गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

१ सामयिक

जी.एम. फसलें और भारतीय लोकतंत्र
भारत डोगरा
जी.एम. बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन पर रोक लगाकर पर्यावरण मंत्रालय ने भारतीय लोकतंत्र का सम्मान बढ़ाया है । वहीं कृषि मंत्रालय और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा इस तकनीक के पक्ष में दिए गए बयानों से भारतीय राजनीति में कारपोरेट जगत की घुसपैठ को प्रमाणिकता मिली है । इस सबके बावजूद जनसंगठनों और व्यक्ति समूहों की इस जीत ने भारतीय लोकतंत्र में आस्था बढ़ाई है । जो लोग बी.टी. बैंगन के माध्यम से भारत की खाद्य सुरक्षा पर जेनेटिक इंजीनियरिंग (जीई) से प्राप्त् फसलों के हमले के बारे में चिंतित थे, उन्हें ९ फरवरी को पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की इस घोषणा से बड़ी राहत मिली कि बी.टी. बैंगन के व्यापारिक इस्तेमाल पर फिलहाल रोक लगा दी गई है । इसके साथ इस बात से काफी तसल्ली हुई कि एक विवादास्पद मुद्दे को सुलझाने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया का उपयोग किया गया । जहां खुलकर विविध विचार रखे गए । अंत में आम जनता व किसानों के साथ उन वरिष्ठ वैज्ञानिकों के विचारों को भी महत्व दिया गया जिन्हें पहले सरकारी स्तर पर दबाने का प्रयास किया गया था। अनेक राज्य सरकारों ने इस बहस के प्रति सजगता दिखाई और बहुत स्पष्टवादिता से इस विषय पर अपना निर्णय उचित समय पर बता दिया । यह हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है । लोकतंत्र के लिए यह भी गौरव की बात है कि पहले जिन मुद्दों को चंद विशेषज्ञों तक सीमित रखने की प्रवृत्ति थी, वैसे मुद्दे अब व्यापक चर्चा का विषय बन रहे हैं व गांववासी उन पर व्यापक स्तर पर अपने विचार रख रहे हैं । हमारे लोकतंत्र के लिए यह चिंता का विषय बनता जा रहा है कि इसमें धन की ताकत बहुत बढ़ गई है तथा धन के बल पर बहुत अनुचित स्वीकृतियां प्राप्त् कर ली जाती हैं । इस चिंताजनक स्थिति में बी.टी. बैंगन प्रकरण हमें कुछ उम्मीद अवश्य दिलाता है क्योंकि इस बार बड़े व्यावसायिक हितों को जन-अभियान की ताकत ने परास्त कर दिया है । इस जन-अभियान में अनेक सामाजिक व पर्यावरण आंदोलनों के कार्यकर्ताआें, किसान संगठनों, जनसाधारण, वैज्ञानिकों व बुद्धिजीवियों ने सक्रिय भूमिका निभाई । बड़े व्यापार ने करोड़ों रूपए खर्च किए लेकिन वह केवल पैसे के बल पर झूठ को सच नहीं बना सका । हमारे लोकतंत्र में बची इस ताकत को और उभारना होगा व जनहित के अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी निष्ठा से लोकतांत्रिक जनअभियान चलने चाहिए । हमारी यह लोकतांत्रिक ताकत ही हमें चीन व अमेरिका जैसी शक्तिशाली रूप में उभर नहीं सकते हैं । उधर अमेरिका में बड़े व्यापार के हित इतने शक्तिशाली हो चुके हैंकि तमाम नागरिक स्वतंत्रताआें के बावजूद उनका ही एजेंडा हावी हो जाता है । इन दो तरह की समस्याआें से बचते हुए हमें ऐसे लोकतंत्र को मजबूत करना चाहिए जिसमें जनसाधारण की आवाज व गलतियों को ठीक करने वाली जरूरी चेतावनियां असरदार ढंग से सरकार व निर्णय प्रक्रिया तक पहंुच सके । हाल की बी.टी. बहस के दौरान देखा गया कि जहां पर्यावरण मंत्रालय काफी खुले मन से सब तरह के विचारों को सुन रहा था व जन-सुनवाईयों का आयोजन कर रहा था, वही कृषि मंत्रालय से इस दौरान ऐसे बयान आए जो कि पूरी तरह उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की वकालत करने वाले थे जो कि जेनेटिक इंजीनियरिंग से तैयार खाद्य फसलों का प्रसार भारत में करने के लिए बहुत जोर लगा रही है । कृषि मंत्री शरद पवार के कुछ बयानों की इस कारण ज्यादा आलोचना हुई कि इससे महंगाई और मुनाफाखोरी को बढ़ावा मिलता है, पर बेहद विवादास्पद बहुराष्ट्रीय कंपनियों से पूरी तरह एक हो जाना भी कोई कम चिंता का विषय नहीं है । इस बारे में विश्वस्तर पर बहुत सी जानकारी उपलब्ध हैं कि विभिन्न देशों में यह कंपनियां किस तरह की अनैतिकता और भ्रष्टाचार से जुड़ी रहीं है । अत: उनसे किसी वरिष्ठ नेता की अत्यधिक निकटता चिंता का विषय है । विश्व स्तर पर जेनेटिक इंजीनियरिंग ऐसी छ:-स्तर कंपनियों के हाथ में केंद्रित हो गई है जो इसके उपयोग से विश्व खाद्य व कृषि व्यवस्था पर अपना नियंत्रण मजबूत करना चाहती हैं । इनमें वे कंपनियां भी हैं जिन्होंने भारत जैसे जैव-विविधता में संपन्न देशों के बीजों और पौध-संपदा पर अनैतिक तौर-तरीकों से कब्जा जमाने के कई प्रयास किए हैं । इन कंपनियों ने अरबों डालर जेनेटिक इंजीनियरिंग के कृषि उपयोग में झोंक दिए हैं । परंतु जब इन फसलों व तकनीकों के दुष्परिणाम सामने आने लगे तो उनके हाथ-पैर भी फूलने लगे । ऐसी स्थिति उत्पन्न होने लगी कि भविष्य में निर्यात वहीं से होगा जो जेनेटिक इंजीनियरिंग की फसलों से मुक्त क्षेत्र होगा। अब यह कंपनियां चाहती हैं कि भारत व चीन जैसे बड़े स्तर की खेती वाले देशों में शीघ्र ही इन फसलों को फैला दिया जाए ताकि सबको मजबुरी में इन खतरनाक फसलों को ही स्वीकार करना पड़े । उनके इस कुप्रयास का जमकर विरोध होना चाहिए । यह कंपनियां अपने पक्ष में कहती है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग से उत्पादकता बढ़ती है । पर अमेरिका में जहां इन फसलों का अधिकतम प्रसार हुआ है, वहां फ्रेण्ड्स फार अर्थ तथा यूनियन फार कन्सर्नड साइंर्टिस्टस के प्रामाणिक अध्ययनों ने बता दिया है कि इन फसलों से उत्पादकता नहीं बढ़ी है । इन कंपनियों के दावे आंकड़ों की हेराफेरी पर आधारित होते हैं । इस तरह भ्रम फैलता है कि ऊंची उत्पादक जेनेटिक इंजीनियरिंग से मिली है जबकि यह हकीकत नहीं है । दूसरी ओर स्वास्थ्य व पर्यावरण पर इनके भीषण दुष्परिणाम सामने आ चुके हैं । जैफरी स्मिथ की पुस्तक जेनेटिक रूलेट (जेनेटिक जुआ) में लगभग ३०० पृष्ठों में ऐसे दुष्परिणामों की लंबी सूची दी गई है । अत: इन खतरनाक फसलों से बहुत सावधान रहना जरूरी है ।***
लकड़ी खाने वाला अनोखा समुद्री जीव
लकड़ी खाने वाला छोटा समुद्री जीव नई बॉयो इंर्धन बनाने मेंे अहम साबित हो सकता है । ये शोध नेशनल एकेडमी ऑफ सांइस की एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है । यह जीव सैकड़ों वर्षोंा से जहाजों को बर्बाद कर रहा है, इसका नाम है `ग्रिब्बल' । वैज्ञानिकों का कहना है कि इस जीव में अनूठी पाचन प्रणाली है जो लकड़ी को शर्करा में बदल देती है जो लकड़ी को शर्करा में बदल देती है । इस बदलाव से अल्कोहल आधारित इंर्धन बनाया जा सकता है । ग्रिब्बल के पेट में ऐसे एंजाइम्स पाए गए हैं जिनसे लकड़ी को शर्करा में बदला जा सकता है । वैज्ञानिक आशा कर रहे हैं कि एंजाइम्स को बनाने वाले जीन को डिकोड कर पाएँगे और फिर इससे बड़ी मात्रा में एंजाइम्स बनाएँगे । शोध टीम के प्रमुख प्रो. साइमन मैक्वीन मैसन का कहना है कि ग्रिब्बल की आँत आश्चर्यजनक है । क्योंकि, ज्यादातर जीवों की आँतों में जीवाणु तक नहीं होते हैं । वैज्ञानिक कृत्रिम एंजाइम्स बनाने की शुरूआत भी कर चुके है ।

२ विश्व वानिकी दिवस पर विशेष

वन, मानव जीवन के आधार
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
प्रति वर्ष २१ मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है । यह परम्परा सन् १८७२ में नेबरास्का (अमेरिका) में शुरू हुई, इसका श्रेय जे-र्स्टीलंग मार्टिन को जाता है, जिन्होंने पेड़ों की खूबसूरती से वंचित नेबरास्का में अपने घर के आस-पास बड़ी संख्या में पौधे लगाए थे । एक समाचार पत्र के संपादक बनने के बाद उन्होंने अन्य नगर वासियों को भूमि संरक्षण ईधन, इमारती लकड़ी, फल-फूल, छाया और खुबसूरती हेतु पौधे लगाने की सलाह दी । उन्होंने राष्ट्रीय कृषि बोर्ड को भी पौधे लगाने के लिए एक अलग दिन रखने को मना लिया । इस प्रकार विश्व वानिकी दिवस की शुरूआत हुई । प्रथम वानिकी दिवस पर एक लाख से ज्यादा पौधे लगाये गए, धीरे-धीरे पुरी दुनिया में यह दिवस एक पर्व के रूप में मनाया जाने लगा । मानव जीवन के तीन बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित है । इसके साथ ही वनों से कई अप्रत्यक्ष लाभ भी है । जिनमें खाद्य पदार्थ, औषधियां, फल-फूल, ईधन, पशुआहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भू-जल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख है । प्रसिद्ध वन विशेषज्ञ प्रो. तारक मोहनदास ने अपने शोध अध्ययन में बताया है कि एक ५० साल के जीवन में पैदा की गई एक ५० टन वजनी मध्यम आकार के वृक्ष से चीजोंएवं अन्य प्रदत्त सुविधाआें की कीमत लगभग १५.७० लाख रूपये होती है । वन विनाश आज समूचे विश्व की प्रमुख समस्या है, सभ्यता के विकास और तीव्र औद्योगिकरण के फलस्वरूप आज दुनिया वन विनाश के कगार पर खड़ी है । वनों के विनाश का सवाल इस सदी का सर्वाधिक चिंता का विषय बन गया है । पिछले दो-तीन दशकों से इस पर बहस छिड़ी हुई है और वनों का विनाश रोकने के प्रयास भी तेज हुए हैं । देश में पर्यावरण और वनों के प्रति जागरूकता आयी है, लेकिन हरित पट्टी में अपेक्षित विस्तार नहीं हो पा रहा है । पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में औद्योगिक विकास की गति काफी धीमी रही, किन्तु स्वतंत्रता के बाद तीन गुना बढ़ी जनसंख्या का दबाव वन एवं वन्य प्राणियों पर पड़ना स्वाभाविक ही था । यही कारण था कि हमारे समृद्ध वन क्षेत्र सिकुड़ते गये और वन्य प्राणियों की अनेक जातियां धीरे-धीरे समािप्त् की ओर कदम बढ़ाने लगी । हमारे देश के संबंध में यह सुखद बात है कि प्रकृति के प्रति प्रेम का संदेश हमारे धर्मग्रंथों और नीतिशतको में प्राचीनकाल से ही रहा है। सभी पूजा पाठ में तुलसी पत्र और वृक्ष पूजा के विभिन्न पर्वो की हमारी समृद्ध परंपरा रही है । यह लोक मान्यता रही है कि सांझ हो जाने पर पेड़ पौधों से छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए क्यों कि पौधों में प्राण है और वे संवेदनशील होते हैं । हमारे देश में एक तरफ तो वनों के प्रति श्रृद्धा और आस्था का यह दौर चलता रहा और दूसरी ओर बड़ी बेरहमी से वनों को उजाड़ा जाता रहा है । यह सिलसिला अभी भी धमा नहीं है । अनुमान है कि प्रति वर्ष १५ लाख हेक्टेयर वन कटते है । हमारी राष्ट्रीय वन नीति में कहा गया था कि देश एक-तिहाई हिस्से को हरा भरा रखेंगे, लेकिन पिछले वर्षोंा में भू-उपग्रह के छाया चित्रों से स्पष्ट है कि देश में ३३ प्रतिशत के बजाय १३ प्रतिशत ही वन क्षेत्र रह गया है । भारत में जैव-विविधता की समृद्ध परंपरा रही है वर्तमान में भारत की जैव-विविधता दुनिया के ६.४ प्रतिशत प्राणियों एवं ७ प्रतिशत वनस्पतियों का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि हमारा वन क्षेत्र विश्व के २ प्रतिशत से भी कम हैं और इसे विश्व की १५ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का दबाव झेलना पड़ता है । भारत में कुल ८१ हजार प्राणी-प्रजातियां एवं ४५ हजार वनस्पति प्रजातियां पायी जाती है । प्राणियों में सर्वाधिक ५७ हजार प्रजातियां तो कीट पतंगो की है, इसमें सबसे कम ३७२ प्रजातियों स्तनधारी प्राणियों की है । वनस्पति प्रजातियों का एक तिहाई १५ हजार प्रजातियां उच्च् वर्गीय पौधों की है, शेष प्रजातियों में २३ हजार फफूंद, १२ हजार कवक और ३ हजार ब्रायोफाहट शामिल हैं । जैव विविधता की स्मृद्धि की प्रसन्नता के साथ ही यह कम दुखद नहीं है कि हमारे देश में १५०० वनस्पति प्रजातियां ८१ स्तनधारी प्राणी प्रजातियां, १५ सरिसृप, ४७ चिड़िया, ३ अभयचर और अनेक कीट पतंगो की प्रजातियां विलुप्त्ता की कगार पर है । वन महत्वपूर्ण प्राकृतिक संपदा है, जो न केवल देश की समृध्दि को बढ़ाते हैं वरन देश के पर्यावरण संतुलन को भी बनाये रखते है । आज विश्व की जलवायु में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो रहे है । इसमें वन कटाई प्रमुख कारण है । इस विषय पर अब तक उनके राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय मंचों पर बहस हो चुकी है । जलवायु परिवर्तन सर्वाधिक महत्व का मुद्दा है । जलवायु परिवर्तन और स्थायी विकास के मुद्दों में गहरा संबंध है । हमारे देश में जलवायु परिवर्तन से सामाजिक संकट आने की संभावना बनी रहती है, क्योंकि भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था जलवायु संतुलन से ही संतुलित रहती है । भारतीय संस्कृति मूलत: अरण्य संस्कृति रही है । हमारे मनीषियों ने वनों के सुरम्य, शांत और स्वच्छ परिवेश में चिंतन मनन कर अनेक महान ग्रंथों की रचना की थी आज भी विश्व मानवता का मार्गदर्शन कर रहे हैं । सन् १९७६ में ४२ वें संविधान संशोधन के जरिये संविधान मेें पर्यावरण संबंधी मुद्दे शामिल किए गये । राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद ४८ `अ' जोड़ा गया जिसमें कहा गया है कि राज्य देश के प्राकृतिक पर्यावरण वनों एवं वन्य जीवों की सुरक्षा तथा विकास के लिए उपाय करेगा । मौलिक कर्तव्यों से संबंधित अनुच्देद ५१ `अ' में कहा गया है कि वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन की सुरक्षा व विकास तथा सभी जीवों के प्रति सहानुभूति हरेक नागरिक का कर्तव्य होगा । इसके साथ ही वन एवं वन्य जीवन से जुड़े सवालों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में शामिल कर दिया गया। भारत में विश्व वानिकी दिवस का विशेष महत्व है । खेजड़ली के शहीदों से लेकर चिपको आंदोलन तक पेड़ और प्रकृति रक्षा की महान विरासत हमारी राष्ट्रीय धरोहर है । हमने संसार को संदेश दिया है कि पेड़ों से हमारे पारिवारिक रिश्ते हैं, हम उसे अपना भाई मानते है, उसकी रक्षा में प्राणों की बलि देने में हम संकोच नहीं करते हैं । क्योंकि हम जानतें है कि पर्यावरण की रक्षा अपने होने की रक्षा है। आज के विश्व में इसी संदेश की आवश्यकता है ।***
पिछले ३ साल में गिर वन में मरे ११६ शेर
पिछले दिनों गुजरात सरकार ने विधानसभा में बताया कि तीन सालों में ११६ शेरों की मौत हो चुकी है । गुजरात में एशियाई शेरों की आखिरी प्रजाति बची है । कांग्रेस नेता अजरून मोढवाड़िया के प्रश्न के लिखित उत्तर में वन और पर्यावरण मंत्री मांगूभाई पटेल ने यह जानकारी दी । मंत्री ने बताया कि २००५ में हुई पिछली गणना के अनुसार गिर वन में २९१ शेर थे । उन्होंने बताया कि २००७ में ४० शेर थे । उन्होंने बताया कि २००७ में ४० शेरों की मौत हो गई, जबकि २००८ में ४२ शेरों की मौत हुई ।

