मंगलवार, 24 जुलाई 2007

आवरण



दिल्ली के पेड़ों की व्यथा-कथा
श्री रेशमा भारती
हम दिल्ली के पेड़ मूक, बेजुबान जीव आज आपसे कुछ कहना चाहते हैं। क्या आप हमें सुन सकते हैं ? क्या आपने कभी हवा के झौंको से होती हमारे पत्तों की सरसराहट, हमपर बैठे तरह-तरह के पक्षियों की चहचहाहट, हमपर फुदकती गिलहरियों की चिक-पिक या हम पर गिरती बारिश की बूंदों की टपटपाहट को सुना है ? क्या आपने कभी पानी को छूकर हमारी मिट्टी से उठती सौंधी महक, हमपर लदे फल-फूलों की खुशबू को महसूस किया है ? क्या आप हमारी धड़कती सांसों को महसूस कर सकते हैं? और कुछ नहीं तो हमारे तने को छूकर देखिए .... हमारे अस्तित्व का अहसास हैं यहाँ । पर शायद आप ज्यादा जरूरी कामों में व्यस्त हैं । अपने-अपने जीवन-संघर्षो में उलझे हैं । तरक्की का दौर है । रूकने, सोचने या महसूस करने का समय ही कहाँ है ? पर हमें मनुष्य का ख्याल बराबर रहता है । जिस भगवान ने मनुष्य को रचा है, उसी ने पेड़ों को भी रचा है। इसलिए हम तो आपको अपना भाई-बहन और मित्र समझते हैं । आपके सुख की हम कामना करते है । आपको सुख पहुँचाने का प्रयास करते हैं। आपके दुख का अहसास भी है और आपके भविष्य की चिंता भी हम करते हैं । चूंकि मनुष्य हमारा बंधु है, मित्र ह़ै; इसलिए हम उसके हितैषी हैं । अपने हित की बात तो सुनेंगे न आप ? सड़कों पर दौड़ते तरह-तरह के वाहनों को हम रोजाना देखते हैं । उनसे होते प्रदूषण को झेलते भी हैं । चमचमाती मेट्रो गाड़ी भी हमने देखी है । ये सब आपकी सुविधाएँ है, आपका आराम हैं । हमें भी आपके आराम का ख्याल है । अपनी छाया और हरियाली से हम भी आपको सुकून पहुंॅचाना चाहते हैं । हम आपके मित्र जो हैं । क्या आप जानते हैं कि दिल्ली मेट्रो रेल प्रोजेक्ट के पहले चरण के लिए कई हजार पेड़ों को मौत के घाट उतारा जा चुका है । क्या आपको पता है कि हाई कैपेसिटी बस सर्विस (एच.सी.बी.एस.) कॉरिडोर के पहले चरण के लिए दो हजार से भी अधिक पेड़ काटे जाने की योजना है । इन परियोजनाआे के आगे और भी चरण है, यह कल्पना ही हममें सिहरन पैदा कर रही हैं । क्या आप जानते हैं कि कुल मिलाकर मेट्रो रेल प्रोजेक्ट के प्रथम चरण, राष्ट्रीय राजमार्ग प्रोजेक्ट, एच.सी.बी.एस कॉरिडोर, फ्लाई ओवर, सब वे, भूमिगत पैदल पथ अथवा सामान्यत: सड़क चौड़ी करने के लिए दिल्ली में लगभग तीस हजार पेड़ों को मौत के घाट उतारा जा चुका है और हजारों अन्य काटे जाने के लिए चिह्न्त किए जा चुके हैं ! यह कैसी इंसानियत है दोस्त ! यह कैसी सुविधा, कैसी तरक्की है आपकी; जो हमारी मौत पर फल रही है! हमें यह समझ नहीं आता कि एक ओर आप सार्वजनिक वाहनों के रास्ते निकालने के नाम पर हमारी बलि तक देने को तैयार हो जाते हैं; दूसरी ओर आपकी सड़कों पर निजी वाहन निरन्तर बढ़ते जाते है ! हम नहीं जान पाते कि प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने वाले हम हरे भरे जीवंत पेड़; कैसे सड़कों पर दौड़ते लोहे के डिब्बों से कम महत्वपूर्ण हो जाते हैं ? कैसे आपको हमारा सौन्दर्य नहीं दिखता; निर्जीव लोहे के चमचमाते डिब्बे आकर्षक लगते हैं ! आपकी सड़कों पर ग्रीन हाऊस गैसे छोड़ते मोटर वाहन बढ़ते जाते हैं कि पैदल चलने वाले, रिक्शे और साईकिल वाले उपेक्षित व सहमे नजर आते हैं । हम समझ नहीं पाते कि आप बढ़ते प्रदूषण, बढ़ते ट्रैफिक, बढ़ते तापमान का सामना आखिर किस प्रकार करेंगे ? हमें आपकी चिंता होती है ! हम आपके मित्र हैं । पर आप जाने-अनजाने हमारे जीवन को कैसे उपेक्षित कर देते हैं ? हम रोज-रोज कई कष्ट झेलते हैं । आपके कंक्रीट-सीमेंट के मार्ग और सड़कें हमारे ऊपर तक चली आती हैं और हमारे आधार जड़ों तक को ढक देती हैं । हमारे ईद-गिर्द मिट्टी ही नहीं बचती कि हम सांस ले पाएं । हम पानी तक ठीक से नहीं पी पाते ! ईद-गिर्द जगह ही नहीं छूटती कि पानी अंदर रिसे । अरे, यह पानी सोखकर हम आप लोगों के लिए ही तो धरती माँ की कोख में पहुँचाते हैं । हम जानते हैं कि यह शहर जल की कमी झेलता है । हम नहीं समझ पाते कि भूमिगत जल को बढ़ा्न्ने में आप हमें अपनी मदद क्यों नहीं करने देते ? सीमेंट-कंक्रीट से ढक जाने पर हमारा सांस घुटती है ! जब कभी हमारी जड़ों के पास आप कूड़ा फैंक देते हैं; तब हमें बहुत कष्ट पहुँचता है । कूड़े में मौजूद खतरनाक रसायन हमें दर्द पहुँचाते हैं ! कूड़ा सड़ता जाता हैं और हम सूखते जाते हैं ! कुछ लोग हमारे तने को पेंट कर देते हैं । पता नहीं कृत्रिम रंगों को हमपर पोतकर उन्हें कैसासौन्दर्य नज़र आता है? इस पेंट से हमारी त्वचा हर पल जलती है! आपका शहर तारों के जाल से घिरा है । कई तारें हमसे होकर गुजरती हैं । उनके करंट से हमारी टहनियां दर्द से सिहर उठती हैं ! जब आपके यहां कोई शादी- ब्याह होता है या कोई उत्सव तो आपकी खुशी में हम भी खुश हो लेते हैं । आप यदि मधुर संगीत बजाए तो उसमें हमारी टहनियां भी नाच उठती हैं, हमारे पत्ते भी थिरकने लगते हैं । पर जब कभी इन अवसरों पर आप हमपर ढेरों बल्ब लाद देते हैं; तो उनके करंट और गर्मी से हम झुलस जाते हैं ! कुछ लोग हम पर कुछ न कुछ ठोंकते भी रहते हैं । जब कील हमें चुभती हैं तो हम दर्द से कराहते है ! आपको शायद हमारी ये दर्द भरी आहें सुनायी न देती हों । आपकी नजर में तो हम बेजुबान है न ! अपने बच्चें की तो चिंता करते हैं न आप ? सच, चहकते हुए स्वस्थ बच्च्े कितने प्यारे लगते हैं । हम भी उनकी चिंता करते हैं, उनके भविष्य का ख्याल करते हैं । उनके लिए हम ऑक्सीजन, पानी, फल-फूल, हरियाली, औषधियां सब जुटाते हैं । हम वह जीती-जागती प्राकृतिक विरासत है, जिन्हें आपको नई पीढ़ी को सौंपना है । हमें मार देंगे, तो अपने बच्चें के लिए क्या छोड़कर जाएंगे आप ? हममें से कई बुजुर्ग पेड़ों ने कई वर्षो से आपके समाजों को बनते-बिगड़ते देखा है । कई सत्ताएं पलटती देखी हैं । आपके अतीत के साक्षी रहे हैं हम । वर्षो से आपकी सेवा करते आए हैं । अपनी इस ऐतिहासिक विरासत को कैसे भुला सकते हैं आप ? क्या आप जानते हैं कि एच.सी.बी.एस कॉरिडोर के लिए काटे जाने वाले कुछ पेड़ ७० साल से भी अधिक पुराने हैं ? क्या आपका समाज बुजुर्गो को यँू मरने देगा ? गर्मी, प्रदूषण, ट्रैफिक और शोर- शराबे से भरे इस शहर में जहाँ-जहाँ बहुत-से घने पेड़ हैं; वहाँ-वहाँ आप ठंडक, शांति, सुकून, पा सकते हैंं। पार्को में भी तो स्वास्थ्य लाभ करने जाते हैं न आप । वहां आपको ताजी ऑक्सीजन देने के लिए हम मौजूद रहते हैं । पर कई पार्को में भी हमारी उपेक्षा हो रही है, हमें मारा जा रहा है ! आपका शहर बहुत से गरीब-बेसहारा लोगों को छत नहीं देता, भरपेट भोजन नहीं देता, खड़े होने की ठीक जगह नहीं देता । उन्हें भी हम अपनी छाया तले आश्रय देते हैं । खाने को फल भी देते हैं। हमारी जिंदगी को महसूस किया आपने ? यह जिंदगी केवलहमारी नहीं है। प्रकृति के कई अवयवों का समावेश है इसमें । मिट्टी, पानी, हवा, धूप ने हमें वर्षोंा तक सींचा है । धरती माँ ने अपनी कोख में हमारी जड़ों को समेटा है । धीरे-धीरे हमारी टहनियां पनपी हैं । अंकुर फूटे हैं, नन्हीं कोपलें पनपी हैं । धीरे-धीरे हर पत्ता बड़ा हुआ है । फिर सूखकर, झरा भी है। पत्तों का यह आना-जाना लगा रहता है । उम्र के बोझ से दबे कई बुजुर्ग पेड़ों को धरती की कोख से बाहर आकर उनकी जड़ों ने सहारा दिया है; ठीक वैसे ही जैसे बुढ़ापे में कई मनुष्य भी अपनी जड़ों-बचपन की ओर लौटते हैं । इस पूरे जीवन चक्र, इस समूची प्रकृति जिसमें हम पले-बढ़े हैं... इसको भला आप हमसे कैसे छीन सकते हैं ? क्या आप मिट्टी, हवा, धूप, पानी, हरियाली सब कुछ खत्म कर देंगे...! जरा सोचिए, इसके बाद आप खुद कैसे जिएंगे? हमारे नहीं तो अपने अस्तित्व की खातिर ही सोचिए । अपने नहीं तो अपने बच्चें के भविष्य की खातिर ही सोचिए । जब हवा, पानी मिट्टी में जहर मिलें हो; जब पेड़ पर्याप्त् न बचे हों, जब धूप भी शरीर को झुलसा देने वाली हो ... जब पक्षी नहीं चहकते हों, जब फूल नहीं महकते हों ... तो सोचिए यह जिंदगी भला कैसी जिन्दगी है ! यह तो जिंदगी का अंत और मौत की आहट हैं ! जनता के प्रतिनिधि शहर को बहुत हरा-भरा बनाने का दावा करते हैं । `क्लीन सिटी और ग्रीन सिटी' के दावे कई जगह लिखे देखे हैं हमने । हम समझ नहीं पाते कि हजारों की तादाद में हम हरे-भरे पेड़ों को काटकर आप कैसी `ग्रीन सिटी' बनाएंगे ? जनता के प्रतिनिधि शहर को सजाने, संुदर बनाने को प्रतिबद्ध हैं । सड़कों-फ्लाइओवरों के किनारे और चंद पार्कों के समतल-मुलायम घास लगायी जाती है, तरह-तरह के फूल लगाए जाते हैं । विदेशी पौधे लगाए जाते हैं । बोनसाई पौधे सजाए जाते हैं । इनकी देखरेख का समूचा प्रबंध होता है । लोग अपने घरों में गमलों में कई पौधे सजाते हैं । ऐसा लगता हैं यह शहर `नेचर लवर' है, पौधों से प्यार करता है पर बरसों से प्रकृति जिन्हें सहज रूप से पालती-पोसती आयी है, उन मित्र पेड़ों में क्या सहज सौन्दर्य नहीं दिखता ? हमारे सौन्दर्य में प्रकृति का सहज अहसास है । इसमें कृत्रिमता नहीं है, दिखावट नहीं है । सहज ताजगी है । सरकार दावा करती है कि अगर एक पेड़ काटा जाएगा तो उसके स्थान पर दस पौधे लगाए जाएंगे । अजीब दावा है यह ! बच्चें के आगमन का तो सब स्वागत करते हैं । पर क्या बच्चें के आने के साथ ही बड़ों को मार डाला जाता है? क्या आपके समाज में एक बड़े व्यक्ति की हत्या को यह कहकर जायज ठहरा दिया जाता है कि दस नए बच्चें भी तो जन्म ले रहे हैं । बच्चें तो धीरे-धीरे ही बड़े होंगे न । तब तक आपकी धरती न जाने कितना प्राकृतिक विनाश झेल चुकी होगी ! इतने समय तक पर्याप्त् ऑक्सीजन, पानी, हरियाली - यह सब कहां से लाएंगे आप ? सच, आपके भविष्य का सोचकर दुख होता है हमें ! कुछ सजग-संवेदनशील लोग हमें बचाने की दौड़-धूप करते रहे हैं । हमें उनसे उम्मीद है । हमें तो, सच मानिए, आप सभी से उम्मीद है । उम्मीद के बल पर ही तो मित्रता टिकी है । आशा और उम्मीद पर ही तो रिश्ते फलते हैं। मरते दम तक हम यह उम्मीद रखेंगे कि आप हमें बचा लें । हम आपके मित्र हैं, आपके बंधु हैं, आपके जीवन का अहम आधार हैं, आपके बच्चेंका भविष्य हैं । क्या आपको हमारी दर्द भरी आहें, हमारी चीखें, हम पर दिन-रात मंडराती मौत की आहटें सुनायी दे रही हैं? क्या आप हमें बचाएंगे ? आप हमारे मित्र हैं। जिस भगवान ने हमें रचा है, उसी ने आपको भी रचा है । आप हमारे अपने हैं । हम तो अपकी अंतिम सांस तक आपकी सलामती की दुआएं मांगते रहेंगे ।


आपके व्यथित मित्र
पेड़

सोमवार, 23 जुलाई 2007

इस अंक में

पर्यावरण डाइजेस्ट के इस अंक में वर्षा एवं वनों पर विशेष सामग्री दी गयी है। पहले लेख वनों से बेदखल होते वन गुज्जर में अर्ची रस्तोगी ने वन गुज्जरों के सामने खड़े आजीविका के संकट की चर्चा की है । म.प्र. के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. रामप्रताप गुप्त् के लेख असफल औषधि नीति और बढ़ती कीमतें में कहा गया है कि सरकार की औषधी मूल्य नियंत्रण नीति का लाभ दवा कंपनियों को मिल रहा है, इसकी कमियों के कारण ही दवाऔ की कीमते बढ़ती जा रही हैं । विभा वार्ष्णेय और सौरव मिश्रा के लेख पारंपरिक खाद्य तेल और सेहत में पारंपरिक खाद्य तेलों की महत्ता और आयातित तेलों से पड़ने वाले दुष्प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है । दिल्ली स्थित वरिष्ठ लेखक / पत्रकार सुश्री रेशमा भारती के लेख दिल्ली के पेड़ों की व्यथा-कथा में दिल्ली में विकास योजनाऔ के नाम पर शहीद हो रहे पेड़ों की व्यथा कथा उन्ही के शब्दों में दी गयी है ।
इसके साथ ही मौसम के अनुकूल विमल श्रीवास्तव के लेख बादलों की दुनिया में लेख में बादलों और वर्षा के बारे में सभी तकनीकी पक्षों का विवरण देते हुए विस्तार से बताया गया है । थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क से जुड़े ची योग हेआेंग के लेख छलावा है जीन युक्त चावल में एक अमेरिकी कम्पनी को मानव जीन युक्त चावल की खेती करने की स्वीकृति के बाद के परिणामों की विवेचना की गई है । सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक लेखक डॉ. वाय.पी. गुप्त के लेख पेट्रोलियम का उपयोग वरदान या अभिशाप में तेल परिवहन के दौरान होने वाले सागरीय प्रदूषण की गहराई से जांच पड़ताल की गई है । कविता में इस बार लखनऊ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार कुंवर कुसुमेश की कविता जल दी गई है जो आपको रूचिकर लगेगी ।
पत्रिका स्थायी स्तंभ पर्यावरण परिक्रमा, ज्ञान विज्ञान एवं पर्यावरण समाचार में आप देश दुनिया में पर्यावरण और विज्ञान के क्षेत्र में चल रही हलचलों से अवगत होते है। पत्रिका के बारे में आपकी राय से अवगत करायें।
- कुमार सिद्धार्थ

सम्पादकीय ....

