शनिवार, 21 जुलाई 2007

११ शिक्षा जगत

११ शिक्षा जगत

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और उच्च् शिक्षा में सुधार
डॉ. आर.पी. गुप्त

हमारे देश की उच्च् शिक्षा, स्थापित आदर्शो और बदलती परिस्थितियों के अनुरूप समायोजन के अभाव के कारण, राष्ट्रीय विकास में समुचित भूमिका अदा करने में असमर्थ होती जा रही थी ।

देश के उद्योगपतियों का कहना है कि शिक्षा के निम्न स्तर के कारण केवल ५० प्रतिशत स्नातक ही समुचित योग्यता वाले होते हैं। देश में शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या भी बाज़ार की ज़रूरतों और शिक्षा के बीच तालमेल के अभाव की ओर संकेत कर रही थी । उदारीकरण की नीतियां अपनाए जाने के बाद शिक्षा में निजी निवेश में भारी वृद्धि तो हुई परन्तु निवेशकों की मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के कारण और समुचित नियमन के अभाव में निजी क्षेत्र द्वारा दी जाने वाली व्यावसायिक शिक्षा आम विद्यार्थी की पहुंच से बाहर होती जा रही थी । सरकार भी लागत वसूली के सिद्धांत को अपना कर फीस में मनमानी वृद्धि कर रही थी । पिछले वर्षो में किए गए अनेक अध्ययन भी उच्च् शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती विकृतियों को उजागर कर रहे थे । ऐसे में सरकार ने देश में उच्च् शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर विचार करने तथा उसमें व्याप्त् विकृतियों को दूर करने तथा उसके भावी स्वरूप के बारे में सुझाव देने के उद्देश्य से सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की स्थापना की थी आयोग ने कुछ माह पूर्व अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है ।

आयोग का अनुमान था कि इस समय देश में १८-२४ वर्ष आयु वर्ग की आबादी का ७ प्रतिशत भाग उच्च् शिक्षण संस्थाआें में अध्ययनरत है और सन २०१५ तक यह १५६ प्रतिशत तक पहुंच जाएगा । इस तरह आयोग ने सन २०१५ तक छात्रों की संख्या दुगनी होने का अनुमान लगाया है । परन्तु राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण तथा अन्य स्त्रोतों के आंकड़े बताते हैं कि इस समय उच्च् शिक्षण संस्थाआें में ९.१० करोड़ विद्यार्थी अध्ययनरत हैं जो १८-२४ वर्ष की आयु वर्ग की आबादी के १० प्रतिशत के बराबर है ।

छात्र संख्या और उसमें वृद्धि के गलत अनुमान इस बात का प्रतीक हैं कि आयोग ने अपना होमवर्क समुचित ढंग से नहीं किया हैं । छात्र संख्या दुगनी होने के अनुमान के आधार पर आयोग ने विश्वविद्यालय की संख्या वर्तमान ३६८ से बढ़ाकर १५०० करने का सुझाव दिया है । विद्यार्थियों की दुगनी संख्या के लिए विश्वविद्यालयों की संख्या में चार गुनी वृद्धि का सुझाव यह बताता है कि आयोग छोटे-छोटे विश्वविद्यालयों का पक्षपाती है । परन्तु इस क्षेत्र में विश्वभर का अनुभव कहता है कि ज्ञान की विविध शाखाआें की शिक्षा देने वाले तथा छात्रों एवं शिक्षकों की विशाल संख्या वाले विश्वविद्यालय ही ज्ञान के प्रसार एवं विकास का बेहतर वातावरण प्रदान करते हैं । विशाल पुस्तकालयों एवं सर्वसुविधा सम्पन्न प्रयोगशालाआें की व्यवस्था भी वहीं संभव होती हैं ।

