सोमवार, 23 जुलाई 2007

४ स्वास्थ्य

असफल औषधि नीति और बढ़ती कीमतें
राम प्रताप गुप्त
भारत में कुल चिकित्सा व्यय का लगभग दो तिहाई भाग दवाआं पर खर्च होता है । शासकीय अस्पतालों में जाने वाले तथा भर्ती होने वाले मरीजों को भी चिकित्सकों द्वारा लिखी दवाआे के बड़े भाग को बाजार से ही क्रय करना पड़ता है । अत: इस बात का बड़ा महत्व है कि मरीजों को वाजिब मूल्य पर विश्वसनीय दवाएं उपलब्ध हों । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए दवाआे के मूल्य पर सरकारी नियंत्रण आवश्यक माना जाता है । यही कारण हैं कि यूरोप के संपन्न १६ में से १२ राष्ट्रों में सरकारें दवाआे की कीमतों पर नियंत्रण रखती हैं । भारत जहां कि बहुसंख्यक आबादी गरीब है और सार्वजनिक चिकित्सा सुविधाआे की भूमिका भी सीमित है, वहां आम आदमी को उचित कीमतों पर दवाएं उपलब्ध कराने के लिए यह आवश्यक है कि उनकी कीमतोंे पर सरकार का प्रभावी नियंत्रण हो। उदारीकरण की नीतियों के पुर्व यहां यह स्थिति विद्यमान भी थी । सन् १९७९में आवश्यक समझी जाने वाला ३४७ दवाआे की कीमतों पर सरकार का प्रभावी नियंत्रण था । बाद में उदारीकरण के दौर में शनै: शनै: दवाआे को मुल्य नियंत्रण कानून से मुक्त किया जाता रहा और इसके परिणाम स्वरूप सन् १९९५ में दवा कीमत नियंत्रण कानून के अंतर्गत दवाआे की संख्या गिरकर मात्र ७६ ही रह गई । सन् २००२ में अगर सर्वोच्च् न्यायालय राष्ट्रीय दवा नीति नियंत्रण अधिनियम को अवैध घोषित नहीं कर देता तो औषधि मूल्य नियंत्रण कानून के अधिकार क्षेत्र में दवाआे की संख्या घटकर ३०-३२ ही रह जाती। पिछले वर्षों में हमारी सरकार भले ही दवाआे को मूल्य नियंत्रण कानून से मुक्त करने की नीति अपनाती रही हो परन्तु इसी अवधि में स्थापित विभिन्न समितियों द्वारा दवाआे की कीमतों पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता प्रतिपादित की जाती रही हैं । उदाहरण के लिए सन् १९९९ में नियुक्त औषधि मूल्य पुनरीक्षण समिति,मेक्रो इकॉनोमिक्स एवं स्वास्थ्य आयोग सन् २००४ और योजना आयोग द्वारा सन् २००५ में नियुक्त प्रणब सेन समिति, सभी ने आम आदमी के उपयोग की दवाआे को मूल्य नियंत्रण कानून में रखने की सिफारिश की थी । सर्वोच्च् न्यायालय ने भी सरकार को मूल्य नियंत्रण कानून की सीमा में लाई जाने के पूर्व आवश्यक दवाआे की सूची प्रकाशित करने को कहा था । अत: सन् २००३ में सरकार ने आवश्यक दवाआे की सूची प्रकाशित की जिसमें ३५४ दवाएं शामिल थीं । प्रणब सेन समिति ने इन सभी ३५४ दवाआे को मूल्य नियंत्रण कानून के अंतर्गत रखने की सिफारिश की थी । ये सब सिफारिशें न तो उदारीकरण की पक्षधर सरकार को और न ही दवा उद्योग को रास आ रही थीं । ऐसे में दवाआें को औषधि मूल्य नियंत्रण कानून से मुक्त रखने के उद्देश्य से सरकार ने जो १२ सदस्यीय समिति नियुक्त की उस सिमति में न तो स्वास्थ्य मंत्रालय का और न ही इस क्षेत्र में कार्यरत् जनसंगठनों का कोई प्रतिनिधि शामिल किया गया । समिति ने अपनी सिफारिशें देने के पूर्व केवल दवा उत्पादकों के संगठन से विचार विमर्श किया था । इन एकांगी परागर्शोके आधार पर प्रदत्त सिफारिशें भी स्वाभाविक रूप से केवल कुछ हितों को ही समाहित करने वाली थीं । इन्हीं परामर्शो के आधार पर रसायन और उर्वरक मंत्री राम विलास पासवान ने ८८६ दवाआे की सूची प्रकाशित की जिनकी कीमतों को कम करने के लिए दवा निर्माता तैयार थे । इन ८८६ दवाआे में से कुछ तो अलग अलग अनुपात में मिलाई गई उन्हीं दवाआे के सम्मिश्रण भर थे । वास्तव में तो दवा उद्योग ने ४९९ ब्राण्ड की दवाआे की कीमतों में कमी की सहमति दी थी । जिन दवाआे की कीमतें कम की गई थी उनका कुल बाजार १५०० करोड़ का ही था जो कि कुल औषधि बाजार का मात्र ६ प्रतिशत हे । इसका अर्थ यह हुआ कि ९४ प्रतिशत दवाईयों की कीमतों में कमी को इन प्रयासों से अलग रखा गया था । घटी कीमत की अधिकांश दवाएं वो थीं जिनकी बाजार में बहुत कम मांग थी । दवा कंपनियों ने अपनी सर्वाधिक बिकने वाली दवाआें की कीमत में कमी न कर मात्र छोटे-मोटे ब्राण्ड की दवाआे के मूल्य में ही कमी की है । उपभोक्ताआे के साथ की गई इस धोखाधड़ी