तारे गिनना पुरानी आदत है
अमेरिका के एक खगोल शास्त्री ने आधुनिक तकनीकों का उपयोग करके दर्शाया कि आकाश में तारों की गति को रिकॉर्ड करने का काम आज से कम से कम ३३०० वर्ष पूर्व शुरू हो चुका था । यह निष्कर्ष उन्होंने खुदाई में मिली मिट्टी की एक प्राचीन शिला की मदद से निकाला है । मिट्टी की ये शिलाएं ६८७ ईसा पूर्व की हैं । इन पर तारों-नक्षत्रों के लगभग २०० अवलोकन खुदे हुए हैं इसकी लिखाई शंकु लिपि में है जो मध्य पूर्व की लिपि थी । ये शिलाएं बेबीलोन में बनी थीं और इन्हें मुलापिन नाम से जाना जाता है । हालांकि ये शिलाएं करीब ७०० ईसा पूर्व की हैं मगर अधिकांश पुरातत्ववेत्ता मानते हैं कि इन पर जो खगोलीय तथ्य अंकित हैं वे कहीं अधिक प्राचीन हैं । लुइसियाना विश्वविद्यालय के खगोलशास्त्री ब्रैड शेफर यह जानना चाहते थे कि आखिर ये अवलोकन कितने पुराने हैं और अध्ययन के आधार पर उनका निष्कर्ष है कि ये अवलोकन १३७० ईसा पूर्व यानी आज से करीब सवा तीन हजार वर्ष पूर्व के आकाश से मेल खाते हैं । जैसे इनमें यह अवलोकन है कि कोई तारामंडल किस दिन पूर्व से उदय होता दिखता है । ये तारीखें बदलती रहती हैं क्योंकि पृथ्वी अपनी अक्ष पर थोड़ी डोलती है । विभिन्न तारामण्डलों के लिए इन तारीखों की गणना के आधार पर शेफर ने यह पता लगाया कि ये अवलोकन किस समय के हो सकते हैं । दूसरा काम उन्होंने यह किया कि यह भी पक्का कर लिया कि ये अवलोकन किस स्थान से लिये गए होंगे । १०० किमी. की घट-बढ़ के अंदर यह स्थान ३५.१ डिग्री उत्तरी अक्षांश पर स्थित रहा होगा । इस अक्षांश पर निनोवा और असुर जैसे असीरियाई शहर पड़ते हैं । अपने परिणाम अमेरिकन एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी के समक्ष प्रस्तुत करते हुए शेफर ने बताया कि इससे स्पष्ट होता है कि ये अवलोकन बेबीलोन के हैं । शेफर के इस अध्ययन से काफी समय से चली आ रही बहस को विराम मिलेगा। अब तक इतिहासकार उक्त शिला के एक-एक तारे या तारामण्डल को लेकर गणनाएं व तर्क करते रहे हैं, लेकिन शेफर के इस काम को काफी प्रभावशाली माना जा रहा है ।

प्रसंगवश

जलवायु को थामना आसान नहीं
जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर्सरकारी पैनल यानी आई. पी. सी. सी. की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करना जरूरी है और यह काफी कम लागत में संभव भी है । यू.एस.ए. जैसे कुछ देशों का कहना है कि इन गैसों, खासकर कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन पर बहुत कठोर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई, तो विश्व में आर्थिक मंदी आएगी । आई. पी. सी. सी. के कार्यकारी समूह की रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक तापमान वृद्धि के भयंकरतम प्रभावों से बचने के लिए ग्रीन हाऊस गैसों को जिस सीमा तक कम करना होगा उसमें वर्ष २०३० तक विश्व के कु ल आर्थिक उत्पादन का ३ प्रतिशत खर्च होगा - यानी प्रति वर्ष करीब ०.१२ प्रतिशत । पहले जो अनुमान लगाए गए थे, उनकी तुलना में यह बहुत सस्ता है । मगर इसमें कई अगर-मगर हैं । जैसे यू.एस. अधिकारियों का मत है कि इतने से भी दुनिया में आर्थिक मंदी आएगी । इसलिए ग्रीन हाऊस गैसों की सीमा थोड़ी बढ़ाकर तय करना बेहतर होगा । आई. पी. सी. सी. की उपरोक्त रिपोर्ट में मानकर चला गया है कि यदि हम वैश्विक तापमान में वृद्धि को २ डिग्री सेल्सियस से कम रख सकें तो इसके असर बहुत खतरनाक नहीं होंगे । इसके लिए वायुमण्डल में ग्रीनहाऊस गैसों की मात्रा को ४५०-५०० पी. पी. एम. के बीच स्थिर करना होगा । फिलहाल वायुमण्डल में इन गैसों की मात्रा ४३० पी. पी. एम. के तुल्य है और इसमें प्रतिवर्ष २ पी. पी. एम. की वृद्धि हो रही है । यदि हम ५३५ पी. पी. एम. पर टिकना चाहते हैं, तो इस सदी के मध्य तक ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में ५०-८५ प्रतिशत की कटौती करनी होगी । इसके लिए ऊर्जा का अधिक कार्यकुशल उपयोग और वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतों का उपयोग करना ही पर्याप्त् होगा। अलबत्ता यदि हम थोड़ी ढील दें और कोशिश करें कि ग्रीनहाऊस गैसों की मात्रा को ५३५-५९० के बीच स्थिर हो तो खर्च और भी कम होगा । तब हमें २०३० तक विश्व के आर्थिक उत्पादन का मात्र ०.२-२.५ प्रतिशत खर्च करना होगा । यदि ग्रीनहाऊस गैसों और तापमान को थोड़ा और ऊपर जाने दें तो ऊर्जा के कार्यक्षम उपयोग से दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद के ०.६ प्रतिशत के बराबर लाभ भी संभव है ।

लघुकथा

लघुकथा
आत्मव्यथा
दिलीप भाटिया
मैं एक नन्हा पौधा हँू । पर्यावरण दिवस पर एक बहुत बड़े साहब ने मुझे लगाया था । उनके नाम की तख्ती भी लगी हुई है । फोटो भी खिंचे थे । अगले दिन समाचार पत्र में साहब के साथ मेरी भी फोटो प्रकाशति हुई थी पर अब मैं सूख रहा हँू । उस दिन के बाद मुझे किसी ने पानी के लिए भी नहीं पूछा। मैं मुरझा रहा हँू, सूख रहा हँू, मेरी सुध लेने वाला कोई नहीं । कुछ दिनों में सम्पूर्णतया नष्ट हो जाऊँगा । अगले वर्ष मेरे जैसे किसी और पौधे के साथ भी यही होगा । फिर किसी और पौधे के साथ । यह सिलसिला चलता रहेगा । पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता रहेगा । फोटो खिंचती रहेंगी । मैं एवं मेरे भाई इन उद्घाटन एवं जलसों के लिए अपना बलिदान देते रहेंगे । शहीद होते रहेंगे ।

1 सामयिक

वनों से बेदखत होते वन गुज्जर
अर्ची रस्तोगी
मई के प्रथम सप्तह में जब वन गुज्जर उत्तरांचल के उत्तरकाशी जिले में अपने ग्रीष्मकालीन घरों की ओर जाने लगे तब देहरादून के निकट विकासनगर के नजदीक पहँुचकर उन्हें पता चला कि अगले साल वे अपने ग्रीष्मकालीन घरों में नहीं जा सकेंगे । सूचना के अधिकार के तहत दिए गए एक आवेदन के जवाब में यह जानकारी मिली कि वन विभाग ने अपने निर्णय से पलटते हुए गुज्जरों को राज्य में उनके ग्रीष्मकालीन घरों में जाने की अनुमति इस वर्ष के लिए तो दे दी है, मगर अगले वर्ष वे उत्तरांचल के जंगल में प्रवेश नहीं कर सकेंगे । वन गुज्जर पारंपरिक खानाबदोश हैं जो गर्मियों का मौसम आते ही अपनी भेड़ बकरियों और अन्य पशुआें के साथ हिमालय के ऊँचे पर्वतों पर चले जाते हैं और शीत ऋतु में उत्तरप्रदेश की निचली शिवालिक पर्वत श्रेणियों में उतर आते हैं। उनका ग्रीष्मकालीन निवास उत्तराकाशी जिले में गोविन्द राष्ट्रीय उद्यान में होता है और उससे लगे हुए गोविन्द वन्य जीव अभ्यारण्य में जाने की उन्हें अस्थाई अनुमति भी मिल जाती थी । राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के निदेशक जो गोविन्द वन्यजीव उद्यान के प्रभारी हैं के अनुसार - ''उत्तरप्रदेश से आने वाले परिवारों को हम इस वर्ष तो अनुमति दे रहें हैं, मगर अगले वर्ष उन्हें अनुमति नहीं दी जायेगी ।'' वन गुज्जरों के साथ काम करने वाले देहरादून स्थित एक स्वयंसेवी संगठन ''सोसायटी फॉर प्रमोशन ऑफ हिमालयन इंडिजिनस एक्टीविटीस'' ने ही सूचना के अधिकार के तहत आवेदन दिया था । सोसायटी के निदेशक प्रवीण कौशल मण्टो ने बताया कि अनुमति पत्र २५ अप्रैल २००७ को जारी किया गया है । किन्तु प्रवीण कौशल को वन विभाग से अपने पत्र का जवाब मिलने अर्थात ३० अप्रैल तक वन गुज्जरों को इसकी कोई जानकारी नहीं थी । वन गुज्जरों का इतिहास बताते हुए कौशल कहते हैं, ''शिवालिक में वे छंटाई कर (भेड़ों के चारे के लिए पेड़ की टहनियों की छंटाई के एवज मेंदिया जाने वाला शुल्क) और गोविन्द वन्य जीव अभ्यारण्य में चराई कर चुकाते हैं । इनका भुगतान करने के बाद ही उन्हें अनुमति - (प्रवेश का कानूनी दस्तावेज) - प्रदान की जाती है । सन् १९३७ से इनके पास परमिट है।'' सन् १९३७ में १२ वन गुज्जर परिवारांे को परमिट दिया गया था और अब इनकी संख्या बढ़कर १०० एकल परिवारों जितनी हो गई है, जबकि परमिटों की संख्या १२ ही बनी हुई है । इस वर्ष अप्रैल में जब १२ परमिट धारक (कुल १०० से अधिक एकल परिवार) वन विभाग से हर वर्ष की तरह अनुमति लेने गये तो उन्हें मना कर दिया गया । उल्फा नामक एक वन गुज्जर का प्रश्न है ''इस साल जब हम शिवालिक के पहाड़ों से लौट रहे थे तो अधिकारियों ने हमें यह लिखकर देने को कहा था कि अगली बार हम वापस नहीं आएं । मगर जब तक हमारी वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होती तब तक हम कहाँ जाएँ ? इस प्रकार की अफवाहों के परिणाम स्वरूप गोविन्द वन्यजीव अभ्यारण्य की ओर जा रहे लगभग १०० परिवार भी रास्ते में रूक गए । एक अन्य वन गुज्जर, रोशन ने बताया ''अपने मवेशियों के साथ पहाड़ों में रूके रहना आसान नहीं है ।'' अनुमति मिलने में हो रही देरी के कारण वे अपने साथ जो चारा लेकर चले थे वह खत्म होने लगा है । उल्फा ने बताया ''हमें पास के गांवों से चारा खरीदना पड़ रहा है। जब चारे की मांग बढ़ गई तो गांव के दुकानदारों ने उसके दाम भी बढ़ा दिए । दुकानदारों ने चारे के चार बोरे लगभग १००० रूपये में दिए । भैसों को गर्भपात हो रहा है । बछड़े और हमारे बच्च्े बीमार हो रहे हैं । आदतन ठंडे स्थानों पर रहने से उनको गर्मी सहन नहीं हो पा रही है ।'' अन्य गुज्जरों ने भी इसका समर्थन किया। इसके पूर्व जून २००३ में उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) के प्रधान वन संरक्षक द्वारा जारी एक स्थाई आदेश में कहा गया था कि अनुमति प्राप्त् करने के लिए वन गुज्जरों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, इसलिए प्रक्रिया को सरल बनाना चाहिए । मगर सितम्बर २००६ में एक नया आदेश जारी हुआ । इसमें कहा गया कि वन गुज्जरों ने गोविन्द राष्ट्रीय वन उद्यान में वापस न लौटने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए हैं । उद्यान के अधिकारियों का कहना था कि १२ परमिट धारकों की संख्या बढ़कर १०० से ज्यादा एकल परिवार तक पहँुच जाने के कारण जंगल पर दबाव बहुत बढ़ गया है । उनका कहना है कि वर्तमान में राज्य सरकार के पास गुज्जरों के पुनर्वास की कोई योजना नहीं है। इस पर गुज्जरों का कहना है कि, ''उनके पास कोई विशेषज्ञता अथवा कौशल नहीं है, वो मजदूर भी नहीं है, इसलिए उन्हें धीरे-धीरे बसाना होगा ।'' किन्तु प्रमुख वन्यजीव संरक्षक ने स्पष्ट कहा है कि वन गुज्जरों ने लिखकर दिया है कि अगले साल वह नहीं लौटेंगे । लेकिन इसके बाद प्रदेश के मुख्य प्रमुख वन्यजीव संरक्षक टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं हुए । निक्का कासना नाम का वन गुज्जर वर्तमान स्थिति पर अपनी दृष्टि स्पष्ट करते हुए कहता है, `टकराव टल गया है, लेकिन सिर्फ हमारे दोबारा लौटने तक ।'

