शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

१ दृष्टिकोण


गाँधीवाद रहे न रहे
महात्मा गांधी

सन् १९४० में बंगाल के मालिकांदा में गाँधी सेवा संघ का छठा अधिवेशन हुआ था । गाँधीजी के भाषण से पहले कुछ लोग जोर-जोर से गाँधीवाद का ध्वंस हो जैसे नारे लगा रहे थे । उस ओर ध्यान आकृष्ट हुए गाँधी जी ने जो कहा- वह कितना स्पष्ट है, यह पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं । इसी के समानांतर बढ़ती हिंसा के वर्तमान दौर में गांधीजी की वीरोचित अहिंसा पथ प्रदर्शक का कार्य करेगी ।
अभी मैंने कई लोगों को गाँधीवाद का ध्वंस हो चिल्लाते सुना । जो गाँधीवाद का ध्वंस करना चाहते हैं, उनको ऐसा कहने का पूरा-पूरा अधिकार है । जो लोग मेरा भाषण सुनने आये हैं वे कृपाकरके खामोश रहें। उनको इन विरोधी नारों से चिढ़ना नहीं चाहिए ओर नहीं गाँधी की जय के नारे लगा कर उनका जवाब देना चाहिए । अगर आप अहिंसक हैं तो आपको ऐसे नारे चुपचाप सुन लेने चाहिए । अगर गाँधीवाद में सत्य है तो उसके नाश के लिए लाखोंया करोड़ों आवाजें लगायी जाने पर भी उसका नाश होने वाला नहीं है ।
जो लोग गाँधीवाद के विरूद्ध कुछ कहना चाहते हों, उन्हें वैसा कहने की आजादी दीजिए । उससे कोई नुकसान नहीं होगा । उसने किसी प्रकार का द्वेष या बैर न कीजिए । जब तक आप अपने विरोधियों को शांति से निबाह नहीं सकेंगे, तब तक अहिंसा को सिद्ध नहीं कर सकेंगे । अगर सच पूछा जाय तो खुद मैं ही नहीं जानता कि गाँधीवाद का क्या अर्थ है । वे लोग जो यह कहते हैं ।
गाँधीवाद को ध्वंस हो, उसमें अर्थ नहीं हैं, ऐसा नहीं है । अगर गाँधीवाद का अर्थ यंत्र की तरह चरखा चलाना ही हो तो उसका ध्वंस होना इष्ट है । यह तो प्रफुल्ल बाबू ने एक लाख गज सूत कातने की बात कही है, उसका महत्व मैंने आपको समझाया । परन्तु हमें उसका केवलशब्दार्थ नहीं लेना चाहिए । मैं उसकी दूसरी बाजू भी जानता हूँ । सिर्फ चरखा चलाने
से देश का कल्याण नहीं होगा । पुराने जमाने में भी कई अपाहिज और स्त्रियां चरखा चलाती थीं । कोटिल्य ने लिखा है कि उस जमाने में राजदंड के डर से चरखा चलवाया जाता था । चरखा चलाने वाले अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि मजबूरी से बेगार के तौर पर चरखा चलाते थे । औरतें चरखा कातने के लिए एक कतार में बैठती थीं । वह सब जबर्दस्ती का मामला था । यह लिखी हुई बात है । मैं केवल सुनी हुई बात नहीं कह रहा हूँ । अगर हमारा मतलब फिर उसी चरखे को जारी रखने से है, तब तो उसे चरखे का ध्वंस ही होना चाहिए और उस चरखे का महत्व मानने वाले गाँधीवाद का भी ध्वंस होना ही चाहिए ।
अगर हमारी अहिंसा वीर की अहिंसा न होकर कमजोर की अहिंसा है, अगर वह हिंसा के सामने झुकती है, हिंसा के आगे लज्जित और बेकार हो जाती है, तो ऐसे गाँधीवाद का भी ध्वंस होना चाहिए । उसका ध्वंस होने वाला ही हैं । हम अंग्रेजों से लड़े मगर उसमें हमने अशक्त लोगों के शस्त्र के रूप मेंअहिंसा को प्रयोग किया । हम उसे बुलन्द, शक्तिशाली का अस्त्र बनाना चाहते हैं, परन्तु वह बुजदिलों का कायरों का शस्त्र तो हरगिज नही ंहो सकती है । अगर कोई बुजदिल होकर अहिंसा को अपना लेता है तो अहिंसा उसका नाश करेगी । हमें यह देखना चाहिए कि हम चरखा चलाते हैं तो क्या उसमें से हममें अहिंसा की शक्ति पैदा होती है ? अगर हमारा चरखा अहिंसा को नित नया बल नहीं देता हमारी अहिंसा का दर्शन नहीं बढ़ाता तो मैं कहता हूँ कि गाँधीवाद का ध्वंस हो । वे लोग गाँधीवाद के ध्वंस के नारे पागलपन में लगा रहे हैं, रोष में आकर कह रहे हैं, लेकिन मैं तो बुद्धिपूर्वक कह रहा हूँ । यह बात आपसे एक ऐसा आदमी कहता है जो सारासार का विचार कर सकता है, जिसका मस्तिष्क काम करता है और जिसने सफलतापूर्वक वकालत भी की है ।
