बंगलोर में बढ़ता इलेक्ट्रॉनिक कचरा
भारत में सिलिकॉन वेली के रूप में मशहूर आईटी शहर बंगलोर में ई-वेस्ट यानी इलेक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या गंभीर होती जा रही है । इनसे निकलने वाले हानिकारक रसायन न सिर्फ मिट्टी को दूषित कर रहे हैं, बल्कि भूजल को जहरीला बना रहे हैं ।
भारत में सूचना प्रौद्योगिकी का सबसे बड़ा क्षेत्र बंगलोर है । यहाँ करीब १७०० आईटी कंपनियाँ काम कर रही हैं और इनसे हर साल ६००० से ८००० टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकलता है । सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क ऑफ इंडिया (एसटीपीआई) के डायरेक्टर जे. पार्थसारथी कहते हैं कि सबसे बड़ी जरूरत है भारी मात्रा में निकलने वाले ई-वेस्ट के सही निपटान की । जब तक उनका व्यवस्थित ट्रीटमेन्ट नहीं किया जाता, वह पानी और हवा में जहर फैलाता रहेगा । इंडो-जर्मन स्विस ई-वेस्ट कंपनी के सहयोग से बंगलोर में काम कर रहे एनजीओ ई-वेस्ट एजेंसी ने इलेक्ट्रॉनिक कचरे के सही निपटान के लिए पर्यावरण और वन मंत्रालय को पत्र भी लिखा है । इस पत्र में कहा गया है कि इस संबंध में कानून में प्रावधान किया जाना चाहिए। ई-वेस्ट आईटी कंपनियों से निकलने वाला वह कबाड़ है, जो तकनीक में आ रहे परिवर्तनों और स्टाइल के कारण निकलता है । जैसे पहले बड़े आकार के कम्प्यूटर मॉनीटर आते थे, जिनका स्थान स्लिम और फ्लेट स्क्रीन वाले छोटे मॉनीटरों ने ले लिया है । इसलिए पुराने मॉनीटर बेकार हो गए । माउस, की-बोर्ड या अन्य उपकरण जो चलन से बाहर हो गए हैं, वे ई-वेस्ट की श्रेणी में आ जाते हैं । इलेक्ट्रॉनिक चीजों को बनाने में उपयोग होने वाली सामग्रियों में ज्यादातर कैडमियम, निकेल, क्रोमियम, एंटीमनी, आर्सेनिक, बेरिलियम और पारे का इस्तेमाल किया जाता है । ये सभी पर्यावरण के लिए घातक हैं । इनमें से काफी चीजें तो रिसाइकल करने वाली कंपनियाँ ले जाती हैं, लेकिन कुछ चीजें नगर निगम के कचरे के साथ चली जाती हैं । वे हवा, मिट्टी और भूमिगत जल में मिलकर जहर का काम करती हैं । कैडमियम के धुएँ और धूल के कारण फेफड़े व किडनी दोनों को गंभीर नुकसान पहँुचता है ।
प्लास्टिक से समुद्री जीवों को खतरा
प्लास्टिक का कहर अब समुद्रों पर भी टूटने लगा है । ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा किए जा रहे शोधों की श्रृंखला में यह तीसरा शोध है, जिसकी रिपोर्ट हाल ही में जारी की गई है । वैज्ञानिकों का कहना है कि प्लास्टिक में मौजूद सूक्ष्म कण स्वत: ही नष्ट नहीं होते हैं और उनसे समुद्र का पानी जहरीला हो रहा है।
इससे समुद्री जीव-जंतुआे और समुद्री पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहँुच रहा है । लंदन की प्लेमाउथ यूनिवर्सिटी के रिचर्ड थॉमसन द्वारा समुद्री पर्यावरण पर अध्ययन किए जा रहे हैं । इसकी तीसरी रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि मछली पकड़ने के लिए समुद्र में डाला जाने वाला जाल और लोगों द्वारा फेंकी गई प्लास्टिक बोतलें व प्लास्टिक की अन्य सामग्रियाँ समुद्र में जहर का काम कर रही हैं । इससे न सिर्फ समुद्री जीव मौत का शिकार हो रहे हैं, बल्कि जलीय पौधे भी नष्ट हो रहे हैं । अध्ययन में बताया गया है कि प्लास्टिक चाहे मोटा हो या पतला उसमें कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जो प्राकृतिक रूप से कभी नष्ट नहीं होते हैं । इन्हें केवल भौतिक रूप से नष्ट किया जा सकता है, लेकिन समुद्र में सालों से डाले जा रहे प्लास्टिक ने अब गंभीर रूप ले लिया है। श्री थॉमसन ने बताया कि समुद्र की सतह के प्रत्येक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में प्लास्टिक की तीन लाख विभिन्न सामग्रियाँ पाई जाती हैं । समुद्र तल में प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक लाख से ज्यादा प्लास्टिक के पदार्थ हैं। यह गंभीर बात है कि इन्हें प्राकृतिक रूप से नष्ट नहीं किया जा सकता । इसलिए समुद्र के पानी को और जहरीला होने से रोकने का केवल एक ही उपाय है कि हम उसमें किसी तरह प्लास्टिक को जाने से रोकें ।