भारत में वर्तमान में विश्वविद्यालयों के आकार में अत्यधिक विषमता है । जहां जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एवं विश्व भारती में ६००० के करीब विद्यार्थी अध्ययनरत हैं, वहीं मिज़ोरम विश्वविद्यालय में मात्र ६२६ और बाबा साहब अम्बेडकर विश्वविद्यालय में २८० विद्यार्थी ही हैं । एकल विषय केन्द्रित कुछ अन्य विश्वविद्यालयों में छात्र संख्या इससे भी कम है । इन छोटे-छोटे विश्वविद्यालय का विकास संसाधनों के अभाव में अवरूद्ध है । ऐसे में आयोग द्वारा सुझाव आश्चर्यजनक है । अगर अमेरिका की बात करें तो वहां २५ से ४० हज़ार छात्र संख्या वाले कई िशिववद्यालय हैं ।

भारत में संबंद्ध महाविद्यालयों की प्रणाली विश्वविद्यालयों के विकास में बाधक मानी जाती हैं । विश्वविद्यालयों की अधिकतर शक्ति इन महाविद्यालयों की विशाल छात्र संख्या के लिए परीक्षाएं आयोजित करने में चुक जाती है और वे शिक्षा, अनुसंधान आदि पर समुचित ध्यान नहीं दे पाते हैं । विश्वविद्यालयों को संबंद्ध महाविद्यालयों की समस्या से मुक्ति दिलाने के लिए आयोग ने इन महाविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की सिफारिश की है । अगर संसाधनों के अभाव के कारण किसी एक महाविद्यालय को स्वायत्तता प्रदान करना संभव न हो तो आयोग का सुझाव है कि किसी एक क्षेत्र के महाविद्यालयों को सामूहिक स्वायत्तता प्रदान की जा सकती हे । ये सुझाव काल्पनिक और व्यावहारिक ही लगते हैं ।

हमारे देश में स्नातक स्तर के ८५ प्रतिशत विद्यार्थी महाविद्यालयों में पढ़तेहैं। ऐसे में स्नातक स्तर की शिक्षा के उन्नयन को सर्वोच्च् प्राथमिकता दी जानी थी । आयोग ने महाविद्यालयों में अध्ययनरत विद्यार्थियों की परीक्षाआें के लिए राज्य स्तरीक मण्डलों के गठन का सुझाव दिया है ताकि विश्वविद्यालयों को इस दायित्व से मुक्त किया जा सके । स्नातक स्तर की शिक्षा और उसके नियमन के लिए इन सुझावों का दूरगामी प्रभाव होगा । एक ओर तो महाविद्यालयों को आवश्यक स्वायत्तता मिलेगी, वहीं क्षेत्रीय सहयोग भी बढ़ेगा ।

ज्ञान आयोग का सुझाव है कि उच्च् शिक्षा पर व्यय को राष्ट्रीय आय के १.५ प्रतिशत के बराबर करना चाहिए । इस समय देश में उच्च् शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का मात्र ०.४२ प्रतिशत भाग ही खर्च होता है । अत: अगले ६-८ वर्ष में इसमें ३-४ गुनी वृद्धि कैसे की जा सकेगी, इस बारे में आयोग ने समुचित सुझाव नहीं दिये हैं । इन दिनों हमारे प्रधानमंत्री एवं अन्य राजनेता भारत को ज्ञान आधारित मानव शक्ति के बड़े स्त्रोत के रूम में विकसित करने की बात तो करते हैं, परन्तु जब शिक्षा पर बजट में वृद्धि का प्रश्न आता है तो कंजूसी बरतने लगते हैं ।

आयोग का सुझाव है कि उच्च् शिक्षण संस्थाआें को अपने व्यय का २० प्रतिशत भाग छात्रों से फीस के रूप में वसूल करना चाहिए । विकसित एवं अधिकांश विकासशील राष्ट्रों में यह प्रतिशत १५ के आसपास है । भारत जैसे राष्ट्र में, जहां अधिकांश लोगों के लिए अपने बच्चें को उच्च् शिक्षा दिलाना संभव नहीं है, वहां इस प्रतिशत को और ऊंचा रखने का अर्थ बहुसंख्यक आबादी को उच्च् शिक्षा से वंचित रखना होगा ।