मैं यह साक्षी देता हूँ कि हम यदि अहिंसा का अनुसंधान करके ध्यानपूर्वक चरखा नहीं चलाते हैं तो गांधीवाद का अवश्य ही ध्वंस होना चाहिए । मैंने चरखे को अहिंसा नीति का व्यक्त प्रतिक माना है । आप मुझसे पूछेंगे कि यह सब तुमने कहां से पाया ? मैं कहूंगा , सेवा के अनुभव से । सन् १९०८ में मेरे दिल में यह बात जमी हुई थी । उस समय तो मैं करघे-चरखे का भेद भी नहीं जानता था । लेकिन बीज रूप में चरखे से मुझे प्रेरणा मिली ।
शायद आपको पता नहीं होगा कि मैंने हिन्द स्वराज किसके लिए लिखा । अब तो वे मर गये हैं, इसलिए उनका नाम बताने में
हर्ज नहीं हैं । मैंने सारा हिन्द स्वराज अपने मित्र डॉ. प्राण जीवन मेहता के लिए लिखा । उनसे जो चर्चा हुई, वहीं उसमें आयी है । एक महीना मंै डॉ. मेहता के साथ रहा । वे मुझे प्यार करते थे, लेकिन मेरी बुद्धि की उनके पास कोई कीमत नहीं थी । उनसे बुद्धिवाद करने की शक्ति मुझमें
कहां ? लेकिन मैंने अपनी बात उनके सामने रखी । उनके हृदय पर वह असर कर गयी । उनके विचार बदल गये । तो मैंने सोचा इसे लिख ही क्यों लिख न डालूं ? उनसे जैसा संवाद हुआ, वैसा ही उसमें लिखा है । मैंने उस समय तक चरखे का दर्शन ही नहीं किया था । चरखे की बात तो मेरे स्वतंत्र प्रकरणों में आई है । लेकिन तो भी मैंने वहां आखिरी दलील यही दी थी कि अहिंसात्मक संस्कृति का आधार सार्वत्रिक कताई ही हो सकती
है ।इसलिए मैं आपसे कहता हूँ कि चरखे में जो अर्थ भरे हैं, उनको न समझ कर अगर आप चरखा चलाते हैं तो या तो पद्मा नदी में फेंक दीजिए या जला कर जाइए । तब सच्च गांधीवाद प्रकट होगा । सिर्फ चरखा चलाने तक ही जो गाँधीवाद सीमित है, उसके लिए तो मैं कहूंगा कि गांधीवाद का ध्वंस हो ।
कल शाम को गांधीवाद ध्वंस होे का घोष हुआ । मारपीट भी हुई । दो-चार आदमी पिट गये । मैं आपसे पूछता हूं कि आपके दिल पर क्या असर हुआ ? हम दो सौ आदमी यहां इस तरह पिट कर मर जायें तो आपके दिल में रोष पैदा होगा या दया ? सिर्फ मर जाने से हम परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होंगे ।हमारे दिल में मारने वालों के लिए दया होनी
चाहिए । प्रेम तो वहां ठीक नहीं होगा । तो अत्याचार करते हैं, उनको हम यह शाप नहीं देंगे कि उनका सत्यानाश हो जाए । लेकिन उनको प्रेम भी कैसे कर सकते हैं? उन पर दया करेंगे कि वह उन्हें ज्ञान दें । हम तितिक्षा से उनके आघात सह लेंगे । हमारे हृदय से दया के उद्गार निकलेंगे । सिर्फ लोगों को सुनाने के लिए नहीं, बल्कि सच्च्े दिल से हम उन पर दया करेंगे । कोई मुझ पर हमला करता है, लेकिन मुझे उस पर गुस्सा नहीं आता । वह मारता जाता है, मैं सहता जाता हूं । मरते-मरते भी मेरे मुख पर दर्द का भाव नहीं बल्कि हास्य है, मेरे दिल में रोष के बदले दया है, तो मैं कहँूगा कि हमने वीर पुरूषों की अहिंसा सिद्ध कर ली । अहिंसा में इतनी ताकत है कि वह विरोधियों को मित्र बना लेती है और उनका प्रेम प्राप्त् कर लेती है ।
अगर हम यह काम शुद्ध बुद्धि से करेंगे तो हमारी शक्ति बढ़ेगी और हमारी हस्ती से जो डर पैदा हो रहा है, वह नहीं रहेगा । हमारी शक्ति अगर किसी के दिल में डर पैदा करती है या हिंसा की प्रेरणा पैदा करती है। तो वह अहिंसक नहीं हो सकती । ***
डॉ. सुमन जैन द्वारा संपादित ग्रंथ गांधी विचार और साहित्य से साभार ।

कोई टिप्पणी नहीं: