शताब्दी विकास लक्ष्य की वस्तुस्थिति
रेम्जी बरॉड
शताब्दी विकास लक्ष्यों (एम.डी. जी.) के महत्व को ध्यान में रखते हुए इनके क्रियान्वयन की समीक्षा करना आवश्यक है । इसी के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ के दोहरे व्यक्तित्व पर भी विचार करते हुए इसमेंसुधार के लिए उठने वाली आवाजों को मजबूती प्रदान की जाना चाहिए ।
संयुक्त राष्ट्र शताब्दी विकास लक्ष्यों (एम.डी.जी.) को जिस उम्मीदों के साथ सभी सरकारी दावों के बावजूद नजर आता है कि विकास की प्रवृत्ति प्रारंभ से ही त्रृटिपूर्ण थी । पिछले दस वर्षोंा में असंख्य समितियों, अंतर्राष्ट्रीय एवं स्थानीय संगठनों एवं स्वतंत्र शोधकर्ताआें ने दिन रात एक कर के चरम गरीबी और भूख, सभी को उपलब्ध प्राथमिक शिक्षा, लैंगिक समानता, शिशु मृत्यु आदि से संबंधित सभी प्रकार के सूचकांक, संख्या, तालिका और आंकड़े इकट्ठा किए हैं ।
आवश्यक नहीं है कि इन आंकड़ों से निकाले गए सभी निष्कर्ष भयंकर ही निकले हों । साथ ही संयुक्त राष्ट्र के सभी १९२ सदस्य देशोंें द्वारा स्वीकार किए गए आठ अन्तर्राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों को सुनिश्चित करने में अथक रूप से जुटे सभी स्त्री, पुरूषों की विश्वसनीयता पर संदेह भी नहीं किया जाना चाहिए । ये वे लोग हैं जो मुद्दों को सामने लाए और आज भी कृत संकल्प होकर उन्हें पाने में जुटे हुए
हैं ।
समस्या तो इस विचार में ही छुपी हुई है कि सरकारों और राजनीतिज्ञों पर फिर वे चाहे अमीर हों या गरीब, लोकतांत्रिक या तानाशाह या बढ़ते वैश्विक युद्ध या अकाल के अगाध गर्त से निकलने का प्रयास कर रहे हों, पर क्या सहज भरोसा किया जा सकता है कि वे मानवता के प्रति स्वार्थहीन एवं बिना शर्त लगाए ऐसे लोग, जिसमें गरीब, प्रतिकूल परिस्थितियों में रहने वाले, भूखे एवं बीमार शामिल हैं के साथ साझा लगाव दिखा पाएंगे? इस स्वप्नदर्शी स्थिति को किसी न किसी दिन पाया अवश्य जा सकता है लेकिन निकट भविष्य में उस दिन के आने की कोई संभावना नहीं है ।
तो फिर ऐसे लक्ष्यों को लेकर विशिष्ट समायावधि और नियमित रिपोर्टोंा के माध्यम से प्रतिबद्धता क्यों दर्शाई जा रही है जबकि इस हेतु ईमानदार वैश्विक सामंजस्य का अभाव है? अपने गठन के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ दो विरोधाभासी एजेन्डे का स्त्रोत रहा है । पहला है इसका अलोकतांत्रिक स्वरूप, जिसका नेतृत्व सुरक्षा परिषद में वीटो का अधिकार प्राप्त् देशांे को प्राप्त् है और दूसरा है समानतावादी और यह सामान्य सभा में परिलक्षित होता है । दूसरा स्वरूप वैश्विक मनोदशा और अंतर्राष्ट्रीय विचारों को पहले स्वरूप के मुकाबले ज्यादा सटीक रूप में सामने रखता है । क्योंकि पहला स्वरूप तो कमोबेश तानाशाह और शक्ति संपन्नता को ही प्रश्रय देता है ।
इसके परिणामस्वरूप पिछले छ: दशकों में विचार और व्यवहार के दो विरोधाभासी मत सामने आए हैं । इसमें से एक रोक लगाता है, युद्ध छेड़ता है और राष्ट्रों को नष्ट करता है, और दूसरा मदद के लिए हाथ बढ़ाता है, विद्यालय बनाता है और शरणार्थी को छत मुहैया कराता है । यद्यपि वह कमोब ेश छोटे स्तर पर ही सही, पर मदद तो देता है जबकि पहला बड़े स्तर पर ही सही, पर मदद तो देता है जबकि पहला बड़े स्तर पर तबाही और विध्वंस फैलाता है । शताब्दी लक्ष्य भी इसी द्वंद से उपजे हैं जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ के आदर्श सिद्धांतों को कमतर कर रहे हैं । एम.डी.जी. जहां एक ओर व्यक्तियों की चाहत का वास्तविक प्रतिबिंब है वहीं दूसरी ओर उन्हें प्राप्त् करने की उम्मीद कम ही है ।