२ तेल प्रदूषण

तेल प्रदूषण पेट्रोलियम का उपयोग वरदान या अभिशाप ?
डॉ. वाई.पी.गुप्त
यह बात आजकल बहुत गंभीरता से विचारणीय है कि जिस पेट्रोलियम को अधुनिक सभ्यता का अग्रदूत कहा जाता है, वह वरदान है अथवा अभिशाप है, क्योंकि इसके उपयोग से भारी प्रदूषण हो रहा है जिससे इस धरती पर जीवन चुनौतीपूर्ण हो गया । आज पेट्रोलियम और औद्योगिक कचरा समुद्रों का प्रदूषण बढ़ा रहा है, तेल के रिसाव-फैलाव नई मुसीबतें हैं । इस तेल फैलाव और तेल टैंक टूटने ने समुद्री इकोसिस्टम्स को बुरी तरह हानि पहुंचाई हैं । इससे सागर तटों पर सुविधाआें को क्षतिग्रस्त किया है और पानी की गुणवत्ता को प्रभावित किया हैं। वर्ष में शायद ही कोई ऐसा सप्तह निकलता हो, जब विश्व के किसी न किसी भाग से २००० मीट्रिक टन से अधिक तेल समुद्र में फैलने की घटना का समाचार न आता हो । ऐसा दुर्घटना के कारण भी होता है या बड़े टैंकरों को धोने से अथवा बंदरगाहों पर तेल को भरते समय भी होता रहता हे । भारत सरकार ने हाल में भारतीय समुद्र क्षेत्र में व्यापार परिवहन में लगे जहाजों पर गहरी चिंता जताई है, जो देश के तटीय जल में तेल का कचरा फैलाते हैं, अन्य तरह का प्रदूषण फैलाते हैं, पर्यावरण की क्षति करते हैं और जीवन तथा सम्पत्ति दोनों को खतरे में डालते हैं। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार भारत के केरल के तटीय क्षेत्रों में प्रदूषण के कारण झींगा, चिंगट और मछली उत्पादन २५ प्रतिशत घट गया है । सर्वोच्च् न्यायालय ने पहले आदेश दिया था कि प्रदूषण फैलाने वाले जल कृषि (एक्वाकल्चर) फार्म्स को तटीय राज्यों में बंद कर देना चाहिए, क्योंकि ये पर्यावरण संदूषण के साथ भूमि क्षरण भी करते हैं । अदालत ने यह भी आदेश दिया था कि पूरे देश में तटीय क्षेत्रों से ५०० मीटर तक कोई भी निर्माण न किया जाए, क्योंकि औद्योगिकरण और शहरीकरण ने इन क्षेत्रों के पारिस्थिकीय संतुलन को खतरे में डाल दिया है । हाल ही में लगभग १९०० टन तेल के फैलाव से डेनमार्क के बाल्टिक तट पर प्रदूषण की चुनौती उपस्थित हुई थी । इक्वाडोर के गैलापेगोस द्वीपसमूह के पास समुद्र के पानी में लगभग ६,५५,००० लीटर डीज़ल और भारी तेल के रिसाव ने वहां की भूमि, दुर्लभ समुद्री जीवों और पक्षियों को जोखिम में डाल दिया । भूकम्प के बाद गुजरात में कांडला बंदरगाह पर भंडारण टैंक से लगभग २००० मीट्रिक टन हानिकारक रसायन एकोनाइट्रिल (एसीएन) रिस जाने से उस क्षेत्र के आसपास के निवासियों का जीवन जोखिम से घिर गया है । इससे पहले कांडला बंदरगाह पर समुद्र में फैलेलगभग तीन लाख लीटर तेल से जामनगर तट रेखा से परे कच्छ की खाड़ी के उथले पानी में समुद्री नेशनल पार्क (जामनगर) के नज़दीक अनेक समुद्री जीव जोखिम में आ गए थे । टोकियो के पश्चिम में ३१७ कि.मी. दूरी पर तेल फैलाव ने जापान के तटवर्ती शहरों को हानि पहुंचाई थी । बेलाय नदी के किनारे डले एक तेल पाइप से लगभग १५० मीट्रिक टन तेल फैलाव ने भी रूस में यूराल पर्वत में दऱ्जनों गांवों के पीने के पानी को संदूषित किया है । एक आमोद-प्रमोद जहाज़ के सैनज़ुआन (पोर्टोरीको) की कोरल रीफ में घुस जाने के कारण अटलांटिक तट पर रिसे २८.५ लाख लीटर तेल से रिसोर्ट बीच संदूषित हुआ । बम्बई हाई से लगभग १६०० मीट्रिक टन तेल फैलाव (जो शहरी तेल पाइप लाइन खराब होने से हुआ था) ने मछलियों, पक्षी जीवन और जनजीवन की गुणवत्ता को हानि पहुंचाई । ठीक इसी प्रकार बंगाल की खाड़ी में क्षतिग्रस्त तेल टेंकर से रिसे तेल ने निकोबार द्वीप समूह और अन्य क्षेत्रों में मानव और समुद्री जीवन को नुकसान पहुंचाया । लाइबेरिया आधारित एक टेंकर से रिसे ८५,००० मीट्रिक टन कच्च् तेल ने स्कॉटलैण्ड को गंभीर रूप से प्रदूषित किया और द्वीप समूह के पक्षी जीवन को घातक हानि पहुंचाई। सबसे बुरा तेल फैलाव यू.एस.ए. के अलास्का में प्रिंसबिलियम साउण्ड में एक्सन वाल्डेज टेंकर से हुआ था । अनुमान है कि एक्सन वाल्डेज तेल फैलाव के बाद प्रथम ६ महीनों की अवधि में ३५,००० पक्षी, १०,००० औटर और १५ व्हेल मर गई थीं । मगर यह इराक द्वारा खाड़ी युद्ध में पम्प किए गए तेल और अमरीका द्वारा तेल टेंकरों पर की गई बमबारी से फैले तेल की मात्रा के सामने बौना है । एक आकलन के अनुसार ११० लाख बैरल कच्च तेल फारस की खाड़ी में प्रवेश कर गया है और कई पक्षी किस्में विलुप्त् हो गई हैं । प्रदूषणसे मानव पर भी प्रभाव पड़ता है । विश्व में ६३ करोड़ से अधिक वाहनों में पेट्रोलियम का उपयोग प्रदूषण का मुख्य कारण है । विकसित देशों में प्रदूषण रोकने के नियम होने के बावजूद १५० लाख टन कार्बन मोनोऑक्साइड, १० लाख टन नाइट्रोजन ऑक्साइड और १५ लाख टन हाइड्रोकार्बन्स प्रति वर्ष वायुमंडल में बढ़ जाते हैं । जीवाश्म इंर्धन के जलने से वायुमंडल प्रति वर्ष करोड़ों टन कार्बन डाइऑक्साइड आती है । विकसित देश वायुमंडल प्रदूषण के लिए ७० प्रतिशत ज़िम्मेदार हैं । भारत प्रति वर्ष कुछ लाख टन सल्फर डाइड्रोकार्बन्स, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और हाइड्रोकार्बन्स वायुमंडल में पहुंचाता है । इन प्रदूषकों से अनेक बीमारियां, जैसे फेफड़े का कैंसर, दमा, ब्रोंकाइटिस, टी.बी. आदि हो जाती हैं । वायुमंडल में विषैले रसायनों के कारण कैंसर के ८० प्रतिशत मामले होते हैं । मुम्बई में अनेक लोग इन बीमारियों से पीड़ित हैं । दिल्ली में फेफड़ों के मरीज़ों की संख्या देश में सर्वाधिक है । इसकी ३० प्रतिशत आबादी इसका शिकार है । दिल्ली में सांस और गले की बीमारियां १२ गुना अधिक हैं । इराक के विरूद्ब २००३ के युद्ध ने इराक और उसके आसपास के क्षेत्र को बुरी तरह विषैला कर दिया है जिससे पानी, हवा और मिट्टी बहुत प्रदूषित हुए और लोगों का जीवन खतरे में पड़ गया । इससे पहले १९९१ के खाड़ी युद्ध ने संसार में पर्यावरण संतुलन को विनाश में धकेल दिया। वहां जो मानव और पर्यावरण की हानि हुई, वह संसार में हुए हिरोशिमा, भोपाल और चेरनोबिल से मिलकर हुई बरबादी से कम नहीं है । कुवैत के तेल कुआं, पेट्रोल रिफाइनरी के जलने तथा तेल के फैलने से कुवैत के आसपास का विशाल क्षेत्र धूल, गैसों और अन्य विषैले पदार्थो से प्रदूषित हुआ है । इराक ज़हरीला रेगिस्तान बन गया है, जहां एक बड़े क्षेत्र में महामारी फैली है । पेट्रोलियम अपशिष्ट ने समुद्री खाद्य पदार्थो को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। प्रदूषित पानी से ओस्टर (शेल फिश) कैंसरकारी हो जाती है । समुद्री खाद्य पदार्थो का मनुष्य द्वारा उपयोग करने पर उनमें होठों, ठोड़ी, गालों, उंगलियों के सिरों में सुन्नता, सुस्ती, चक्कर आना, बोलने में असंगति और जठर आंत्रीय विकार होने लगते हैं । विश्व के सामने अपने वायुमंडल को बचाने की कड़ी चुनौती खड़ी है । सबक है कि पेट्रोलियम की भयंकर तबाही के परिणामों के मद्दे नज़र कम विकसित देशों को अपनी औद्योगिक प्रगति के लिए अन्य सुरक्षित ऊर्जा स्त्रोत विकसित करने चाहिए ।

३ जीवन शैली

पारंपरिक खाद्य तेल और सेहत
विभा वार्ष्णेय/सौरव मिश्रा
यंत्रीकृत खाद्य तेल उद्योग घी, मक्खन और सरसों के तेल जैसे पारंपरिक खाद्य तेलों पर श्रेष्ठता दर्शाने के लिए विभिन्न तकनीकी शब्दावलियों का इस्तेमाल किया जाता है । जैसे - सेचुरेटेड फैट्स (संतृप्त् वसीय अम्ल), अनसेचुरेटेड फैट्स (असंतृप्त् वसीय अम्ल), ट्रांसफेटी ऐस्डि्स आदि । हमें यह बताया जाता है कि वनस्पति तेल कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम कर दिल की सुरक्षा करते हैं लेकिन वैज्ञानिक सर्वसम्मति से इस निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि ये दावे अत्यंत ही भ्रामक हैं । उनकी राय है कि भोजन में केवल पौष्टिक तेलों का उपयोग किया जाना चाहिए । खाद्य तेल मुख्यत: तीन प्रकार के वसीय अम्लों से निर्मित होते हैं - सेचुरेटेड फैटी एसिड्स (एसएफए), मोनोअनसेचुरेटेड फैटी एसिड्स (एमयूएफए) और पॉलीअनसेचुरेटेड फैटी एसिड्स । इन वसाआं और तेलों की यह विशेषता श्रृंखलाबद्ब अनिश्चित कार्बन परमाणुआ के बीच बनने वाले बंध के कारण होती हैं। सेचुरेटेड फैटी एसिड्स में निकटतम कार्बन परमाणुआ के बीच एकल बंध होता है । एमयूएफए में एकल दोहरा बंध होता है । जबकि पीयूएफए के कार्बन परमाणुआ के बीच एकल बंध होता है । कुछ अम्लीय श्रृंखलाआं जैसे पार्निटिक अम्ल एलडीएल (एक प्रकार का हानिकारक कोलेस्ट्रॉल) के स्तर को बढ़ाता है । ओमेगा ३ और ओमेगा ६ जैसे अम्ल ह्रदय के लिए अच्छे और प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाले होते हैं । पारंपरिक भारतीय खाद्य तेल जैसे सरसों और नारियल के तेल में यह गुण भरपूर है । खाद्य तेल उद्योग द्वारा किए जा रहे आक्रामक विज्ञापन के कारण पारंपरिक तेलों का भविष्य खतरे में हैं । १९७० के आरंभ में एसएफए से भरपूर पाम ऑइल को पारंपरिक तेलों के सस्ते विकल्प के रूप में प्रोत्साहित किया गया था और फिर ८० के दशक में असंतृप्त् वसा युक्त कुछ तेलों के प्रति उद्योगों का रूझान बढ़ा । इस बात का जबरदस्त प्रचार किया गया कि केनोला तेल ह्रदय के लिए लाभदायक है इसके पक्ष में यह दलील दी गई कि यह तेल जैतून केतेल के समान है । इन दोनों में एमयूएफए अत्यधिक मात्रा में होता है । जैतून तेल में ह्रदय के लिए मौजूद स्वास्थ्यवर्धक गुणों की जानकारी रखने वाले लोगों को इस पक्ष ने काफी आकर्षित किया । इसके बाद पीयूएफए से भरपूर सूरजमुखी और सोयाबीन तेलों को ह्रदय के लिए सेहतमंद बताया गया । लेकिन वैज्ञानिक समुदाय इन तर्कोंा की तह तक पहुँच चुका है । उदाहरण के लिए, अमेरिकन जर्नल ऑफ न्यूट्रिशियन के १९९७ के अंक में प्रकाशित लेख में, अमेरिकी शोधकर्ता हेनड्रिक, व्हाइट और कुक ने यह दर्शाया कि सोयाबीन तेल का सेवन मानव शरीर के अच्छे कोलेस्ट्राल के उच्च् घनत्व वाले लिपोप्रोटिन (एचडीएल) स्तर को घटता है । यह भी प्रतिपादित किया गया कि सोयाबीन तेल में मौजूद कार्बन गंध पीयूएफए युक्त तेलों को सेचुरेटेड तेलों की तुलना में अधिक क्रियाशील बनाती है । अत: ये वसा ऊतकों में जमा होकर उनके कार्यो को बाधित कर सकती है । केनोला जैसे एमयूएफए युक्त अपारंपरिक तेलों के पक्षकारों के लिए भी यह एक बुरी खबर थी । वर्ष १९९१ में अमेरिका स्थित बॉस्टन युनिवर्सिटी ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताआें ने यह प्रमाणित किया कि इस तेल का अत्यधिक उपयोग दिल की बीमारी का कारण है । संसाधित भोज्य पदार्थो में इन नए असंतृप्त् वसा युक्त तेलों का उपयोग इसके दुष्पभावों को कई गुना बढ़ता है । वास्तव में इन तेलों का उपयोग संसाधित भोजन निर्माण के लिए अनुकूल नहीं है । लेकिन अधिकांश असंतृप्त् वसा युक्त तेलों के संतृप्त् वसा युक्त तेलों से कई गुना सस्ते होने के कारण संसाधित खाद्य उद्योग के बजट में आसानी से समा जाते हैं। लेकिन वास्तव में असंतृप्त् वसा युक्त तेलों को हाइड्रोजिनेशन प्रक्रिया के द्वारा खाने योग्य बनाया जाता है । इस प्रक्रिया में हाईड्रोजन के द्वारा असंतृप्त् वसा के दोहरे कार्बन बंध को तोड़ दिया जाता है । इससे रासायनिक युक्त ट्रांसफेटी एस्डि्स बनते हैं जिनके कई दुष्प्रभाव हैं । वे मानव शरीर के प्रतिरोधक प्रणाली को बाधित करते हैं,ऊर्जा चयापचय को कम करते हैं और इंसुलियन के स्तर में वृद्धि करते हैं । ये ट्रांसफैट्स उच्च् घनत्व वाले कोलेस्ट्रॉल के स्तर में भी बढ़ोतरी करते हैं । सामान्यत एमयूएफए एचडीएल के निम्न स्तर को बढ़ाते हैं लेकिन हाइड्रोजिनेशन से एमयूएफए युक्त तेलों का यह गुण नष्ट हो जाता है। निष्कर्षण तकनीकों से भी खाद्य तेलों की गुणवत्ता प्रभावित होती हैं । आमतौर पर खाद्य उद्योग द्वारा बीजों में से तेल निकालने के लिए हेक्सजेन जैसे सॉलवेंट्स का इस्तेमाल किया जाता है । यह तकनीक सस्ती है, उत्पादकता और संग्रहित करके रखे जा सकते की अवधि को बढ़ाती है और उसमें से सभी प्रकार की गंध और स्वाद को भी खत्म कर देती है लेकिन तेल को उबालकर सॉल्वेंट को निष्कासित करना आवश्यक हैं । इससे सभी पौष्टिक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं । इसके विपरीत पारंपरिक तेल पीसकर निकाले जाते हैं । ऐसे तेलों में खूशबु और पौष्टिकता बनी रहती है । तेल निकालने की विधियों और उनके घटकों से खाद्य तेलों की गुणवत्ता प्रभावित होती है इस बारे में जागरूकता विकसित देशों में तेजी से बढ़ रही है । मसलन, अमेरिकी नागरिकों के लिए जारी भोजन संबंधी नवीनतम दिशानिर्देशों के अनुसार ट्रांसफैटी एसिड्स देशों में इस विषय में जागरूकता अधिक नहीं है । भारत में आहार शारीरिक गतिविधियों और स्वास्थ्य संबंधी विश्व स्वास्थ्य संगठन की भू-मण्डलीय नीति पर विमर्श हेतु २६ अप्रैल ०६ को नई दिल्ली मं संपन्न सम्मेलन में सरकार को स्वास्थ्य संगठन की भोजन, शारीरिक गतिविधि और स्वास्थ्य पर अंतर्राष्ट्रीय नीति पर संपन्न सम्मेलन में सरकार को स्वास्थ्यकर खाद्य तेलों के प्रति जागरूकता पैदा करने और उन्हें अधिक किफायती बनाने की सलाह दी गई थी । क्या सरकार इसके लिए तैयार है ?