देश में आय वितरण की बढ़ती विषमता की पृष्ठभूमि में इस फीस वृद्धि के सुझाव के दूरगामी दुष्प्रभाव हो सकते हैं। आयोग का कहना है कि गरीब विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति एवं बैंकों से ऋण उपलब्ध कराए जा सकते हैं । परन्तु इस दिशा में अब तक का अनुभव आश्वस्त नहीं करता। बैंकों ने शिक्षा ऋण प्रदान करने की दिशा में कोई उत्साह नहीं दिखाया है; अभी तक २-३ प्रतिशत छात्र ही शिक्षा हेतु ऋण प्राप्त् करने में सफल रहे हैं ।

ज्ञान आयोग ने उच्च् शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता को देखते हुए अनेक सुझाव दिए हैं । अधिकांश सुझाव सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षण संस्थाआें के बारे में हैं । इन दिनों तो अधिकांश विस्तार निजी क्षेत्र में हो रहा है- आज ८५ प्रतिशत इंजीनियरिंग कॉलेज और ४० प्रतिशत मेडिकल कॉलेज निजी हैं । स्वयं आयोग भी निजीकरण का ही अधिक पक्षपाती लगता है । वर्तमान में कॉलेजों की औसत छात्र संख्या ६०० के लगभग होने से वे आर्थिक दृष्टि से सक्षम नहीं हैं । फिर अधिकांश कॉलेज निजी प्रबंधन के अंतर्गत हैं, भले ही उन्हें शासन से अनुदान मिल रहा हो, इनके स्तर सुधारने के मार्ग में वित्त प्रमुख बाधा के रूप में सामने आता है ।

व्यावसायिक कॉलेजों के संदर्भ में स्थिति कुछ भिन्न है । शासन द्वारा नियमन के बावजूद अनेक कॉलेज छात्रों से मनमानी फीस वसूल रहे हैं । इनमें समुचित योग्यता एवं अनुभव वाले शिक्षकों की भी कमी रहती हैं । आयोग को इन छोटे-छोटे कॉलेजों की समस्याआें पर अधिक ध्यान देना था ।

आयोग ने विभिन्न विश्वविद्यालयों के बीच वेतन में थोड़े अंतर की भी सिफारिश की है ताकि प्रतिभाशाली शिक्षकों को आकर्षित किया जा सके, उन्हें जाने से रोका जा सके । अब हमारी मान्यता यह रही है कि कम वेतन के बावजूद प्रतिभाएं शिक्षण के प्रति प्रेम के चलते शिक्षा के क्षेत्र में बनी रहेंगी । आयोग ने प्रतिभाशाली व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए शिक्षण संस्थाआें में भी बेहतर और अधिक वेतन की सिफारिश की है ।

ज्ञान आयोग ने सार्वजनिक क्षेत्र के विश्वविद्यालयों के सुधार हेतु अनेक सुझाव दिये हैं । इस समय देश में ९०० के करीब निजी िशिववद्यालय हैं । जैसा कि ऊपर कहा गया था, आयोग बेहतर गुणवत्ता की शिक्षा हेतु छोटे विश्वविद्यालयों की स्थापना का पक्षपाती है यद्यपि दुनियाभर का अनुभव इसके ठीक वितरीत है । इसके अलावा उच्च् शिक्षा प्राप्त् कर रहे अधिकांश छात्र महाविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त् कर रहे हैं जिनमें संसाधनों का घोर अभाव है । परन्तु आयोग ने इस पहलू पर समुचित ध्यान नहीं दिया है ।

कुल मिलाकर राष्ट्रीय ज्ञान आयोग उच्च् शिक्षा की वर्तमान विकृतियों के परिप्रेक्ष्य में समुचित सुझाव देने के दायित्व का निर्वाह नहीं कर पाया है । निजी क्षेत्र के विस्तार के साथ शिक्षा की गुणवत्ता कैसे कायम रखी जाए, इस दिशा में ज्ञान आयोग न तो वर्तमान परिस्थिति का समुचित विश्लेषण प्रस्तुत कर सका है, न ही समुचित प्रमाणों के साथ सिफारिशें प्रस्तुत कर सका है ।

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