इसका यह अर्थ भी नहीं है कि कोई भी अच्छी खबर नहीं है । ८ सितंबर २००० को जब साधारण सभा ने शताब्दी लक्ष्यों को अपनाया था तब से कई उत्साहजनक नतीजे भी सामने आए हैं । हालांकि २००५ में विश्व नेताआें के सम्मेलन में यह बात सामने आई थी कि प्रगति की गति धीमी है और नियत समय तक लक्ष्यों को प्राप्त् नहीं किया जा
सकता । २३ जून को अफ्रीका के लिए एम.डी.जी. अभियान के निदेशक चार्ल्स अबुग्रे ने बर्लिन में एम.डी.जी. २०१० रिपोर्ट प्रस्तुत की । इसके अनुसार २००८ में खाद्य एवं २००९ में वित्तीय संकट ने प्रगति को रोका तो नहीं परन्तु इसने वैश्विक गरीबी हटाने के लक्ष्य पाने को और अधिक कठिन बना दिया है ।
श्री अबुग्रे के अनुसार गरीबी में १५ प्रतिशत तक की कमी आई । साथ ही मध्य एशिया जहां पर सशस्त्र संघर्ष एवं युद्ध चल रहे हैं को छोड़कर पूरे विश्व में इस दिशा में प्रगति की है । परन्तु शिशु मृत्यु दर एवं महामारियों से बचाव के मामलों में या तो बहुत कम या बिल्कुल भी प्रगति नहीं हुई है । इतना ही नहीं पर्यावरण ह्ास भी खतरनाक रफ्तार से गतिमान है । श्री अबुग्रे का कहना है कि पिछले १७ वर्षोंा में कार्बन डायआक्साइड का उत्सर्जन ५० प्रतिशत बढ़ा है । संकट के चलते उत्सर्जन में थोड़ी बहुत कमी होने के बावजूद भविष्य में इसमें और अधिक वृद्धि की संभावना है ।
यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि कुछ देश अन्य देशों के मुकाबले शताब्दी विकास लक्ष्यों को प्राप्त् करने के अधिक नजदीक हैं । उदाहरण के लिए चीन को लें, जिसने अपने यहां गरीबी की संख्या में जबरदस्त कमी की है । जब कई अन्य देश और अधिक गरीबी में धंस गए हैं । गरीबी कम करने की दिशा में सख्या के हिसाब से तो कमी आती दिखती है । लेकिन सन् २००० में इसे लेकर जो वैश्विक संकल्प लिया गया था, उससे तुलना करने पर यह नगण्य जान पड़ती है ।
इसे राष्ट्रों की अपनी स्थिति से भी समझना होगा । उदाहरणार्थ चीन की आर्थिक प्रगति को शायद ही वर्ष २००० के सम्मेलन से जोडा जा सकता है । वहीं अफगानिस्तान ने २००१ में अमेरिका और नाटो हमले को नहीं चुना था । जिसनक उसके द्वारा इन लक्ष्यों की प्रािप्त् की सम्भावना को ही नष्ट कर दिया ।
एकमत होने को प्रयासरत होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा तय किए गए लक्ष्यों की गंभीरता से समीक्षा करना कठिन
है । क्योंकि इन्हें अंतर्राष्ट्रीय इकाईयों जैसे अंतरर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा गरीब देशों को आधारभूत परिवर्तन के बहाने उधारी और अत्यंत गरीबी में ढकेले जाने को ध्यान में रखा ही नहीं गया था । इनमें इस बात की भी अनदेखी की गई थी कि किस तरह अमीर और ताकतवर देश अपना सैन्य, आर्थिक एवं राजनीतिक वर्चस्व सुनिश्चित बनाए रखने के लिए गरीब, राजनीतिक रूप से संवेदनशील एवं रक्षा मामलों में कमजोर राष्ट्रों को अपने अधीन बनाए रखना चाहते हैं ।
सर्वसम्मति बनाने की निरर्थक खोज न केवल वास्तविक मुद्दों से ध्यान बटाएगी बल्कि इससे साधारण सभा की सौहार्दपूर्ण छवि को भी धक्का पहुंचेगा । यह कार्य सुरक्षा परिषद पर या सुरक्षा परिषद के उन सदस्योंे पर छोड़ देना चाहिए जिनका मत वास्तव में मायने रखता है कि और निर्बाध रूप से निर्णयात्मक और कू्रर नीतियां लागू करते रहते हैं ।
यह सब कुछ इसलिए नहींकहा जा रहा है कि शताब्दी लक्ष्यों को ही छोड़ देना चाहिए । परन्तु अनावश्यक आशावादिता भी मूल्यांकन में बाधा पहुंचाती है । शताब्दी विकास लक्ष्यों पर वास्तविकता और सच्चई की कीमत पर बहस नहीं की जानी चाहिए । साथ ही इसे अमीरों के लिए एक बार और अच्छा महसूस करने एवं गरीबों को और अपमानित करने के लिए भी प्रयोग में नहीं लाया जाना चाहिए । ***
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