४ स्वास्थ्य

असफल औषधि नीति और बढ़ती कीमतें
राम प्रताप गुप्त
भारत में कुल चिकित्सा व्यय का लगभग दो तिहाई भाग दवाआं पर खर्च होता है । शासकीय अस्पतालों में जाने वाले तथा भर्ती होने वाले मरीजों को भी चिकित्सकों द्वारा लिखी दवाआे के बड़े भाग को बाजार से ही क्रय करना पड़ता है । अत: इस बात का बड़ा महत्व है कि मरीजों को वाजिब मूल्य पर विश्वसनीय दवाएं उपलब्ध हों । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए दवाआे के मूल्य पर सरकारी नियंत्रण आवश्यक माना जाता है । यही कारण हैं कि यूरोप के संपन्न १६ में से १२ राष्ट्रों में सरकारें दवाआे की कीमतों पर नियंत्रण रखती हैं । भारत जहां कि बहुसंख्यक आबादी गरीब है और सार्वजनिक चिकित्सा सुविधाआे की भूमिका भी सीमित है, वहां आम आदमी को उचित कीमतों पर दवाएं उपलब्ध कराने के लिए यह आवश्यक है कि उनकी कीमतोंे पर सरकार का प्रभावी नियंत्रण हो। उदारीकरण की नीतियों के पुर्व यहां यह स्थिति विद्यमान भी थी । सन् १९७९में आवश्यक समझी जाने वाला ३४७ दवाआे की कीमतों पर सरकार का प्रभावी नियंत्रण था । बाद में उदारीकरण के दौर में शनै: शनै: दवाआे को मुल्य नियंत्रण कानून से मुक्त किया जाता रहा और इसके परिणाम स्वरूप सन् १९९५ में दवा कीमत नियंत्रण कानून के अंतर्गत दवाआे की संख्या गिरकर मात्र ७६ ही रह गई । सन् २००२ में अगर सर्वोच्च् न्यायालय राष्ट्रीय दवा नीति नियंत्रण अधिनियम को अवैध घोषित नहीं कर देता तो औषधि मूल्य नियंत्रण कानून के अधिकार क्षेत्र में दवाआे की संख्या घटकर ३०-३२ ही रह जाती। पिछले वर्षों में हमारी सरकार भले ही दवाआे को मूल्य नियंत्रण कानून से मुक्त करने की नीति अपनाती रही हो परन्तु इसी अवधि में स्थापित विभिन्न समितियों द्वारा दवाआे की कीमतों पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता प्रतिपादित की जाती रही हैं । उदाहरण के लिए सन् १९९९ में नियुक्त औषधि मूल्य पुनरीक्षण समिति,मेक्रो इकॉनोमिक्स एवं स्वास्थ्य आयोग सन् २००४ और योजना आयोग द्वारा सन् २००५ में नियुक्त प्रणब सेन समिति, सभी ने आम आदमी के उपयोग की दवाआे को मूल्य नियंत्रण कानून में रखने की सिफारिश की थी । सर्वोच्च् न्यायालय ने भी सरकार को मूल्य नियंत्रण कानून की सीमा में लाई जाने के पूर्व आवश्यक दवाआे की सूची प्रकाशित करने को कहा था । अत: सन् २००३ में सरकार ने आवश्यक दवाआे की सूची प्रकाशित की जिसमें ३५४ दवाएं शामिल थीं । प्रणब सेन समिति ने इन सभी ३५४ दवाआे को मूल्य नियंत्रण कानून के अंतर्गत रखने की सिफारिश की थी । ये सब सिफारिशें न तो उदारीकरण की पक्षधर सरकार को और न ही दवा उद्योग को रास आ रही थीं । ऐसे में दवाआें को औषधि मूल्य नियंत्रण कानून से मुक्त रखने के उद्देश्य से सरकार ने जो १२ सदस्यीय समिति नियुक्त की उस सिमति में न तो स्वास्थ्य मंत्रालय का और न ही इस क्षेत्र में कार्यरत् जनसंगठनों का कोई प्रतिनिधि शामिल किया गया । समिति ने अपनी सिफारिशें देने के पूर्व केवल दवा उत्पादकों के संगठन से विचार विमर्श किया था । इन एकांगी परागर्शोके आधार पर प्रदत्त सिफारिशें भी स्वाभाविक रूप से केवल कुछ हितों को ही समाहित करने वाली थीं । इन्हीं परामर्शो के आधार पर रसायन और उर्वरक मंत्री राम विलास पासवान ने ८८६ दवाआे की सूची प्रकाशित की जिनकी कीमतों को कम करने के लिए दवा निर्माता तैयार थे । इन ८८६ दवाआे में से कुछ तो अलग अलग अनुपात में मिलाई गई उन्हीं दवाआे के सम्मिश्रण भर थे । वास्तव में तो दवा उद्योग ने ४९९ ब्राण्ड की दवाआे की कीमतों में कमी की सहमति दी थी । जिन दवाआे की कीमतें कम की गई थी उनका कुल बाजार १५०० करोड़ का ही था जो कि कुल औषधि बाजार का मात्र ६ प्रतिशत हे । इसका अर्थ यह हुआ कि ९४ प्रतिशत दवाईयों की कीमतों में कमी को इन प्रयासों से अलग रखा गया था । घटी कीमत की अधिकांश दवाएं वो थीं जिनकी बाजार में बहुत कम मांग थी । दवा कंपनियों ने अपनी सर्वाधिक बिकने वाली दवाआें की कीमत में कमी न कर मात्र छोटे-मोटे ब्राण्ड की दवाआे के मूल्य में ही कमी की है । उपभोक्ताआे के साथ की गई इस धोखाधड़ी का एक स्पष्ट उदाहरण है ल्यूपिन कंपनी को जोकि तपेदिक की चिकित्सा में प्रयुक्त दवा कोम्बुटोल की सबसे बड़ी कंपनी रेनबेक्सी ने चिकित्सकों के मध्य अत्यंत लोकप्रिय उसकी एंटीबायोटिक दवा की कीमत में भी कोई कमी नहीं की । देश में दवा निर्माताआे की संख्या ५८७७ है, उनमें से मात्र ११ निर्माताआे ने वह भी अपनी कम बिकने वाली दवाआे की कीमतें कम की । परिणाम यह हुआ कि आम आदमी को दवा की कीमतों में कमी के इस प्रयास से कहीं किसी प्रकार को कोई लाभ नहीं पहंचा और सारी कवायद आंकड़ों तक ही सीमित रही । सरकार और दवा उत्पादकों के इन दिखाऊ प्रयासों का दवा बाजार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। आज भी मूल्य नियंत्रण से मुक्त दवा बाजार में अलग-अलग कंपनियों द्वारा एक ही दवा की ली जाने वाली कीमत में कई गुना अंतर पाया जाता है । इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार है :- १. एलर्जीके लिए बहुतायत से प्रयुक्त केडिला एंव सिटीमेड कंपनियों द्वारा उत्पादित दवा सेट्रिजीन की १० गोलियों की कीमत १०.६० रूपए है जो इनके द्वारा कम की गई है । यह कम की गई कीमत भी बड़ौदा के एक गैर व्यावसायिक उत्पादक लोकोस्ट की कीमत से ४ गुना अधिक है । राज्य सरकारों द्वारा थोक में जिस कीमत पर यह दवा खरीदी जाती है, उसमें तथा इस कम की गई कीमत में तो और भी अधिक अंतर है। २. वोकॉर्ड एवं अन्य कंपनी ने अपनी एंटीबायोटिक दवा की १० गोली की कीमत को कम करके ११८.१६ रूपए कर दिया । जबकि यही गोलियां तमिलनाडु की सरकार को थोक मात्र ८.६९ रूपए में दी जा रही थी । ३. रेनबक्सी कंपनी ने अपनी तपेदिक की चिकित्सा में प्रयुक्त दवा इथमबूटोल की १० गोलियों की कीमत को कम करके २६.४६ रूपए कर दिया। जबकि इसकी सर्वाधिक बिक्री करने वाली ल्पूपिन कंपनी द्वारा इस दवा की कीमत में कोई कमी नहीं की गई । ४. रेनबेक्सी कंपनी ने उच्च् रक्तचाप में प्रयुक्त होने वाली एटीनीनोल की १० गोली की कीमत कम करके १७.९० रूपए कर दी, परंतु जाइडस कंपनी जो इस औषधि की सर्वाधिक बिकी करती हे, ने इसकी कीमत में कोई कमी नहीं की। उपरोक्त उदाहरणों से निम्न निष्कर्ष निकलते है: दवा कंपनियों ने आपसी मिलीभगत से उन्हीं ब्राण्डों की कीमतें कम की जो कि कम बिकते थे एवं सर्वाधिक बिकने वाले ब्राण्डों के मूल्योंको यथावत रखा गया था । इस तरह कीमत कम की जाने वाली दवाआें की सूची तो लंबी होती गई, परंतु इस सूची में सर्वाधिक बिकने वाले ब्राण्ड शामिल न होने से न तो जनता को इन प्रयासों को कोई लाभ मिला और न ही दवा कंपनिये के भारी मुनाफे में कोई कमी आई । अपने ऊंची कीमत वाले ब्राण्डों को बाजार में बेचने के लिए दवा कंपनियां वितरकों, फुटकर व्यापारियों एवं चिकित्सकों को भी प्रलोभन देती हैं । वे वितरकों और फुटकर व्यापारियों को अच्छा कमीशन तो देती ही हैं, चिकित्सकों को भी महंगी महंगी भेंट देकर उनके क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेने का व्यय वहन कर तथा अन्य प्रलोभनों से उनके महंगे ब्राण्ड की दवाआे को ही लिखने को प्रेरित करती हैं । दवा कंपनियों, वितरकों, फुटकर व्यापारियों एवं चिकित्सकों की इस जुगलबंदी से बाजार में दवाआे के महंगे ब्राण्ड ही सर्वाधिक बिकते हैं, सस्ते ब्राण्ड नहीं । इस सारे विश्लेषण से निष्कर्ष यही निकलता है कि हमारी सरकार दवा कपंनियों के दबाव में ऊंची कीमतों पर किसी प्रकार का कोई नियंत्रण लगाने के लिए तैयार नहीं है । उसके द्वारा ही नियुक्त समितियों द्वारा दवाआें की कीमतों पर प्रभावी नियंत्रण रखने की सिफारिशें मंत्रालय के किसी कोने में पड़ी धूल खाती रहती हैं । सरकार को इस बात की कतई कोई परवाह नहीं है कि दवाआे की ऊंची कीमतों के कारण अनेक लोगों द्वारा चिकित्सा पाना ही संभव नहीं रहा है और अगर ये लोग चिकित्सा लेते भी हैं तो उसके व्यय की पूर्ति के लिए या तो उन्हें परिवार की कोई स्थायी संपत्ति जैसे पशु, मकान, भूमि आदि बेचनी पड़ती है या कर्ज लेना पड़ता है । लोक कल्याण का दावा करने वाली किसी भी सरकार के लिए ऐसी स्थिति कलंककारी ही मानी जाएगी ।

५ पर्यावरण परिक्रमा

पिघलती बर्फ, एक ज्वलंत विषय

जलवायु परिवर्तन को गंभीर प्रश्न बताते हुए संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि प्राकृतिक बर्फ और ग्लेशियरों के पिघलने से करोड़ों लोगो पर असर पड़ेगा । इसी को ध्यान में रखते हुए वर्ष २००७ के लिए विश्व पर्यावरण दिवस पर नारा दिया गया है । पिघलती बर्फ, एक ज्वलंत विषय इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस पर सबसे ज्यादा ध्यान ध्रुवीय पारितंत्र में हो रहे बदलाव और इसके लोगों पर पड़ने वाले असर पर दुनियाभर के ७० पर्यावरणविदों और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की मदद से एक विशेष रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण पेयजल और सिंचाई के लिए उपलब्ध होने वाले पानी पर भी बुरा असर पड़ेगा जिससे संकट और बढ़ेगा । यह भी कहा गया है कि तेजी से पिघलती बर्फ उन क्षेत्रों और द्वीपों के लिए खासतौर पर चिंता का विषय है जो कि निचले स्तर पर स्थित हैं क्योंकि बर्फ के पिघलने के साथ ही समुद्र स्तर में बढ़ोत्तरी भी होती जाएगी । रिपोर्ट के मुताबिक केवल एशियाई पर्वतों पर जमी बर्फ और ग्लेशियरों के पिघलने से दुनियाभर की ४० प्रतिशत आबादी प्रभावित होगी । नई दिल्ली में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार नदियों में जल के प्रमुख स्त्रोत हिमालय के ग्लेशियरों में बड़ी दरारें पड़ने लगी है। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक हालांकि हिमालय के ग्लेशियरों की सघनता और उसके क्षेत्रफल दोनों में गिरावट आई है लेकिन इससे यह अनुमान लगाना गलत होगा कि आने वाले दिनों में हिमालय से निकलने वाली नदियों में जलापूर्ति कम हो जाएगी। रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के प्रति बेहद संवेदनशील हिमालय के ये ग्लेशियर एक प्राकृतिक चक्र के तहत पिघलते रहते हैं । ताजा अध्ययनों से पता चला है कि तकरीबन एक सदी से इन ग्लेशियरों में यह प्रवृत्ति देखी जा रही है । जलवायु परिवर्तन के कारण अगले ५० सालों मे हिमालय के ग्लेशियरों का अस्तित्व समाप्त् हो जाएगा, जिससे इस क्षेत्र में रह रहे करोड़ों लोग प्रभावित होंगे । इंटरनेशनल सेंटर फार इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईमलओडी) द्वारा जलवायु परिवर्तन पर बुलाए गए सम्मेलन में विशेषज्ञों ने यह चेतावनी दी्र। विशेषज्ञों के अनुसार पिछले १०० सालों से पृथ्वी का तापमान ०.७४ डिग्री सेल्सियस के औसत से बढ़ा है ।`ग्लोबल वार्मिंग' ने हिमालय का तापमान पिछले ३० सालों में ०.६ डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है । एशिया की ९ बड़ी नदियों के जल का स्त्रोत हिमालय के हजारों ग्लेशियर हैं । इन नदियों के बेसिन में पाकिस्तान, म्यांमार, भारत और चीन के १०.३ करोड़ लोग निवास करते हैं । आईसीआईएमओडी के महानिदेशक एड्रियाज शील्ड ने कहा कि ग्लेशियरों के गायब हो जाने का मतलब है पर्वतों की प्राकृतिक जल भंडारण क्षमता में कमी । श्री शील्ड ने कहा कि इसका मतलब जल का प्रवाह बाधित होगा । ग्लेशियरों के पिघलने से जैव विविधता, हाइड्रो विद्युत, उद्योग और कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और यह क्षेत्र में रहने वाले के लिए खतरनाक होगा । बर्फ पिघलने से ग्लेशियरों के किनारे झील का निर्माण होगा । जोकि तापमान बढ़ने से अपने किनारों को तोड़कर तबाही बचा सकती है ।