३ विश्व महिला दिवस पर विशेष

महिला आरक्षण : लालिमा का माधुर्य
चिन्मय मिश्र
लोकसभा और विधानसभाआें में महिलाआें के ३३ प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव अंतत: राज्यसभा में पारित हो गया। इस प्रक्रिया में यादव त्रिमुर्ति अर्थात लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और शरद यादव और उनके समर्थकों ने राज्यसभा के अंदर और बाहर जिस भूमिका का निर्वाह किया है `निंदा' उसके लिए छोटा श्ब्द है। संविधान संशोधन खासकर ऐसा जो कि भारतीय राजनीति में प्रतिनिधित्व के तयशुदा ढर्रे में आमूलचूल परिवर्तन की नींव रखने वाला हो, को लेकर असहमति होना, किसी भी दृष्टिकोण से अनुचित नहीं है । परंतु संसदीय लोकतंत्र में न तो स्वयं कुछ कहना और किसी और को भी न बोलने देना आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आता है । पिछले १४ वर्षोंा से महिला आरक्षण विधेयक कमोबेश इसी तिकड़ी की वजह से पारित नहीं हो पा रहा था । ये आज भी उन्हीं मुद्दों पर इस संविधान संशोधन विधेयक का विराोध कर रहे हैं, जिन पर पहले दिन कर रहे थे । अगर यह संशोधन १४ वर्ष पूर्व क्रियान्वित हो जाता तो हम आज इसके गुण-दोष से परिचित हो चुके होते और महिलाएं कमोवेश पूरे भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी होती । अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित व अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम महिलाआें के उत्थान से किसे आपत्ति हो सकती है ? गौरतलब है कि इस वर्ग की महिलाआें की वकालत करने वाले इस गुट में से एक ने महिला सशक्तिकरण के नाम पर अपनी पत्नी को सशक्त बनाया तो दूसरे ने अपनी बहू को व तीसरे जहर की पुड़िया लिए अभी तक इंतजार कर रहे हैं कि यह संविधान संशोधन विधेयक संंसद के दोनों सदनों में पारित हो और वे इस पुड़िया को फांक लें । इसमें दो राय नहीं है कि महिलाआें को आरक्षण दिया जाना भारतीय लोकतंत्र को और मजबूत करेगा । पंचायत एवं नगरीय निकायों में आज भी स्थितियों उनके बहुत अनुकूल नहीं हैं । इसके बावजूद उनहोंने कदम आगे बढ़ाए हैं । इन संस्थानों में वे बने बनाए कानूनों के तहत कार्य करने को मजबूर थीं । लेकिन लोकसभा एवं विधानसभा में अपनी बढ़ी हुई उपस्थिति से वे अब कानून बनाने में भी बढ़ी हुई उपस्थिति से वे अब कानून बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगीं। दरअसल मीडिया और प्रशासन ने पंच पति, सरपंच पति और पार्षद पति जैसे नए पदनाम सृजित कर महिलाआें का मजाक उड़ाने का नया मसाला तैयार कर लिया था । परंतु वह इतना जानता है कि इसके आगे के पद पर चुनी गई महिला का इस तरह से परिहास नहीं बना सकता । इसीलिए हमें `महापौर पति' शब्द शायद ही कहीं सुनने को मिला हो । इसी बढ़ते क्रम में विधायक पति और सांसद पति भी मीडिया का ध्यान नहीं खीच पाएगें । दरअसल तीनों यादव व्यक्ति भर नहीं है ये भारतीय समाज में व्याप्त् उस मनोवृत्ति के प्रतीक हैं जो सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास ही नहीं रखता । इसमें से लालू और मुलायम अपने दलों के अध्यक्ष नहीं बल्कि सुप्रीमों हैं और शरद यादव स्वयं के `केरिकेचर' । इन तीनों भाग्य विधाताआें ने पिछले दिनों जिस तरह का व्यवहार किया है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि ये अंदर से बहुत डरे हुए है । जबकि आवश्यकता इस बात की थी कि ये पिछले करीब डेढ़ दशक में बजाए सत्ता पर काबिज बने रहने की जुगाड़ में पड़े रहने के पूरे भारत में वंचित वर्ग की महिलाआें को आगे लाते । इस वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने के लिए इन्हें कम से कम ५० प्रतिशत स्थानों पर इन महिलाआें को चुनावी टिकट देने थे । परंतु इन्होंने ऐसा नहीं किया । ये तीनों जिस महान समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम से कसमें खाते हैं और संयोग से यह वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष भी है, ने ग्वालियर की तत्कालीन महारानी विजयाराजे सिंधिया के विरूद्ध प्रतीक स्वरूप एक सफाई करने वाली हरिजन महिला को खड़ा किया था। इसके पीछे उनके अकाट्य तर्क थे । वे जब संसद में या बाहर महिला समानता पर बात करते थे तो उनकी बात को गौर से सुना जाता था क्योंकि वे वास्तव में महिलाआें के उत्थान की बात करते थे । महात्मा गांधी का कहना था `कानून की रचना ज्यादातर पुरूषों द्वारा हुई है और इस कार्य को करने में, जिसे करने का जिम्मा मनुष्य ने अपने ऊपर उठा लिया है, उसने हमेशा न्याय और विवेक का पालन नहीं किया है ।' इतना ही नहीं उन्होंने महिलाआें को अलग रखे जाने की प्रवृत्ति के दुष्परिणामों की विवेचना करते हुए कहा है `हमारे कई आंदोलनों की प्रगति हमारे स्त्री समाज की पिछड़ी हुई हालत के कारण बीच में ही रूक जाती है । इस तरह हमारे किए हुए काम का जैसा और जितना फल आना चाहिए वैसा और उतना नहीं आता । हमारी दशा उस कंजूस व्यापारी के जैसी है, जो अपने व्यापार में पर्याप्त् पूंजी नहीं लगाता और इसलिए नुकसान उठाता है ।' भारतीय लोकतंत्र का आंदोलन भी पिछले ६३ साल से इस बात का खामियाजा भुगत रहा है कि उसने महिलाआें ओर उनके दृष्टिकोण की लगातार अवहेलना की है । अपवादस्वरूप जब भी उसने महिलाआें के दृृष्टिकोण का सम्मान किया तो परिणाम भी सामने आए है । पिछले पांच वर्षोंा में बने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और सूचना का अधिकार कानून इसके ज्वलंत उदाहरण है । इन दोनों कानूनों की पहल महिला नेतृत्व ने की थी और इसके प्रारूप बनाने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था । आज भी पूरे भारत में पर्यावरण और विकास को लेकर अधिकांश प्रश्न महिलाआें के द्वारा ही उठाए जा रहे है । इसलिए हो सकता है यह आरक्षण भारतीय लोकतंत्र को नई दिशा प्रदान करे । पिछले दो दशकों में शासन करने की पद्धतियों में आमूलचूल परिवर्तन आया है । प्रजातंत्र के नाम पर लगातार अधिनायकवाद को प्रोत्साहित किया जा रहा है । आम भारतीय पहले के मुकाबले अधिक विपन्न हुआ है । यह विपन्नता आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर भी बढ़ी है । इसका भी प्रतिरोध आवश्यक है । यह सच है कि महिला आरक्षण से संबंधित अंतिम निर्णय अभी भी दूर की कौड़ी है । राज्यसभा के बाद इसे लोकसभा में और इसके बाद दो तिहाई राज्य विधान सभाआें से भी स्वीकृति का इंतजार है । इस प्रक्रिया में समय लग सकता है । परंतु पहला कदम उठ चुका है जो कि मंजिल तक पहुंचने की एकमात्र शर्त होती है । सिर्फ लोकसभा में इसे पारित करवाने में सरकार को समस्या आ सकती है । उम्मीद है कि त्रिमूर्ति शायद जनभावनाआें को समझे । इनमें से एक शरद यादव पढ़ी लिखी महिलाआें को `परकटी' कहकर अपमानित करने का प्रयत्न भी करचुके हैं । परंतु यदि हम इस उपमा को दूसरी तरह से व्याख्यायित करें तो कह सकते हैं कि `पारियो ने अपने पंख नोच कर फेंक दिए हैं और वे अब तब तक स्वर्ग नहीं जाएगीं जब तक पृथ्वी पर समता, समानता, स्वतंत्रता ओर बंधुता स्थापित नहीं हो जाएगी ।' हमें इंतजार है अगली लोकसभा का जब हम कुछ ऐसी मुस्कुराहटों के माध्यम से पहचाने जाएगें जो बजाए कुटिलता के मानवता को परिभाषित कर रहीं होगी । हम हजारों सालों से समानता के लिए प्रतीक्षारत हैं । उम्मीद है २०१४ में इसकी पहली किरण हम तक पहुंचेगी । वैसे पहली किरण के दिखाई देनेे के पहले की लालिमा भी कम मनोहारी नहीं होती।***

४ महिला जगत

विकास के केन्द्र में महिलाएं
वीरेन्द्र पैन्यूली
विकास की आधुनिक अवधारणा मानव व प्रकृति के अधिकाधिक शोषण पर आधारित है । इस शोषण का सर्वाधिक शिकार महिलाएं ही हैं । आवश्यकता इस बात की है कि अब विकास महिलाआें को केन्द्र में रखकर ही किया जाए । महिला केन्द्रित विकास व महिला आधारित विकास में भिन्नता है । मानवीय विकास की यात्रा मुख्यत: महिला आधारित विकास यात्रा ही थी । महिला, विकास की धुरी जरूर थी, परंतु विकास के केन्द्र मेंे नहीं थी । बल्कि कई बार विकास ने महिला का बोझ, तनाव एवं असुरक्षा बढ़ाई है । वैश्वीकरण से कृषि या गृह उद्योग जैसे क्षेत्रों में काम करतीं महिलाएं ज्यादा बेरोजगार हुई हैं । आज कई सरकारी व गैरसरकारी संस्थाएं कहती हैं कि महिलाएं खाली समय में कई कार्योंा को कर अपनी आय बढ़ा सकती हैं परंतु महिलाआें के पास खाली समय ही नहीं है । यदि वो एक काम को खत्म कर, घर में दूसरा काम शुरू करने लगे, तब तो उनके पास स्वयं के लिए समय ही नहीं रहेगा । वास्तव में महिला केन्द्रित विकास का सबसे बड़ा संकेतक यही होगा कि महिलाआें को ऐसा खाली समय मिले जिसे वह अपने हिसाब से बिता सकें । महिला केन्द्रित विकास में महिला को कोई दूसरा केन्द्र में रखे, इससे ज्यादा आदर्श स्थिति यह होगी कि महिलाएं खुद को केन्द्र में लाने में सक्षम हों । जिस तरह विकास परियोजना का प्रभावितों पर प्रभाव का आकलन होता है ठीक वैसे ही महिलाआें पर भी यही बात लागू होना चाहिए । यह वैसी ही कसौटी है, जैसे बापू कहते थे कि यदि कभी तुम्हारे मन में अपने किसी कार्य को लेकर संशय हो, तो आंख बंद कर ध्यान करो और सोचो कि तुम्हारी कार्यवाही से अंतिम छोर पर खड़े, व्यक्ति पर क्या असर पड़ रहा है। महिला आधारित व महिला केन्द्रित विकास के बीच के अंतर को इससे भी समझा जा सकता है । मीडिया में शेविंग क्रीम के विज्ञापन में महिला की उपस्थिति । ऐसा विज्ञापन महिला आधारित तो है किंतु वास्तव में यह पुरूष केन्द्रित विज्ञापन है । महिला केन्द्रित विकास यह भी नहीं है कि आपने महिलाआें के लिए विशेष सिगरेट, शराब, साबुन या क्रीम बना दी । यह तो व्यावसायिक घरानों का व्यवसाय लाभ केन्द्रित उत्पादन विकास ज्यादा हुआ । वास्तव में यदि ईमानदारी से महिला केन्द्रित विकास किया जाए तो उसका भी कई गुना लाभ अंतत: परिवार व समाज के विकास को मिलता है । जबकि यह आवश्यक नहीं है कि पुरूष के विकास का अनिवार्य लाभ परिवार को ही मिलेगा । कई बार महिलाआें का जो परोक्ष विकास हुआ भी है वह भी मजबूरियों में से ही हुआ है । इसे सोचा समझा नियोजित महिला केन्द्रित विकास नहीं कहा जाएगा । यहां तक की राजनीति में भी कई बार परिवार ने व पुरूषों ने महिलाआें को अपने लाभ के लिए जैसे आरक्षित चुनावी सीटों पर परिवार का राजनीतिक दबदबा बनाए रखने के लिए ढकेला । इसी तरह परिवार के उपक्रमों, प्रतिष्ठानों में भी कई बार मजबूरी वश उनको बैठाया गया । यहां तक कि जहां महिलाआें का स्वत: स्फूर्त विकास आंदोलनकारी नेताआें के रूप में हुआ है, वह भी मुख्यत: सामाजिक व पर्यावरणीय विषयों को लेकर हुआ है चाहे वे शराबबंदी के आंदोलन हुए हो,ं या नदियों व जंगलों को बचाने के आंदोलन । युवको व पुरूषों को रोजगार देने के समर्थन में व पुलिसिया ज्यादातियों के विरूद्ध भी उन्होंने आंदोलन किया है । इस तरह महिलाआें में नेतृत्व विकास से भी समाज के विकास को ही लाभ मिला है । अब सवाल है कि महिला केन्द्रित विकास कैसे हो ? महिला केन्द्रित विकास के स्त्रोतों और पूरे कार्यान्वयन के मूल में इस लक्ष्य व उद्देश्य को प्राप्त् करना होना चाहिए कि महिलाआें के विरूद्ध किसी तरह के भेदभाव को समाप्त् किया जाएगा । अब शिक्षा का ही उदाहरण लें । शिक्षा, महिला विकास व सशक्तिकरण का मुख्य जरिया है । भले ही सबके लिए शिक्षा के समान अवसर हों, किंतु यदि स्कूलों में शौचालय नहीं है या स्कूल तक पहंुचने के लिए महिलाआें को सुरक्षित वातावरण नहीं मिलता है, तो लड़कियों में पढ़ाई बीच में ही छोड़ने की दर बढ़ जाती है । किंतु जब हम महिला केन्द्रित विकास की बात शिक्षा के संदर्भ में करेंगे तो हमें इन समस्याआें को निपटाने के लिए भी योजना बनानी पड़ेगी । महिला केन्द्रित नियोजन में लड़कियों को अबाध शिक्षा देने के लिए परिवारों को आर्थिक पैकेज देना होगा। इसी प्रकार महिला केनिद्र स्वास्थ्य परियोजनाआें में महिला डॉक्टरों, महिला स्वास्थ्यकर्मियों, संस्थागत प्रसवों आदि पर ज्यादा ध्यान देना होगा । विशेष महिला पुलिस थानों को भी महिलाआेंे के द्वारा पुलिस की सहायता लेने को आसान बनाने के लिए स्थापना करना होगा । केन्द्र व राज्य सरकारें एवं व्यवसायिक संस्थानों द्वारा महिला केन्द्रित विकास की नीति बनाने हेतु अपने-अपने स्तर पर संवेदनशील होना होगा । व्यावसायिक संस्थानों व शासकीय कार्यालयों को महिलाआें को घर से काम करने या कार्यालय में भी अपने काम के लचीले घंटे का विकल्प देना होगा । महिला केन्द्रित विकास में आयु के विभिन्न सोपानों की जरूरतों के अनुरूप अलग-अलग जरूरतें होती है । उदाहरणत: किशोरियों और वृद्ध महिलाआें की जरूरतों व परित्यक्तता महिलाआें के विकास के अवरोधों को दूर करने के लिए अलग तरीकों की जरूरत पड़ सकती है । महिला केन्द्रित विशेष वैधानिक प्रावधानों की भी आवश्यकता है । महिलाआें को सम्पत्ति में अधिकार व महिला घरेलू हिंसा कानून भी महिला केन्द्रित विकास यात्राआें में सहायक हैं । महिला केन्द्रित विकास के ही एक अंग के रूप में आज कल जैण्डर बजटिंग की बात भी की जा रही है । इसमें हर विभाग या सरकार खास ध्यान रखती है कि व्यय की कौन-कौन सी व कितनी मदें महिलाआें के कल्याण के लिए खर्च हो रही हैं । इससे महिलाआें के विकास एक मानक बन जाता है । महिला केन्द्रित विकास से पूरे विश्व में पुरूष व महिलाआें के बीच लिंग भेद से लेकर आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा प्रािप्त्, राजनैतिक सशक्तिकरण, और स्वास्थ्य व जीवित बच सकने के चार क्षेत्रों में जो खाई बनी है उसको पाटने के प्रयास किए जा सकते हैं । महिला केन्द्रित विकास की दर तब ज्यादा बेहतर होगी जब विभिन्न क्षेत्रों में अपनी महिला की मदद करने की स्थिति में होगी । महिला केन्द्रित विकास की चर्चा पिछले महिला विकास दशक में ही शुरू हो गई थी । परंतु अभी भी इसक बारे में समझ बनाने की बहुत जरूरत है । इसी के साथ-साथ अब बाल केन्द्रित विकास की बात भी की जा रही है । कुछ लोग महिला और बाल विकास को भी जोड़कर देखते हैं । आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में या हाशिये में पहंुची महिलाआें के बीच यह सुनने को मिल जाएगा कि हमारे बजाए हमारे बच्चें के लिए कुछ कीजिए । महिला केन्द्रित विकास में एक अहम मुद्दा महिला व तकनीक एवं अविष्कारों का है । हमें प्रयास करना होगा कि वह उन्हें आक्रान्त करने वाली न होें। महिला केन्द्रित विकास को हर हालत में महिला केन्द्रित हिंसा व महिला केन्द्रित भेदभाव को पछाड़ना होगा व लैंगिक असंतुलन को समाप्त् करने की दिशा में काम करना होगा । ***

