शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

४ जनजीवन


जी.एम.खाद्य : अब जबरन खाइये
रवीन्द्र गिन्नौरे

भारत सरकार जिस तरह जी.एम.खाद्य फसलों को हम थोपने पर तुली हैं वह शंका का कारण बनता जा रहा है । बी.आर.ए.ई. के माध्यम से स्वतंत्र भारत पर एक ऐसा कानून थोपा जा रहा है जिसे लागू करने में संभवत: हमारे पूर्व औपनिवेशिक शासक भी हिचकिचाते । लेकिन आज हमारा अपने भोजन पर ही अधिकार समाप्त् किया जा रहा है और आलोचना करने पर २ लाख रू. जुर्माना और १ साल की सजा भी हो सकती
है ? क्या देश की जनता इस कानून को स्वीकार करेगी ?
ऐसी संभावना है कि जल्द ही भारतीय जेनेटिक मोडीफाइड (जी.एम.) खाद्य खाने के लिए कानूनन बाध्य होंगे । क्योंकि जी.एम. खाद्य के खिलाफ अब कोई आवाज नहीं उठा सकेगा । बी. टी. बैंगन के खिलाफ पूरे देश में जो बवाल उठा उसे देखते हुए सरकार ने इस बार पहले से तैयारी कर ली है । दुनिया के किसी देश की सरकार ने ऐसी पहल नहीं की जो हमारी सरकार करने जा रही है । जी.एम. फसलों की सुरक्षा प्रदान करने और उसे बाजार में लाने के लिए सरकार संसद में जल्द ही एक विधेयक लाने वाली है । कानून पारित होने के बाद जी.एम. फसल के खिलाफ कोई कदम अपराध माना जाएगा ।
बायोटेक्नोलाजी रेगुलेटरी अथॉरिटी बिल (बी.आर.ए.ई.) का मसौदा इनमें से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हित संवर्धन करेगा । भारत में ५६ खाद्यान्नों, सब्जियों व फलों पर जी.एम. परीक्षण चल रहा है । ४१ खाद्यान्न और सब्जियाँ ऐसी हैं, जो पूरे देश में सामान्यतौर पर उपयोग में आती हैं । बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खाद्यान्न, सब्जियाँ, फलों को जी.एम. तकनीक से तैयार करेंगी उन उत्पादों को स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह बताना अपराध होगा । बी.आर.ए.ई. के अनुच्छेद ६२ (१३) के अनुसार जो व्यक्ति बिना साक्ष्यों या वैज्ञानिक रिकार्ड के जनता को उत्पादोंकी सुरक्षा के बारे में गुमराह करेगा, उसे कम से कम छह माह और अधिक से अधिक एक साल कैद या दो लाख रूपये तक के अर्थदंड या दोनों सजाएं सुनाई जा सकती है ।
बी.टी. बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जी.ई.ए.सी.) ने २००९ में दी थी । राज्य सरकारों के साथ अनेक संस्थाआें के विरोध से केन्द्र सरकार ने चुप्पी साध ली थी । मगर अब केन्द्र सरकार ने स्पष्ट कह दिया कि जी.एम.खाद्य स्वास्थ्य को किसी प्रकार नुकसान नहीं पहुंचाते । इस कवायद के साथ जी.एम. फसलों को भारत में स्थापित करने के लिए (बी.आर.ए.ई.) कानून लागू होने जा रहा है । कानून बन जाने के बाद राज्य सरकारें विरोध नहीं कर सकेंगी । संस्थाएं और लोग जो जी.एम. के खिलाफ आवाज उठाएंगे वे कानून के तहत अपराधी होंगे ।
समाचार पत्रों में भी जी.एम. फसल के बारे में कोई टीका-टिप्पणी करना भी इस कानून का उल्लंघन होगा । जी.एम. उत्पाद के शोध, अनुसंधान की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत नहीं ली जा सकती । स्पष्ट है कि जी.एम. फसल का पर्यावरण जैव विविधता पर प्रभाव खाद्य का उपभोग करने वालों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव को कोई अखबार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रकाशन या प्रसारण में जिक्र नहीं कर सकेगा । भारत में जेनेटिक मोडीफाइड फसलों के अपशिष्ट को खाकर कई स्थानों पर पशु मारे जा चुके हैं। कानून पारित हो जाने के बाद जी.एम. फसल से ऐसी घटनाएं होती हैं, तो उन्हें प्रकाश में लाना कानूनन अपराध होगा ।
बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी बिल के तहत पुनर्विचार संबंधी ट्रिब्यूनल गठित होगा, जो बायो प्रौद्योगिक संबंधी मामले की सुनवाई करेगा । ट्रिब्यूनल के खिलाफ केवल सुप्रीम कोर्ट में ही सुनवाई होगी ।
भारत के बीज बाजार को बी.आर.ए.ई. कानून बनाकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को परोसा जाने वाला है । जी.एम. फसलों से पर्यावरण, जैव विविधता, मानव सहित फसल अपशिष्ट को खाने वाले पशुआें को नुकसान पहुँचा है । इस संदर्भ में अनेक अनुसंधान पश्चिमी देशों में भी हो चुके हैं । यूरोपीय देशों में जी.एम. फसलों का विरोध हो रहा है । यूरोपीय देशों में जी.एम. फसलों का विरोध हो रहा है । मगर वहां जी.एम. फसलों के संवर्धन के लिए कोई कानून नहीं बना है । पश्चिमी देशों के खाद्य पदार्थोंा में जी.एम. खाद्य पर लेबल लगाना अनिवार्य
है । जनता अगर चाहे तो वह जी.एम. खाद्यों का उपभोग कर सकती है । भारत के अनेक कृषि विश्वविद्यालयों में जी.एम. फसलों पर परीक्षण चल रहा है । इसकी जानकारी उन राज्य सरकारोंें को नहीं है, जिन राज्यों में ऐसे परीक्षण चल रहे हैं । सन् २००७ में देश के छह राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों ने जी.एम. धान का परीक्षण किया था । इन परीक्षणों के परिणाम आज तक सामने नहीं आए हैं । जानकारी आम होने तक जी.एम. धान की फसलें खेतों से गायब हो चुकी थीं ।
उल्लेखनीय है, सन् २००६ में संसद में बहस के दौरान भारत-अमेरिका कृषि समझौते का जिक्र आया था । समझौते के अन्तर्गत भारत सरकार ३०० करोड़ रूपये जेनेटिक इंजीनियरिंग के शोध पर खर्च
करेगी । बोर्ड में अमेरिकी मूल की दो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों-मानसेंटो व वालमार्ट को शामिल किया गया है । यह बोर्ड ही तय करेगा कि भारत की कृषि प्रयोगशालायें और कृषि विश्वविद्यालय कैसे काम करेंगे ।
दरअसल जैव संवर्धित तकनीक से परिवर्तित फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हुई है । अब तक के वैज्ञानिक परीक्षणोंसे सही तथ्य सामने आए हैं । अगर जी.एम.फसलें स्वास्थ्य के लिए माकूल हैं तो उस पर हो रहे शोध व परीक्षणों को आज जनता से क्यों छिपाया जा रहा है ? इसकी जानकारी को गोपनीय रखने के लिए बी.आर.ए.ई. क्यों बनाया जा रहा है ? जी.एम. फसलों को लाकर भारत की खेती-किसानी पर कौन आधिपत्य जमाना चाहता है ? बहुत सारे सवाल हैं मगर सारे सवाल संसद में उठाए जाने हैं । अगर संसद में बायोटेक्नोलाजी रेगुलेटरी अथारिटी बिल पास हो गया तो शायद ही कोई सवाल करने की हिम्मत करेगा । जी.एम. फसलों की घुसपैठ बनाने के लिए लम्बे समय से कवायद चल रही है । अगर कानून बन गया तो भारतीय जी.एम.खाद्य खाने को बाध्य होगा । देखना होगा कि देश की संसद में बायोटेक्नोलाजी रेगुलेटरी अथारिटी बिल पर कोई सवाल उठता है या नहीं ?
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