नशे से करोड़ों लोग तबाही की ओर

मादक पदार्थो के सेवन को रोकने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों से इनके उत्पादन में कमी जरूर आई है, पर २२ करोड़ से भी ज्यादा लोग अब भी इनकी लत से तबाही की राह पर है । नशीले पदार्थ एवं अपराध पर संयुक्त राष्ट्र की २००७ की रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक तक मादक पदार्थो का अड्डा माने जाने वाले दक्षिण एशिया में यह समस्या कम हो रही है । अब योरपीय देशों में इसका प्रभाव बढ़ गया है । मादक पदार्थो के सेवन, इनका अवैध उत्पादन, तस्करी और अंडरवर्ल्ड एवं आतंकवादियों के फलने-फूलने की उत्तरोत्तर गंभीर होती समस्या के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष १९९८ में इस विषय पर विशेष सत्र आयोजित किया था। जिसमें वर्ष २००८ तक नशीले पदार्थो की माँग एवं आपूर्ति में भारी कमी लाने का लक्ष्य निर्धारित किया था । वर्ष २००७ में मादक पदार्थो का दुरूपयोग रोकने, वर्ष २००८ में इनकी खेती और उत्पादन तथा वर्ष २००९ में इनके अवैध व्यापार को नियंत्रित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा । रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में करीब २२ करोड़ ६० लाख लोग अवैध नशीले पदार्थो की लत के शिकार हैं । सबसे ज्यादा १६ करोड़ २० लाख लोग गाँजा, हशीश तथा टीएचसी जैसे पदार्थो का नशा करते हैं । इसके बाद करीब तीन करोड़ पाँच लाख लोग एेंफेटेमाइन टाइप स्टिमुलैंट्स आदि का नशा करते हैं । एक करोड़ ६० लाख लोग अफीम की श्रेणी में आने वाले हेरोइन, सिन्थेटिक अफीम और करीब एक करोड़ ३० लाख लोग कोकीन का नशा करते हैं । यूएनओडीसी और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा २००१ में कराए गए संयुक्त सर्वेक्षण के मुताबिक देश में छ: करोड़ २५ लाख लोग शराब का, ८७ लाख लोग भाँग तथा २० लाख लोग अफीम का नशा करते हैं । इनमें नशा करने वाली महिलाआें का प्रतिशत आठ हैं । नशीले पदार्थो का केंद्र माने जाने वाले दक्षिण एशियाई क्षेत्र में पिछले एक दशक में इसमें ८० प्रतिशत की कमी आ गई है । उन्नीस सौ अस्सी के दशक के मध्य तक लाओस में सर्वाधिक गैर कानूनी अफीम का उत्पादन किया जाता था लेकिन २००५ तक इसमें ७२ प्रतिशत तक की कमी आ गई । चीन माउंट एवरेस्ट तक हाइवे बनायेगा चीन एवरेस्ट के बेस कैंप तक १०८ किलोमीटर लंबी सड़क बनायेगा । चीन के सांस्कृतिक मंत्री सून जियाझोंग ने पिछले दिनों नई दिल्ली में कहा कि तिब्बत की तरफ से ५२५० मीटर की ऊंचाई पर चीन एक सड़क बनाएगा । एवरेस्ट के बेस कैम्प तक बनने वाली इस सड़क का काम चार महीने में पूर्ण हो जाएगा और १०८ किलोमीटर लंबी मल्टेड हाइवे ओलंपिक टार्च को यहां लाने में मददगार होगी । माउंट एवरेस्ट के बेस कैम्प तक सड़क निर्माण की चीन की योजना पर पर्यावरणविदों ने गंभीर चिंता प्रकट की है। प्रत्यक्ष रूप से चीन की यह महत्वाकांक्षी परियोजना अगले साल आयोजित होने वाले बीजिंग ओलंपिक से जुड़ी है । इस परियोजना के तहत ५,२०० मीटर पहाड़ की खुदाई कर १०८ किलोमीटर लम्बी सड़क का निर्माण किया जाना है । परियोजना को ओलंपिक टार्च रूट विस्तार के रूप में चित्रित किया जा रहा है । चीन एक तरफ तो बीजिंग ओलंपिक को 'ग्रीन ओलंपिक' के रूप में प्रचारित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर ओलंपिक खेलों के लिए ऐसी परियोजना पर काम करने जा रहा है जिसके कारण 'माउंट एवरेस्ट' जैसे प्राकृतिक क्षेत्र के पर्यावरण को गंभीर क्षति हो सकती है । चीन की परियोजना के अगले चरण में पर्यटकों के लिए रिसॉर्ट विकसित करने की योजना है । इसके बाद यह हाइवे माउंट एवरेस्ट पर बड़ी संख्या में आने वाले पर्यटकों और पर्वतारोहियों के लिए कूड़ा कचरा फेंकने की जगह बन जाएगी। महत्वपूर्ण तथ्य है, इस परियोजना की घोषणा होने से पहले ही विश्व की सबसे ऊँची चोटी 'माउंट एवरेस्ट' के पर्यावरण को लेकर विशेषज्ञ चिंतित है । माउंट एवरेस्ट तेजी से पर्वतारोहियोंद्वारा छोड़े गए कूड़ा करकट के कारण कूड़ा घर में तब्दील हो गया है। पर्वतारोहियों और पर्यटकों की बढ़ती संख्या से एवरेस्ट के पर्यावरण को और अधिक नुकसान होगा । वास्तव में इस समस्या से निपटने के लिए ऐसे भी सुझाव दिए गए हैं कि कुछ समय के लिए माउंट एवरेस्ट को 'विजिटर्स' के लिए बंद कर दिया जाए । 'ग्लोबल वार्मिंग' के कारण ग्लेशियरों के पिघलने से माउंट एवरेस्ट का अस्तित्व पहले से ही खतरे में है । चीन की हाइवे परियोजना इस क्षेत्र के 'इको सिस्टम' को और बिगाड़ देगी । ढांचागत सुविधाआें के विकास से क्षेत्र का प्राकृतिक स्वरूप खतरे मेंपड़ जाएगा, यह कल्पना की जा सकती है कि पर्यटक पहाड़ों के किनारे क्या कर सकते हैं ? पर्यावरण की कीमत पर विकास चीन के लिए नया नहीं है । पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर चीन का रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है । चीन के तीव्र आर्थिक विकास की कीमत उसके पर्यावरण को चुकानी पड़ी है । खतरनाक हो सकती है कड़कड़ाती बिजली बजली आमतौर से गरजदार तूफान के दौरान पैदा होती है । बादल जब काफी ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं तो वहां तापमान बहुत कम होता हैं । उस समय आधे जमे पानी के कणों का घनात्मक और ऋणात्मक चार्ज बदलने लगता है । इस बदलाव की प्रक्रिया में ये कण आपस में टकराते हैं और चिंगारी पैदा होती है । ये १० करोड़ वोल्ट तक की हो सकती है । ये बिजली बादलों की बीच में पैदा हो सकती है, बादलों और हवा के बीच या फिर बादलों और जमीन में बीच । इस बिजली का तापमान ५० हजार डिग्री फैरनहाइट तक का हो सकता है । जो सूर्य की सतह के तापमान से भी अधिक है । इसलिए अगर यह जमीन पर किसी से टकरा जाए तो उसे तुरंत भस्म कर देती है । बिजली बहुत तेजी से हवा को गर्म करती है जिससे वह अचानक फैलती है और फिर सिकुडती है । इससे विस्फोट होता है अैर ध्वनि तरंग पैदा होती हैं । इसी को हम बादलों के गर्जन के रूप में सुनते हैं । प्रकाश एक लाख ८६ हजार मील प्रति सेकण्ड की रफ्तार से चलता है जबकि ध्वनि एक सैकण्ड में ३५२ गज की गति से इसलिए हमें बिजली कड़कती पहले दिखाई देती है और गरज उसके बाद सुनाई देती है ।

७ ज्ञान विज्ञान

बंगलोर में बढ़ता इलेक्ट्रॉनिक कचरा
भारत में सिलिकॉन वेली के रूप में मशहूर आईटी शहर बंगलोर में ई-वेस्ट यानी इलेक्ट्रॉनिक कचरे की समस्या गंभीर होती जा रही है । इनसे निकलने वाले हानिकारक रसायन न सिर्फ मिट्टी को दूषित कर रहे हैं, बल्कि भूजल को जहरीला बना रहे हैं ।
भारत में सूचना प्रौद्योगिकी का सबसे बड़ा क्षेत्र बंगलोर है । यहाँ करीब १७०० आईटी कंपनियाँ काम कर रही हैं और इनसे हर साल ६००० से ८००० टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकलता है । सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क ऑफ इंडिया (एसटीपीआई) के डायरेक्टर जे. पार्थसारथी कहते हैं कि सबसे बड़ी जरूरत है भारी मात्रा में निकलने वाले ई-वेस्ट के सही निपटान की । जब तक उनका व्यवस्थित ट्रीटमेन्ट नहीं किया जाता, वह पानी और हवा में जहर फैलाता रहेगा । इंडो-जर्मन स्विस ई-वेस्ट कंपनी के सहयोग से बंगलोर में काम कर रहे एनजीओ ई-वेस्ट एजेंसी ने इलेक्ट्रॉनिक कचरे के सही निपटान के लिए पर्यावरण और वन मंत्रालय को पत्र भी लिखा है । इस पत्र में कहा गया है कि इस संबंध में कानून में प्रावधान किया जाना चाहिए। ई-वेस्ट आईटी कंपनियों से निकलने वाला वह कबाड़ है, जो तकनीक में आ रहे परिवर्तनों और स्टाइल के कारण निकलता है । जैसे पहले बड़े आकार के कम्प्यूटर मॉनीटर आते थे, जिनका स्थान स्लिम और फ्लेट स्क्रीन वाले छोटे मॉनीटरों ने ले लिया है । इसलिए पुराने मॉनीटर बेकार हो गए । माउस, की-बोर्ड या अन्य उपकरण जो चलन से बाहर हो गए हैं, वे ई-वेस्ट की श्रेणी में आ जाते हैं । इलेक्ट्रॉनिक चीजों को बनाने में उपयोग होने वाली सामग्रियों में ज्यादातर कैडमियम, निकेल, क्रोमियम, एंटीमनी, आर्सेनिक, बेरिलियम और पारे का इस्तेमाल किया जाता है । ये सभी पर्यावरण के लिए घातक हैं । इनमें से काफी चीजें तो रिसाइकल करने वाली कंपनियाँ ले जाती हैं, लेकिन कुछ चीजें नगर निगम के कचरे के साथ चली जाती हैं । वे हवा, मिट्टी और भूमिगत जल में मिलकर जहर का काम करती हैं । कैडमियम के धुएँ और धूल के कारण फेफड़े व किडनी दोनों को गंभीर नुकसान पहँुचता है ।

प्लास्टिक से समुद्री जीवों को खतरा
प्लास्टिक का कहर अब समुद्रों पर भी टूटने लगा है । ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा किए जा रहे शोधों की श्रृंखला में यह तीसरा शोध है, जिसकी रिपोर्ट हाल ही में जारी की गई है । वैज्ञानिकों का कहना है कि प्लास्टिक में मौजूद सूक्ष्म कण स्वत: ही नष्ट नहीं होते हैं और उनसे समुद्र का पानी जहरीला हो रहा है।
इससे समुद्री जीव-जंतुआे और समुद्री पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहँुच रहा है । लंदन की प्लेमाउथ यूनिवर्सिटी के रिचर्ड थॉमसन द्वारा समुद्री पर्यावरण पर अध्ययन किए जा रहे हैं । इसकी तीसरी रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि मछली पकड़ने के लिए समुद्र में डाला जाने वाला जाल और लोगों द्वारा फेंकी गई प्लास्टिक बोतलें व प्लास्टिक की अन्य सामग्रियाँ समुद्र में जहर का काम कर रही हैं । इससे न सिर्फ समुद्री जीव मौत का शिकार हो रहे हैं, बल्कि जलीय पौधे भी नष्ट हो रहे हैं । अध्ययन में बताया गया है कि प्लास्टिक चाहे मोटा हो या पतला उसमें कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जो प्राकृतिक रूप से कभी नष्ट नहीं होते हैं । इन्हें केवल भौतिक रूप से नष्ट किया जा सकता है, लेकिन समुद्र में सालों से डाले जा रहे प्लास्टिक ने अब गंभीर रूप ले लिया है। श्री थॉमसन ने बताया कि समुद्र की सतह के प्रत्येक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में प्लास्टिक की तीन लाख विभिन्न सामग्रियाँ पाई जाती हैं । समुद्र तल में प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक लाख से ज्यादा प्लास्टिक के पदार्थ हैं। यह गंभीर बात है कि इन्हें प्राकृतिक रूप से नष्ट नहीं किया जा सकता । इसलिए समुद्र के पानी को और जहरीला होने से रोकने का केवल एक ही उपाय है कि हम उसमें किसी तरह प्लास्टिक को जाने से रोकें ।
प्लास्टिक उत्पादन के क्षेत्र में नयी क्रांति
सब्जियों के राजा आलू से चिप्स, टिक्की और चाट जैसे स्वादिष्ट व्यंजन तो हमेशा बनते रहे हैं लेकिन अब इसी आलू का इस्तेमाल प्लास्टिक बनाने में भी होगा ! जल्द ही बाजार में आलू के प्लास्टिक से बने ग्लास, प्लेटें, टेबल क्लॉथ, सोफा कवर एवं पर्दे यहाँ तक की कालीन भी उपलब्ध होंगे । ब्रिटेन के जैव वैज्ञानिकों ने आलू के स्टार्च से जैव प्लास्टिक बनाने का नायाब तरीका खोज निकाला है ।
प्लास्टिक बनाने की यह नई तकनीक ब्रिटेन के मायने विश्वविद्यालय द्वारा प्रस्तुत की गई है । विवि के चेस स्मिथ पालिसी सेंटर की रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण की दृष्टि से यह प्लास्टिक बेहद फायदेमंद होगा क्योंकि जैविक रूप से नष्ट हो जाने के स्वाभाविक गुण के कारण यह पेट्रोलियम पदार्थो से बने प्लास्टिक की तरह हमेशा पर्यावरण में मौजूद रहकर उसे नुकसान नहीं पहुँचाएगा । रिपोर्ट में कहा गया है कि आलू के स्टार्च से बने इस प्लास्टिक से पुनर्चक्रण वाले सभी उत्पाद जैसे बोतलें, थैलियाँ और साज-सजावट के सभी सामान बखूबी बनाए जा सकेंगे । ब्रिटेन और जापान में जैव प्लास्टिक बनाने की यह तकनीक धड़ल्ले से इस्तेमाल में लाई जा रही है । वहाँ आलू से बने जैव प्लास्टिक उत्पादों को स्पडवेयर का नाम दिया गया है । आलू में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ बनाए जाने के दौरान बड़ी तादाद में बचे आलू के अवशेष का इस्तेमाल इस तरह के प्लास्टिक को बनाने की विधि काफी जटिल है । सबसे पहले आलू जनित व्यर्थ पदार्थो को एक बड़ी चक्की युक्त मशीन में डालकर उसकी लुगदी बनाई जाती है। फिर इससे प्राप्त् स्टार्च यानी माण्ड को ग्लूकोज में तब्दील किया जाता है । इस ग्लूकोज को लैक्टिक बैक्टीरिया में बदलने के लिए इसमें खमीर बनाने की प्रक्रिया अपनाई जाती हैं । इसके बाद लैक्टिक एसिड को परिष्कृत करने के लिए इसमें से लैक्टिक बैक्टीरिया को पृथक करने का काम शुरू होता है जिसके लिए विद्युत आवेशित परिष्करण प्रक्रिया अपनाई जाती है । फिर परिष्कृत लैक्टिक एसिड को कार्बन फिल्टरों से छानकर पाउडर बनाया जाता है । इस पावडर से ही जैव प्लास्टिक बनाई जाती है ।पर्यावरण विशेषज्ञ, जैव वैज्ञानिक और कृषि विशेषज्ञ सभी इस बात पर एकमत हैं कि आलू के इस अभिनव प्रयोग से न केवल प्लास्टिक बनाने के क्षेत्र में नई क्रांति आएगी बल्कि इससे आलू उत्पादकों को भी फायदा होगा और उनके व्यवसाय को एक नई संभावना वाला क्षेत्र मिलेगा ।
दुनिया का सबसे पुराना पेड़ मिला
जीवाश्म वैज्ञानिकों को साढ़े ३८ करोड़ साल पुराने पेड़ का जीवाश्म मिला हैं । इसे दुनिया का सबसे पुराना पेड़ माना जा रहा है । वैज्ञानिकों को यह पेड़ दो साल पहले न्यूयार्क के पास मिला था, लेकिन तब उसकी पहचान नहीं हो पाई थी। अब कार्डिफ विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस्टोफर बेरी ने जीवाश्म की पहचान करने का दावा किया है। उनके अनुसार यह जीवाश्म फर्न के क्लेडॉक्सीलॉप्सिड समूह का है जिन्होंने इस धरती पर सबसे पहले जंगलों का निर्माण किया था ।
गौरतलब है कि इन्हीं पेड़ों का जीवाश्म पहली बार आज से करीब सौ साल पहले मिला था । उस समय न्यूयार्क के गिलबोआ में आई बाढ़ के बाद इस पेड़ के ठूंठ मिले थे, लेकिन तब यह नहीं मालूम हो पाया था कि यह पेड़ दिखता कैसा था । अब जिस पेड़ का जीवाश्म मिला है, वह पूरी तरह अक्षुण्ण है । यानी तना, शाखाएं और पत्तियां सभी उसमें पाई गई हैं। डॉ. बेरी ने इस खोज को अद्भुत करार दिया है । उसके अनुसार इस खोज से वैज्ञानिकों को शुरूआती जंगल तंत्र के बारे में आगे की जानकारी जुटाने में आसानी रहेगी । इस संबंध में अपने प्रारंभिक आकलन के अनुसार वे बताते हैं कि इन पेड़ों की उत्पत्ति हमारे लिए वरदान साबित हुई है । जंगलों के विकास से धरती पर भारी मात्रा में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड में कमी हुई होगी और धीरे-धीरे तापमान में भी गिरावट आना शुरू हुआ होगा ।