५ हमारा देश

प्रकृति और अर्थव्यवस्था
डॉ. रामप्रताप गुप्त
विकास के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण के विनाश को अर्थव्यवस्था की अनिवार्यता मान लिया गया है । इस विभीषिका के मूल्यांकन की आवश्यकता है । विश्व के अनेक देश अपने सकल घरेलू उत्पाद में इसकी गणना करते हैं । भारत इस तरह की गणना न कर अपनी अर्थव्यवस्था को अत्यंत मजबूत बताकर सकल घरेलू वृद्धि दर में उछाल की कहानी कह रहा है । राष्ट्रीय आज गणना की वर्तमान पद्धति में वर्ष भर में वस्तुआें और सेवाआें के शुद्ध उत्पादन को शामिल किया जाता है, परंतु इस बात का कोई लेखा जोखा नहीं लिया जाता है कि इनके उत्पादन की प्रक्रिया में कितनी पर्यावरणीय क्षति हुई है । वर्तमान में हमारी राष्ट्रीय आय गणना की प्रणाली तो ऐसी है कि उत्पादन की प्रक्रिया में अगर सारे वन काट दिए जाएं, उपजाऊ मिट्टी को नष्ट कर भूमि को बंजर बना दिया जाए, नदियों, झीलों के पानी को प्रदूषित कर दिया जाए, वह पीने के काबिल भी न रहे, तटीय समुद्र की सभी मछलियां नष्ट कर दी जाएं, वायुमण्डल को प्रदूषित कर उसमें सांस लेना भी कठिन बना दिया जाए तो भी हमारी राष्ट्रीय आय के अनुमानोंमें इन प्रतिकुल प्रभावों का कोई विपरीत असर नहीं होगा तथा उसमें कोई कमी नहीं आएगी। इन सब कमियों के फलस्वरूप हमारी राष्ट्रीय आय और उसकी वृद्धि दर राष्ट्रीय कल्याण को ठीक-ठीक प्रदर्शित नहीं करती है । राष्ट्रीय आय की अवधारणा में इन कमियों को देखते हुए अब हरित राष्ट्रीय आय की अवधारणा विकसित की गई है। `हरित राष्ट्रीय आय' की गणना में वर्ष में वस्तुआें एवं सेवाआें के शुद्ध उत्पादन के योग में से उत्पादन की प्रक्रिया में देश के पर्यावरण और पारिस्थतिकी को जो क्षति पहंुचाती है, उसके मौद्रिक मूल्य को कम कर दिया जाता है । ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान द्वारा सीमित गणना के आधार पर तैयार एक रिपोर्ट ``हरित राष्ट्रीय आय सन् २०४७'' प्रकाशित की है । इसमें बताया गया है कि वर्तमान में देश में अशुद्ध पेयजल एवं प्रदूषित वायु के कारण प्रतिवर्ष ६ लाख लोग मृत्यु या रूग्णता के शिकार होते हैं, जिसकी कुल लागत राष्ट्रीय आय के ३.६ प्रतिशत के बराबर आती है । इसी संस्थान द्वारा सन् १९९७ के लिए अनुमान लगाया था कि वन क्षेत्र और वनों की सघनता में कमी के फलस्वरूप इमारती लकड़ी एवं अन्य उत्पादों में आई कमी, जलस्त्रोतों में आई गिरावट, कृषि उत्पादन में कमी, वायुमण्डल के प्रदूषण में वृद्धि आदि के रूप में होने वाली क्षति राष्ट्रीय आय के १० प्रतिशत के बराबर थी । संस्थान ने यह भी अनुमान लगाया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण सन् २१०० तक भारत को होने वाली क्षति उसकी राष्ट्रीय आय से ९ से १३ प्रतिशत के बराबर रहेगी । इन सब क्षतियों को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय आय की वर्तमान गणना प्रणाली में कोई व्यवस्था नहीं है । बल्कि कई बार तो इस क्षति के कुछ अंशोंको राष्ट्रीय आय में घनात्मक योगदान के रूप में शामिल कर लिया जाता है । उदाहरण के लिए वनों को नष्ट करने की प्रक्रिया में जो इमारती लकड़ी या अन्य प्रकार की लकड़ियां प्राप्त् होती है, उसके मुल्य में बराबर की राशि उस वर्ष की राष्ट्रीय आय में शामिल कर ली जाती है । यह सब इसलिए होता है क्योंकि राष्ट्रीय आय की गणना में पर्यावरण को पहुंचाने वाली क्षति का कोई लेखा जोखा नहीं रखा जाता है, बल्कि उस क्षति के प्रतिकूल प्रभावों का सामना करने के लिए जो कदम उठाए जाते हैं उन्हें सकारात्मक योगदान के रूप में राष्ट्रीय आय में शामिल कर लिया जाता है । इसे इस उदाहरण सेे समझिए, मान लीजिए किसी सीमेंट कारखाने से निकलने वाले धूल के कणों के कारण आसपास के गांवों के निवासी, श्वास संबंधी रोगोंे के शिकार होते हैं तो उनकी चिकित्सा हेतु उत्पादित दवाआें का मूल्य, डॉक्टर की फीस आदि के राष्ट्रीय आय में शामिल किए जाने से उसमें वृद्धि होगी । स्पष्ट है कि हमारी राष्ट्रीय आय की गणना में पर्यावरण को पहुंच रही क्षति को शामिल नहीं किए जाने से वह गलत निष्कर्षोंा की ओर ले जाती है । हमारे अर्थशास्त्री एवं सांख्यिकीविद् राष्ट्रीय आय की गणना की इन कमियों से लंबें समय से परिचित रहे हैं । राष्ट्रीय आय की गणना में पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभावों को सर्वप्रथम १९३० की मंदी के पश्चात अमेरिकी राष्ट्रीय आय की गणना में शामिल किया गया था । हाल ही में आर्थिक निष्पादन एवं सामाजिक प्रगति रिपोर्ट जिसे प्रमुख अर्थशास्त्रियों जोसेफ स्टिग्लिट्स,अर्मत्य सेन, ज्यां यॉ फिटोसी के नाम पर स्टिग्लिट्स-सेन-फिटोसी रिपोर्ट कहा जाता है, में राष्ट्रीय आय की गणना की वर्तमान विधि की कमियों की विस्तार से व्याख्या की गई है । इस रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय आय के आंकड़ों का उपयोग करने वाले हमारे नीति निर्धारक, व्यवसायी आदि उनकी इन कमियों से अवगत नहीं होते हैं । इसी वजह से हरित राष्ट्रीय आय की गणना आवश्यक हो गई है ताकि ये आंकड़े स्थिति की वास्तविकता को बेहतर ढंग से प्रदर्शित कर सकें । हाल ही में भारत के वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि सरकार की सन् २०१५ तक भारत की हरित राष्ट्रीय आय की गणना संयुक्त राष्ट्र के सांख्यिकी विभाग द्वारा विकसित तरीकों पर आधारित होगी, यह तरीका विश्व के सभी राष्ट्रों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। हरित राष्ट्रीय आय की गणना में चार प्रकार के पर्यावरणीय प्रभावों को शामिल किया जाएगा । पर्यावरणीय एवं आर्थिक लेखा में उन सभी घटकों को शामिल किया जाएगा जिनकी अब तक उपेक्षा की जाती है । परंतु अभी तक समंको के स्त्रोत और अध्ययन प्रणाली का विस्तृत विवरण ज्ञात नहीं हो सका है । हरित राष्ट्रीय आय के समंक या आंकड़े राष्ट्रीय आय के पूरक के रूप में प्रयुक्त किए जा सकेंगें । राष्ट्रीय आय के उत्पादन की प्रक्रिया में पर्यावरण में हो रही क्षति का विवरण राज्यों से प्राप्त् सूचनाआें पर आधारित होगा । यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि राज्यों से मंगाए गए विवरण में पर्यावरण की कौन-कौन सी क्षतियां शामिल की जाएंगीं । केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन ने भारत में होने वाली पर्यावरणीय क्षति का अनुमान लगाना प्रारंभ कर दिया है । कुछ राज्यों में जैसे गोआ, कर्नाटक, तमिलनाडु और मेघालय ने कुछ मार्गदर्शी अध्ययन शुरू कर दिए हैं । इन अध्ययनों में जनसेवकों, समाजकर्मियों व मीडिया से संबंधित लोगों को भी शामिल किया गया है । भारत को इस दिशा में चीन से सबक लेना होगा । चीन में राष्ट्रीय आय के उत्पादन की प्रक्रिया में पर्यावरणीय क्षति के बारे में अंतर्राष्ट्रीय अनुमान राष्ट्रीय आय के ८.१२ प्रतिशत के बराबर थे, परंतु चीन ने अपनी आर्थिक प्रगति की ऊंची दर के दावे पर इस अनुमान के प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए इस क्षति के अनुमान को कम करके अर्थात ३.०५ प्रतिशत के बराबर ही बताया है । हमें तो व्यापक दीर्घकालीन हितों की दृष्टिगत रखकर पर्यावरणीय क्षति के जो भी आंकड़े सामने आए हैं उन्हें स्वीकार कर पर्यावरणीय क्षति को कम करने तथा न्यूनतम बनाने की दिशा में कदम उठाने चाहिए । चीन ने तो हरित राष्ट्रीय आय की गणना में भू-जल भण्डारों को क्षति तथा मिट्टी के प्रदूषण की हानि को शामिल ही नहीं किया था । इस तरह की हेराफेरी कर अगर पर्यावरणीय क्षति के बारे में भ्रम बनाए रखना है तो हरित राष्ट्रीय आय की गणना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा ।***

६ जन जीवन

गरीबी मापने के नए पैमाने
सेव्वी सौम्य मिश्रा
गरीबी के निर्धारण में शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाआें को सम्मिलित करना स्वागत योग्य है । इसी के साथ यह बात भी उभर कर आई है कि गरीबों की संख्या में ९ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । परंतु वास्तविकता में यह आकड़ा इससे कहीं ज्यादा है । आवश्यकता इस बात की है कि गरीबी रेखा को नापने की एक न्यायोचित व्यवस्था विकसित की जाए जो कि अंतत: योजना आयोग को एवं सरकार को बाध्य करे कि वे अपनी गतिविधियों को गरीबी उन्मूलन की दिशा में निर्देशित करें । नवीनतम आंकड़ों से ज्ञात हुआ है कि भारत पूर्वानुमानों से ज्यादा गरीब मौजूद हैं । २००४-०५ हेतु गरीबी मापने के नए तरीकों से उभरे संशोधित अनुमानों के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या जो कि पूर्वानुमानों के अनुसार २८.३ प्रतिशत थी, से बढ़कर ३७.२ प्रतिशत पर पहुँच गई है । नए अनुमानों में खाद्य पदार्थोंा, मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाआें और शिक्षा को भी सम्मिलित किया गया है जबकि पूर्वानुमानों में मात्र प्रतिव्यक्ति कैलोरी उपभोग को ही गिना जाता था । इनके समावेशीकरण की अनुशंसा अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर जो कि आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य रहे हैं की अध्यक्षता वाली समिति ने की थी। समिति द्वारा अपानाई गई नई विधि के हिसाब से १९९३-९४ मं गरीबी के अनुमान ३६ प्रतिशत से बढ़कर ४५.३ प्रतिशत हो गए है । दूसरी वास्तविकता यह है कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या १९९३-९४ में ४५.३ से घटकर २००४-०५ में ३७.२ प्रतिशत रह गई है । दिल्ली स्थित राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त एवं नीति संस्थान के प्रोफेसर एन.आर. भानुमूर्ति का कहना है कि विकास के कारण १९९४ से २००५ के मध्य गरीबी में कमी आई है । गैर कृषि गतिविधियों में हुई वृद्धि से ही यह विकास हुआ है । हालांकि यह आलोचना का विषय है कि वृद्धि के बावजूद गरीबी में उतनी कमी नहीं आई जितनी की उम्मीद थी । अगर समिति के अनुशंसाआें को स्वीकार कर लिया गया तो प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की वजह से देश पर अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ने की आशा है। नई प्रक्रिया द्वारा प्रकाश में आए गरीबी के आंकड़ों को प्रयोग में लाने से सरकार पर खाद्य सब्सिडी निर्धारण में अधिक खर्च वहन करना होगा । भोजन का अधिकार मामले के आयुक्तों के मुख्य सलाहकार बिराज पटनायक का कहना है कि वैसे १९९४ और २००५ के मध्य गरीबी में गिरावट आई है परंतु सन् २०१० के अनुमान गरीबों की बढ़ती जनसंख्या की ओर इशारा कर रहे हैं । उनका कहना है कि २००४-०५ के बाद से खाद्य पदार्थोंा के बढ़ते मूल्य इसके लिए जिम्मेदार हैं । २००४-०५ में विद्यमान गरीबी को मापने के लिए राष्ट्रीय सेम्पल (नमूना) सर्वेक्षण के ६१वें दौर को आधार बनाया गया था अभी तक न्यूनतम खर्च की गणना खाद्य पदार्थोंा पर होने वाले व्यय के आधार पर की जाती थी । इसके अनुसार ग्रामीण गरीब को प्रतिदिन २४०० कैलोरी और शहरी गरीब को प्रतिदिन २१०० कैलोरी उपलब्ध होना चाहिए । नई गणना प्रक्रिया के अंतर्गत भोजन, मूलभूत शिक्षा व स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च को ध्यान में रखा गया है । इसके अंतर्गत शिक्षा पर होने वाले व्यय का आधार ५ से १५ वर्ष तक के बच्चें को स्कूल में भेजने में होने वाले औसत व्यय एवं स्वास्थ्य व्ययों का निर्धारण भी उपचार की लागत एवं अस्पताल में भर्ती होने पर होने वाले औसत व्यय को बनाया गया है गरीबी के निर्धारण में सन् १९७३-७४ के कैलोरी उपभोग को आधार बनाने के सिद्धांत पर प्रश्न उठने के बाद योजना अयोग ने तेंदुलकर समिति का गठन किया था । इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृृषि संगठन ने प्रति व्यक्ति न्यूनतम कैलोरी आवश्यकता को संशोधित कर १८०० कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रदान कर दिया है । अब भारतीय स्वास्थ्य शोध परिषद (आईसीएमआर) को यह दायित्व सौंपा गया है कि वह भारत के लिए कैलोरी उपभोग का पुननिर्धारण करे । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के सहायक प्रोफेसर हिमांशु, जिन्होंने रिपोर्ट के प्रारूप निर्माण में कमेटी की मदद की है का कहना है कि उस समय (पूर्ववर्ती पंचवर्षीय योजनाआें में) यह माना गया था कि राज्य शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए खर्च वहनकरेगी । परंतु राज्य ने इस दिशा में अधिक कुछ नहीं किया और नागरिकों का इन मदों पर खर्च बढ़ता ही गया । वहीं भानुमूर्ति का कहना है कि संशोधित प्रणाली अधिक उपयुक्त है । दूसरी ओर जेएनयू के अर्थशास्त्र विभाग का कहना है कि भारत जैसे विकासशील देश जो कि विश्व भूख सूचकांक में काफी ऊपर हैं, के लिए आवश्यक है कि उनके खाद्य व्यय में कैलोरी उपभोग हेतु भत्ते का प्रावधान हो ।' वहीं पटनायक का कहना है कि गरीबी निर्धारण हेतु मात्र मूलभूत अस्तित्व स्तर को बनाए रखने, सरकारी विद्यालयों में मूलभूत शिक्षा और मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाआें की बात की जाती है। यह तो कमोवेश दरिद्रता की रेखा ही है ।' श्री पटनायक का कहना है कि गरीबी रेखा की वर्तमान परिकल्पना का आधार है गांव में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन १५ रूपए व शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन १९ रूपए का व्यय । यह पिछले अनुमानों क्रमश: १२ वे १७ रू. से अधिक है । परंतु इसके बावजूद यह उपभोग के न्यूनतम स्तर से काफी कम है ।' वहीं प्रवीण झा का कहना है कि नई प्रणाली से भी कोई हल सामने नहीं आ रहा है । क्योंकि हमारे पास मूल्य सूचकांक का कोई विश्वसनीय स्त्रोत नहीं है । साथ ही जिलेेवार आंकड़ों की उपलब्धता आवश्यक है क्योंकि यहां मूल्यों में विभिन्नता विद्यमान है । इसी के साथ हमारे पास कोई ऐसा मूल्य सूचकांक भी उपलब्ध नहीं है जो कि उपभोग की प्रवृत्ति में आए परिवर्तनों को भी ध्यान में रखता हो ।' वैसे सन् २०१० के अनुमान राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ६६वें दौर पर निर्भर होंगे जो कि जून २०१० तक ही उपलब्ध हो पाएगें ।***
बजट में देश के पर्यावरण की अनदेखी
देश में पर्यावरण की स्थिति अत्यंत गंभीर होते हुए भी बजट में इसकी लगभग उपेक्षा ही की गई है । जो कुछ छोटी-मोटी घोषणाएँ की गई हैं, वे ऊँट के मुँह में जीरे के समान ही हैं । एलईटी व सीएफएल बल्ब एवं सोलर उपकरण सस्ते करने से थोड़ा-बहुत ग्लोबल वार्मिंग प्रभाव कम करने में सहायता हो सकती है । राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा निधि की स्थापना एक अच्छा प्रयास है, परंतु दुनिया में राज करने वाली पेट्रोलियम लॉबी क्या इसे सफल होने देगी ? इस निधि हेतु राशि, इसका संगठन एवं कार्ययोजना आदि ज्यादा स्पष्ट नहीं है । मिशन स्वच्छ गंगा- २०२० हेतु वित्त वर्ष २०१०-११ में राशि २५० करोड़ से बढ़ाकर ५०० करोड़ की की गई है, जो स्वागतयोग्य तो है परंतु इससे गंगा कितनी शुद्ध होगी यह भविष्य ही बताएगा । तमिलनाडु के तिरूवर में स्थित कपड़ा उद्योग से पैदा प्रदूषण को रोकने हेतु भी २०० करो़़ड रू. का प्रावधान बजट में रखा गया है । पश्चिमी बंगाल मेंे कुछ क्षेत्रों से नदियों के तटबंध सुधारने हेतु भी कुछ प्रावधान बजट में किया गया है । बजट के उपरोक्त सारे प्रयास देश की बिगड़ी पर्यावरणीय स्थिति के संदर्भ में नगण्य हैं । पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट में ८८ में से ७५ औद्योगिक क्षेत्र (८५ प्रश) बुरी तरह प्रदूषित बताए गए थे ।

