शनिवार, 21 जुलाई 2007

८ प्रकृति संरक्षण

कैसे बचाएं वनस्पतियों को
गोविंदसामी अगोरामूर्ति
सहस्त्राब्दि पारिस्थितिकी तंत्र आकलन (मिलेनियम इकोसिस्टम असेसमेंट) के अनुसार हाल के दिनों में विश्व के पर्यावरण और इकोसिस्टम को गंभीर क्षति पहुंची है । यह आकलन दुनियाभर में १३६० वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों ने पेश किया है । इकोसिस्टम दुनिया के लोगों को २४ अति आवश्यक सेवाएं प्रदान करता है । इनमें मीठा जल, खाद्य सामग्री, वातावरण व शुद्ध वायु का नियमन इत्यादि शामिल हैं । आकलन के अनुसार इन सेवाआे में से १५ यानी ६२.५ फीसदी में बुरी तरह से गिरावट आई है । इसके अलावा विश्व संरक्षण संघ ने अपने आकलन में वैश्विक वनस्पति विविधिता को लेकर जो आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, वे भी गंभीर स्थिति की ओर संकेत करते हैं। इसमें जिन ७० फीसदी पौधों का आकलन किया गया है, उनमें से ४५ फीसदी खतरे या अत्यधिक खतरे में हैं । इकॉलॉजी की दृष्टि से भारत विश्व के उन २५ स्थानों में शामिल है, जो प्राकृतिक संपदा से सम्पन्न है । जंतु व पादप विविधता के मामले में भी इसका कोई सानी नहीं है । लेकिन साथ ही इस प्राकृतिक संपदा पर खतरा भी मंडरा रहा है । यहां वन्य प्राणियों जैसे हाथी, शेर, बाघ, गैंडा इत्यादि के संरक्षण पर काफी ध्यान दिया जाता रहा है, लेकिन वनस्पतियां अक्सर उपेक्षित ही रही हैं । यह सर्वविदित है कि पेड़-पौधे इस धरती पर जीवन को गतिशील रखने में अहम भूमिका निभाते हैं । वे सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण कर मनुष्यों सहित समस्त प्राणियों के लिए भोजन का मुख्य स्त्रोत हैं । जीने के लिए जो सांस हम लेते हैं, उसकी गुणवत्ता सुधारने का काम भी ये पेड़-पौधे ही करते हैं । इसके बावजूद लोग पशु-पक्षियों के प्रति ही आकर्षित होते हैं और उन्हीं पर अपनी जान छिड़कते हैं, जबकि पेड़-पौधों को नज़र अंदाज़ किए रहते हैं। ऐसा क्यों ? इसकी भी वैज्ञानिक वजह है । तथ्य यह है कि हम अपने आसपास मौजूद सभी चीजों को एक ही नज़र से नहीं देखते हैं । आंखो से ० से लेकर १५ डिग्री नीचे तक की वस्तुएं ज़्यादा ध्यान खींचती हैं । शोधकर्ताआें द्वारा की गई गणनाआे के अनुसार हर एक सेकंड में आंखें एक करोड़ बिट्स से अधिक दृश्य संकेत उत्पन्न करती है, लेकिन मस्तिष्क उनमें से केवल ४० बिट्स को ग्रहण कर पाता है । इनमें से भी हमारी चेतना तक तो मजह १६ बिट्स ही पहुंच पाते हैं । आम तौर पर मस्तिष्क गतिशील, रंगीन और संभावित खतरे वाली वस्तुआे के प्रति अधिक संवेदनशील होता हैं । पेड़-पौधे प्राय: स्थिर रहते हैं, उनका रंग भी पृष्ठभूमि के साथ एकाकार-सा हो जाता है और वे कभी-कभार ही हमारे लिए कोई खतरा उत्पन्न करते हैं । इसलिए वे हमारी आंखों का ध्यान नहीं खींच पाते। इसी का नतीजा है कि पेड़-पौधों के प्रति हम उदासीन बने रहते हैं । इसलिए यह ज़रूरी है कि हम वनस्पतियों के संरक्षण को लेकर जागरूक हों । भारत में पादप एंडेमिज़्म ३३ फीसदी आंका गया है । एंडेमिज़्म का मतलब होता है वे प्रजातियां जो मात्र उसी इलाके