शनिवार, 21 जुलाई 2007

८ प्रकृति संरक्षण

कैसे बचाएं वनस्पतियों को
गोविंदसामी अगोरामूर्ति
सहस्त्राब्दि पारिस्थितिकी तंत्र आकलन (मिलेनियम इकोसिस्टम असेसमेंट) के अनुसार हाल के दिनों में विश्व के पर्यावरण और इकोसिस्टम को गंभीर क्षति पहुंची है । यह आकलन दुनियाभर में १३६० वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों ने पेश किया है । इकोसिस्टम दुनिया के लोगों को २४ अति आवश्यक सेवाएं प्रदान करता है । इनमें मीठा जल, खाद्य सामग्री, वातावरण व शुद्ध वायु का नियमन इत्यादि शामिल हैं । आकलन के अनुसार इन सेवाआे में से १५ यानी ६२.५ फीसदी में बुरी तरह से गिरावट आई है । इसके अलावा विश्व संरक्षण संघ ने अपने आकलन में वैश्विक वनस्पति विविधिता को लेकर जो आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, वे भी गंभीर स्थिति की ओर संकेत करते हैं। इसमें जिन ७० फीसदी पौधों का आकलन किया गया है, उनमें से ४५ फीसदी खतरे या अत्यधिक खतरे में हैं । इकॉलॉजी की दृष्टि से भारत विश्व के उन २५ स्थानों में शामिल है, जो प्राकृतिक संपदा से सम्पन्न है । जंतु व पादप विविधता के मामले में भी इसका कोई सानी नहीं है । लेकिन साथ ही इस प्राकृतिक संपदा पर खतरा भी मंडरा रहा है । यहां वन्य प्राणियों जैसे हाथी, शेर, बाघ, गैंडा इत्यादि के संरक्षण पर काफी ध्यान दिया जाता रहा है, लेकिन वनस्पतियां अक्सर उपेक्षित ही रही हैं । यह सर्वविदित है कि पेड़-पौधे इस धरती पर जीवन को गतिशील रखने में अहम भूमिका निभाते हैं । वे सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण कर मनुष्यों सहित समस्त प्राणियों के लिए भोजन का मुख्य स्त्रोत हैं । जीने के लिए जो सांस हम लेते हैं, उसकी गुणवत्ता सुधारने का काम भी ये पेड़-पौधे ही करते हैं । इसके बावजूद लोग पशु-पक्षियों के प्रति ही आकर्षित होते हैं और उन्हीं पर अपनी जान छिड़कते हैं, जबकि पेड़-पौधों को नज़र अंदाज़ किए रहते हैं। ऐसा क्यों ? इसकी भी वैज्ञानिक वजह है । तथ्य यह है कि हम अपने आसपास मौजूद सभी चीजों को एक ही नज़र से नहीं देखते हैं । आंखो से ० से लेकर १५ डिग्री नीचे तक की वस्तुएं ज़्यादा ध्यान खींचती हैं । शोधकर्ताआें द्वारा की गई गणनाआे के अनुसार हर एक सेकंड में आंखें एक करोड़ बिट्स से अधिक दृश्य संकेत उत्पन्न करती है, लेकिन मस्तिष्क उनमें से केवल ४० बिट्स को ग्रहण कर पाता है । इनमें से भी हमारी चेतना तक तो मजह १६ बिट्स ही पहुंच पाते हैं । आम तौर पर मस्तिष्क गतिशील, रंगीन और संभावित खतरे वाली वस्तुआे के प्रति अधिक संवेदनशील होता हैं । पेड़-पौधे प्राय: स्थिर रहते हैं, उनका रंग भी पृष्ठभूमि के साथ एकाकार-सा हो जाता है और वे कभी-कभार ही हमारे लिए कोई खतरा उत्पन्न करते हैं । इसलिए वे हमारी आंखों का ध्यान नहीं खींच पाते। इसी का नतीजा है कि पेड़-पौधों के प्रति हम उदासीन बने रहते हैं । इसलिए यह ज़रूरी है कि हम वनस्पतियों के संरक्षण को लेकर जागरूक हों । भारत में पादप एंडेमिज़्म ३३ फीसदी आंका गया है । एंडेमिज़्म का मतलब होता है वे प्रजातियां जो मात्र उसी इलाके में पाई जाएं । हमारे देश में १४० ऐसे पादप कुल हैं जो सिर्फ यहीं पाए जाते हैं । उत्तर-पूर्व, पश्चिमी घाट, उत्तर-पश्चिम और पूर्वी हिमालय के जंगलोंमें एंडेमिक वनस्पतियां भरी पड़ी हैं । इसके अलावा अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में भी ऐसी वनस्पतियां बहुतायत में पाई जाती हैं । इस द्वीप समूह में वनस्पतियों बहुतायत में पाई जाती है । इस द्वीप समूह में वनस्पतियों की कम से कम २२० एंडेमिक प्रजातियां पाई जाती हैं । पूरी दुनिया की कुल पुष्पधारी पादप विविधता में से ६ फीसदी अकेले भारत में मिलती हैं । संख्या के हिसाब से ये करीब १५ हजार प्रजातियां होती हैं । आज इन वनस्पतियों के सामने कई प्रकार के खतरे हैं । इनमें उनके प्राकृतवास के नष्ट होने, जैविक घुसपैइ, व्यावसायिक दोहन और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से पैदा हुआ प्रदूषण प्रमुख हैं। ये खतरे केवल भारत में ही नहीं, बल्कि हर जगह हें । जैव विविधता और अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर की वजह से जैविक घुसपैठ प्रमुख पर्यावरणीय चिंता बन गया है । ऐसा कोई विज्ञान नहीं है जिससे पूर्वानुमान लगाया जा सके कि कौन-सी वनस्पति `जैविक घुसपैठिया' साबित होगी । जैव विविधता पर आयोजित सम्मेलनों में विशेषज्ञों ने ऐसे तंत्र का विकास करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है जिससे जैविक घुसपैठ जैसी समस्या से निपटा जा सके । जोखिमग्रस्त स्थानीय वनस्पतियों के बचाव के लिये कुछ आसान कदम उठाए जा सकते हैं । अपने वातावरण में वनस्पतियों की उपस्थिति को महसूस करने की असमर्थता की वजह से ही दैनिक जीवन में पेड़-पौधों को उनका वाजिब महत्व नहीं मिल पाता है । इससे हम पेड़-पौधों की सुंदरता और जैविक विशेषताआे को अनुभव करने से भी चूक जाते हैं । हमें चाहिए कि हम बच्चें को पौधे लगाने को प्रेरित करें और उन्हें यह महसूस करवाएं कि मानव जीवन वनस्पतियों पर ही निर्भर है । एंडेमिक पेड़-पौधों के संरक्षण के लिए गांवों, कस्बों और शहरों में पौध संरक्षण परियोजनाएँ शुरू की जा सकती हैं। स्थानीय स्तर पर गठित समितियाँ लोगों में जनजागृति पैदा कर सकती हैं । इसके अलावा उन सार्वजनिक स्थलों का संरक्षण किया जाना चाहिए जहां स्थानीय जड़ी-बुटियां और पेड़-पौधे लगे होते हैं । यहां से जैविक घुसपैठियों को खदेड़ दिया जाना चाहिए, यानी ऐसे पौधों को नष्ट कर दिया जाना उचित होगा जिनकी जैविक घुसपैठिया बनने की तनिक-सी भी आशंका हो । घुसपैठी पौधों से भारत में कितना आर्थिक नुकसान होता है, इसका ठीक-ठाक आंकड़ा तो अभी उपलब्ध नहीं है । इसलिए भविष्य के अनुसंधानों में इस मुद्दे पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए । इस संबंध में भारत में दुर्लभ या विलुप्त्प्राय वनस्पतियों की संख्या, उनका वितरण और इकॉलॉजी पर नजर रखने के लिए भी अनुसंधान की जरूरत है । स्थानीय स्तर पर पौधों को संरक्षण देकर और कानूनी सुरक्षा मुहैया करवाकर भी हम इस दिशा में काफी कुछ कर सकते हैं ।

९ जनजीवन

छलावा है जीन युक्त चावल
ची योग हेओग
एक अमेरिकी कंपनी को मानव जीन युक्त जैविक रूप से संशोधित धान की खेती करने की स्वीकृति मिल गई है। इस बारे में दावा किया जा रहा है कि इससे लाखों बच्चें की जान बचाई जा सकती है । लेकिन कुछ विशेषज्ञों ने इसकी जरूरत पर सवाल उठाते हुए कहा है कि जान बचाने का दावा सिर्फ अपना माल बेचने की तरकीब नजर आता है । वेन्ट्रिया बायोसाइंस नामक कंपनी द्वारा बनाया गया यह चावल इस प्रकार से बनाया गया है कि इससे दूध व प्रोटीन निर्मित होंगे जिसे दस्त में दिये जाने वाले ओ.आर.एस. समेत अन्य पेय तथा खाद्य पदार्थों में भी इस्तेमाल किया जा सकेगा। इस औषधीय चावल को अमेरिका के केंसेस में व्यापक रूप से खेतों में बोने की मंजूरी कृषि विभाग से मिल चुकी है । वहीं दूसरी ओर अमेरिका के खाद्य और औषधि प्रशासन से इसके सुरक्षित होने की स्वीकृति देने से इंकार कर दिया है । केंसस लगभग ३२०० एकड़ क्षेत्र में इसकी बुआई की जायेगी और अगर अमेरिका का कृषि विभाग वेन्ट्रिया के आवेदन को पूरी तरह स्वीकार कर लेता है तो यह अमेरिका में दवा उत्पन्न करने वाले खाद्यान्न की सर्वाधिक मात्रा में बुआई होगी। साथ ही यह विश्व का पहला मानव जीवन युक्त खाद्यान्न होगा । कंपनी की योजना है कि इस धान के माध्यम से प्रोटीन की खेती करे और इसका इस्तेमाल दस्त और निर्जलन की बीमारी से जुझ रहे लाखों बच्चें को बचाने के लिए उन्हें दी जा सकने वाले पेय और खाद्य पदार्थों में करें । दस्त से हर साल करीब २० लाख बच्चें दम तोड़ देते हैं और इनमें से अधिकांश विकासशील देशों में होते हैं । पांच वर्ष से कम उम्र के अधिकांश बच्चें की मौत इसी बीमारी की वजह से होती है । हालांकि अफ्रीका के एक संगठन 'फ्रेण्ड्स ऑफ द अर्थ' ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि जीन संशोधित धान गैर-जरूरी है, क्योंकि अतिसार के कारण सबको पता है और उसके इलाज में इस महंगे उपाय की कोई जरूरत नहीं है । उन्होंने ध्यान दिलाया कि वेन्ट्रिना द्वारा उपजाया जाने वाला धान, इस बीमारी से लाखों बच्चें की जिंदगी बचाने के लिए शुद्ध पेयजल, मल निकासी के साफ और सुरक्षित तरीके जैसे इस बीमारी के अन्य मौजूदा उपायो से लोगों का ध्यान हटा लेगा । गौरतलब है कि दस्त से पीड़ित बच्चें के शरीर में बड़ी मात्रा में पानी बाहर निकल जाता है, और उन्हें सर्वाधिक जरूरत पुर्नजलीकरण की होती है । इस बीमारी से निपटने के लिए ओ.आर.एस. जैसे सस्ते और सर्वसुलभ उपाय मौजूद हैं। इन उपायों के अपनाने से ही दस्त से पीड़ित बच्चें की मृत्युदर में कमी आई है । इस बीमारी से सन् १९८० में ४६ लाख बच्चें ने अपनी जान गंवाई थी, जो वर्तमान में घटकर १५ से २५ लाख हो गई है । इसे २० वीं सदी की एक बड़ी चिकित्सकीय उपलब्धि के रूप में भी स्वीकार किया गया है । भारत में सदियों से इस बीमारी के इलाज के लिए उबले चावल से बना एक पतला पेय, नारियल पानी, छाछ और सौंफ जैसे सस्ते और स्थानीय स्तर पर सरलता से उपलब्ध उपाय मौजूद हैं । अंतर्राष्ट्रीय जन स्वास्थ्य समिति की डॉ. मीरा शिवा और 'नवधान्य' की वंदना शिवा के अनुसार दूध पीते बच्चें के पुनर्जलीकरण का सर्वोत्तम उपाय मां का दूध है । वैन्ट्रिना बहुजीन युक्त चावल में माँ के दूध में पाये जाने वाले तत्व 'लेक्टोफेरीन' का इस्तेमाल कर रहा है । जबकि दूध पीते बच्चें अपनी मां के दूध से ही वह तत्व प्राप्त् करते हैं, उन्हें जीन संशोधित चावल की कोई आवश्यकता नहीं है । एक विश्लेषण के अनुसार वैन्ट्रिना के चावल जैसी औषधीय फसलें, मानव खाद्य आपूर्ति एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरा हैं । क्योंकि उनमें मौजूद प्रोटीन मनुष्य में जैविक रूप से क्रियाशील रहता है । इस विषय में अब तक पर्याप्त् परीक्षण नहीं हुए हैं और न ही उसे एफ.डी.ए. से दवा के रूप में स्वीकृति मिली है । इसलिए अचानक इसका सेवन कर लेने पर खतरा हो सकता है । `फ्रेण्ड्स ऑफ द अर्थ' के अनुसार पेरू के अस्पताल में सर्वाधिक गरीब तबके के ५ से ३३ महीने के १४० शिशुआे पर इस तकनीक का इस्तेमाल करके प्रयोग पहले ही किया जा चुका है। रपट कहती है कि इस परीक्षण के खतरे के बारे में उन बच्चें के अभिभावकों को पहले समुचित जानकारी नहीं दी गई थी और कम से कम दो माताओ ने अपने बच्चें को एलर्जी होने की शिकायत की जिसके परिणामस्वरूप पेरू सरकार ने इस परीक्षण की जांच का आदेश दिया है । औषधीय चावल से खेतों में उगने वाले अन्य जीन संशोधित चावल की प्रजाति पर होने वाली बीमारियों की जोखिम के विषय में भी चिंता व्यक्त की गई है । इसमें कई प्रकार के विकार पैदा हो जाने की संभावना है, जैसे कि व्यावसायिक पैदावार एवं बीज उत्पादन के दौरान संकरपरागण और बीजों का मिल जाना । अमेरिका में हाल ही में ऐसे विकार के कुछ मामले सामने आए हैं जिससे सिद्ध होता है कि यह आशंका निर्मूल नहीं है । अमेरिका में विकार की ताजा घटना लंबे दाने वाले लोकप्रिय चावल की गैर जीन संशोधित प्रजाति - 'क्लिअरफील्ड सी.एल. १३१' का विकार या संदूषण बायर क्रॉप साइंस द्वारा विकसित अस्वीकृत जीन संशोधित प्रजाति 'एल.एल.आर.आय.सी.ई. ६०४' के साथ हुआ था । इस श्रेणी के अंतर्गत ६०० श्रेणी के बीज द्वारा पिछले वर्ष फैलाए गये संदूषण (विकार) से अमेरिका के चावल उद्योग में खलबली मच गई थी। इस विकार के कारण बहुजीन युक्त धान विकसित करने वाली कंपनी बायर क्रॉप साइंस के खिलाफ लोगों ने क्रोध व्यक्त किया है । प्रमुख खुदरा दुकानदारों ने अपने यहां से अमेरिकी चावल के उत्पाद हटा लिये हैं और कुछ देशों ने अमेरिकी चावल का आयात रोक दिया है । जिससे अमेरिका के किसानों को नुकसान उठाना पड़ा और उन्हें बायर के खिलाफ मुकदमा दायर किया है । इस प्रजाति के अन्य देशों की खाद्य आपूर्ति को भी प्रभावित किया है । इसीलिए जीन संशोधित उत्पादों के अंतर्राष्ट्रीय नियमन की तत्काल आवश्यकता है । अपने लाखों बच्चें की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने के चुनौतीपूर्ण लक्ष्य तक पहुचने के लिए विकासशील देशों को जोखिम भरी अत्याधुनिक तकनीक वाले जीन संशोधित चावल के माध्यम से दस्त की बीमारी का सामना करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि उनके पास देशज सस्ते सहज और आजमाए हुए उपाय मौजूद हैं । जीन संशोधित चावल को विकसित कर प्रस्तुत करने के लिए कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और जिंदगी बचाने के नाम पर यह बाजारू छलावा मात्र है ।