७ विशेष लेख

हर चौथा भारतीय भूखा क्यों है ?
डॉ. वन्दना शिवा/कुँवर जलीस
हमारा देश ज्यों ज्यों वित्तीय दृष्टि से और अधिक आगे बढ़ता जाता है, त्यों त्यों भूख का प्रकोप भी तेजी से बढ़ता है । २००८ में जब हमारी विकास दर लगभग १० प्रतिशत के आसपास थी, उसी समय भारत भूख की राजधानी के तौर पर भी उभर कर सामने आया था । अगर इसे वित्तीय अर्थव्यवस्था और बाजार के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो यह एक विरोधाभास है । अगर इसे जमीन, पृथ्वी, गरीब और सीमान्त लोगों, स्त्रियों और बच्चें की हकदारी के लिहाज से देखा जाये, तो यह कोई विरोधाभास नहीं है । भूख बढ़ेगी, जब भूमिहीनता बढ़ती जायेगी। भूमण्डलीकरण के चलते बड़े व्यापक पैमाने पर भूमि हड़पी जा रही है जिससे किसानों का विस्थापन हो रहा है और लाखों लोग भूमिहीनों की जमात में शामिल हुए जा रहे हैं । भूख बढ़ेगी जब निर्यात के लिये विलासिता की फसलें उगाने की वृत्ति लोगों के लिये खाद्य फसलें उगाने की वृत्ति पर हावी होती जायेगी । भूमण्डलीकरण के चलते पहले पहल भोजन के बजाय निर्यात पहले की नीतियों को बढ़ावा मिला है । भूख बढ़ेगी, जब गैर नवीनीकरणीय संकर और आनुवांशिक रूप से संशोधित बीज किसानों को कर्ज में ढकेलेंगे और वे जो कुछ भी पैदा करते हैं, उन्हें बेंचने के लिये मजबूर कर दिये जाते रहेंगे । ऋणपाश, क्षुधापाश भी है । यही कारण है कि भूखे लोगों की आधी संख्या उन लोगों से बनती है, जो खाद्य पदार्थोंा की फसलें उगा रहे हैं । यह तथ्य कि भारत भूख की राजधानी है, दर्शाता है कि आर्थिक वृद्धि गरीबी और भूख को कम नहीं करती है । वास्तव में वह दोनों को बढ़ाती है । यह तथ्य कि भूख लोगों में अधिसंख्या खुद खाद्य पदार्थ उत्पादकों की है, दर्शाता है कि औद्योगिक कृषि और खाद्य पदार्थ के वैश्वीकृत व्यापार का मॉडल भूख की परिस्थितियों के निर्माण के लिये उत्तरदायी है । ज्यादातर भारतीय भूमण्डलीकरण के चलते और ज्यादा गरीब हुए हैं, क्योकि उन्होंने अपनी जमीन और आजीविका से हाथ धोया है । भूमण्डलीकरण और व्यापार उदारीकरण के दौर से पहले भारतीय जितना खाते थे, उसके मुकाबले आज कमतर खा रहे हैं । १९९१ में प्रतिव्यक्ति खाद्य पदार्थो की उपलब्धता १७७ किलोग्राम प्रतिवर्ष थी, जो २००३ में घटकर १५० किलोग्राम पर आ गयी हैं । प्रतिव्यक्ति भोजन की उपलब्धता ४८५ किलोग्राम प्रतिदिन थी, जो घअकर ४१९ ग्राम पर आ गयी । प्रतिदिन कैलरी में उपभोग भी घटा । यह आँकड़ा २२२० कैलरी प्रतिदिन के मुकाबले कम होकर २१५० कैलरी प्रतिदिन पर आ गया । भोज्य पदार्थोंा की किल्लत के चलते १० लाख बच्च्े हर साल काल के गाल में जा रहे हैं । भारत में गरीबों की स्थिति लगातार बद से बदतर होती जा रही है, क्योंकि उनकी रोजी रोटी को खतम किया जा रहा है । मध्यवर्गोंा के लोगों की भी हालत बिगड़ रही है, क्योंकि वे खराब खा रहे हैं, बेहतर बिल्कुल नहीं, क्योंकि भूमंडलीकरण के द्वारा `जंक फूड' या `प्रोसेस्ड फूड' भारत पर जबरन थोपा जा रहा है । भारत अब कुपोषण का अधिकेन्द्र बन चुका है । गरीबों का कुपोषण, जिन्हें पर्याप्त् भोजन नहीं मिलता है और अमीरों का कुपोषण, खाद्य संस्कृति के अमरीकीकरण की वजह से जिनकी खुराकों में गिरावट आ चुकी है । भारतीय मध्यवर्ग दरअसल कम धान्य (उशीशरश्री) खा रहा है । १९७२-७३ में शहरी भारतीय २३ प्रतिशत धान्य पर खर्च करते थे । भारत अब दुनिया में सबसे ज्यादा संख्या में भूखे बच्चें, सबसे ज्यादा संख्या में मधुमेह रोगियों और अन्य जीवनशैली रोगियों का घर बन चुका है । आर्थिक वृद्धि और भूख में बढ़त, दोनों साथ साथ घटित हो रही हैं। ९ प्रतिशत वृद्धिदर के साथ भारत एक आर्थिक सुपर पावर के रूप में देखा जा रहा है । किसानों और आदिवासियों की जमीनों के भारी पैमाने पर अधिग्रहण पर टिकी है यह वृद्धिदर । कृषि, टेक्सटाइल कारोबार और लघु उद्योगों में लगे करोड़ों लोगों की आजीविका का भारी पैमाने पर विध्वंस हुआ है । भूमंडलीकरण की शक्तियों ने बुनियादी सुरक्षाआें को ढहा दिया । भारतीय किसानों के पास बीज सुरक्षा थी, क्योंकि ८० प्रतिशत बीज किसानों के अपने थे और २० प्रतिशत बीज सार्वजनिक क्षेत्र के बीज फार्मोंा से आता था । भूमंडलीकरण ने भारत को मजबूर किया है कि वह बीज बाजार में मोनसैंटो जैसे बायोटेक दानवों को घुसने दे । और मोनसैंटो की वृद्धि किसानों की जान की कीमत पर होती है । २ लाख से ज्यादा किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी, क्योंकि वे ऊँची लागत वाले गैर नवीकरणीय, अविश्वसनीय बीज के चलते ऋण पाश में जकड़ उठे । भारतीय किसानों के पास बाजार सुरक्षा थी, क्योंकि ८० प्रतिशत बीज किसानों के अपने थे और २० प्रतिशत बीज सार्वजनिक क्षेत्र के बीज फार्मो से आता था । भूमंडलीकरण ने भारत को मजबूर किया है कि वह बीज बाजार में मोनसैंटो जैसे बायोटेक दानवों को घुसने दे । और मोनसैंटो की वृद्धि किसानों की जान की कीमत पर होती है । २ लाख से ज्यादा किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी, क्योंकि वे ऊँची लागत वाले बीज के चलत़े ऋण पाश में जकड़ उठे । भारतीय किसानों के पास बाजार सुरक्षा थी । किसान उन फसलों को उगाते थे जिन्हें देशवासी खाया करते थे । ये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली के धान और गेहूँ की फसलें उगाते थे जिससे उन्हे अपनी उपज का लाभकारी मूल्य मिल जाया करता था और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये गरीब लोग खरीद सकने लायक कीमतों पर खा़द्यान्न प्राप्त् कर लेते थे । व्यापार उदारीकरण द्वारा थोपे गये नीति परिवर्तनों ने किसानों के लिये खाद्य सुरक्षा और आजीविका सुरक्षा को सुनिश्चित करने में सरकार की भूमिका को लगातार घटाया और कमजोर किया है, खास करके उन उपायों को वापस लेने के लिये बाध्य करके जो लोगों की सहायता करते हैं । इसके साथ ही, सामुदायिक अभिक्रमों को बढ़ावा देने के स्थान पर भूमंडलीकरण ने ऐसी नीतियों को सरकार पर थोपा है जो खाद्य उत्पादन और वितरण प्रविधियों एवं प्रणालियों पर एग्रीबिजनेस कॉरपोरोशनों का नियन्त्रण सुनिश्चित करते हें । ये सब हो रहा है - `निजीकरण', `बाजार पहुँच', आयातों पर से `मात्रात्मक प्रतिबन्धों' की समािप्त् जेसे कार्यक्रमों के जरिये । लोककेन्द्रित सरोकारों को ताक पर रखकर व्यापार एवं कॉरपोरेशन केन्द्रित मॉडल के अपनाने का एक सुस्पष्ट उदाहरण यह तथ्य है कि कानून किसानों को अपने राज्य की सरहद के पार अपनी उपज को ले जाने की इजाजत नहीं देता जबकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ देश मेें कहीं भी अपनी निजी मंडियाँ खोल सकती हैं । वास्तव में, सरकार किसानों ओर समुदायों से जबरदस्ती जमीन का अधिग्रहण करके सुपर हाईवे बना रही है ताकि कृषि उत्पादन के केन्द्रों को बन्दरगाहों और हवाई अड्डों से जोड़ा जा सके और इससे कॉरपोरेशन निर्यात के लिये अपनी जिंसो को तत्काल ढो सकेंगे। व्यापार उदारीकरण द्वारा थोपे नीति परिवर्तनों में कुछ उल्लेख नीचे किया जा रहा है :* भारतीय खाद्य निगम को ढहाते जाना और किसानों से खाद्यान्नों को जुटाने में उसकी भूमिका को घटाते जाना ।* खाद्य पदार्थोंा और खेतिहर उत्पादों के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्धों को हटाना ।* सर्वसमावेशी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में संशोधन - लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत केवल `गरीबी रेखा से नीचे' की जमात को लाभार्थी मानना ।* लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को बढ़ी कीमतों पर खाद्यान्न मुहैया कराना (उगाही और वितरण लागतों का ५० प्रतिशत बोझ इन विपन्न परिवारों के कंधों पर डालना) ं* एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी एक्ट में संशोधन ताकि कॉरपोरेशन अपनी निजी मंडियाँ स्थापित कर सकें । इन बदली हुई नीतियों से किसानों और उपभोक्ताआें, दोनों को ही घातक असर झेलने पड़े हैं ।किसान * सरकारी उगाही केन्द्रों द्वारा किसानों से खाद्यान्नों की खरीद करने से इन्कार ।* निजी व्यापारियों तथा कॉरपोरेशनों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से खाद्यान्नों की खरीद सुनिश्चित कराने से सरकार द्वारा इन्कार जिससे उत्पादन लागतों से काफी नीचे उतर कर किसानों द्वारा अपनी उपज की अफरातफरी में औने पौने दामोंे पर बिक्री ।* अमीर देशों द्वारा सस्ते, राज राहत पोषित (सब्सिडाइज्ड) खेतिहर उत्पादों की भारतीय बाजार में डम्पिंग, जिससे देशी उपजो की कीमत काफी गिर जाती हैं ।* कृषि में प्रयुक्त होने वाले आगतों की कीमतों का बढ़ते जाना । इन निवेश्य आगतों में बीज भी शामिल है ।* निजी बीज कम्पनियों को अपने गैर-सत्यापित बीजों को बेंचने की अनुमति देने के लिये बीज नियमनों का उदारीकरण करना ।* किसानों पर कर्जोंा का भारी बोझ, गिरवी का बढ़ता प्रकोप और जमीन से बेदखली का खतरा, विकराल रूप धारण करती विपन्नता, आत्महत्याएँ और किसानों द्वारा अपने शरीर के अंगों की बिक्री ।उपभोक्ता* सरकार द्वारा बीपीएल श्रेणी में आने वाले परिवारों को चिन्हित न कर पाने की वजह से लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली से खाद्यान्नों की पहँुच वाले लोगों की संख्या में भारी कमी ।* जो लोग बीपीएल श्रेणी में आने वाले परिवारों को चिन्हित किये भी जा चुके हैं, उनमें से अधिसंख्य अनाज की बढ़ी कीमतों के कारण सस्ते गल्ले की दुकानों से खरीदारी करने में असमर्थ हैं ।* खाद्य कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी । व्यापार उदारीकरण के दौर में उठाये गये कदमों की वजह से खाद्य कीमतें ६० प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी है और दाल जैसी जिन्सों की कीमतों में बढ़त २०० प्रतिशत का आँकड़ा पार कर चुकी है ।* राज्यों द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये उठाये गये खाद्यान्नों की मात्रा में कटौती । सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बजाय लक्षित वितरण प्रणाली को अपनाना सरकारी खर्चोंो में कमी लाने के नाम पर न्यायोचित ठहराया गया था । फिर भी, व्यापार उदारीकरण के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली की लागतें ५१६६ करोड़ रूपये थीं । इसके लिये सरकार किसानों को दोषी ठहराती है, जबकि बुनियादी कारण कुछ और हैं - नीति बदलावों के चलते उपभोक्ताआें के के लिये भोजन की लागत बढ़ी हैं, जिसकी वजह से खाद्य पदार्थोंा की बाजार कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत संचालित सस्ते गल्ले की दूकानों से खरीददारी में कमी आयी है । कृषि नीतियाँ जहां एक और विपन्नता फैला रही हैं वहीं दूसरी ओर नकदी फसलों पर विशेष बल दिये जाने से खाद्य उत्पादन में लगातार कमी आती गयी है । १९९० के दशक के शुरूआती वर्षोंा से खाद्य उत्पादन में, निर्यातोन्मुखी कृषि को बढ़ावा देने की वजह से लगातार गिरावट आती गयी है । (गैर सत्यापित बीजों के प्रयोग से फसलों के चौपट होने, लागतों की कीमतों के लगातार बढ़ते जाने, न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था के भंग हो जाने के चलते) खाद्य उत्पादन के लिये घरेलू समर्थन के ढहने से किसान खाद्य उत्पादन के बजाय निर्यातोन्मुखी कृषि की ओर मुड़ते गये हैं - इस आशा में की जो तबाही हुई है, उससे वे उबर सकेंगे । केवल १ वर्ष मेंे ही देश खाद्य उत्पादन में १२.८ प्रतिशत की कमी पहले से ही झेल रहा है । व्यापार उदारीकरण का एक बड़ा प्रभाव यह पड़ा है कि खाद्य उपभोग में सामान्य तौर पर गिरावट आती गयी है । धान्यों का उपभोग १९५० के दशक में १७ किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति माह था और १९९० के दशक में वह घट कर १३.५ किलोग्राम प्रति व्यक्ति पर आ गया। नेशनल न्यूट्रीशन मॉनीटरिंग ब्यूरो, १९९७ के आँकड़ों के अनुसार १९९० से १९९५ के दौरान, ग्रामीण भारत में खाद्य उपभोग घटा है, खासकर धान्यों व ज्वार बाजरों का, जबकि गरीबों के लिये ये ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत हैं । उपभोग में गिरावट के मुख्य कारण निम्नवत् है :-* बढ़ती खाद्य कीमतें ;* आजीविका के साधनों का विनाश;* सार्वजनिक वितरण प्रणाली का भंग होना; और* खाद्य उत्पादन से निर्यातोन्मुखी खेतीबाड़ी की ओर मुड़ना । खाद्य उपभोग में गिरावट का सम्बन्ध सीधे-सीधे व्यापार उदारीकरण से जुड़ता है, यह बात अघ:सहाराई अफ्रीका में साफ तौर पर और अधिक देखी जा सकती है । ऋण से जुड़ी शर्तो के कारण थोपे गये ढाँचागत समायोजन और निर्यात पर विशेष जोर दिये जाने की वजह से इस क्षेत्र के ६ सबसे ज्यादा जनसंख्या बहुल देशों (जिनकी आबादी कुल मिला कर इस क्षेत्र के ६० प्रतिशत तक है) ने सकल खाद्य सहायता अन्त:प्रवाहों को गणना में शामिल किये जाने के बावजूद प्रति कैलरी उपभोग में कमी आयी है । सन् १९९५ से डब्लूटीओ के कानूनों को सख्ती से लागू किये जाने लगा, जिसके परिणामस्वरूप भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में तेजी से कमी होती जा रही है । ढाँचागत समायोजन कार्यक्रमों को लागू करने के फलस्वरूप धान्य उपभोग गिरता गया है, यह बात नेशनल सैंपिल सर्वेंा के ३८ वे चक्र से भलीभाँति उजागर होती है । एक तरफ घटता खाद्य उपभोग और दूसरी तरफ कृषि उत्पादन, और कृषि उपजों के प्रापण (झीर्लिीीशाशिीं) में आ रही लगातार कमी को सीधे तौर पर सरकार की कृषि एवं खाद्य नीतियों से जुड़ा हुआ देखा जा सकता है । कॉरपोरेट उपनिवेशवाद ने देश की खाद्य सम्प्रभुता को नष्ट किया है, स्थानीय और क्षेत्रीय खाद्य सुरक्षा के लिये कृषि उत्पादन को तरजीह नदेकर व्यावसायिक फसलें उगायी जा रही हैं । विदेश व्यापार पर लगातार बढ़ते जोर से देश में बड़े पैमाने पर अकाल पड़े थे, जिस पर कॉर्नेलियस वालफोर्ड ने `दि फेमिंसऑफ दि वर्ल्ड' में १८९७ में टिप्पणी की थी'' ......... यह एक असंगति है कि भारत में जहाँ एक ओर अकाल पड़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर वह दुनिया के अधिकांश हिस्सों को भोजन की आपूर्ति करने में सक्षम है।'' स्वतंत्रता मिलते ही सरकार की प्राथमिकता थी कि किसान उत्पादन करें और सरकार उनसे कृषि उपज का प्रापण करे, जिसके पीछे नीयत यह थी कि कृषि उत्पदान विपुल मात्रा में लगातार होता जाये और किसान भी अपनी उपज का वाजिब मूल्य भी प्राप्त् करते जाये । इसके साथ ही, सार्वजनिक वितरण प्रणाली खड़ी की गयी, ताकि उपभोक्ताआें को उनके द्वारा खरीदे जाने लायक कीमतों पर खाद्यान्न मिल सके । खाद्य उत्पादन और वितरण मेंे सरकार की संलिप्त्ता और ज्यादा जरूरी होती गयी, क्योंकि हरित क्रान्ति ने पहले विभिन्न धान्यों पर आधारित क्षेत्रीय खाद्य सुरक्षा को खतम किया और उसे उसके स्थान पर सिर्फ गेहँू और धान पर विशेष जोर दिया; दूसरे उसने सिर्फ दो राज्यों पंजाब व हरियाणा पर अपने को केन्द्रित किया; और तीसरे उसने महँगी लागतों पर केन्द्रित कृषि को बढ़ावा दिया।***

