अन्न सड़ने की नौबत
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल
गोदामों में भरा अनाज सड़ रहा है । क्या हम यह खुशफहमी पाल लें कि अब हमारे देश में कोई भी भूखा नहीं सोता है । लेकिन आज भी हमारे देश में २० से २५ फीसदी लोगों के घरों में अनाज के अभाव में चूल्हा नहीं जलता है । फिर यह स्थिति कैसे उत्पन्न हो गई कि सरकारी भण्डारगृहों में अनाज सड़ने
लगा । भण्डारित क्षमता से अधिक उत्पादित होने के कारण खुले आसमान के नीचे लाखों टन अनाज सड़ रहा है । दरअसल यह सरकारी नीतियों के गलत होने का ही दुष्परिणाम है । क्या अनाज सड़ाने के लिए पैदा किया जाता है ?
अनाज हमारी धरती की अमानत
है । जिसे प्रकृति ने भूखों को निवाले देने के लिए उत्पन्न किया है । प्रकृति एवं धरती हमारी जरूरतों के मुताबिक ही हमको अन्न देती
है । किन्तु हम रासायनिक उर्वरकों को अनियंत्रित तरीके सेखेतोंमें छिड़ककर जबरन ही धरती की जान निकालते हैं । धरती हमारा पेट भर सकती है किन्तु लालच को पूरा नहीं कर सकती है ?
अपने नागरिकों के लिए समुचित पोषण की व्यवस्था करना राज्य सत्ता की जिम्मेदारी है । खाद्य सुरक्षा के नाम पर सरकार उर्वरकों कपर सब्सीडी देती है । यह बात भी सच है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने हितसाधन के लिए हमारी कृषि नीति पर मंहगे उर्वरकोंके प्रयोग का माया जाल फैलाया है । हमारी सरकार की उपज का समर्थन मूल्य निर्धारित कर सरकारी खरीद समर्थन मूल्य पर करती है ताकि महंगाई पर अंकुश रहे तथा उत्पादक एवं उपभोक्ता संतुष्ट रहे । देखा यह जा रहा है कि कीटनाशी रसायन एवं उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण कृषि लागत बढ़ती जाती है और महंगाई आती है । भण्डारित अनाज भी उचित रख रखाव के अभाव में खराब हो जाये तो समस्या और भी बढ़ जाती है ।
तमाम पर्यावरणीय विद्रूपताआें के कारण जैसे शहरीकरण, सड़क चौडीकरण, औद्योगिकीकरण एवं बस्तियों के विस्तार से देश में कृषि जोत घटी है फिर भी धरती से अधिक खाद्यान्न उपजाने की होड़ बढ़ी है । हरित क्रांति भी छलावा सिद्ध हुई है । हम धरती से जरूरत भर ही क्योंेनही ंलते है क्यों धरती से क्षमता से अधिक उपज पाने में प्रयास रत रहते हैं । इससे धरती अपनी धारण क्षमता खोकर रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के कारण बंजर और बेजान हो जाती है । फिर भी हमारी भूख और बढ़ जाती है ।
आज हम अधिक अन्न उपजाकर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं । और उसे गोदामों मे भरकर सड़ा रहे हैं । किन्तु भविष्य में जब हमारी धरती अपनी जीवनी शक्ति से रीत जाएगी तो क्या अकाल का सामना नहीं करना पड़ेगा ? यह विचारणीय प्रश्न है ।
हमारी सनातन संस्कृति एवं चिंतन धारा कहती है कि भूखे को भोजन देना धर्म
है । इसी श्रेयस भावना के वशीभूत हम लोग भण्डारे एवं लंगर आयोजित करते हैं । हमारे शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि जो व्यक्ति केवल स्वयं के पेट भरने की सोचता है वह पाप खाता है । जरूरत मंद का सहायक बनना तथा भूखे को भोजन एवं प्यासे को पानी देना परमार्थ के काम है ।
किसान के खून-पसीने से अभिसिंचित एवं उत्पादित अन्न की बर्बादी तथा भूखे गरीबों की बेवसी को दृष्टिगत रखते हुए सर्वाच्च् न्यायालय ने सरकार और उसके कृषि मंत्री को आदेश दिया कि वह अनाज को यूं सड़ाने की जगह गरीब भूखों को मुफ्त बांट
दे । किन्तु कृषि मंत्री ने अनाज को मुफ्त बांटने से स्पष्ट इंकार कर दिया तो अदालत को फटकार तक लगानी पड़ी एवं मंत्री को स्पष्टीकरण देना पड़ा । दरअसल सड़ते अनाज को मुफ्त बाँटने से इंकार करने का मंत्री जी का बयान भूख के प्रति उनकी संवेदनहीनता का द्योतक है । मंहगाई की मार भूख को और सताती है । मंहगाई जमाखोरी से आती है । बाजार बिचालियों एवं सटोरियों के हाथों में है ।
भ्रष्ट नेता, सरकारी अफसर एवं जमाखोरों का गठजोड़ भूख पर सियासत को हर वक्त तैयार रहता है । जानकार लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि सरकारी गोदामों में अनाज सड़ नहीं रहा वरन सड़ाया जा रहा है ताकि शराब (बीयर) बनाई जा सके । सड़ते अनाज को ओने-पोने दामों में अपने लोगों को दिया जा सके जो शराब व्यवसाय में संलग्न और सक्रिय हैं ।
अब वक्त आ गया है कि सरकार को खाद्यान्न के भण्डारण के उचित प्रबंध करने होंगे । अधिक क्षमता वाले भण्डार गृहों का निर्माण एवं रख-रखाव जरूरी है । यह भण्डार गृह सुरक्षित स्थानों पर हों । पहले घरों में भी उपभोक्ता अनाज को देशज विधियों से भण्डारित कर लेते थे और वक्त जरूरत पड़ने पर दान भी देने से नहीं हिचकिचाते थे । महिलाएं इस कार्य को दक्षता से अंजाम देती थीं । कीटनाशकों का प्रयोग भी न्यूनतम होता था । नीम की सूखी पत्तियाँ आदि से रक्षा की जाती थी । अत: इस दिशा में पुन: सक्रियता दिखलानी होगी । टूटते संयुक्त परिवार तथा आवास छोटे होने से घरों में अनाज नहीं रखा जाता । फास्ट फूड के प्रचालन ने भी इसे उकसाया है । बाजारवाद हावी है और अनाज सड़ रहा है । सारी सरकारी व्यवस्था में ही घुन लगा है और हर कोई मुक्त हस्त से लूट रहा है ।
यह स्थिति शर्मनाक है कि हम धरती के उपहार स्वरूप, प्रकृति के प्रसाद पाये हुए अनाज को सड़ा रहे हैं । उपजाने वाला किसान खुद रोटी गिनकर खाता है तब अनाज का यूं सड़ना मिट्टी के साथ हमारी कृतज्ञयता एंव अज्ञानता में हम अपना वर्तमान तो खराब कर ही रहे हैं भविष्य को भी बिगाड़ रहे हैं । हमें भूख तथा भीख के रिश्ते को भी समझना
होगा । आदमी जब भूख से लड़ता हुआ टूट जाता है तब ही भीख मांगता है । हमें भूख की संवेदना को समझना होगा ।
देश में हरित क्रांति के बाद भी क्यों यह स्थिति है । हमें केवल उस हरित क्रांति का हिमायती होना चाहिए जो प्रकृति से सौहार्दपूर्ण हो, पर्यावरण के अनुरूप हो । जो त्याग के साथ ग्रहण करने की मनीषा की पालक हो ।
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