१० विशेष लेख

१० विशेष लेख
बादलों की दुनिया में
विमल श्रीवास्तव
आकाश में छाए काले बादलों को देखकर किसका दिल झूमने नहीं लगता, चाहे वह जंगलों में रहने वाले मयूर हों, कवि हों, किसान हों या गर्मी से तपते हुए नगरवासी ।
फिर ये बादल भी कैसे-कैसे हैं; कोई तो काजल जैसे काले, कोई धुएं जैसे भूरे, कोई रूई के ढेर जैसे सफेद, तो कोई झीने दुपट्टे जैसे सफेद । इन्हीं बादलों पर अनगिनत कविताएं लिखी जा चुकी हैं, सैकड़ों फिल्मी गीत बनाए गए हैं, महाकवि कालीदास ने तो मेघदूतम् जैसा अमर महाकाव्य भी लिख डाला है । लेकिन बादलों की सुन्दरता अपनी चरम सीमा पर तब पहुुंचती है जब शाम को ढलते सूरज या भोर के उगते सूरज की किरणें आकाश के साथ-साथ बादलों को भी नारंगी, लाल, पीला जामा पहना देती हैं ।
किन्तु कवियों की भाषा से अलग हट कर क्या आपने कभी सोचा है कि आकाश में छाए ये बादल है क्या, कैसे बनते हैं, अलग-अलग प्रकार के कैसे होते हैं, उनकी क्या-क्या विशेषताएं है, इत्यादि, इत्यादि ? तो आइए, आज हम इन्हीं बादलों की सैर को चलते हैं ।
क्या होते हैं बादल - सर्वप्रथम तो यही देखें कि बादल है क्या ? वास्तव में हम पानी की नन्हीं बंदों अथवा वाष्प की संघनित अवस्था को बादल के रूप में देखते हैं । अधिक ऊंचाई पर ये बर्फ के नन्हें कणों के रूप में भी हो सकते हैं। पानी की इन बूंदों का आकार लगभग ०.०१ मि.मी. होता है, अर्थात ये इतनी छोटी व हल्की होती हैं कि हवा में तैरती हैं । तब ये नन्हीं बूंदें एक दूसरे से मिल कर बड़े आकार की हो जाती हैं, तो अपने ही भार के कारण नीचे पृथ्वी की ओर गिरने लगती हैं जिन्हें हम वर्षा की बंूदें कहते हैं ।
यानी बादल की उत्पत्ति वायुमण्डल में उपस्थित जल कणों से होती है । ये जल कण वाष्प के रूप में होते हैं, और इनका आकार इतना सूक्ष्म होता है कि सामान्यत: ये नज़र नहीं आते । जब हवा गर्म होकर ऊपर जाती है तो अपने साथ पानी को भी ऊपर ले जाती है । चूंकि ऊंचाई पर वायुमण्डल का तानमान कम होता है इसलिए ऊपर पहुंचकर ये कण संघनित हो जाते हैं । ऐसे असंख्य कण मिलकर एक बड़ा आकार ग्रहण कर लेते हैं, जिसे हम बादल कहते हैं ।
बादल वैसे तो देखने में हल्के लगते हैं किन्तु इनमें उपस्थित पानी तथा बर्फ की मात्रा अधिक हो सकती है । जैसे किसी घनघोर वर्ष वाले विशाल आकार के क्यूमलोनिम्बस बादल में पानी की मात्रा कुछ करोड़ टन हो सकती हैं। इसी प्रकार ऐसे क्यूमलोनिम्बस या क्यूमलस बादल कई वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में फैले हो सकते हैं।
आकाश में छाए बादलों की मात्रा का अनुमान लगाने के लिए मौसम विभाग `ऑक्टा' नाम इकाई का उपयोग करता है, जिसका अर्थ है एक का आठवां भाग। जैसे यदि सारा आकाश बादलों से घिरा है तो कहा जायेगा कि आकाश में आठ `ऑक्टा' बादल हैं । यदि आकाश में लगभग आधा भाग बादलों से घिरा है तो कहा जाएगा कि आकाश में चार `ऑक्टा' बादल हैं और यदि आकाश में केवल चौथाई भाग बादल है है तो उन्हें दो `ऑक्टा' बादल कहेंगे ।
बादल तरह-तरह के - बादलों का वर्गीकरण उनकी ऊंचाई तथा आकार के आधार पर किया जाता है । ऊंचाई के अनुसार उनके तीन वर्ग होते है; कम ऊंचाई के बादल, मध्यम ऊंचाई के बादल (आल्टो), तथा अधिक ऊंचाई के बादल (सिरों) । इसके अलावा बादलों का एक ऐसा वर्ग भी होता है जिसमें बादल कम ऊंचाई से आरम्भ होकर ऊर्ध्वाकार उनके आधार से नापी जाती है । इस प्रकार यदि कोई बादल भूमि से एक कि.मी. ऊपर से आरम्भ होकर चार कि.मी. की ऊंचाई तक फैला है तो उसकी ऊंचाई एक कि.मी. मानी जाती है ।
इसी प्रकार आकार के आधार पर भी उनके तीन वर्ग किए गए हैं। गोभी के फूल के आकार के अथवा धुनी रूई के ढेर जैसे बादल अर्थात कयूमलस, परतदार बादल अर्थात स्ट्रेटस, घुंघराले बालों के गुच्छों जैसे बादल अर्थात सिर्रस तथा वर्षा से भरे बादल अर्थात निम्बस । सारे बादलों का नामकरण इन्हीं दो विशेषताआें अर्थात ऊंचाई तथा आकार के आधार पर किया जाता है ।
सिर्रस बादल - इसके अन्तर्गत सिर्रस, सिर्रोस्ट्रेटस तथा सिर्रोक्यूमलस बादल आते हैं । अत्यधिक ऊंचाई (६ से १० कि.मी.) पर स्थित ये बादल अत्यंत झीने होते हैं, जिनसे सूर्य का प्रकाश छन कर आता है । अधिक ऊंचाई पर स्थित होने के कारण ये बादल अधिकतर बर्फ के करणों के रूप में होते है, इसलिए इनका रंग सफेद होता है ।
सिर्रस बादल देखने में ऐसे लगते हैं जैसे किसी वृद्ध से सफेद घुंघराले बालों के गुच्छों को काट कर सारे आकाश में बिखेर दिया गया हो, या फिर किसी पक्षी के मुलायम सफेद पंख आकाश में उड़ गए हों । इतनी ऊंचाई पर बहुत तेज़ हवाएं चलती हैं, जिन्हें जेट स्ट्रीम कहते हैं (इनकी गति कभी-कभी १०० कि.मी. प्रति घण्टा से भी अधिक होती है) । इसलिए ये बादल बहुत तेज़ी से गतिमान रहते हैं ।
सिर्रोस्ट्रेटस बादल, जिनका आकार रूई की पतली परत जैसा होता है, किसी झीने सफेद दुपट्टे जैसे दिखते है तथा आकाश में इधर उधर छितराए से नज़र आते हैं । कभी-कभी तो ये पतले होते हैं कि इनमें से सूरज और चांद भी दिख जाते हैं ।
सिर्रोक्यूमलस बादल जिनका आकार रूई के ढेर जैसा होता है, देखने में ऐसे लगते हैं जैसे किसी ने ढेर सारी रूई धुनकर गगन में उलट दी हो । इन बादलों की आकृतियां कभी किसी पशु, किसी पक्षी या मछली या कभी किसी पर्वत के जैसी दिखती है, जो इनकी गति के कारण बदलती रहती है ।
मध्यम ऊंचाई के बादल - मध्यम ऊंचाई (२ से ६ कि.मी.) पर स्थित होने के कारण ये बादल प्राय: जल (द्रव) के रूप में होते हैं । किन्तु यदि वायुमण्डल का तापमान काफी कम हो तो ये बर्फ के कणों के रूप में भी हो सकते हैं । इनका रंग भी प्राय: सफेद होता है । इनके अन्तर्गत आल्टोस्ट्रेटस बादल तथा आल्टोक्यूमलस बादल आते हैं, जो आकाश में किसी झीनी चादर की तरह या किसी मक्खन के ढेर की तरह दिखते हैं ।
कम ऊंचाई के बादल - कम ऊंचाई (भूमिगत से ऊंचाई ० से २ कि.मी.) पर स्थित होने के कारण ये बादल प्राय: द्रव रूप में होते हैं, किन्तु तापमान यदि कम हो तो ये बर्फ के कणों के रूप में भी हो सकते हैं । कम ऊंचाई के बादलों में निम्बस, निम्बोस्ट्रेटस, तथा स्ट्रेटोक्यूमलस प्रमुख हैं । ये बादल मुख्यत: सफेद या हल्के भूरे रंग के होते हैं । इनके कारण हल्की या मध्यम वर्षा होती है ।
खड़े बादल - इन बादलों के आधार की ऊंचाई वैसे तो भूमि तल से दो कि.मी. अथवा कम से आरम्भ होती है किन्तु ये आकाश में बहुत अधिक ऊंचाई तक फैले रहते हैं (कभी-कभी तो १२ कि.मी. की ऊंचाई तक) । इनमें आते हैं क्यूमलस तथा क्यूमलोनिम्बस । मौसम संबंधी अधिकतर घटनाएं (जैसे घनघोर वर्षा, बादलों का गरजना, बिजली का चमकना आदि) मुख्यत रूप से इन्हीं बादलों के कारण होती हैं । और इनमें भी क्यूमलोनिम्बस (इन्हें संक्षिप्त् रूप में सीबी बादल कहते हैं) सबसे प्रमुख हैं ।
क्यूमलस बादलों का रंग सफेद तथा क्यूमलोनिम्बस का भूरा या काला होता है । यदि हवा में पर्याप्त् नमी हो तो ज़्यादातार मामलों में क्यूमलस बादल विकसित होकर क्यूमलोनिम्बस बादल बन जाते हैं । क्यूमलोनिम्बस बादलों के संबंध में ही कवि लोग `घुमड घुमड कर काले बदरा छाए' कहते हैं, इनसे ही घनघारे वर्षा है, तेज़ झोंकेदार हवाएं चलती हैं, बादल गड़गड़ाते हैं, बिजली चमकती है या बिजली गिरती हैं, ओले गिर सकते हैं या हिमपात भी हो सकता है ।
क्यूमलोनिम्बस बादल विमानों के लिए संकट माने जाते हैं तथा विज्ञान चालक इनसे बहुत घबराते हैं । विमान चालकों का यह प्रयास हरता है कि विमान को इन बादलों से दूर ले जाया जाए । यदि विमान को तेज़ झटके लगते हैं । कभी-कभी तो विमान के ढांचे को भयंकर हानि भी पहुंचती है । दूसरी ओर इन्हीं बादलों के कारण खेतों में वर्षा होती है जिससे अनाज उत्पन्न होता है, इनसे ही झुलसाने वाली गर्मी से राहत मिलती है और अनेक नगरों को पेयजल मिलता है।
बादलों का रंग - बादलों का रंग सामान्यत: सफेद होता है । इसका कारण यह है कि बादलों के स्थित जल या बर्फ कण सूर्य के अधिकतर प्रकाश को परावर्तित कर देते हैं । इस परावर्तित प्रकाश में सभी सात रंग होते हैं जो मिलकर सफेद रंग बन बनाते हैं ।
यदि बादलों में उपस्थित जल कण अत्यंत सघन होते हैं, तो बादल सारे प्रकाश को परावर्तित नहीं कर पाता, बल्कि कुछ प्रकाश को रोक लेता है । इस कारण बादल का रंग भूरा या काला दिखता है। पानी बरस जाने के बाद जलकणों की सघनता कम हो जाती है, जिसके कारण बादल फिर से सफेद दिखने लगते हैं।
कभी-कभी शाम को ढलते सूरज या ऊषाकाल के समय उगते सूरज की किरणें आकाश में अत्यंत खूबसूरत इन्द्रधनुषी रंगों का जाल-सा फैला देती हैं। उस समय ऐसा लगता है, जैसे किसी चित्रकार ने अपने कैनवास पर लाल, नारंगी, पीले, हरे, नीले, आसमानी या बैंगनी रंग बिखेर दिए हों । ऐसा इसलिए होता है कि सूर्य के क्षितिज के निकट होने के कारण उसकी किरणें वायुमण्डल में उपस्थित वायुकणों से टकरा कर चारो ओर बिखर जाती हैं जिसके कारण इन किरणों का प्रकाश वर्णक्रम के विभिन्न रंगों में विभाजित हो जाता है । इसलिए ये बादल रंगीन दिखने लगते हैं । इसे प्रकीर्णन कहते हैं और यह प्रभाव सूर्य किरणों की कम तरंग लंबाई वाली किरणों को ज़्यादा बिखेरता है इसलिए अधिक तरंग लंबाई वाले लाल, नारंगी तथा पीले रंग अधिक प्रभावी नज़र आते हैं ।
तो इस प्रकार `मेघा छाए आधी रात, बैरन बन गई निंदिया' वाले बादलों की सैर करके हमें यह पता लग जाता हैं कि ये बादल बिजली की तलवार चलाएंगे या बंूदों के बाण ।
***

११ शिक्षा जगत

११ शिक्षा जगत

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और उच्च् शिक्षा में सुधार
डॉ. आर.पी. गुप्त

हमारे देश की उच्च् शिक्षा, स्थापित आदर्शो और बदलती परिस्थितियों के अनुरूप समायोजन के अभाव के कारण, राष्ट्रीय विकास में समुचित भूमिका अदा करने में असमर्थ होती जा रही थी ।

देश के उद्योगपतियों का कहना है कि शिक्षा के निम्न स्तर के कारण केवल ५० प्रतिशत स्नातक ही समुचित योग्यता वाले होते हैं। देश में शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या भी बाज़ार की ज़रूरतों और शिक्षा के बीच तालमेल के अभाव की ओर संकेत कर रही थी । उदारीकरण की नीतियां अपनाए जाने के बाद शिक्षा में निजी निवेश में भारी वृद्धि तो हुई परन्तु निवेशकों की मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के कारण और समुचित नियमन के अभाव में निजी क्षेत्र द्वारा दी जाने वाली व्यावसायिक शिक्षा आम विद्यार्थी की पहुंच से बाहर होती जा रही थी । सरकार भी लागत वसूली के सिद्धांत को अपना कर फीस में मनमानी वृद्धि कर रही थी । पिछले वर्षो में किए गए अनेक अध्ययन भी उच्च् शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती विकृतियों को उजागर कर रहे थे । ऐसे में सरकार ने देश में उच्च् शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर विचार करने तथा उसमें व्याप्त् विकृतियों को दूर करने तथा उसके भावी स्वरूप के बारे में सुझाव देने के उद्देश्य से सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की स्थापना की थी आयोग ने कुछ माह पूर्व अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है ।

आयोग का अनुमान था कि इस समय देश में १८-२४ वर्ष आयु वर्ग की आबादी का ७ प्रतिशत भाग उच्च् शिक्षण संस्थाआें में अध्ययनरत है और सन २०१५ तक यह १५६ प्रतिशत तक पहुंच जाएगा । इस तरह आयोग ने सन २०१५ तक छात्रों की संख्या दुगनी होने का अनुमान लगाया है । परन्तु राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण तथा अन्य स्त्रोतों के आंकड़े बताते हैं कि इस समय उच्च् शिक्षण संस्थाआें में ९.१० करोड़ विद्यार्थी अध्ययनरत हैं जो १८-२४ वर्ष की आयु वर्ग की आबादी के १० प्रतिशत के बराबर है ।

छात्र संख्या और उसमें वृद्धि के गलत अनुमान इस बात का प्रतीक हैं कि आयोग ने अपना होमवर्क समुचित ढंग से नहीं किया हैं । छात्र संख्या दुगनी होने के अनुमान के आधार पर आयोग ने विश्वविद्यालय की संख्या वर्तमान ३६८ से बढ़ाकर १५०० करने का सुझाव दिया है । विद्यार्थियों की दुगनी संख्या के लिए विश्वविद्यालयों की संख्या में चार गुनी वृद्धि का सुझाव यह बताता है कि आयोग छोटे-छोटे विश्वविद्यालयों का पक्षपाती है । परन्तु इस क्षेत्र में विश्वभर का अनुभव कहता है कि ज्ञान की विविध शाखाआें की शिक्षा देने वाले तथा छात्रों एवं शिक्षकों की विशाल संख्या वाले विश्वविद्यालय ही ज्ञान के प्रसार एवं विकास का बेहतर वातावरण प्रदान करते हैं । विशाल पुस्तकालयों एवं सर्वसुविधा सम्पन्न प्रयोगशालाआें की व्यवस्था भी वहीं संभव होती हैं ।

भारत में वर्तमान में विश्वविद्यालयों के आकार में अत्यधिक विषमता है । जहां जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एवं विश्व भारती में ६००० के करीब विद्यार्थी अध्ययनरत हैं, वहीं मिज़ोरम विश्वविद्यालय में मात्र ६२६ और बाबा साहब अम्बेडकर विश्वविद्यालय में २८० विद्यार्थी ही हैं । एकल विषय केन्द्रित कुछ अन्य विश्वविद्यालयों में छात्र संख्या इससे भी कम है । इन छोटे-छोटे विश्वविद्यालय का विकास संसाधनों के अभाव में अवरूद्ध है । ऐसे में आयोग द्वारा सुझाव आश्चर्यजनक है । अगर अमेरिका की बात करें तो वहां २५ से ४० हज़ार छात्र संख्या वाले कई िशिववद्यालय हैं ।

भारत में संबंद्ध महाविद्यालयों की प्रणाली विश्वविद्यालयों के विकास में बाधक मानी जाती हैं । विश्वविद्यालयों की अधिकतर शक्ति इन महाविद्यालयों की विशाल छात्र संख्या के लिए परीक्षाएं आयोजित करने में चुक जाती है और वे शिक्षा, अनुसंधान आदि पर समुचित ध्यान नहीं दे पाते हैं । विश्वविद्यालयों को संबंद्ध महाविद्यालयों की समस्या से मुक्ति दिलाने के लिए आयोग ने इन महाविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की सिफारिश की है । अगर संसाधनों के अभाव के कारण किसी एक महाविद्यालय को स्वायत्तता प्रदान करना संभव न हो तो आयोग का सुझाव है कि किसी एक क्षेत्र के महाविद्यालयों को सामूहिक स्वायत्तता प्रदान की जा सकती हे । ये सुझाव काल्पनिक और व्यावहारिक ही लगते हैं ।

हमारे देश में स्नातक स्तर के ८५ प्रतिशत विद्यार्थी महाविद्यालयों में पढ़तेहैं। ऐसे में स्नातक स्तर की शिक्षा के उन्नयन को सर्वोच्च् प्राथमिकता दी जानी थी । आयोग ने महाविद्यालयों में अध्ययनरत विद्यार्थियों की परीक्षाआें के लिए राज्य स्तरीक मण्डलों के गठन का सुझाव दिया है ताकि विश्वविद्यालयों को इस दायित्व से मुक्त किया जा सके । स्नातक स्तर की शिक्षा और उसके नियमन के लिए इन सुझावों का दूरगामी प्रभाव होगा । एक ओर तो महाविद्यालयों को आवश्यक स्वायत्तता मिलेगी, वहीं क्षेत्रीय सहयोग भी बढ़ेगा ।