८ जैव विविधता वर्ष

जैव विविधता का संरक्षण जरूरी
नवनीत कुमार गुप्त
पृथ्वी ही ऐसा ज्ञात ग्रह है जहां जीवन के असंख्य रूप विद्यमान हैं । जीवन की यही विविधता जैव विविधता कहलाती है । जैव विविधता में पृथ्वी पर पाए जाने वाले समस्त जीव-जंतु, वनस्पतियां और सूक्ष्मजीव शामिल हैं । इसके आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व को ध्यान मेंे रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष २०१० को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष घोषित किया है । जीवन के अनगिनत रूप जीवाणु, शैवाल जैसे एक कोशिकीय जीवों से लेकर फूलधारी पौधों तथा सभी जानवरों यानी केंचुए से लेकर व्हेल और हाथी तक पृथ्वी पर जीव-जंतुआें एवं वनस्पतियों की असीम प्रजातियां पाई जाती हैं । वहां चम्पा, चमेली, कनेर, कमल एवं गुलाब जैसे सुंदर फूलदार पौधे और नागफनी व खेजड़ी जैसे रेगिस्तानी पौधे पृथ्वी पर जीवन की विविधता को बनाए रखते हें, वहीं नीम, पीपल और वट जैसे विशाल वृक्ष जीवन के अनेक रूपों को आश्रय प्रदान कर जैव विविधता को बनाए हुए हैं। दूसरी ओर, हिरण, खरगोश और मोर जैसे सुंदर जीवों के साथ शेर एवं बाघ जैसी हिंसक जीव प्रजातियां भी उपस्थित हैं जो पृथ्वी पर जीवन की विविधता की परिचायक हैै। मोर, कबूतर, मैना, गौरैया, आदि पक्षियों की प्रजातियां जीवन को रंग-बिरंगा बनाती हैं । चाहे रेगिस्तान हो या महासागर या हिमालय जैसे पर्वतीय क्षेत्र या फिर बर्फीली धरती, जीवन सभी दूर अपने अनगिनत रूपों में खिलखिला रहा है । ज़मीन से कहीं अधिक जैव विविधता महासागरों में मिलती है । यहां प्रवाल भित्तियों यानी कोरल रीफ की अनोखी रंग-बिरंगी दुनिया उपस्थित है । महासागरों में पाई जाने वाली हज़ारों किस्म की मछलियां और अनेक जीव जीवन की विविधता का अनुपम उदाहरण हैं । अब तक पृथ्वी पर जीवों एवं वनस्पतियों की करीब १८ लाख प्रजातियोंे की पहचान हो चुकी है और अनुमान है कि इनकी वास्तविक संख्या इससे दस गुना अधिक हो सकती है । सूक्ष्मजीव पृथ्वी पर दिखाई देने वाले जीव जगत से कहीं अधिक तादाद तो सूक्ष्म जीवों की है जिन्हें हम नंगी आंखों से नहीं देख सकते हैं । एक ग्राम मिट्टी में करीब १० करोड़ जीवाणु और पचास हज़ार फफूंद जैसे जीव होते हैं । अत्यंत छोटे होने के बावजूद जीवन के स्थायित्व में सूक्ष्मजीव अपशिष्ट पदार्थोंा को सरल पदार्थोंा में तोड़कर पृथ्वी को अपशिष्ट पदार्थोंा से मुक्त रखते हैं । यदि सूक्ष्मजीव न हों तो पृथ्वी पर कूड़े-कचरे का ढेर इतना बढ़ जाएगा कि यहां जीवन संभव नहीं रहेगा । छोटे-छोटे सूक्ष्मजीव खाद्य सुरक्षा का आधार होते हैं । सूक्ष्मजीवों की विभिन्न प्रजातियां मिट्टी से विभिन्न पोषक तत्वों को फसलों तक पहुंचाती हैं जिससे फसल की पोषण आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं । इतना ही नहीं, भूमि से नाइट्रोजन को वायुमंडल में पहुंचाने की क्रिया में भी सूक्ष्मजीवों का महत्वपूर्ण योगदान है । इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने में सूक्ष्मजीवों की अहम भूमिका है। जैव विविधता के स्तर प्रकृति में जीव-जंतुआें व वनस्पति प्रजातियों की सही-सही संख्या का अनुमान लगाना संभव नहीं है ।अनेक जीव आज जीवित हैं तो अनेक आज से पहले समाप्त् हो चुके हैं । जीवों में आकार-प्रकार, रंग-रूप, आवास एवं स्वभाव मेंे बहुत भिन्नता पाई जाती है । यह विविधता इनकी उप प्रजातियों, आबादियों एवं आवास में भी देखी जाती है । जैव विविधता का अध्ययन प्राय: जीन, प्रजाति और परितंत्र के स्तर पर किया जाता है । जीन स्तर की विविधता को समझने के लिए हम आम का उदाहरण ले सकते हैं । हमारे देश में आम की लगभग एक हज़ार किस्में पाई जाती हैं । हर आम का स्वाद, बनावट व खुशबू, यहां तक कि रंग भी भिन्न होता है । इस अंतर का कारण यह है कि हर किस्म में कुछ भिन्न जीन्स होते हैं जो उसे विशेष खुशबू, रंग व स्वाद प्रदान करते हैं । इस विविधता को हम जीन यानी वंशाणु स्तर की जैव विविधता कहते हैं । यह जीन स्तर की विविधता कुछ प्राकृतिक तथा कुछ मनुष्य के प्रयासों से विकसित हुई है। वैसे यदि आम में यह जैव विविधता न होती तो हमें केवल एक ही किस्म के आम मिलते । इसी प्रकार नागफनी की सैकड़ों प्रजातियां सामान्य तापमान वाले स्थानों पर उगती हैं तो कुछ रेगिस्तान जैसे गर्म इलाकों में । इसका एक और उदाहरण हम स्वयं का ले सकते हैं । सारे मनुष्य होमो सेपियन्स प्रजाति के हैं । हममें न केवल दूसरे देश के अन्य मनुष्यों से यहां तक कि अपने भाई-बहनों से भी कई भिन्नताएं होती हैं, जो स्वाभाव, रंग-रूप, आंख, नाक की बनावट में देखी जा सकती है । यानी हर मनुष्य दूसरे मनुष्य से भिन्न है। यह जीन स्तर की विविधता का ही परिणाम है । आप अपने भाई बहनों में अन्य विविधताएं खोज सकते हैं, जैसे नाखूनों की बनावट, बालों व आंखों के रंग । ये सभी जीन स्तर की विविधताएं हैं। प्रजाति स्तर की विविधता को हम मानवों और चिम्पैंज़ी के उदाहरण से समझ सकते हैं । चिम्पैंज़ी मनुष्य जाति का सबसे निकट रिश्तेदार है । चौंकने की बात नहीं है, असल में हमारे और उनके डीएनए में सिर्फ १.५ प्रतिशत का अंतर है यानी हमारा ९८.५ प्रतिशत डीएनए एक जैसा है । परंतु उस अंतर के कारण चिम्पैंजी मुनष्य से कई मामलों में अलग हैं । डीएनए में सिर्फ १.५ प्रतिशत अंतर से ही उनमें और हममें इतना अंतर आ जाता है कि चिम्पैंजी एक अलग प्रजाति है । हमारे देश में हिमालय की ठंडी जलवायु से लेकर दक्षिण की कटिबंधीय जलवायु तक तमाम विविधता मौजूद हैं । यहां राजस्थान के मरूस्थल से लेकर असम व बंगाल तक की नम भूमियां पाई जाती हैं । जलवायु की इस विविधता के कारण भारत में कई सथानों पर कुछ विशेष प्रकार के परितंत्रों (इकोसिस्टम) का विकास हुआ है । विभिन्न परितंत्रों ने कई जीवों को आश्रय दिया है । विभिन्न जलवायु के कारण विशेषकर भारत व अन्य ऊष्ण कटिबंधीय व अर्थ ऊष्ण कटिबंधीय देशों में वनस्पतियों एवं जीव-जंतुआें पर काफी प्राकृतिक दबाव पड़ता है तथा उनका जीवन काफी चुनौतीपूर्ण होता है । परिणामस्वरूप इन वनस्पतियों में नाना प्रकार की आत्मरक्षक विधियां विकसित हो जाती हैं । ये विधियां प्राय: कई प्रकार के रसायनों के रूप में होती हैं । उदाहरण के लिए हिमालय क्षेत्र में ऊंची-ऊंची पर्वतमालाएं एक विशेष जलवायु के परिणामस्वरूप एक विशिष्ट परितंत्र की द्योतक है । अनुमान है कि भारत में ५०० प्रजातियों के जो दोबीजपत्री पेड़-पौधे मिलते हैं, उनमें से ३०० ऐसे हैं जो केवल हिमालय क्षेत्र में ही पाए जाते हैं और इस क्षेत्र के अलावा दुनिया में कहीं नहीं मिलते। ऐसी प्रजातियों को स्थानबद्ध (एण्डेमिक) प्रजातियां कहा जाता है । ऐसी विविधता को इकोसिस्टम स्तर की विविधता कहते हैं । ऑस्ट्रेलिया के बाद भारत ही ऐसा देश है जहां दुनिया की सर्वाधिक एण्सडेमिक वनस्पति प्रजातियां मिलती हैंं। प्रकृति की अनोखी सौगात जैव विविधता प्रकृति की अनोखी सौगात है । धरती पर जीवन के लिए जैव विविधता बहुत महत्वपूर्ण है । जीवन के लिए अनेक आवश्यकताआें की पूर्ति में जैव विविधता की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अहम भूमिका होती है । हमारे खाद्यान्न में पाई जाने वाली विविधता के उदाहरण से हम जैव विविधता के महत्व को समझा सकते हैं । प्रकृति ने हमें फलों की करीब ३७५ किस्में, सब्जियों की लगभग २८० किस्में, ८० तरह के कंदमूल और करीब ६० तरह के खाए जाने वाले फूल, बीज और मेवे आदि प्रदान किए हैं । इस विविधता के चलते हर मौसम में हमारी भोजन आवश्यकता की पूर्ति होती रहती है । अलग-अलग मौसम के अनूकूल होने के साथ ही विभिन्न प्रजातियां अलग-अलग मौसम के अनुकूल होने के साथ ही विभिन्न प्रजातियां अलग-अलग कीट-पंतगों और रोगों से भी बची रहने में सक्षम होती हैं । इससे पूरी फसल के एक साथ रोगग्रस्तहोने का खतरा नहीं होता । इस प्रकार अनाजो की विविध प्रजातियां खाद्य सुरक्षा के लिए वरदान का कार्य करती हैं । घटती जैव विविधता जीवन के विविध रूपों में मानव को सबसे बुद्धिमान जीव का खिताब हासिल है । लेकिन विकास के लिए मानव ने पर्यावरण और प्रकृति के महत्व को नज़रअंदाज़ कर दिया है । अपनी इच्छाआें की पूर्ति के लिए मानव ने प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर प्राकृतिक संपदा का अपव्यय किया जिससे प्राकृतिक परिवेश में रहने वाले जीव भी प्रभावित हुए हैं । आवास स्थानों के उज़डने और अंधाधुंध शिकार के चलते आज जैव विविधता सिमटती जा रही है । आज हमारी बढ़ती भोगवादी जीवन शैली ने विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थोंा, उर्वरकों, कीटनाशियों एवं पीड़कनाशियों की खपत को बढ़ाने के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया है जिसके कारण विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न हुए हें । घटती जैव विविधता भी पर्यावरणीय असंतुलन का ही एक परिणाम है । इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने वर्ष २००९ में जारी अपनी रिपोर्ट मेंे कहा है कि विश्व में जीव-जंतुआें की ४७.६७७ प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक प्रजातियों यानी १७.२९१ प्रजातियों पर विलुिप्त् का खतरा मंडरा रहा है । आईयूसीएन द्वारा जारी रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की २१ फीसदी, उभयचरों की ३० फीसदी और पक्षियों की १२ फीसदी प्रजातियां विलुिप्त् की कगार पवर हैं । वनस्पतियों की ७० फीसदी प्रजातियों के अलावा ताज़े पानी में रहने वाले सरिसृपों की ३७ फीसदी प्रजातियों ओर ११४७ प्रकार की मछलियों पर भी विलुिप्त् का खतरा मंडरा रहा है । इसी प्रकार भारत में मिलने वाले गिद्ध, बाघ जैसे अनेक जीव भी विलुपित की कगार पर हैं । ऐसे जीवों की सूची काफी लंबी है जिनका अस्तित्व खतरे में हैं ।जीवन का संरक्षण जैव विविधता पृथ्वी के प्राकृतिक सौंदर्य का एक अंग है । हमारा कर्तव्य है कि हम इस जैव विविधता केा संजोकर रखें । वैसे तो प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति सभी जीवों के प्रति दया भाव को महत्व देती आई है । हमारे यहां यहमाना जाता है कि जो क्रूरता हम अपने उपर नहीं कर सकते वह हमें निम्न स्तर के जीवोंसाथ भी नहीं करनी चाहिए । जैव विविधता के संरक्षण के लिए आज पूरे विश्व को गांधीजी के जीवन के हर रूप के सम्मान वाले विचार को जीवन में उतारने की आवश्यकता है । इन विचारेां अपनाने से ही शायद पृथ्वी की अनुपम जैव विविधता सुरक्षित रह सकेगी । हमें यह मानना होगा कि प्रकृति में सभी जीवों के विकास का आधार एक-दूसरे के रख-रखाव व संरक्षण पर आधारित है । इसके लिएआवश्यक हे कि हम सभी जीवों के प्रति आदर-भाव रखने के विचार को समझें और जीवन में उतारें । वास्तव में प्रकृति एवं मनुष्य के बीच घनिष्ठ सम्बंध स्थापित होने पर ही पृथ्वी पर जीवन सदैव विविध रूपों में मुस्कराता रहेगा ।***
जीवों की पाँच हजार नई प्रजातियाँ
समुद्री जीवों की गणना के एक पूर्वावलोकन से पाँच हजार से अधिक नई प्रजातियों का पता चला है । इस परियोजना में कई जीव ऐसे हैं जो ऐसे रसायनों का स्त्राव करते हैं, जिसने कई बीमारियों का इलाज हो सकता है। रिपोर्ट वैज्ञानिकों के एक दल ने सैटिंयागो में विज्ञान की प्रगति के लिए बनी अमेरिकन एसोसिएशन की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत की । नई प्रजातियों की गणना का काम पिछले दस वर्षोंा से हो रहा है और अंतिम रिपोर्ट इस साल अक्टूबर में प्रस्तुत की जाएगी । इस परियोजना पर २०८ देशों के दो हजार से अधिक वैज्ञानिकों ने काम किया है। शोधकर्ताआें ने कुछ विचित्र प्रजातियों के फोटो भी प्रस्तुत किए, जिनकी खोज पिछले दशक में की गई है । फ्लोरिडा अटलांटिक यूनिवर्सिटी के एक वैैज्ञानिक डॉक्टर शिर्ले पोंपनी ने स्पंज की नई प्रजाति पर भी प्रकाश डाला। स्पंज की यह नई प्रजाति अगस्त १९९९ में फ्लोरिडा में पाई गई। अध्ययन से पता चला कि वह एक ऐसे रसायन का स्त्राव करती है, जिसमें कैंसर से लड़ने की क्षमता है । अब इस प्रजाति पर और शोध हो रहा है ताकि इसके चिकित्सकीय इस्तेमाल को आसान बनाया जा सके। डॉ. पोंपनी कहते हैं कि जीवों का समुद्र में अनुकूलन करने से वे ऐसे रासायनिक उत्पादन करने लगते हैं जो कम्प्यूटर भी नहीं बना सकते। इस गणना की परियोजना का उद्देश्य समुद्र में संरक्षित क्षेत्रों से जुड़ी वैश्विक नेटवर्क की स्थापना है, ताकि मछलियों के शिकार करने और अन्य गतिविधियों को रोका जा सके ।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

९ ज्ञान विज्ञान






अब सूंघने वाला इंसुलिन







मधुमेह (डायबीटीज) के रोगियों को अब इंसुलिन की सूई लगवाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि अफ्रेजा नामक एक ऐसी दवा तैयार की गई है, जिसके केवल सूंघने से ही बात बन जाएगी । इस दवा को तैयार करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खून में शुगर का स्तर सामान्य कि करीब रखता है और इसमें मौजूदा इंजेक्शन की तुलना में निम्न शुगर स्तर होने का जोखिम भी काफी कम है। इस नई दवा को अभी अमेरिकी खाद्य एवं मादक पदार्थ विभाग (एफडीए) से अनुमति का इंतजार है । मैनकाइंड कॉर्पोरेशन कंपनी में इस दवा को बनाने वाली टीम के प्रमुख आंड्रिया लियोन बे ने कहा कि यह दवा सूखे पाउडर के रूप में है और उसे सूंघा जाता है । दवा के कण फेफड़े से होते हुए खून में पहुंच जाते हैं ओर तुरंत अपना असर दिखाने लगते हैं । दवा लेने के १२-१५ मिनट में ही उसका असर दिखने लगता है । लियोन बे का कहना है कि यह दवा इंजेक्शन की तुलना में काफी पहले ही अपना असर दिखाती है । २००६ में सूंघने वाली दवा तैयार हुई थी । लेकिन अक्टूबर २००७ में दवा निर्माता कंपनी फाइजर ने उसे कुछ चिंताआें को लेकर बाजार से हटा लिया । एक स्टडी में यह बात सामने आई थी कि एक्यूबेरा से फेफड़े के काम करने की गति घट जाती है और दूसरी एवं अधिक चिंताजनक बात यह थी कि इससे फेफड़े का कैंसर होने का जोखिम बढ़ जाता है । लियोन बे ने कहा कि अफ्रेज्जा पर कैंसर संबंधी अध्ययन किया गया है । चूहे को मानव की तुलना में ज्यादा अफ्रेजा संुघाया गया और शोधकर्ताआें को उसके फेफड़े के कैंसर का खतरा बढ़ने का कोई जोखिम नजर नहीं आया । दरअसल पिछली दवा पर कैंसर संबंधी अध्ययन किए ही नहीं गए थे। विशेषज्ञों ने इस नई दवा का स्वागत तो जरूर किया है, लेकिन थोड़ा सावधान भी किया है । जूवेनाइल डायबीटीज रिसर्च फाउंडेशन के इंसुलिन विभाग के डयरेक्टर संजय दत्त कहते है कि नई दवा का केवल ६ महीने के लिए टेस्ट किया गया है । अभी लंबी अवधि के लिए इसका असर जानना बाकी है ।





ब्रह्माण्ड का हो रहा है विस्तार





खगोल विज्ञानियों ने हबल अंतरिक्ष दूरबीन से यह पता लगाने के लिए चार लाख ४६ हजार मंदाकिनियों का अध्ययन किया कि ब्रह्मांड में पदार्थ (मैटर) किस तरह फैला हुआ है और वह कितनी तेजी से फैला हुआ है और वह कितनी तेजी से फैल रहा है । हबल दूरबीन से किया गया यह अब तक का सबसे बड़ा सर्वेक्षण है । वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्रह्मांड तीन विभिन्न घटकों से बना है । इनमें एक सामान्य पदार्थ है - जो ब्रह्मांड में भौतिक वस्तु है, जेसे कि ग्रह । दूसरा - डार्क मैटर है, जो अदृश्य पदार्थ है, जिससे गुरूत्व शक्ति का निर्माण होता है और जिसकी वजह से आकाशगंगाएँ बनती हें । तीसरा- डार्क एनर्जी है, जिसके बारे में अभी तक पता नहीं लगा है । यही वह शक्ति है जिससे ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है । आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत में दावा किया गया था कि अंतरिक्ष और समय एक ज्यामितीय संरचना हैं । जो इनके भीतर पदार्थ के व्यवहार से परिवर्तित हो सकती हैं । ब्रह्माण्ड का तेजी से विस्तार होने के इस सबूत से पता चलता है कि उसके (डार्क एनर्जी) जैसे घटक उसे बढ़ रहे हैंे जिससे उसकी संरचना प्रभावित हो रही है । हालैंड के लीदन विश्वविद्यालय में भौतिकी और खगोलविज्ञान विभाग के प्रोफेसर लुदोविच वान वाएरबेक कहते हैं- हमारे नतीजों से पुष्टि होती है कि ब्रह्मांड मेंे ऊर्जा का कोई अज्ञात स्त्रोत है जो डार्क मैटर को फैलाते हुए ब्रह्माण्डीय विस्तार को तीव्र कर रहा है, जैसी आइंस्टाइन ने अपने सिद्धांत में भविष्यवाणी की थी । हमारे अध्ययन से प्राप्त् आँकड़े इन भविष्यवाणियों के अनुकूल हैं और आइंस्टाइन के सिद्धांतों के साथ व्यतिक्रम प्रदर्शित नहीं करते हैं । प्रोफेसर वाएरबेक ने डार्क मैटर के अदृश्य जाल को मापने के लिए एक तकनीक की शुरूआत की, जिसका इस्तेमाल किया गया । वीक ग्रैविटेशनल लेंसिंग नाम की यह तकनीक शरीर का एक्सरे लेने की तकनीक जैसी थी । इसके जरिए खगोलविज्ञानियों ने यह पता लगाया कि पृथ्वी की तरफ यात्रा करता हुआ प्रकाश सुदूर आकाशगंगाआें से आते समय किस तरह झुक जाता है और डार्क मैटर से विकृत कर दिया जाता है । इसके बाद खगोल विज्ञानी डार्क मैटर की संरचना का नक्शा बना सकते थे जो ८०प्रतिशत ब्रह्माण्ड का निर्माण करता है। इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता टिम स्राबैक कहते हैं - हमने इस बात का परीक्षण किया कि ब्रह्माण्ड की संरचना समय के साथ किस तरह विकसित होती है । यदि ब्रह्माण्ड फैलता है तो ग्रेविटेशनल बीच दूरी बदल जाती है । इस परिप्रेक्ष्य में यह बेहद उत्साहजनक है क्योंकि पहली बार केवल वीक ग्रेविटेशनल लेंसिंग से यह मापन किया गया है । इससे पहले यह हमेशा दूसरे मापनोंे से किया गया क्योंकि लेंसिंग प्रभावी नहीं थी । खगोल विज्ञानियों ने इस तकनीक के साथ ही अध्ययन के लिए कास्मिक इवोल्यूशन सर्वे (कास्मास) का इस्तेमाल किया । यह यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और नासा की संयुक्त परियोजना थी । जिसमें बारह देशों के १०० से अधिक वैज्ञानिकों ने भाग लिया था ।





लेक एटलस ऑफ मध्यप्रदेश





पिछले दिनों मध्यप्रदेश झील संरक्षण प्राधिकरण द्वारा राज्य जल संरचनाआें पर आधारित एक संग्रह का प्रकाशन किया है, जिसे लेक एटलस ऑफ मध्यप्रदेश कहा गया है । इसके आंकड़े बताते हैं कि राज्य में लगभग २४०० झीलें हैं जिनमें शामिल, वे जिनका क्षेत्रफल १ से ५ वर्ग कि.मी. है उनकी संख्या लगभग १५० है, वे जिनका क्षेत्रफल ५ से २० वर्ग कि.मी. उनकी संख्या २२ और वे जल संरचनाएं जिनका क्षेत्रफल २० वर्ग कि.मी. से अधिक है, उनकी संख्या ७ है । इसी ग्रामीण स्तर पर मौजूद तालाबों की संख्या २९५८ है। राज्यभर के छोटे-छोटे गांवों में भी मौजूद जल संरचनाआें की संख्या लगभग ३५३९२ है । म.प्र. झील विकास प्राधिकरण पर प्रदेश में मौजूद जल भंडारों और नम भूमि के संरक्षण, संवर्धन और नियोजन के दायित्व है । म.प्र. राज्य नर्मदा, चम्बल, बेतवा, केन, सोन, ताप्ती, पेंच, बैनगंगा एवं माही नदियों का उद्गम स्थल है । प्रदेश की नदियां सभी दिशाआें में प्रवाहित होती हैं । माही एवं ताप्ती नदी पश्चिम में, सोन नदी पश्चिम की ओर मध्य में एवं बैनगंगा नदी दक्षिण की ओर प्रवाहिक होती है । प्रदेश का औसत सतही जल प्रवाह ८-१५ लाख हेक्टेयर मीटर अंतराज्यीय समझौते के अंतर्गत पड़ौसी राज्यों को आवंटित है । प्रदेश में भूगर्भीत जल की मात्रा ३४-५ लाख हेक्टेयर मीटर अंकलित है । लेक एटलस ऑफ मध्यप्रदेश मेंे अंग्रेजी वर्णमाला के पहले अक्षर के मान से प्रदेश के जिलों को चिन्हित कर वहां मौजूद सभी महत्वपूर्ण, ऐतिहासिक, धार्मिक, पुरातात्विक और प्राकृतिक या मानव निर्मित जल संरचनाआें की विस्तृत व्याख्या की गई है । जैसे अनूपपुर में झीलों की संख्या ४ और अशोक नगर में २ फिर बालाघाट में ६, भिण्ड में १ जबकि बुरहानपुर में १ और छतरपुर मेंे ११ झीलें हैं । सर्वाधिक जीलों की संख्या जबलपुर में २२, शहडोल और भोपाल में १८, पन्ना-उज्जैन में १४-१४ और रीवा-दमोह में में ग्यारह-ग्यारह के साथ कटनी में ९-९ झीलें हैं । सबसे कम अर्थात एक ही झील होने का गौरव होशंगाबाद, बुरहानपुर, खंडवा, राजगढ़, शाजापुर के साथ नीमच को प्राप्त् है । ये सभी २९० झीलें प्रदेश के जिला मुख्यालयों या उनके आसपास विद्यमान हैं । इस एटलस की विशेषता यह है कि इसमें झीलों की भौगोलिक, आर्थिक और सामाजिक जानकारी तो दी गई है प्रत्येेक जिले में मौजूद जल संरचना की पुरातात्विक और धार्मिक के साथ ऐतिहासिक जानकारी भी विस्तार और व्यवस्थित ढंग से दी गई है । प्रदेश के सभी तालाबों, झीलों और अन्य जल संरचनाआें की जानकारी अत्यधिक सुन्दर और आकर्षक छाया चित्र सहित प्रस्तुत की गई है और वहां की प्रत्येक जल संरचना में मौजूद पानी के विश्लेषण का रासायनिक अध्ययन भी दिया गया है । ***

१० कविता

पर्यावरण प्रदूषण
पेटवाल नागेन्द्र दत्त शर्मा
ये धरती तो है, सभी जीवों-निर्जीवों की जननी ।त्रस्त सब प्रदूषण से, ये सब मानव की करनी ।।उजड़ रहे हैं कही पहाड़, तो कहीं वन कट रहे ।कही रोक कर जल प्रवाह, बांध वहां बन रहे ।।हो रही वनस्पतियां विलुप्त्, धरा वृक्ष विहीन कहीं ।हो रही नष्ट वन-सम्पदा, पशु-पक्षी विहीन कहीं ।।जहरीला धुंआ उगलें है, काली चिमनियां यत्र-तत्र ।असंख्य वाहन छोड़ते हैं, रोज काला धुंआ सर्वत्र ।।कभी लहलहाया करते थे, हरे-भरे खेत जहां-तहां ।इन्सान उगा रहा हैं अब, कंक्रीट के जंगल वहां ।।मकानों की तो जैसे, हर तरफ बाढ़ सी आ गयी हो ।मानो सारे खेत-खलियान, बहा कर ले गयी हो ।।हो गया है छिद्र भी देखों अब तो, ओजोन लेयर मे ।आबादी की गाड़ी चल रही हो मानों, टॉप-गीयर मे ।।मानव ही कर रहा है, यह तहस-नहस चारों ओर ।लालच में फंसकर मारा उसके प्रपंचों ने पूरा जोर ।।फैला होता एक प्रदूषण, तो कोई सही जुगत लगाते ।और अपनी सारी कसर, उस दूर करने पर निकलवाते ।।ध्वनि, वायु, जल प्रदूषण की तो क्या और क्या न कहें ।जो है विचार तथा भ्रष्टाचार प्रदूषण उसे अब कैसे सहें ??न समझ आये ``नागेन्द्र'', कैसे रूकेगा प्रदूषण का तूफान ।ढूंढो कोई मंत्र ऐसा, फूंक दे जो पर्यावरण में पूरी जान ।।***