का एक स्पष्ट उदाहरण है ल्यूपिन कंपनी को जोकि तपेदिक की चिकित्सा में प्रयुक्त दवा कोम्बुटोल की सबसे बड़ी कंपनी रेनबेक्सी ने चिकित्सकों के मध्य अत्यंत लोकप्रिय उसकी एंटीबायोटिक दवा की कीमत में भी कोई कमी नहीं की । देश में दवा निर्माताआे की संख्या ५८७७ है, उनमें से मात्र ११ निर्माताआे ने वह भी अपनी कम बिकने वाली दवाआे की कीमतें कम की । परिणाम यह हुआ कि आम आदमी को दवा की कीमतों में कमी के इस प्रयास से कहीं किसी प्रकार को कोई लाभ नहीं पहंचा और सारी कवायद आंकड़ों तक ही सीमित रही । सरकार और दवा उत्पादकों के इन दिखाऊ प्रयासों का दवा बाजार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। आज भी मूल्य नियंत्रण से मुक्त दवा बाजार में अलग-अलग कंपनियों द्वारा एक ही दवा की ली जाने वाली कीमत में कई गुना अंतर पाया जाता है । इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार है :- १. एलर्जीके लिए बहुतायत से प्रयुक्त केडिला एंव सिटीमेड कंपनियों द्वारा उत्पादित दवा सेट्रिजीन की १० गोलियों की कीमत १०.६० रूपए है जो इनके द्वारा कम की गई है । यह कम की गई कीमत भी बड़ौदा के एक गैर व्यावसायिक उत्पादक लोकोस्ट की कीमत से ४ गुना अधिक है । राज्य सरकारों द्वारा थोक में जिस कीमत पर यह दवा खरीदी जाती है, उसमें तथा इस कम की गई कीमत में तो और भी अधिक अंतर है। २. वोकॉर्ड एवं अन्य कंपनी ने अपनी एंटीबायोटिक दवा की १० गोली की कीमत को कम करके ११८.१६ रूपए कर दिया । जबकि यही गोलियां तमिलनाडु की सरकार को थोक मात्र ८.६९ रूपए में दी जा रही थी । ३. रेनबक्सी कंपनी ने अपनी तपेदिक की चिकित्सा में प्रयुक्त दवा इथमबूटोल की १० गोलियों की कीमत को कम करके २६.४६ रूपए कर दिया। जबकि इसकी सर्वाधिक बिक्री करने वाली ल्पूपिन कंपनी द्वारा इस दवा की कीमत में कोई कमी नहीं की गई । ४. रेनबेक्सी कंपनी ने उच्च् रक्तचाप में प्रयुक्त होने वाली एटीनीनोल की १० गोली की कीमत कम करके १७.९० रूपए कर दी, परंतु जाइडस कंपनी जो इस औषधि की सर्वाधिक बिकी करती हे, ने इसकी कीमत में कोई कमी नहीं की। उपरोक्त उदाहरणों से निम्न निष्कर्ष निकलते है: दवा कंपनियों ने आपसी मिलीभगत से उन्हीं ब्राण्डों की कीमतें कम की जो कि कम बिकते थे एवं सर्वाधिक बिकने वाले ब्राण्डों के मूल्योंको यथावत रखा गया था । इस तरह कीमत कम की जाने वाली दवाआें की सूची तो लंबी होती गई, परंतु इस सूची में सर्वाधिक बिकने वाले ब्राण्ड शामिल न होने से न तो जनता को इन प्रयासों को कोई लाभ मिला और न ही दवा कंपनिये के भारी मुनाफे में कोई कमी आई । अपने ऊंची कीमत वाले ब्राण्डों को बाजार में बेचने के लिए दवा कंपनियां वितरकों, फुटकर व्यापारियों एवं चिकित्सकों को भी प्रलोभन देती हैं । वे वितरकों और फुटकर व्यापारियों को अच्छा कमीशन तो देती ही हैं, चिकित्सकों को भी महंगी महंगी भेंट देकर उनके क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेने का व्यय वहन कर तथा अन्य प्रलोभनों से उनके महंगे ब्राण्ड की दवाआे को ही लिखने को प्रेरित करती हैं । दवा कंपनियों, वितरकों, फुटकर व्यापारियों एवं चिकित्सकों की इस जुगलबंदी से बाजार में दवाआे के महंगे ब्राण्ड ही सर्वाधिक बिकते हैं, सस्ते ब्राण्ड नहीं । इस सारे विश्लेषण से निष्कर्ष यही निकलता है कि हमारी सरकार दवा कपंनियों के दबाव में ऊंची कीमतों पर किसी प्रकार का कोई नियंत्रण लगाने के लिए तैयार नहीं है । उसके द्वारा ही नियुक्त समितियों द्वारा दवाआें की कीमतों पर प्रभावी नियंत्रण रखने की सिफारिशें मंत्रालय के किसी कोने में पड़ी धूल खाती रहती हैं । सरकार को इस बात की कतई कोई परवाह नहीं है कि दवाआे की ऊंची कीमतों के कारण अनेक लोगों द्वारा चिकित्सा पाना ही संभव नहीं रहा है और अगर ये लोग चिकित्सा लेते भी हैं तो उसके व्यय की पूर्ति के लिए या तो उन्हें परिवार की कोई स्थायी संपत्ति जैसे पशु, मकान, भूमि आदि बेचनी पड़ती है या कर्ज लेना पड़ता है । लोक कल्याण का दावा करने वाली किसी भी सरकार के लिए ऐसी स्थिति कलंककारी ही मानी जाएगी ।

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