
महाराष्ट्र के गैर सरकारी काश्तकारी संगठन के कार्यकर्ता ब्राएन लोबो का कहना है कि, उनका अनुभव बताता है कि वन अधिकार कानून के अन्तर्गत भी कभी कभार ही किसी के भूमि अधिकार को दर्ज किया जाता है । जबकि इसके अन्तर्गत इस हेतु प्रक्रिया तक बताई गई है । इस प्रकार हम अभी भी देख सकते हैं कि भविष्य में भूस्वत्वाधिकार का क्या होगा । आदिवासी क्षेत्रों में बिना दर्ज हुई काश्तकारी को कोई मान्यता ही नहीं
मिलेगी ?
श्री लोबो का कहना है कि भूमि स्वत्वाधिकार प्राधिकरण के संपत्ति मूल्य निर्धारण विभाग के सुझावों का अर्थ है विशाल भूमि बैंक का बड़े भू-माफियाआें को उपलब्ध होना । उनका कहना है, अंतत: अधिनियम के उद्देश्यों में ही बताया गया है कि यह अधिनियम पूंजी तक आसान पहुंच एवं भूमि संबंधी लेनदेन में कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए ही बताया जा रहा है । महाराष्ट्र में ही आदिवासियों के अधिकारों के लिए कार्य कर रहे सर्वहारा जनआन्दोलन की सुश्री उल्का महाजन का कहना है, भूमि रिकार्ड्स का केन्द्रीयकरण उच्च्वर्ग कारपोरेट और डेवलपर्स को ही फायदा पहुंचाएगा ।
इस क्षेत्र में कार्य कर रहे कार्यकर्ताआें ने भूमि स्वत्वधिकार प्राधिकरण के स्वरूप पर ही शंका जाहिर की है । रमेश सिंह का कहना है, इसके अंतर्गत सिविल सोसाइटी की कोई भूमिका ही नहीं हैै । साथ ही इस पर किसी भी तरह का अंकुश भी नहीं रखा जा सकता । उनका विश्वास है कि यह अधिनियम राष्ट्रीय भूमि सुधार समिति एवं राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद की अनुश्ंासा के विरूद्ध है । २००७ में गठित समिति ने अनुशंसा की थी की विशेष आर्थिक क्षेत्र नीति को रद्द कर दिया जाए एवं भूमि सीलिंग कानून को पुन: प्रचलन में लाया जाए ।
श्री सिंह का कहना है कि अधिनियम के सकारात्मक पक्षों को लेकर की कोई स्पष्टता नहीं है । उदाहरण के लिए अधिनियम का कथन है कि स्वत्वाधिकार प्राधिकरण अस्थायी स्वत्वाधिकार के मामले में स्वमेव निर्णय ले सकता है । यह प्रावधान तभी प्रभावकारी हो सकता है यदि अधिया-बटाई वाले किसानों एवं आदिवासियों के अधिकारों का ठीक से दस्तावेजीकरण किया गया हो । साथ ही यह भी निश्चित नहीं है कि राज्य अलग से अपने भूमि स्वत्वाधिकार कानून लागु करेंगे। चूंकि भूमि राज्य का विषय है अतएव राज्यों से यह उम्मीद की जाती है कि वे केन्द्रीय कानून के आधार पर अपने कानून बनाएगे ।
मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि अधिनियम में अभी भी कुछ कमियां है । उनका कहना है कि संसद में अंतिम मसौदा प्रस्तुत करने से पहले वे संभवत: इस क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ताआें और अकादमिक क्षेत्र में लोगों से सलाह मशविरा करेंगे ।
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