११ पर्यावरण परिक्रमा

जलमग्न हो गया न्यू मूर द्वीप
बंगाल की खाड़ी में स्थित न्यू मूर नामक छोटा-सा द्वीप पूरी तरह जलमग्न हो चुका है, जिसने इस आशंका को फिर से जन्म दे दिया है कि समुद्र जल स्तर बढ़ने से एक दिन कहीं मॉरीशस, लक्षद्वीप और अंडमान द्वीप समूह ही नहीं, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे मुल्कों का भी अस्तित्व समाप्त् न हो जाए । न्यू मूर को भारत में पुरबाशा और बांग्लादेश में दक्षिण तलपट्टी के नाम से भी जाना जाता है । इस द्वीप के स्वामित्व को लेकर भारत और बांग्लादेश के बीच विवाद भी रहा है हालाँकि यह द्वीप निर्जन ही रहा है । भारत ने १९८१ में नौ सेना का जहाज और फिर बीएसएफ के जवानों को वहाँ तैनात करके वहाँ तिरंगा झंडा फहराया था । अब जैसे प्रकृति ने खुद हस्तक्षेप करके विवाद का अंतिम हल कर दिया है । इससे पहले १९९६ में सुंदरवन में लोहाछरा नामक द्वीप समुद्र में डूब गया था । घोड़ामार ऐसा दूसरा द्वीप है जिसका करीब आधा हिस्सा जलमग्न हो चुका है। जलमग्न द्वीप के लोगों को शरणार्थी का दर्जा दिया जाता है भारतीय बाघ के लिए मशहूर संुदरवन डेल्टा के अनेक द्वीप, जिनमें कुछ निर्जन तो कुछ मनुष्य बस्तियों वाले हैं, २०२० तक पूरी तरह जलमग्न हो जाएँगे । जलवायु परिवर्तन के कारण मालद्वीप के नए राष्ट्रपति मोहम्मद नशीर ने भावी खतरे को पहचानकर अपने द्वीप देश को नई जगह बसाने के लिए जमीन खरीदने की बात कही थी, जिसने सबको चौंका डाला था। दरअसल, कई द्वीप देशों के लिए यह एक वास्तविक समस्या बनने वाली है । दुनिया में अब तक १८ द्वीप पूरी तरह जलमग्न हो चुके है । अकेेले २००७ में २ करोड़ ५० लाख लोग द्वीपों के डूबने के कारण विस्थापित हुए जिनमें १० हजार की आबादी वाला भारत का लोहाचार द्वीप भी शामिल है । यहीं नहीं, तुवालू नामक देश सहित ४० मुल्कोंं में समुद्र का जल स्तर बढ़ने से हजारों लोगों के बेघर होने का खतरा तेजी से बढ़ता जा रहा है। मानवीय प्रयत्नों से इसे अब रोका नहीं जा सकता लेकिन मनुष्य को अपने सामूहिक भविष्य के लिए जलवायु परिवर्तन की समस्या को रोकने के लिए तत्काल कदम तो उठाने ही पड़ेंगे ।भारत ने खोजे प्लास्टिक नाशक जीवाणु उत्तराखंड राज्य में पंतनगर स्थित गोविंद वल्लभ पंत कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक के कचरे को विघटित (सड़ाने) करने वाले जीवाणुआें की खोज की है । इस खोज से दुनिया के लिए खतरा बनते जा रहे प्लास्टिक कचरे से निजात पाने में वैज्ञानिकों को आशा की किरण दिखाई दे रही है । विश्वविद्यालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के वैज्ञानिकों ने इन जीवाणुआें की खोज केन्द्र सरकार की एक परियोजना के तहत की है । वैज्ञानिकों के मुताबिक प्लास्टिक न तो नष्ट होता है न सड़ता है । वहीं प्लास्टिक के कचरे को जलाने से ऐसी गैसें निकलती हैं जो फेफड़े के कैंसर का कारण बन सकती हैं । विश्वविद्यालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग की प्रमुख डॉ. रीता गोयल और डॉ. एमजीएच जैदी ने इस विषय पर कई सालों तक शोध किया। इस दौरान इन वैज्ञानिकों ने मिट्टी में पाए जाने वाले ७८ ऐसे जीवाणुआें की खोजें कीं, जिनके जोड़ों से प्लास्टिक का विघटन हो सकता है । हिमालयी क्षेत्र की मिट्टी में पाए जाने वाले स्यूडोमोनास, एसिटीनों वैक्टर बेसिकल जैसे जीवाणु इसमें सहायक हो सकते हैं । वैज्ञानिकों ने ७८ जीवाणुआें से इस काम के लिए २८ कंसोर्टियम (जीवाणु का मिश्रण) तैयार किए हैं । डॉ. गोयल कहती हैं कि प्लास्टिक के परमाणुआें के बीच बंधन इतना मजबूत होता है कि उसे खत्म करना मुश्किल है। लेकिन उसे इन जीवाणुआें का मिश्रण नष्ट कर देता है । इसके लिए शर्त यह है कि इन जीवाणुआें क्का एक निश्चित अनुपात में ही मिलाया जाए । डॉ. गोयल ने बताया कि हमने जीवाणुआें के जो मिश्रण (वैक्टिरियल कंसोर्टियम) तैयार किए हैं, वे सभी तरह के प्लास्टिक परमाणुआें के बंधनों को तोड़कर नष्ट कर सकते हैं । जीणुआें के इस मिश्रण की डॉ. एमजीएच जैदी ने प्रयोगशाला में जाँच-पड़ताल की है । शोध मेें यह सिद्ध हो गया है कि प्लास्टिक के साथ मिश्रण जमीन मेंे गाड़े जाने के बाद तीन सप्तह में यह २४ फीसदी तक विघटित कर देते हैं । विवि प्रशासन अब इस शोध का पेटेंट कराने में जुट गया है । उनका कहना है कि इस कंसोर्टियम की जानकारी तभी सार्वजनिक की जाएगी, जब इस शोध का पेटेंट हो जाएगा । दुनिया के प्रदूषण में प्लास्टिक के कचरे का योगदान ३० फीसदी तक है। कुलपति प्रो. वीएस बिष्ट ने बताया कि यह शोध दुनिया की कई वैज्ञानिक पत्र-पत्रिकाआें में प्रकाशित हुआ है । शोध को देश के कई प्रमुख शोध संस्थाआें ने अपनी जाँच में सही पाया है । इनमें लखनऊ स्थित सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट, आईआईटी रूकड़ी और नेशनल सेंटर ऑफ सेल्यूलर साइंस पूणे के नाम शामिल है ।शराब में डुबाई जा रही हैं सब्जियां पहले सब्जियों में सुई के माध्यम से दवाई और रासायनिक पदार्थ डालकर उसका आकार बड़ा दिया जाता था । लौकी,कद्दू, बैंगन,परवल आदि में इसका अधिक उपयोग होता था । इसी क्रम में अब देशी शराब छिड़ककर सब्जियों का उत्पादन बढ़ाने का नया सिलसिला शुरू हुआ है । किसान अब अधिक उत्पादन के लिए सब्जियों पर देशी शराब का छिड़काव कर रहे हैं जिससे कम लागत में अधिक उत्पादन हो जाता है और किसानों को अधिक आय हो रही है । कीटनाशक के छिड़काव की भी जरूरत नहीं होती है । खेती में प्रतिदिन नई - नई तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है । बाजारों में सब्जियों में दिख रहा ज्यादा हरापन संभवत: इसी तकनीक का परिणाम है । गोरखपुर जिले के खजनी तहसील के भिटहा गांव में कुछ किसान वर्तमतान समय में बड़ी मात्रा में हरी सब्जियों का उत्पादन करके अच्छी आय प्राप्त् कर रहे हैं, लेकिन ये सब्जियां स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं । भिटहा गांव के शिवमंगल नामक किसान ने बताया कि बैंगन, लौकी, भिण्डी आदि हरी सब्जियों के पौधों को लगाने के बाद उसके उपर देशरीशराब का छिड़काव किया जाता है उसने कहा कि पौधों में फूल आने के बाद शराब का छिड़काव करना जरूरी हो जाता है । देशी शराब का छिड़काव करने से सब्जियां जल्द बड़ी हो जात हैं और उनका उत्पादन भी अधिक होता है । इस संबंध में कृषि विशेषज्ञ डॉ. एसपी सिंह ने बताया कि शराब में निकोटीन अधिक होने के कारण हरी सब्जियां तेजी से विकास करती है जिसके कारण किसान इसका इसतेमाल कर रहे हैं । दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विवि के वनस्पति विज्ञान विभाग की प्रवक्ता मालविका श्रीवास्तव ने बताया कि देशी शराब डालने से पौघे जल्दी बड़े हो जाते हैं और उत्पादन भी अधिक होता है , लेकिन शराब डाली गई सब्जी के इस्तेमाल से स्वास्थ्य को नुकसान भी पहुंचता है । कोकाकोला कंपनी पर जुर्माना कोकाकोला और पेप्सी कोला जैसे शीतल पेयों की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हमेशा किसी-न-किसी विवाद में फँसी रहती हैं । जिस तरह कोकाकोला देश में दोबारा लौटी और जिस तरह उसने स्थानीय रूप से कोला बनाने वाली कंपनियों को खरीदा तथा उनके लोकप्रिय ब्रांडों का उत्पादन खुद शुरू किया, उस पर ही काफी विवाद रहा है । ये कंपनियाँ इतनी बड़ी हैं कि इनकी पैसे की ताकत इनके बारे में उठे सारे विवादों को ठंडा कर देती हैं । भारत में भी यह बार-बार हुआ । केरल का एक विवाद जरूर अभी भी कोकाकोला का पीछा कर रहा है, जिसमें उसे २१६.२६ करोड़ रूपए का मुआवजा देने के लिए कहा गया है । भारत में भूमिगत जल का स्तर लगातार गिरते जाने की समस्या लगभग राष्ट्रीय है। उसमें अगर कोला कंपनी का संयंत्र कहीं लग जाए तो उसकी पानी की जरूरत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है । यही केरल के पलक्कड़ जिले के प्लाचिमाड़ा स्थित कोकाकोला के संयंत्र बनने पर हुआ । इस संयंत्र ने बड़े पैमाने पर भूमिगत जल का दोहन शुरू किया और पानी के उपयोग के बाद जो कीचड़ पैदा हुआ, उसे किसानों को खाद के रूप में दिया । इस तथाकथित खाद से फसल को नुकसान ही हुआ कयोंकि इसमें कैल्शियम तथा सीसे की मात्रा खतरनाक हद तक थी । संयंत्र के कारण गाँव में जल का स्तर घटा, पेयजल प्रदूषित हुआ, खेती को नुकसान हुआ और लोगों का स्वास्थ्य भी बिगड़ा । प्लाचिमाड़ा पंचायत के जागरूक लोगों ने इसे लगभग राष्ट्रीय महत्व का मसला बना दिया तो केरल की सरकार ने एक अतिरिक्त मुख्य सचिव की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति बनाई जिसने अपनी रिपोर्ट में इस कंपनी पर २१६.२६ करोड़ का दावा ठोका है । २००४ से यह संयंत्र बंद है । बहरहाल कोकाकोला कंपनी इन आरोपों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है । इसी तरह पेप्सी कोला का भी पलक्कड़ जिले में स्थित संयंत्र विवादित है । इसे अपना उत्पादन ६० प्रतिशत तक घटा देने को कहा गया है । पेप्सी कंपनी लिमिटेड ने भी इन आरोपों से इंकार किया है । बहरहाल लगता है कि कंपनियाँ लंबी लड़ाई लड़ेंगी । बहरहाल स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे मेंे अनेक विवाद है, उन्हें किसी किस्म का प्रोत्साहन देकर आखिर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? उन्हें किसी किस्म का प्रोत्साहन देकर आखिर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? देश की युवा पीढ़ी को नुकसान पहुँचाने वाला ऐसा पेय राष्ट्रीय हित में तो किसी भी तरह नहीं हैं फिर इसे हमेशा के लिए बंद क्यों नहीं किया जा रहा है ।***

१२ कृषि जगत

कर्ज और जहर के बगैर खेती
प्रो. राजेन्द्र चौधरी
आज खेती के लिये किसान को हर चीज खरीदनी पड़ती है। इस लिये वह कर्ज में दबा रहता है। इसके साथ-साथ उसे हर बार पहले से ज्यादा (रासायनिक) खाद और दवाइयों का प्रयोग का करना पड़ता है। परन्तु उपज की मात्रा और उपज की कीमत का कोई भरोसा नहीं रहता। दूसरी ओर उपज की गुणवत्ता भी घट रही है। बीमारियाँ बढ़ रही हैं। पानी, मिट्टी और यहाँ तक कि माँ के दूध में भी जहर के अंश पाये गये हैं। आम तौर पर औरतें तो शराब और सिगरेट नहीं पीतीं पर उनमें भी कैंसर बढ़ रहा है। इसका एक कारण (लेकिन एकमात्र नहीं) खेती में प्रयोग होने वाले जहर है। क्या इस का कोई विकल्प हो सकता है? क्या कर्ज और जहर के बगैर खेती हो सकती है?भोजन हम सब की जरूरत है। इस के साथ-साथ अगर खेती स्वावलंबी हो जाती है, किसान को बाहर से कुछ खरीदने की जरूरत नहीं रहती, छोटी जोत वाला किसान भी आजीविका कमा-खा सकता है, पूरे साल खेत में काम रहता है, तो हमारे खाने के लिए स्वस्थ भोजन उपलब्ध होने के साथ-साथ, गाँवों और पूरे समाज की दशा और दिशा ही बदल जायेगी। पर्यावरण संकट में भी कुछ कमी होगी। इसलिए समाज परिवर्तन के काम में लगे हर संगठन द्वारा भी ऐसी खेती को परखा जाना चाहिए।वैकल्पिक खेती है क्या? इस तरह की खेती के कई रूप और नाम हैं- वैकल्पिक, जैविक, प्राक तिक, जीरो-बजट खेती इत्यादि। इन सब पद्धतियों में कुछ-कुछ फर्क तो है परन्तु इन सब में कुछ तत्त्व एक जैसे भी हैं। वैकल्पिक खेती में रासायनिक खादों, कीटनाशकों और बाहर से खरीदे हुए पदार्थों का प्रयोग या तो बिलकुल ही नहीं किया जाता या बहुत ही कम किया जाता है। परन्तु वैकल्पिक खेती का अर्थ मात्र इतना ही नहीं है कि यूरिया की जगह गोबर की खाद का प्रयोग हो। इस के अलावा भी इस खेती के अनेक महत्वपूर्ण तत्त्व हैं जिन की चर्चा हम आगे करेंगे। न ही वैकल्पिक खेती अपनाने का अर्थ केवल हरित क्रांति से पहले के तरीकों पर वापिस जाना नहीं है बल्कि पारम्परिक तरीकों को अपनाने के साथ-साथ पिछले ४०-५० वर्षों में हासिल किए गए ज्ञान से भी उन्हंे पुष्ट करना है।वैकल्पिक खेती क्यों? इस तरह की खेती अपनाने के पीछे ३ मुख्य कारण हैं। एक तो रसायन एवं कीटनाशक आधारित खेती टिकाऊ नहीं है। समय के साथ पहले उतनी ही पैदावार लेने के लिए लगातार पहले से ज्यादा रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ रहा है। इसके चलते मिट्टी और पानी खराब हो रहे हैं। दूसरा प्रभाव यह है कि स्वास्थ्य खराब हो रहा है, यहाँ तक कि माँ के दूध में भी कीटनाशक पाये गये हैं। तीसरा कारण यह है कि रासायनिक खादों का निर्माण मूलत: पेट्रोलियम-पदार्थों पर आधारित है और वे देर-सबेर खत्म होने वाले हैं। इसलिए नये विकल्पों की तलाश है।असल में वर्तमान में प्रचलित रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों से लगभग सब परिचित हैं। बढ़ती बीमारियों, खास तौर पर कैंसर इत्यादि में, हमारे खान-पान की महत्वपूर्ण भूमिका को वैज्ञानिक अैर आमजन सब रेखांकित करते हैं- हालाँकि इन बीमारियों के होने में अकेले खान-पान की ही भूमिका नहीं है। एक और बात पायी गयी है कि वैकल्पिक खेती अपनाने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले बहुत से किसान ऐसे हैं जिन्होंने पहले रासायनिक खेती भी जोर-शोर से अपनाई थी, अनेक पुरस्कार प्राप्त किये परन्तु जब उसमें बहुत नुकसान होने लगा तब उन्होंने नये रास्ते तलाशने शुरू किये और अंतत: वैकल्पिक खेती के किसी रूप पर पहुँचे। इससे वर्तमान पद्धति की सीमाएँ स्प ट होती हैं। यह भी महसूस किया गया कि बड़ी कम्पनियों पर निर्भरता से भी किसान को नुकसान होता है। इसलिए आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों, जैसे बीटी कपास या बैंगन इत्यादि को हम वैकल्पिक खेती में नहीं गिन रहे हैं क्योंकि अन्य बातों के अलावा ये बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर आधारित हैं।वैकल्पिक खेती कैसे? वैकल्पिक खेती के कुछ मूल सिद्धान्त हैं। मिट्टी का स्वास्थ्य, उस में जीवाणुओं की मात्रा, भूमि की उत्पादकता का महत्वपूर्ण अंग है। ये जीवाणु मिट्टी, हवा और कृषि-अवशेषों में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोषक तत्त्वों को पौधों के प्रयोग लायक बनाने हैं। इसलिये मुख्यधारा के कृषि-वैज्ञानिक भी मिट्टी में जीवाणुओं की घटती संख्या से चिन्तित हैं। तो सब से पहला काम मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या बढ़ाना है इस के लिए जरूरी है कि कीटनाशकों तथा अन्य रसायनों का प्रयोग न किया जाए क्योंकि कीटनाशक फसल के लिये हानिकारक कीटों के साथ-साथ मित्र कीटों को भी मारते हैं तथा मिट्टी को जीवाणुओं के अनुपयुक्त बनाते हैं।दूसरा तत्त्व है खेत में अधिक से अधिक बरसात का पानी इकट्ठा करना। अगर खेत से पानी बह कर बाहर जाता है तो उस के साथ उपजाऊ मिट्टी भी बह जाती है इसलिये पानी बचाने से मिट्टी भी बचती हैं दूसरी ओर जैसे-जैसे मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या बढ़ती है, मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता भी बढ़ती है यानी मिट्टी बचाने से पानी भी बचता है। इसके अलावा पानी बचाने के लिये मेड़ों और छोटे तालाबों का सहारा लिया जाना चाहिये।तीसरा मूल सिद्धान्त यह है कि खेत में जैव-विविधता होनी चाहिये क्योंकि यह मिट्टी की उत्पादकता बढ़ाने और कीटों का नियन्त्रण करने, दोनों में सहायक सिद्ध होती है। इसलिए एक समय पर कई तरह की फसलों और एक ही फसल की भिन्न-भिन्न किस्मों का उत्पादन किया जाना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो हर खेत में फली वाली या दलहनी (दो दाने वाली) एवं कपास, गेहूँ या चावल जैसी एक दाने वाली फसलों को एक साथ बोयें (दलहनी या फली वाली फसलें नाइट्रोजन की पूर्ति में सहायक होती हैं)। फसल-चक्र में भी समय-समय पर बदलाव करना चाहिये। एक ही तरह की फसल बार-बार लेने से मिट्टी से कुछ तत्त्व खत्म हो जाते हैं एवं कुछ विशेष कीटों को लगातार पनपने का मौका मिलता है।चौथा, बिक्री और खाने में प्रयोग होने वाली सामग्री को छोड़ कर खेत में पैदा होने वाली किसी भी सामग्री को खेत से बाहर नहीं जाने देना चाहिए। उस का वहीं पर भूमि को ढकने के लिये और खाद के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए। किसी भी तरह के कृषि अवशेषों को जलाना तो बिल्कुल भी नहीं चाहिये। शुरू में पड़ोसी किसान से कृषि-अवशेष और गौशाला से गोबर लिया जा सकते हैं बाद में मिट्टी में जीवाणु बढ़ने और अपने ही खेत में कृषि-अवशेष बढ़ने से बाहरी सामग्री और गोबर की भी ज्यादा मात्रा की जरूरत नहीं पड़ती।पांचवां, खेत में प्रति एकड़ ५-६ वृक्ष जरूर होने चाहिये, खेत के बीच में तो ऐसे वृक्ष हों जो बहुत ऊँचे न जाते हों और उन के नीचे ऐसी फसलें उगानी चाहियें जो कम धूप में भी उग जाती हैं। (ध्यान रहे, हमें जैव-विविधता बनानी है, इसलिये ऐसी फसलों का मिश्रण आसानी से हो सकता है) खेत के किनारों पर ऊँचे वृक्ष हो सकते हैं, खेत में वृक्ष होने से मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता बढ़ती है, मिट्टी का क्षरण नहीं होता, वृक्षों की गहरी जड़ें धरती की निचली परतों से आवश्यक तत्त्व लेती हैं और टूटे हुए पत्तों के माध्यम से ये तत्त्व अन्य फसलों को मिल जाते हैं, और उन पर बैठने वाले पक्षी कीट-नियन्त्रण में भी सहायक सिद्ध होते हैं। (जानकार यह बताते हैं कि ज्यादातर पक्षी अन्न तभी खाते हैं जब उन्हें कीट खाने को न मिले। इसलिए जहाँ कीटनाशकों का प्रयोग होता है, वहां कीट न होने से ही पक्षी अन्न खाते हैं वरना तो वे कीट खाना पसन्द करते हैं)।छठा, कोशिश यह रहे कि भूमि नंगी न रहे। इसके लिये उस में विभिन्न तरह की लम्बी, छोटी, लेटने वाली और अलग-अलग समय पर बोई और काटे जाने वाली फसलों का उत्पादन किया जाना चाहिए। इससे एक तो जमीन में नमी बनी रहती है और दूसरा इससे मिट्टी के जीवाणुओं को लगातार उपयुक्त वातावरण मिलता है, वरना वे ज्यादा गर्मी, सर्दी इत्यादि में मर जाते हैं। खेत में लगातार फसल बने रहने से सूरज की रोशनी, जो धरती पर भोजन का असली स्रोत है, का पूरा प्रयोग हो पाता है।सातवाँ, फसल को पानी की नहीं बल्कि नमी की जरूरत होती है। बेड बना कर बीज बोने और नालियों से पानी देने से पानी की खपत काफी घट जाती है। आठवाँ, बीज बोने के समय और किस्म के चुनाव का भी कीट-नियन्त्रण में योगदान पाया गया है। स्थानीय परन्तु सुधरे हुए बीजों और पशुओं की देशी लेकिन अच्छी नस्ल का प्रयोग किया जाना चाहिये। नौवाँ, बीजों के बीच की परस्पर दूरी वैकल्पिक खेती और प्रचलित खेती में अलग हो सकती है। इसलिये इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।दसवाँ, इस तरह की खेती में खर-पतवार की समस्या भी कम रहती है। रासायनिक खाद के प्रयोग से मिट्टी में बड़ी मात्रा में सहज उपलब्ध पौष्टिक तत्त्व एकदम से मिल जाते हैं जिस से खरपतवार ज्यादा बढ़ते हैं। परन्तु वैकल्पिक खेती में मिट्टी को इस तरह से यूरिया जैसा ग्लूकोज नहीं मिलता इसलिये खरपतवार की समस्या कम रहती है। खरपतवार तभी नुकसान करता है जब वह फसल से ऊपर जाने लगे तभी उसे निकालने की जरूरत है। निकाल कर भी उस का खाद या भूमि ढकने में प्रयोग करना चाहिये।जरूरत तो यह है कि सरकार वैकल्पिक खेती को प्रोत्साहन दे। कम से कम शुरुआत में होने वाले सम्भावित नुकसान की भरपाई में सहयोग दे। परन्तु अगर इतना न कर पाये तो कम से कम ऐसी खेती अपनाने वाले को रासायनिक खेती के बराबर सहायता तो दे। परन्तु जब तक सरकार ऐसा नहीं करती तब तक जागरूक उपभोक्ता मिल कर किसान के प्रारम्भिक जोखिम में हाथ बंटा सकते हैं और अपने लिए बेहतर भोजन भी सुनिश्चित कर सकते हैं।यह हो सकता है कि इस लेख में दी हुई जानकारी से काम न चले, तो और किताबें भी उपलब्ध हैं परन्तु शायद किताबों से बेहतर होगा ऐसे किसानों से मिलना जो इस किस्म की खेती कर रहे हैं या समय-समय पर लगने वाले प्रशिक्षण शिविरों में भाग लेना। इस की व्यवस्था भी की जा सकती है परन्तु सबसे जरूरी यह निश्चय करना है कि हमें अपनी खेती और जीवन के तरीके को बदलना है। भारत और विश्वभर के बहुत से किसानों का अनुभव दिखाता है कि वैकल्पिक खेती एक विश्वसनीय विकल्प है जो सामान्य कीमतों पर (न कि दुगनी या तिगुनी कीमतों पर) पर्याप्त उत्पादन कर सकती है। इस के साथ ही इस में सामाजिक क्रान्ति के बीज छिपे हैं क्योंकि यह आत्मनिर्भर और रोजगार सम्पन्न देहात की रीढ़ बन सकती है, छोटे किसान को नया जीवन दे सकती है और हम सब को स्वस्थ भोजन और सुरक्षित पर्यावरण। कुल मिलाकर वैकल्पिक खेती अपनाने से लागत कम हो जाती है परन्तु न तो उत्पादन में कमी आती है और न किसान की आय में बल्कि यह खेती उत्पादन और आय, दोनों में ज्यादा स्थिरता लाती है और ज्यादा महंगी भी नहीं पड़ती। ```