प्लास्टिक उत्पादन के क्षेत्र में नयी क्रांति
सब्जियों के राजा आलू से चिप्स, टिक्की और चाट जैसे स्वादिष्ट व्यंजन तो हमेशा बनते रहे हैं लेकिन अब इसी आलू का इस्तेमाल प्लास्टिक बनाने में भी होगा ! जल्द ही बाजार में आलू के प्लास्टिक से बने ग्लास, प्लेटें, टेबल क्लॉथ, सोफा कवर एवं पर्दे यहाँ तक की कालीन भी उपलब्ध होंगे । ब्रिटेन के जैव वैज्ञानिकों ने आलू के स्टार्च से जैव प्लास्टिक बनाने का नायाब तरीका खोज निकाला है ।
प्लास्टिक बनाने की यह नई तकनीक ब्रिटेन के मायने विश्वविद्यालय द्वारा प्रस्तुत की गई है । विवि के चेस स्मिथ पालिसी सेंटर की रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण की दृष्टि से यह प्लास्टिक बेहद फायदेमंद होगा क्योंकि जैविक रूप से नष्ट हो जाने के स्वाभाविक गुण के कारण यह पेट्रोलियम पदार्थो से बने प्लास्टिक की तरह हमेशा पर्यावरण में मौजूद रहकर उसे नुकसान नहीं पहुँचाएगा । रिपोर्ट में कहा गया है कि आलू के स्टार्च से बने इस प्लास्टिक से पुनर्चक्रण वाले सभी उत्पाद जैसे बोतलें, थैलियाँ और साज-सजावट के सभी सामान बखूबी बनाए जा सकेंगे । ब्रिटेन और जापान में जैव प्लास्टिक बनाने की यह तकनीक धड़ल्ले से इस्तेमाल में लाई जा रही है । वहाँ आलू से बने जैव प्लास्टिक उत्पादों को स्पडवेयर का नाम दिया गया है । आलू में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ बनाए जाने के दौरान बड़ी तादाद में बचे आलू के अवशेष का इस्तेमाल इस तरह के प्लास्टिक को बनाने की विधि काफी जटिल है । सबसे पहले आलू जनित व्यर्थ पदार्थो को एक बड़ी चक्की युक्त मशीन में डालकर उसकी लुगदी बनाई जाती है। फिर इससे प्राप्त् स्टार्च यानी माण्ड को ग्लूकोज में तब्दील किया जाता है । इस ग्लूकोज को लैक्टिक बैक्टीरिया में बदलने के लिए इसमें खमीर बनाने की प्रक्रिया अपनाई जाती हैं । इसके बाद लैक्टिक एसिड को परिष्कृत करने के लिए इसमें से लैक्टिक बैक्टीरिया को पृथक करने का काम शुरू होता है जिसके लिए विद्युत आवेशित परिष्करण प्रक्रिया अपनाई जाती है । फिर परिष्कृत लैक्टिक एसिड को कार्बन फिल्टरों से छानकर पाउडर बनाया जाता है । इस पावडर से ही जैव प्लास्टिक बनाई जाती है ।पर्यावरण विशेषज्ञ, जैव वैज्ञानिक और कृषि विशेषज्ञ सभी इस बात पर एकमत हैं कि आलू के इस अभिनव प्रयोग से न केवल प्लास्टिक बनाने के क्षेत्र में नई क्रांति आएगी बल्कि इससे आलू उत्पादकों को भी फायदा होगा और उनके व्यवसाय को एक नई संभावना वाला क्षेत्र मिलेगा ।
दुनिया का सबसे पुराना पेड़ मिला
जीवाश्म वैज्ञानिकों को साढ़े ३८ करोड़ साल पुराने पेड़ का जीवाश्म मिला हैं । इसे दुनिया का सबसे पुराना पेड़ माना जा रहा है । वैज्ञानिकों को यह पेड़ दो साल पहले न्यूयार्क के पास मिला था, लेकिन तब उसकी पहचान नहीं हो पाई थी। अब कार्डिफ विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस्टोफर बेरी ने जीवाश्म की पहचान करने का दावा किया है। उनके अनुसार यह जीवाश्म फर्न के क्लेडॉक्सीलॉप्सिड समूह का है जिन्होंने इस धरती पर सबसे पहले जंगलों का निर्माण किया था ।
गौरतलब है कि इन्हीं पेड़ों का जीवाश्म पहली बार आज से करीब सौ साल पहले मिला था । उस समय न्यूयार्क के गिलबोआ में आई बाढ़ के बाद इस पेड़ के ठूंठ मिले थे, लेकिन तब यह नहीं मालूम हो पाया था कि यह पेड़ दिखता कैसा था । अब जिस पेड़ का जीवाश्म मिला है, वह पूरी तरह अक्षुण्ण है । यानी तना, शाखाएं और पत्तियां सभी उसमें पाई गई हैं। डॉ. बेरी ने इस खोज को अद्भुत करार दिया है । उसके अनुसार इस खोज से वैज्ञानिकों को शुरूआती जंगल तंत्र के बारे में आगे की जानकारी जुटाने में आसानी रहेगी । इस संबंध में अपने प्रारंभिक आकलन के अनुसार वे बताते हैं कि इन पेड़ों की उत्पत्ति हमारे लिए वरदान साबित हुई है । जंगलों के विकास से धरती पर भारी मात्रा में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड में कमी हुई होगी और धीरे-धीरे तापमान में भी गिरावट आना शुरू हुआ होगा ।
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