सोमवार, 23 जुलाई 2007

1 सामयिक

वनों से बेदखत होते वन गुज्जर
अर्ची रस्तोगी
मई के प्रथम सप्तह में जब वन गुज्जर उत्तरांचल के उत्तरकाशी जिले में अपने ग्रीष्मकालीन घरों की ओर जाने लगे तब देहरादून के निकट विकासनगर के नजदीक पहँुचकर उन्हें पता चला कि अगले साल वे अपने ग्रीष्मकालीन घरों में नहीं जा सकेंगे । सूचना के अधिकार के तहत दिए गए एक आवेदन के जवाब में यह जानकारी मिली कि वन विभाग ने अपने निर्णय से पलटते हुए गुज्जरों को राज्य में उनके ग्रीष्मकालीन घरों में जाने की अनुमति इस वर्ष के लिए तो दे दी है, मगर अगले वर्ष वे उत्तरांचल के जंगल में प्रवेश नहीं कर सकेंगे । वन गुज्जर पारंपरिक खानाबदोश हैं जो गर्मियों का मौसम आते ही अपनी भेड़ बकरियों और अन्य पशुआें के साथ हिमालय के ऊँचे पर्वतों पर चले जाते हैं और शीत ऋतु में उत्तरप्रदेश की निचली शिवालिक पर्वत श्रेणियों में उतर आते हैं। उनका ग्रीष्मकालीन निवास उत्तराकाशी जिले में गोविन्द राष्ट्रीय उद्यान में होता है और उससे लगे हुए गोविन्द वन्य जीव अभ्यारण्य में जाने की उन्हें अस्थाई अनुमति भी मिल जाती थी । राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के निदेशक जो गोविन्द वन्यजीव उद्यान के प्रभारी हैं के अनुसार - ''उत्तरप्रदेश से आने वाले परिवारों को हम इस वर्ष तो अनुमति दे रहें हैं, मगर अगले वर्ष उन्हें अनुमति नहीं दी जायेगी ।'' वन गुज्जरों के साथ काम करने वाले देहरादून स्थित एक स्वयंसेवी संगठन ''सोसायटी फॉर प्रमोशन ऑफ हिमालयन इंडिजिनस एक्टीविटीस'' ने ही सूचना के अधिकार के तहत आवेदन दिया था । सोसायटी के निदेशक प्रवीण कौशल मण्टो ने बताया कि अनुमति पत्र २५ अप्रैल २००७ को जारी किया गया है । किन्तु प्रवीण कौशल को वन विभाग से अपने पत्र का जवाब मिलने अर्थात ३० अप्रैल तक वन गुज्जरों को इसकी कोई जानकारी नहीं थी । वन गुज्जरों का इतिहास बताते हुए कौशल कहते हैं, ''शिवालिक में वे छंटाई कर (भेड़ों के चारे के लिए पेड़ की टहनियों की छंटाई के एवज मेंदिया जाने वाला शुल्क) और गोविन्द वन्य जीव अभ्यारण्य में चराई कर चुकाते हैं । इनका भुगतान करने के बाद ही उन्हें अनुमति - (प्रवेश का कानूनी दस्तावेज) - प्रदान की जाती है । सन् १९३७ से इनके पास परमिट है।'' सन् १९३७ में १२ वन गुज्जर परिवारांे को परमिट दिया गया था और अब इनकी संख्या बढ़कर १०० एकल परिवारों जितनी हो गई है, जबकि परमिटों की संख्या १२ ही बनी हुई है । इस वर्ष अप्रैल में जब १२ परमिट धारक (कुल १०० से अधिक एकल परिवार) वन विभाग से हर वर्ष की तरह अनुमति लेने गये तो उन्हें मना कर दिया गया । उल्फा नामक एक वन गुज्जर का प्रश्न है ''इस साल जब हम शिवालिक के पहाड़ों से लौट रहे थे तो अधिकारियों ने हमें यह लिखकर देने को कहा था कि अगली बार हम वापस नहीं आएं । मगर जब तक हमारी वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होती तब तक हम कहाँ जाएँ ? इस प्रकार की अफवाहों के परिणाम स्वरूप गोविन्द वन्यजीव अभ्यारण्य की ओर जा रहे लगभग १०० परिवार भी रास्ते में रूक गए । एक अन्य वन गुज्जर, रोशन ने बताया ''अपने मवेशियों के साथ पहाड़ों में रूके रहना आसान नहीं है ।'' अनुमति मिलने में हो रही देरी के कारण वे अपने साथ जो चारा लेकर चले थे वह खत्म होने लगा है । उल्फा ने बताया ''हमें पास के गांवों से चारा खरीदना पड़ रहा है। जब चारे की मांग बढ़ गई तो गांव के दुकानदारों ने उसके दाम भी बढ़ा दिए । दुकानदारों ने चारे के चार बोरे लगभग १००० रूपये में दिए । भैसों को गर्भपात हो रहा है । बछड़े और हमारे बच्च्े बीमार हो रहे हैं । आदतन ठंडे स्थानों पर रहने से उनको गर्मी सहन नहीं हो पा रही है ।'' अन्य गुज्जरों ने भी इसका समर्थन किया। इसके पूर्व जून २००३ में उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) के प्रधान वन संरक्षक द्वारा जारी एक स्थाई आदेश में कहा गया था कि अनुमति प्राप्त् करने के लिए वन गुज्जरों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, इसलिए प्रक्रिया को सरल बनाना चाहिए । मगर सितम्बर २००६ में एक नया आदेश जारी हुआ । इसमें कहा गया कि वन गुज्जरों ने गोविन्द राष्ट्रीय वन उद्यान में वापस न लौटने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए हैं । उद्यान के अधिकारियों का कहना था कि १२ परमिट धारकों की संख्या बढ़कर १०० से ज्यादा एकल परिवार तक पहँुच जाने के कारण जंगल पर दबाव बहुत बढ़ गया है । उनका कहना है कि वर्तमान में राज्य सरकार के पास गुज्जरों के पुनर्वास की कोई योजना नहीं है। इस पर गुज्जरों का कहना है कि, ''उनके पास कोई विशेषज्ञता अथवा कौशल नहीं है, वो मजदूर भी नहीं है, इसलिए उन्हें धीरे-धीरे बसाना होगा ।'' किन्तु प्रमुख वन्यजीव संरक्षक ने स्पष्ट कहा है कि वन गुज्जरों ने लिखकर दिया है कि अगले साल वह नहीं लौटेंगे । लेकिन इसके बाद प्रदेश के मुख्य प्रमुख वन्यजीव संरक्षक टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं हुए । निक्का कासना नाम का वन गुज्जर वर्तमान स्थिति पर अपनी दृष्टि स्पष्ट करते हुए कहता है, `टकराव टल गया है, लेकिन सिर्फ हमारे दोबारा लौटने तक ।'

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