१३ पर्यावरण समाचार

अब सख्त होगा वन्य जीव संरक्षण कानून
बाघों की मौत का बढ़ता आंकड़ा रोकने मेंे नाकाम हो रही सरकार अब वन्य जीव संरक्षण कानून सख्त करने में जुट गई है । मौजूदा कानून में सजा के प्रावधान सख्त बनाए जाएंगे । केंद्रिय वन और पर्यावरण मंत्रालय इस संबंध में विधेयक मानसून सत्र के दौरान संसद में पेश करने की तैयारी कर रहा है । केंद्रिय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के मुताबिक वन्य जीव संरक्षण कानून, १९७२ में बदलाव का खाका तैयार किया जा रहा है । कानून में सजा के नए प्रावधानों को फेरा कानून की तर्ज पर नया रूप दिया जा रहा है । गौरतलब है कि खत्म हो चुके फेरा कानून में एजेंसियों को विदेशी धन संबंधी नियमों के उल्लंघन पर सीधे गिरफ्तारी का अधिकार था । सख्त कानून की वकालत करते हुए श्री रमेश ने कहा कि फिर कोई संसार चंद सामनें नहीं आए, इसके लिए जरूरी है कि वन्य जीव संरक्षण कानून को मजबूत बनाया जाए । उल्लेखनीय है कि वन्य अंगों के अवैध व्यापारी संसार चंद को गिरफ्तार हुए पांच साल हो गए हैं, लेकिन उसकी काली करतूतों की कड़ियां जांच एजेसिंयां आज तक समेट नहीं पाई हैं । वन्य जीवों के खिलाफ अपराधों पर नजर रखने वाली संस्था ट्रेफिक के मुताबिक दक्षि ण एशिया में वन्य जीव अंगों की तस्करी अवैध हथियों के बाद दूसरा सबसे बड़ा गोरखधंधा है ।
देश मेंे तेजी से बढ़ रहा है ई-कचरा
देश में दिनों-दिन ई-कचरा बढ़ता जा रहा है । यदि यह इसी गति से बढ़ता गया तो वर्ष २०१२ तक देश में आठ लाख टन ई-कचरा पैदा होने की आशंका है । पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने लोकसभा में बताया कि केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड (सीपीसीबी) की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष २००५ में देश में एक लाख ४६ हजार ८०० टन ई-कचरा पैदा हुआ था जिसके वर्ष २०१२ तक बढ़कर आठ लाख टन हो जाने की आशंका है । पर्यावरण मंत्रालय ने ई-कचरे सहित अन्य खतरनाक कचरों के समुचित प्रबंधन एवं निपटारे के लिए खतरनाक कचरा प्रबंधन रखरखाव एवं सीमा पार यातायात नियम २००८ बनाए हैं । नियमों के अनुसार ई-कचरे के निपटारे में संलग्न इकाइयों का केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पंजीकृत होना जरूरी है । विश्व में उर्वरकों का सबसे अधिक और विपणन करने वाली सहकारी समिति इंडियन फॉरमर्स फर्टिलाइजर्स कोऑपरेटिव लिमिटेड (इफको) ने कार्बन के्रडिट से करीब चार करोड़ रूपए अर्जित किए हैं । इफको द्वारा कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी किए जाने पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क क्रॅन्वेशन ने ८०६३६ टन सर्टिफाइड इमिशन रिडक्शन का प्रमाणपत्र जारी किया था, जिसने उसे करीब चार करोड़ रूपए दिलाए । इफको की फूलपुर इकाई को प्राकृतिक गैस आधारित बनाने से कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी आई हैं ।
गंगा की डॉल्फिनों को खतरा
संरक्षित जीव का दर्जा प्राप्त् गंगा की डॉल्फिनों को किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे कीटनाशकों से खतरा है । नदी में फिलहाल २,००० से भी कम डॉल्फिनें बची हैं । पर्यावरणविदों का मानना है कि गंगा में प्रदूषण का स्तर कम रखने और नदी की न्यूनतम गहराई को बरकरार रखने के लिए और शोध कार्योंा की जरूरत है । इन उपायों के बाद ही डॉल्फिनें अपने प्राकृतिक परिवेश में प्रजनन कर सकेगी । मछुआरों द्वारा नायलोन के जाल का अत्यधिक उपयोग, खेती में रसायनों का इस्तेमाल और उद्योगों द्वारा सीधे गंगा नदी में छोड़े जा रहे हानिकारक कचरे के कारण डॉल्फिनों का वजूद खतरे में पड़ गया है । डॉल्फिनों को बचाने के लिए एक्शन प्लान बना रही कमेटी के सदस्य व वैज्ञानिक संदीप बेहेरा ने कहा कि गंगा की डॉल्फिनों का प्राकृतिक पर्यावास बिलकुल खत्म हो गया है । यदि औद्योगिक और कृषि कार्यक्रमोंहो रहे प्रदूषण को कम किया जा सके तो डॉल्फिन को खत्म होने से रोका जा सकता है । श्री बेहेरा बताया कि नरोरा, कानपुर और इलाहाबाद ऐसे स्थान हैं, जहां डॉल्फिने काफी संख्या में नजर आती हैं । यह इस बात की निशानी है कि इन स्थानों पर नदी का पानी अच्छी क्वालिटी का है। ऐसे स्थानों की संख्या बढ़ना चाहिए ।***

आवरण




१ सामयिक

पर्यावरण से दुश्मनी निभाता विकास
अमिताभ पाण्डेय
मनुष्य और प्रकृति के बीच ऐसे सम्बंध है कि प्रकृति के बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । जल, जंगल, जमीन से मनुष्य को जीवन जीने की शक्ति मिलती है । प्रकृति ने मनुष्य को बिन मांगे अनमोल उपहार दिए हैं । स्वच्छ हवा, साफ पानी, खाद्यान्न के लिए उपजाऊ भूमि, फलदार वृक्ष आदि के साथ ही प्रकृति के अन्य साधन मनुष्य के जीवन को स्वस्थ व ऊर्जावान बनातेहैं । वैज्ञानिकों द्वारा अनेक शोध के उपरांत जो निष्कर्ष निकाले हैं उनसे यह साबित हो गया है कि प्राकृतिक वातावरण को बेहतर बनाए रखते हुए ही मानव जीवन का आनंद लिया जा सकता है । प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाने से मानव जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । इस सर्वमान्य तथ्य का ज्ञान होने के बाद भी मानव जीवन में सुख सुविधाआें के प्रति बढ़ते मोह ने नए-नए आविष्कारों को जन्म दिया है । ऐसे आविष्कार प्रकृति व पर्यावरण के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए जल, जंगल, जमीन, आकाश, पाताल हर तरफ मनमाने प्रयोग किए और प्रकृति के द्वारा उपलब्ध साधनों का हद से अधिक दुरूपयोग किया । अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य प्राकृतिक वातावरण को लगातार नुकसान पहुंचाता चला जा रहा है । वैज्ञानिकों द्वारा बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद प्रकृति से अधिकतम पदार्थ प्राप्त् कर लेने की इच्छा खत्म नहीं होरही । प्रकृति का दोहन खूब हो रहा है । प्राकृतिक संसाधनों के निरंतर एवं असीमित दोहन ने दुनियाभर में पर्यावरण के लिए चिंताजनक स्थिति निर्मित कर दी है । अपने लाभ के लिए मनुष्य द्वारा विकास के नाम पर कई ऐसे आविष्कार भी कर दिए गए जो जल, जंगल, जमीन में जहर घोल रहे हैं, जानवरों की मौत का कारण बन रहे है । प्रकृति के उपहारों का ऐसा दुरूपयोग किया कि धरती, आकाश, पाताल जहां से मिल सकता था उसे लेने में कोई कसर बाकी न रखी । इस बेहिसाब दोहन का यह नतीजा है कि आज पर्यावरण का संकट पूरी दुनिया पर छा गया है । पर्यावरण संकट के दुष्परिणाम अकाल, बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन जैसी आपदाआें के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं । पर्यावरण संकट से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाआें के कारण होने वाली जन-धन आदि की हानि भी विकास की अंधाधुंध रफ्तार को नहीं रोक पाई है । उपजाऊ जमीन, घने जंगल, अनेक प्रकार केजल स्त्रोत सहित अन्य प्राकृतिक संसाधन विकास की सीमा रेखा को खतरा साबित हो चुके विकास की सीमा रेखा को बहस से सर्वसम्मति तक की प्रक्रिया तय नहीं हो पाई हैं । विकास की कोई सीमा रेखा तय न होने का नतीजा यह है कि आज अधिकांश जल स्त्रोत प्रदूषित होकर समािप्त् की ओर जा रहे हैं । जल संकट साल दर साल गहराता जा रहा है । हरी-भरी जमीन जलविहीन होकर रेगिस्तान में बदलने की स्थिति है । हवा में बढ़ता जहरीला धुआं बढ़ते-बढ़ते ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचाने की स्थिति निर्मित कर चुका है । धरती का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है जिसके चलते प्रकृति में अनेक नुकसानदेह परिवर्तन हो रहे हैं । ऐसे हालात में यह जरूरी हो गया है कि विकास को इस प्रकार सीमित व व्यवस्थित बनाया जाए कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कायम रह सके। विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार निर्धारित किया जाए कि उससे प्राकृतिक संसाधनों पर विपरीत प्रभाव न हो । इसके लिए यह भी आवश्यक है कि विकास की कोई गतिविधि शुरू करने के पूर्व ही उससे होने वाली पर्यावरणीय क्षति, प्राकृतिक नुकसान का सही-सही आकलन किया जाए । जहां विकास किया जा रहा है वहां का प्राकृतिक पर्यावरण कैसे बनाए रखा जाए इस बारे में गंभीरता से विचार होना चाहिए। यदि विकास के साथ-साथ पर्यावरण की भी गंभीरता से चिंता की जाए तो बिगड़ती प्राकृतिक स्थिति पर कुछ रोक लगाना संभव है । विकास और पर्यावरण के बीच शासन, प्रशासन, निजी स्तर पर पर्यावरण को ही प्राथमिकता दी जाना चाहिए । केवल सेमिनार, संगोष्ठी में ग्लोबल वार्मिंग पर विशिष्टजनों के बीच चर्चा, चिंतन लिए जनमानस के बीच जागरूकता अभियान को तेजी से चलाए जाने के साथ ही पर्यावरण की दुश्मन बनी कंपनियोंपर भी कड़ी कार्यवाही करना जरूरी है । पर्यावरण को विकास के नाम पर सबसे ज्यादा नुकसान पूंजीपति देशों, पूंजीपतियों, उद्योगों और उद्योगपतियों ने ही पहुंचाया है । अभी स्थिति यह है कि विकास के नाम पर उपजाऊ एवं उपयोगी भूमि को उद्योगपतियों के हवाले किया जा रहा है। इस बारे में पर्यावरण की चिंता करने वालों द्वारा उठाए गए सवाल छोटे-बड़े आंदोलन के आसपास ही सिमटकर रह गए है । सघन वृक्षोेंसे भरे आवासीय क्षेत्र भी व्यावसायिक परिसरों में बदलते जा रहे हैं। हरियाली पर व्यापारी कैसे भारी पड़ते हैं इसका ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में देखा जा सकता है । भोपाल में न्यू मार्केट इलाके को ठीक उसी तरह माना जाता है जैसा कि दिल्ली में कनाट प्लेस है । न्यू मार्केट क्षेत्र के नजदीक स्थित साऊथ तात्या टोपे नगर मेंएक व्यापारिक कंपनी को ऐसी जगह दे दी गई जहां लगभग २०० पुराने मकानों के साथ ही २००० से ज़्यादा पेड़ पौधों को नष्ट करना भी जरूरी हो गया है। इस सौदे को हासिल करने के बाद कंपनी ने सारे मकान जमीदोंज करके आसपास से गुजरने वाले रास्ते बंद किए और अब ५० वर्षोंा से भी पुराने विशाल वृक्षों को काट डालने के पूरे इंतजाम कर लिए है । पर्यावरणवादी संस्थाआें के प्रयास भी इसे नहीं रोक पा रहे है । सवाल यह है कि इलाके के दो हजार से ज्यादा पेड़ काट दिए जाएं व आम जनता के आने-जाने के रास्ते बंद हो जाए तो यह कैसा विकास हैं ? क्या यह विकास वाकई जनहित में है ?
चंद्रयान -१ ने खोजा बर्फ का भंडार
भारत के चंद्रयान -१ ने अमरीकी अंतरिक्ष ऐजेंसी नासा की मदद से चांद के उत्तरी ध््राुव पर बड़ी मात्रा में बर्फ का भंडार खोज निकालाहै । इस अभियान से जुड़े नासा के वैज्ञानिकों का मानना है किचंद्रयान-१ की मदद से चांद के उत्तरी ध््राुव पर कम से कम ६० करोड़ मीट्रिक टन बर्फ का भंडार होने का पता लगाया गया है । चंद्रयान ने नासा के मिनी-एसएआर नाम के हल्के आकार के राडार की मदद से इस खोज में सफलता हासिल की है । वैज्ञानिकों का दावा है कि चांद पर ४० ऐसे छोटे आकार के क्रेटरों का पता लगाया गया है, जो बर्फ से भरे हैं । इन क्रेटरों का व्यास दो से १५ किलोमीटर तक का है ।