में पाई जाएं । हमारे देश में १४० ऐसे पादप कुल हैं जो सिर्फ यहीं पाए जाते हैं । उत्तर-पूर्व, पश्चिमी घाट, उत्तर-पश्चिम और पूर्वी हिमालय के जंगलोंमें एंडेमिक वनस्पतियां भरी पड़ी हैं । इसके अलावा अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में भी ऐसी वनस्पतियां बहुतायत में पाई जाती हैं । इस द्वीप समूह में वनस्पतियों बहुतायत में पाई जाती है । इस द्वीप समूह में वनस्पतियों की कम से कम २२० एंडेमिक प्रजातियां पाई जाती हैं । पूरी दुनिया की कुल पुष्पधारी पादप विविधता में से ६ फीसदी अकेले भारत में मिलती हैं । संख्या के हिसाब से ये करीब १५ हजार प्रजातियां होती हैं । आज इन वनस्पतियों के सामने कई प्रकार के खतरे हैं । इनमें उनके प्राकृतवास के नष्ट होने, जैविक घुसपैइ, व्यावसायिक दोहन और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से पैदा हुआ प्रदूषण प्रमुख हैं। ये खतरे केवल भारत में ही नहीं, बल्कि हर जगह हें । जैव विविधता और अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर की वजह से जैविक घुसपैठ प्रमुख पर्यावरणीय चिंता बन गया है । ऐसा कोई विज्ञान नहीं है जिससे पूर्वानुमान लगाया जा सके कि कौन-सी वनस्पति `जैविक घुसपैठिया' साबित होगी । जैव विविधता पर आयोजित सम्मेलनों में विशेषज्ञों ने ऐसे तंत्र का विकास करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है जिससे जैविक घुसपैठ जैसी समस्या से निपटा जा सके । जोखिमग्रस्त स्थानीय वनस्पतियों के बचाव के लिये कुछ आसान कदम उठाए जा सकते हैं । अपने वातावरण में वनस्पतियों की उपस्थिति को महसूस करने की असमर्थता की वजह से ही दैनिक जीवन में पेड़-पौधों को उनका वाजिब महत्व नहीं मिल पाता है । इससे हम पेड़-पौधों की सुंदरता और जैविक विशेषताआे को अनुभव करने से भी चूक जाते हैं । हमें चाहिए कि हम बच्चें को पौधे लगाने को प्रेरित करें और उन्हें यह महसूस करवाएं कि मानव जीवन वनस्पतियों पर ही निर्भर है । एंडेमिक पेड़-पौधों के संरक्षण के लिए गांवों, कस्बों और शहरों में पौध संरक्षण परियोजनाएँ शुरू की जा सकती हैं। स्थानीय स्तर पर गठित समितियाँ लोगों में जनजागृति पैदा कर सकती हैं । इसके अलावा उन सार्वजनिक स्थलों का संरक्षण किया जाना चाहिए जहां स्थानीय जड़ी-बुटियां और पेड़-पौधे लगे होते हैं । यहां से जैविक घुसपैठियों को खदेड़ दिया जाना चाहिए, यानी ऐसे पौधों को नष्ट कर दिया जाना उचित होगा जिनकी जैविक घुसपैठिया बनने की तनिक-सी भी आशंका हो । घुसपैठी पौधों से भारत में कितना आर्थिक नुकसान होता है, इसका ठीक-ठाक आंकड़ा तो अभी उपलब्ध नहीं है । इसलिए भविष्य के अनुसंधानों में इस मुद्दे पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए । इस संबंध में भारत में दुर्लभ या विलुप्त्प्राय वनस्पतियों की संख्या, उनका वितरण और इकॉलॉजी पर नजर रखने के लिए भी अनुसंधान की जरूरत है । स्थानीय स्तर पर पौधों को संरक्षण देकर और कानूनी सुरक्षा मुहैया करवाकर भी हम इस दिशा में काफी कुछ कर सकते हैं ।

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