२ हमारा भूमण्डल

जलवायु परिवर्तन का शिकार होते बच्च्े
लिडिया बेकर
यह कटू सच्चई है कि आज प्रतिवर्ष ९० लाख बच्च्े ५ वर्ष की उम्र तक पहुंचने से पहले ही काल कवलित हो जाते हैं । इसमें से ९७ प्रतिशत बच्च्े न्यून या मध्यम आय वाले देशों के गरीब समुदायों एवं परिवारों के होते है । इनमें से अधिकांश बच्च्े कुछ ही बीमारियों एंव स्थितियों जैसे कुपोषण, निमोनिया, चेचक, उल्टी दस्त, मलेरिया, एच.आई.वी., एवं एड्स व नवजात के उपचार मेंलापरवाही जैसी परिस्थितियों के कारण असमय मारे जाते हैं । इस पृष्ठ भूमि में देखे तो हम पाएँगे की जलवायु परिवर्तन इक्कीसवी शताब्दी में वैश्विक स्वास्थ्य हेतु सबसे बड़ा खतरा है । जल वायु परिवर्तन विभिन्न प्रकार से बच्चें के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करेगा । यह स्वास्थ्य सेवाआें की कार्यप्रणाली महिला शिक्षा एवं सशक्तिकरण, खाद्य सुरक्षा, साफ पानी और साफ सफाई जैसे साधनों पर विपरीत असर करेगा । जो कि बच्चें के स्वास्थ्य के आधार स्तम्भ हैं । वैसे जलवायु परिवर्तन सभी को प्रभावित करेगा । लेकिन गरीब परिवारों के बच्च्े इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे । जलवायु परिवर्तन से ५ वर्ष तक के बच्च्े सर्वाधिक प्रभावित होंगे और ये कई देशों में कुल जनसंख्या के १० से २० प्रतिशत तक हैं । इस उम्र के बच्चें की प्रतिरोधक क्षमता भी कम होने से जोखिम का खतरा भी अधिक है । उल्टी और दस्त का उदाहरण लें इससे प्रतिवर्ष ५ वर्ष से कम उम्र के २० लाख बच्चें की मृत्यु होती है । पानी और सेनिटेशन की कमी इनमें से ९० प्रतिशत मोतों के लिए जिम्मेदार है । जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप पानी की कमी ब़़ढेगी । अतएव अनुमान हैं कि २०२० तक इस बीमारी में २ से १० प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है । कुपोषण से विश्व भर में प्रतिवर्ष ३२ लाख बच्चें की मृत्यु होती है और १७.८ करोड़ बच्च्े इससे प्रभावित हैं । जिन देशों में सर्वाधिक कुपोषण व्याप्त् है उनमें से कुछ हैंबांग्लादेश, इथियोपिया, भारत एवं वियतनाम तथा जलवायु परिवर्तन से इन देशों के सर्वाधिक प्रभावित होने की आशंका जताई जा रही है । इसी के साथ खाद्यान्न की उपलब्धता में कमी आएगी और उनकी कीमतें भी बढ़ेगी। इससे भी सर्वाधिक प्रभावित गरीब परिवारों के बच्च्े होंगे । आज गरीब परिवार अपनी आय का ८० प्रतिशत तक खाद्य पदार्थो पर खर्च कर रहे है । इसके बावजूद उन्हे पोषण आहार नहीं मिल पा रहा है । इसके अतिरिक्त प्राकृतिक आपदाएँ भी प्रतिवर्ष करोड़ो लोगों को प्रभावित कर रही है ओर इनकी निरंतरता से बच्चें के स्वभाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । इस प्रवृति में आगामी २० वर्षोंा में ३२० प्रतिशत की वृद्धि की आशंका है । इसके परिणाम स्वरूप प्रतिवर्ष ११.५० करोड़ बच्च्े प्रभावित होंगे । वर्तमान में पूर्वी अफ्रीका में सूखे से २.५ करोड़ व्यक्ति प्रभावित है । वहीं दक्षिण पूर्व एशिया में बाढ़ के कारण बच्चें की मौतें हो रही है । अफ्रीका में सूखे के कारण अब पशु पालन भी नहीं हो पा रहा है । ऐसे में बच्च्े सर्वाधिक कुपोषित हो रहे हैं । अस्पताल में भर्ती कर अस्थाई रूप से तो उन्हें ठीक कर लिया जाता है लेकिन दीर्घावधि में वे पुन: पूर्ववत स्थिति में पहुँच जाते हैं । पिछले दशक में पृथ्वी का १ से ३ प्रतिशत तक का भू भाग सूखे जैसी स्थितियों का शिकार हुआ है । सन् २०२० तक इसके २० प्रतिशत तक में फैल जाने की आशंका है ओर इस सदी के अंत तक यह ३० प्रतिशत तक पहुँच सकता है। इससे परिवारों की आर्थिक क्षमतापर विपरीत प्रभाव पड़ेगा । इसलिए जोखिम नियंत्रण पर विशाल निवेश के बिना यह समस्या विकराल रूप ले लेगी । अनेक शोधों से यह सिद्ध हो रहा है कि अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय एवं स्थानीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से बच्चें की मृत्युदर बढ़ रही है । इस समस्या से निपटने के लिए आवश्यक है कि बच्चें पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों का आकलन हो । इस तारतम्य में एक समाधान तो यह हो सकता है कि बच्चें की भलाई के लिए नगद वाउचर जारी किए जाएं जिससे की उनका ठीक से लालन पालन हो सके। इसी के साथ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन में बच्चें की कोई भूमिका नहीं है । परंतु वे इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं । साथ ही हमें यहाँ सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य में प्रत्येक बच्च्े को जीवित रहने के अधिकार को जलवायु परिवर्तन न छीन पाए ।***

३ विशेष लेख

भुआकृति नियोजन और पर्यावरण
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल
वर्तमान समय नियोजन का है जिसने अपनी परिस्थितियों एवं शक्तियों को जितना अच्छी प्रकार से नियोजित कर लिया वही तो विकास के प्रतिमान गढ़ता गया । स्पर्धा के इस अंधे युग में हमें भू आकृति एवं भूदृश्यों के प्रति सचेत होना ही पड़ेगा । यद्यपि भारतीय जीवन दर्शन एवं चिंतन में सुक्ष्मातिसूक्ष्म शक्तियों के नियोजन कि पुरातन और सनातन परम्पराएँ हैं । जिनके बल पर आदिम से आधुनिक के बीच भारत ने न केवल तरक्की की है वरन वह जगत गुरू भी रहा है और महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है किंतु आधुनिक काल में अमेरिका के टेनेसी घाटी परियोजना के क्रियान्वयन ने विश्व का ध्यान गतिक आकारिकी की और आकर्षित किया इसी प्रकार से भारत में दामोदर घाटी परियोजना अस्तित्व मान हुई थी । दरसल भौतिक पर्यावरण का प्रभाव मानुषी क्रियाआें एवं अनुक्रियाआें पर व्यापक रूप से पड़ता है । हम यह बात शिद्दत से जानते हैं कि बीहड़ ईलाके असामाजिक तत्वों के शरणस्थली होतेहैं । यदि इन बीहड़ एवं असुरक्षित क्षेत्रों के भूआकृति नियोजन एवं विकास पर समुचित ध्यान दिया जाए तो न केवल उर्वर धरती का उपयोगी परिक्षेत्र बढ़ाया जा सकता है वरन पर्यावरण सुधार के साथ जन जीवन को भी संवारा जा सकता है । नदियों के बेसिन पर बार बार आने वाली बाढ़ को भी नियंत्रित किया जा सकता है तथा प्राकृतिक संसाधनों को विकसित एवं परिरक्षित किया जा सकता है । भू-आकृति एवं भूदृष्य नियोजन में कुछ भौतिक एवं नैतिक जिम्मेदारियों का नियोजन भी जरूरी है आज चारो और बहुमंजिला भवनों का निर्माण तेजी से हो रहा है । मजिल पर मंजिल रखते हुए गगन की उँचाईयों को छू लेना चाहिए । हमारे बिल्डर किंतु रियल स्टेट की प्रतिस्पर्धा में तथ अतिउत्साह में वह भूकम्प के प्रति अतिसंवेदनशील इलाको में ऐसा भारी निर्माण करने की भूल कर रहे हैं । क्या वह धरती की भूगर्भित हलचलों से अंजान है । यह विचारणीय प्रश्न है अत: सरकारों के साथ-साथ सामान्यजन को भी इस दिशा में उत्तरदायी होना होगा । हिमालय के पहाड़ो पर हमने सघन वनों का विनाश किया है और अस्थिर भूमि पर कांक्रीट के जंगल खड़े करने से भी गुरेज नहीं किया है । यह चिंतनीय एवं निंदनीय है । क्यों कि कटे हुए पहाड़ का मलवा असंतुलित एवं अनियंत्रित होकर भू स्खलन बढ़ाता है । जिससे पहाड़ी नदियों में गाद भरती है एवं बाढ़ आती है । जल के प्रभाव में अवरोध खड़े हो जाते हैं नाजुक पर्वतों को खोदना आत्मघाती है । हमें पहाड़ों को काटने की बजाय वनी करण द्वारा उन्हें पेड़ों का कवच पहनाना चाहिए पहाड़ों के सरसब्ज रहने से ही नदियों का प्रवाह संतुलित रहता है । नदियों पर बड़े बाँधों का निर्माण भू-आकारिकी से खिलवाड़ ही कहा जायेगा क्यों कि प्रकृति की संतुलित शक्तियों पर जब हम अतिरिक्त बोझ लादते हैं तो प्रकृति की नियामक व्यवस्था चरमराती है और आपदा आती है ।टिहरी बाँध परियोजना के आरम्भ और अंत तथा निर्माण एवं ध्वंस के बीच अनेक द्वन्द एवं विवादों को हमने देखा तथा समझा है । नदियो पर बाँध बनाकर उनके जल का उपयोग जल विद्युत एवं सिंचाई मे करना बड़ा भुआकारिक अनुप्रयोग होता है । इससे मानुषी समाज जहाँ थोड़ा सा कुछ पाता है, वहीं बहुत कुछ खोता है । क्योंकि इसके लिए नदियों को मीलों दूर तलक अंधी सुरंग में डालकर हम उनका प्राकृतिक निर्झर रूप बदल डालते है । दरअसल हमे अलौकिक प्राकृतिक सम्पदाआें को निहित स्वार्थ में भौतिक सम्पत्ति के रूप मे देखते हैं । नदियाँ पहाड़ों से टकराकर सर्पाकार गति में बहती है तो प्रवाहित जल प्राकृतिक रूप से शुद्ध होता है किन्तु बंधन में इन नदियों की यह नैसर्गिक शक्ति समाप्त् हो जाती है । नदी की स्वभाविक गति भौतिकता के बंधन में नहीं वरन सागर में विसर्जित होने में है । भू-आकृतिक को बदलने में परिवहन की महती भूमिका होती है । विकसित परिवहन एवं संचार साधनों को किसी भी राष्ट्र की उन्नति का सूचक कहा जाता है । सड़क मार्ग, रेल मार्ग के साथ हवाई अड्डों तथा अन्य परिवहन साधनों का व्यापक विस्तार हमारे देश में भी हुआ है । अनेक महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बनी हैं किन्तु कोई भी निर्माण करने से पूर्व प्रकृति के अवदान को समझना जरूरी है। स्थलाकृति चट्टानों को प्रकृति, शैलिकी (लिथोलोजी) आदि का सम्यक ज्ञान जरूरी है ताकि निर्माण के दरम्यान कोई नई समस्या खड़ी न हो । किसी भी सड़क मार्ग का निर्माण करने में अथवा उसके चौड़ीकरण में पेड़ों का बलिदान क्या कम होता है और अब तो भौतिकता के व्यामोह में फोरलेन सड़कों का विस्तार व्यापकता से हो रहा है । क्या हमने विचार किया है कि विकास के प्रतिमान गढ़ते हुए आदमी क्या खो रहा है ? देश में खुशहाली प्रगति एवं विकास का नारा देकर कई-कई लेन वाले मार्गो का निर्माण किया जा रहा है । देश के चार महानगरों को जोड़ने वाली महत्वाकांक्षी स्वर्ण चर्तुभुज योजना अस्तित्वमान हो चुकी है । अब उत्तर प्रदेश शासन ने राज्य में गंगा एक्सप्रेस नामक महत्वाकांक्षी परियोजना का प्रस्ताव किया है । ग्रेटर नोएडा के ताज एक्सप्रेस वे से इस मार्ग का सम्पर्क होगा । यह परियोजना ग्रेटर नोएडा से गाजीपुर तक विस्तारित होगी । परियोजना का नरोरा( बुलन्दशहर) से नारायणपुर (गाजीपुर) तक ७७० किलोमीटर मार्ग गंगा के किनारे से गुजरने तथा शेष भाग उपजाऊ खेती की भूमि को अधिग्रहित करके लिया जायेगा। इस मार्ग पर भारी निर्माण कार्य होगा । सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ७० हजार हरे पेड़ों का बलिदान भी होगा । पर्यावरण विदों को परियोजना पर आपत्ति है । वास्तव में सपनीली परियोजना को अमली जामा पहनाने से पहले उसके संबंधित सभी पहलुआें पर सम्यक विचार विमर्ष जरूरी होगा । क्योंकि ऐसा विकास प्रदूषणकारी होने के साथ-साथ पर्यावरण का हास करता है इससे अधिग्रहित क्षेत्र से लोगों को भी पलायन का दर्द झेलना पड़ता है तथा जीव-जन्तुआें के प्राकृतिक निवासय नष्ट होते हैं यह प्रकृति हमारे साथ-साथ अन्य पशु-पक्षियों की भी है । धरती के गर्भ में यूँ ही हलचल चलती रहती है । फिर गंगा सरीखी पावन नदी से खिलवाड़ व्यापक भूआकारिकी दृश्यावली बदलेगा और यह सर्वथा अनुचित सिद्ध होगा । जल हमारे जीवन हेतु जरूरी तत्व हैं । प्रकृतिक दृश्यावलियों में नदियाँ, सरिताएँ, तालाब झील एवं जल प्रपात आदि स्थलाकृत जलस्रोत होते है । हिमानी एवं परिहिमानी परिक्षेत्रों मे भूजल बहुतायात में मिलता है । चूना पत्थर के पहाड़ों पर चूना की चट्टानों से प्रवाहित होता हुआ वर्षा का जल भूमिगत होता है तथा वही जल धरती से फूटकर जल प्रपात एवं जलस्रोत बनाता है किन्तु अब झीलों में गाद भराव जारी है । प्रश्न यह है कि झीलों के किनारे पर्यटक स्थलों का निमार्ण क्या कम भारी है । यही तो चिंता हमारी है कि प्रदूषण के कारण असमय मर रही । झीलें और धुंधला रही है उनकी दृष्टि तालाबों को पाटकर भूमि पर युद्धस्तर पर आवासीय उपयोग हो रहा है । नदियों के तटों पर अतिक्रमण द्वारा निर्माण जारी है । नदियाँ सूखकर सिमटती जा रही है । इस बीच नदी जोड़ परियोजना का प्रारूप भी सामने आया है किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि जब नदी स्वयं की प्यास नहीं बुझा पा रही हैं तब उनके जल को अन्यत्र जोड़ना क्या धन और श्रम का अपव्यय नहीं होगा ? क्या यह अप्राकृतिक जुड़ाव नदियों की पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण को नष्ट नहीं करेगा । क्या यह हमारे व्यवस्था तंत्र को और भी अधिक भ्रष्ट नही करेगा? विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के नाम पर आज कृषि भी सिकुड़ रही है । कृषि भूमि पर उद्योग स्थापित हो रहे हैं। कृष्य भूमि का रकबा तो घट ही रहा है वह कुपोषण का शिकार भी हो रही है । कीट नाशकों के अंधाधुंध प्रयोग (दुरूपयोग) से नशीली हो गई है धरती । उत्पादन घट गया है । खाद्यान्न कम होने से भूख एवं महंगाई हमारे सामने है । इस सूरतेहाल में कृषि के घटते रूझान पर तुरन्त चिंता एवं चिंतन करने की जरूरत हैं। विकास के नाम पर धरती का बड़ा भाग ऐश्वर्यशाली ड्रीम प्रोजेक्ट्स में लगा दिया जा रहा है । कृत्रिम भूदृश्यावलियों ने प्राकृतिक दृश्यों को नष्ट किया है । प्रकृति विन्यस्त संरचनाएं लुप्त् हो रही है । यूँ तो समय पर वर्षा भरपूर नहीं होती है किन्तु फिर भी बरसात में बाढ़ के दृश्य दिखलाई देते है इसका कारण है नदियों के तटों पर अवैध निर्माण । अनियोजित एवं अनयंत्रित निर्माण नगरों-महानगरों के जल उपवाह (ड्रेनेज) को बिगाड़ देता है। जिससे बाढ़ आती है और पानी के साथ गंदगी घरो में घुस आती है । अब तो उन स्थानों पर भी बाढ़ के दृष्य उपस्थित होने लगे हैं जहाँ यह समस्या नहीं होती थी । जल तो प्रवाह चाहता है जब हम अधिकृति रूप से जलग्रहण क्षेत्रों में अतिक्रमण करते हैं तो वह भी कहर ढाता है और जन जीवन चरमराता है । दरअसल हमने धरती के स्वरूप को बिगाड़ा है । भूआकृतियों को संवारने के नाम पर उनको विकृत कर डाला है विकास की अंधी दौड़ में हम न तो सैद्धांतिक रहें हैं और न ही व्यवहारिक रहे हैं । जबकि पर्यावरणीय प्रबन्धन एवं भूआकारिकी का विवेकपूर्ण अक्षय अनुप्रयोग पर्यावरणविदों एवं आर्थिक नीति निर्माताआें को समन्वय से करनी चाहिए । भौतिक्तावादियों को अपने विरोधाभासी अंतर को कम करना चाहिए । भूविदों के अनुसार भी पर्यावरण सम्मत भूआकारिक के अंतर्गत प्राकृतिक प्रकमों, मानुषी क्रियाकलापोंके तथा इन क्रिया कलापो के अध्यययन एवं इन पर्यावरणीय प्रकरणों पर प्रभाव जनित समस्याआें के निदान में सहायता मिलती है । दरअसल हम प्रकृति को अनुचरी समझने के अपने अहं भाव के कारण अपदाआें से हारते है । संसाधन विदोहन पर्यावरण प्रबन्धन तथा नियोजन के द्वारा हमें भूकृतिकी के व्यवहार मेंढलना होगा तभी हम अपने विकास और विनाश और विनाश के अंतर को समझ सकेंगे । संसाधनों का मूल्य समझ सकेंगे तथा जीवन में नियोजित रहेंगे अन्यथा बाढ़, सूखा, भूस्खलन ज्वालामुखी विस्फोट भूकम्प, सुनामी और तूफान हमें सताते और सचेत करते रहेंगे ताकि हम पर्यावरणीय भू-आकृति नियोजन की अर्थवत्ता को समझकर तदरूप आचरण कर सकें ।***
खतरे में चिड़ियों का अस्तित्व
आंख खुलते ही अपने घर की मुंडेर या पड़ौसी के छज्जे परचीं-चीं करती चिड़ियों के झुंड अब दिखाई नहीं देते । कभी कभार आसमान में उड़ती इक्का दुक्का चिड़िया नजर आती हैं, लेकिन चिड़ियों की कई प्रजातियां लुप्त् होने के कगार पर हैं और कोई आश्चर्य नहीं कि निकट भविष्य में चिड़ियेंा की चहचहाहट कभी सुनाई नहीं पड़े । इंसानी आबादी के पास रहने वाली गौरेया और नीलकंठ लगभग खत्म हो चुके हैं जबकि मैना, बुलबुल, तीतर, हरी और स्लेटी सिर वाली फुदकी एवं फिन बया धीरे - धीरे लुप्त् होती जा रही है । इसका कारण घरों में घोंसले की जगह न होना और चारागाहों का खत्म होना है । फसलों पर अत्यधिक कीटनाशकों के प्रयोग के कारण भी पक्षी लुप्त होते जा रहे हैं । ऊंचे स्थानेां पर रहने वाले पक्षियों की प्रजातियों पर भी संकट कम नहीं है । वहां रहने वाली हार्नबिल, कठफोड़वा, फेंकोलिन, मिनी बेड्स, आदि पर भी अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है ।