ज्ञान आयोग का सुझाव है कि उच्च् शिक्षा पर व्यय को राष्ट्रीय आय के १.५ प्रतिशत के बराबर करना चाहिए । इस समय देश में उच्च् शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का मात्र ०.४२ प्रतिशत भाग ही खर्च होता है । अत: अगले ६-८ वर्ष में इसमें ३-४ गुनी वृद्धि कैसे की जा सकेगी, इस बारे में आयोग ने समुचित सुझाव नहीं दिये हैं । इन दिनों हमारे प्रधानमंत्री एवं अन्य राजनेता भारत को ज्ञान आधारित मानव शक्ति के बड़े स्त्रोत के रूम में विकसित करने की बात तो करते हैं, परन्तु जब शिक्षा पर बजट में वृद्धि का प्रश्न आता है तो कंजूसी बरतने लगते हैं ।

आयोग का सुझाव है कि उच्च् शिक्षण संस्थाआें को अपने व्यय का २० प्रतिशत भाग छात्रों से फीस के रूप में वसूल करना चाहिए । विकसित एवं अधिकांश विकासशील राष्ट्रों में यह प्रतिशत १५ के आसपास है । भारत जैसे राष्ट्र में, जहां अधिकांश लोगों के लिए अपने बच्चें को उच्च् शिक्षा दिलाना संभव नहीं है, वहां इस प्रतिशत को और ऊंचा रखने का अर्थ बहुसंख्यक आबादी को उच्च् शिक्षा से वंचित रखना होगा ।

देश में आय वितरण की बढ़ती विषमता की पृष्ठभूमि में इस फीस वृद्धि के सुझाव के दूरगामी दुष्प्रभाव हो सकते हैं। आयोग का कहना है कि गरीब विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति एवं बैंकों से ऋण उपलब्ध कराए जा सकते हैं । परन्तु इस दिशा में अब तक का अनुभव आश्वस्त नहीं करता। बैंकों ने शिक्षा ऋण प्रदान करने की दिशा में कोई उत्साह नहीं दिखाया है; अभी तक २-३ प्रतिशत छात्र ही शिक्षा हेतु ऋण प्राप्त् करने में सफल रहे हैं ।

ज्ञान आयोग ने उच्च् शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता को देखते हुए अनेक सुझाव दिए हैं । अधिकांश सुझाव सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षण संस्थाआें के बारे में हैं । इन दिनों तो अधिकांश विस्तार निजी क्षेत्र में हो रहा है- आज ८५ प्रतिशत इंजीनियरिंग कॉलेज और ४० प्रतिशत मेडिकल कॉलेज निजी हैं । स्वयं आयोग भी निजीकरण का ही अधिक पक्षपाती लगता है । वर्तमान में कॉलेजों की औसत छात्र संख्या ६०० के लगभग होने से वे आर्थिक दृष्टि से सक्षम नहीं हैं । फिर अधिकांश कॉलेज निजी प्रबंधन के अंतर्गत हैं, भले ही उन्हें शासन से अनुदान मिल रहा हो, इनके स्तर सुधारने के मार्ग में वित्त प्रमुख बाधा के रूप में सामने आता है ।

व्यावसायिक कॉलेजों के संदर्भ में स्थिति कुछ भिन्न है । शासन द्वारा नियमन के बावजूद अनेक कॉलेज छात्रों से मनमानी फीस वसूल रहे हैं । इनमें समुचित योग्यता एवं अनुभव वाले शिक्षकों की भी कमी रहती हैं । आयोग को इन छोटे-छोटे कॉलेजों की समस्याआें पर अधिक ध्यान देना था ।

आयोग ने विभिन्न विश्वविद्यालयों के बीच वेतन में थोड़े अंतर की भी सिफारिश की है ताकि प्रतिभाशाली शिक्षकों को आकर्षित किया जा सके, उन्हें जाने से रोका जा सके । अब हमारी मान्यता यह रही है कि कम वेतन के बावजूद प्रतिभाएं शिक्षण के प्रति प्रेम के चलते शिक्षा के क्षेत्र में बनी रहेंगी । आयोग ने प्रतिभाशाली व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए शिक्षण संस्थाआें में भी बेहतर और अधिक वेतन की सिफारिश की है ।

ज्ञान आयोग ने सार्वजनिक क्षेत्र के विश्वविद्यालयों के सुधार हेतु अनेक सुझाव दिये हैं । इस समय देश में ९०० के करीब निजी िशिववद्यालय हैं । जैसा कि ऊपर कहा गया था, आयोग बेहतर गुणवत्ता की शिक्षा हेतु छोटे विश्वविद्यालयों की स्थापना का पक्षपाती है यद्यपि दुनियाभर का अनुभव इसके ठीक वितरीत है । इसके अलावा उच्च् शिक्षा प्राप्त् कर रहे अधिकांश छात्र महाविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त् कर रहे हैं जिनमें संसाधनों का घोर अभाव है । परन्तु आयोग ने इस पहलू पर समुचित ध्यान नहीं दिया है ।

कुल मिलाकर राष्ट्रीय ज्ञान आयोग उच्च् शिक्षा की वर्तमान विकृतियों के परिप्रेक्ष्य में समुचित सुझाव देने के दायित्व का निर्वाह नहीं कर पाया है । निजी क्षेत्र के विस्तार के साथ शिक्षा की गुणवत्ता कैसे कायम रखी जाए, इस दिशा में ज्ञान आयोग न तो वर्तमान परिस्थिति का समुचित विश्लेषण प्रस्तुत कर सका है, न ही समुचित प्रमाणों के साथ सिफारिशें प्रस्तुत कर सका है ।

***

१२ कविता

१२ कविता
जल
कुंवर कुसुमेश
विषमय हो जा रहा, सरिताआं का नीर ।
लेकिन सुनता नहीं, कोई इनकी पीर ।।

नदियां पर्वत की बहें, हर पल सिल्ट समेट ।
यहां सिल्ट का अर्थ है, पत्थर, बजरी, रेत ।।

यही सिल्ट मैदान में, बाधित करे बहाव ।
दूषित जल का मुख्य है, कारण जल ठहराव ।।

दूषित जल से यदि मरे, नित्य समुद्री जीव ।
पूरे पर्यावरण की, हिल जायेगी नींव ।।

झीलों, नदियों, सागरों, का लेकर आकार ।
इकहत्तर प्रतिशत दिखे, भू पर जल-विस्तार ।।

धरती से जल वाष्प बन, चले गगन की ओर ।
फिर वर्षा के रूप में, छुए धरा का छोर ।।

कहीं पड़ा सूखा कभी, कहीं आ गई बाढ़ ।
ज़रा सोचिए प्रकृति क्यों, करती ये खिलवाड़ ।

भारी वर्षा तो कहीं, भीषण है तूफान ।
अरबों की सम्पत्ति को, पहुंचाये नुकसान ।।

जलाभाव से मच रहा, चहुं दिशि हाहाकार ।
लगातार घटने लगा, भू का जल भंडार ।।

* * *

१३ पर्यावरण समाचार

१३ पर्यावरण समाचार

भू-जल उपयोग के लिये नया कानून बनेगा
कोई भी व्यक्ति जिस जमीन का मालिक है, उसके नीचे के (भूमिगत) पानी पर उसी का अधिकार रहा है । व्यक्ति को यह कानूनी हक लगभग सवा सौ साल से मिला हुआ है, लेकिन केंद्र सरकार की अब इस १२२ साल पुराने `इजमेंट एक्ट १८८५' में संशोधन करने की योजना है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय और योजना आयोग इस कवायद में जुटे हैं ।
इस संशोधन के बाद जमीन के नीचे से जल पर उसका कानूनी हक समाप्त् हो जाएगा । यह सब इसलिए किया जा रहा है कि भू-जल के अंधाधँुध दुरूपयोग को रोका जा सके ।
इसलिए माना जा रहा है कि शीतल पेय और बोतलबंद पानी से लेकर खेती के लिए भू-जल के मुफ्त और अंधाधँुध इस्तेमाल को रोकने के लिए केंद्र सरकार संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में इस प्रस्तावित विधेयक को पेश कर देगी । हालाँकि इस विधेयक को तैयार करने में जुटे जल संसाधन मंत्रालय को यह भी आशंका है कि भू-जल की कीमत तय कर लेने से आम उपभोक्ता की जेब पर भार पड़ेगा, क्योंकि कंपनियाँ तो शीतलपेय और बोतलबंद जल की कीमतें बढ़ाकर पूरा बोझ लोगों की जेब पर डाल देंगी । इसलिए मंत्रालय इस विधेयक के राजनीतिक तौर पर भी नफा और नुकसान का आकलन लगा रहा है ।
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय और योजना आयोग इस मामले में सक्रिय है । व्यावसायिक उपयोग के लिए भू-जल की मुफ्तखोरी बंद कराने के लिए योजना आयोग से हरी झंडी मिल जाने के बाद जल संसाधन मंत्रालय इस मामले को कैबिनेट के सामने ले जाने की तैयारी में जुटा है । सूत्रों के मुताबिक जल संसाधन मंत्रालय शीघ्र ही राज्यों को यह हिदायत देने जा रहा है कि वे अपनी तैयारी कर लें, क्योंकि केंद्र सरकार भू-जल की कीमतें तय करने के लिए भी जल्द ही कानून बनाने जा रही हैं ।
सैटेलाइट से मिलेगी सुनामी की सूचना
तीन साल पहले आई विनाशक सुनामी लहरों से सबक लेते हुए केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने सुनामी की चेतावनी देने वाला अत्याधुनिक सिस्टम लगाने का निर्णय लिया है । इससे दो घंटे पहले सुनामी आने की सूचना मिल जाएगी ।
वैज्ञानिक सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार भारत में जल्द ही सुनामी की चेतावनी देने वाले अत्याधुनिक पाँच सेंसर लगाए जाएँगे । ये सेंसर गुजरात के तटीय इलाकों में समुद्र के भीतर स्थापित किए जाएँगे, जो किसी भी प्रकार की अस्वाभाविक हलचलों की जानकारी दो घंटों पहले मुहैया करवा देंगे । केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने बताया कि हमारा मौसम विभाग और प्राकृतिक आपदाआें की पूर्व सूचना देने वाला सिस्टम पहले से काफी बेहतर हुआ है । फिलहाल हमें २० और ऐसे सेंसरों की जरूरत है जो समुद्र की सतह पर पड़ने वाले दबावों और हलचलों को माप सकें। इसके अलावा समुद्र के अत्यंत नीचे होने वाले बदलावों को भाँपने वाले १२ सेंसरों की जरूरत है । इसी क्रम में गुजरात के तटीय इलाकों में पाँच सेंसर लगाए जाएँगे।
ये सभी पाँच सेंसर सुनामी डिटेक्शन नेटवर्क का हिस्सा हैं । इन सेंसरों को अरब सागर में स्थापित किया जाएगा। सैटेलाइट के जरिए जुड़े होने के कारण इनसे समुद्र के भीतर होने वाली हलचलों, पानी के दबाव में परिवर्ततन, बहाव में उतार-चढ़ाव की पल-पल जानकारी मिलेगी ।
साथ ही भूकम्प पैदा करने के लिए जिम्मेदार मानी जाने वाली प्लेटों की स्थिति में बदलाव को भी सेंसर मापेंगे । सैटेलाइट के जरिए यह जानकारी हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय समुद्र सूचना सेवा केंद्र तक पहुँचेगी जहाँ लगे सुपर कम्प्यूटर सुनामी लहरें या समुद्री भूकम्प आने का समय बताएँगे ।
राजेश पटेल न्यूजीलंैड में वृक्ष को जहर देने का दोषी
न्यूजीलैंड में एक खुराफाती भारतीय को एक संरक्षित पेड़ की जड़ में जहर डालने का दोषी करार दिया गया है। इस भारतीय पर अदालत ने ५ हजार डॉलर का आर्थिक दंड लगाया है ।
ऑकलैंड में रहने वाले राजेश कुमार लल्लूभाई पटेल को अदालत ने यह सजा सुनाई है । भारतीय मूल के राजेश कुमार ने यह स्वीकार किया है कि उन्होंने माउंट अलबर्ट स्थित हॉर्टीकल्चर एंड फूड रिसर्च इंस्टीट्यूट में गिंकगो प्रजाति के एक वृक्ष की जड़ खोदकर उस पर जहर डाला था । उसने न सिर्फ जड़ में बल्कि पेड़ की मुख्य शाखा में छेद कर जहर डाला । अभियोजन पक्ष के मुताबिक राजेशकुमार ने जहर से भीगी रूई इन छेदों मे डाल दिया । जांच अधिकारियों ने अदालत को बताया कि पेड़ को जहर दिए जाने से इसे नुकसान पहुंचा है । पेड़ में कई तरह की आंशिक विकृतियां आ गयी है ।
अगर इस पेड़ को अधिक गंभीर नुकसान पहुंचा तो राजेश को १० हजार डॉलर से १५ हजार डॉलर का आर्थिक दंड भुगतना पड़ सकता है । गिंकगो का पेड़ करीब ३० मीटर तक बड़ा होता है । न्यूजीलैंड में इसे संरक्षित पेड़ों की सूची में शामिल किया गया है । इन पेड़ों की कटाई या उनके साथ छेड़छाड़ करना आपराधिक गतिविधियों में आता है ।

वर्ष २००७ अब तक का दूसरा सबसे गर्म वर्ष
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों से वर्ष २००७ अब तक का दूसरा सबसे गर्म वर्ष साबित हो सकता है । संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय मौसम संगठन को आँकड़े उपलब्ध कराने वाले ब्रिटेन के पूर्व में एंजलिया स्थित विश्वविद्यालय की जलवायु शोध इकाई के प्रमुख फिल जोंस ने कहा है कि १९९८ के बाद वर्ष २००७ अब तक का दूसरा सबसे गर्म वर्ष साबित हो सकता है । उन्होंने गत वर्ष के अंतिम दौर में ही वर्ष २००७ के दूसरे सबसे गर्म होने की भविष्यवाणी की थी । ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण जीवाश्म इंर्धनों को जलाया जाना तथा प्रशांत क्षेत्र में अलनीनो तूफान के कारण उत्पन्न ग्रीन गैंसे हैं ।
ज्यादातर मौसम विशेषज्ञों का मानना है कि मानसून में आए इन बदलावों से सूखा, बाढ़, लू और शक्तिशाली चक्रवाती तूफानों की आशंका बढ़ गई है । हालॉकि उनका यह भी कहना है कि किसी एक प्राकृतिक आपदा को हमेशा ग्लोबल वार्मिंग से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि कुछ बदलाव अचानक ही हो जाते हैं ।
गत डेढ़ सौ सालों में सबसे गर्म दस साल १९९० के दशक के बाद के ही रहे हैं । अंतरराष्ट्रीय मौसम संगठन के मुताबिक पिछला साल अब तक का छठा सर्वाधिक गर्म वर्ष रहा है, जबकि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के मुताबिक १९९८ के बाद वर्ष २००५ सबसे गर्म साल रहा ।
दवा करेगी भूख को नियंत्रित
इटली के वैज्ञानिक ने एक ऐसी दवा विकसित करने का दावा किया है जिसके सेवन से कुछ घंटो के लिए भूख को काबू में रखा जा सकता है । उनका दावा है कि ऐसी गोली मोटापे के शिकार लोगों के लिए वरदान साबित हो सकती है । अभी तक इस दवा का नाम नहीं रखा गया है । इसका निर्माण हाइड्रोजेल से किया गया है । पाउडर से बनी यह दवा पेट में जाते ही जेली का रूप धारण कर लेती है और घंटों भूख को नियंत्रित रखती है । यह दवा कार्बनिक तत्व सेल्युलोज से बनी है । इस दवा का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है । इसकी बदौलत न सिर्फ कई घंटों तक भूख को टाला जा सकता है बल्कि अपने आपको तरोताजा भी महसूस किया जा सकता है ।
पुरूषों की तुलना में तीन गुना ज्यादा बोलती है महिलाएँ
दुनिया मानती है कि भले ही महिलाएँ इंकार करें, लेकिन वे पुरूषों की तुलना में कुछ नहीं बहुत ज्यादा ही बोलती हैं । ख्यात लेखिका लुआन ब्रिजेन्डाइन ने अपनी पुस्तक `द फिमेल माइंड' में कहा है कि इस व्यवहार का कारण निश्चित ही स्त्री और पुरूषों के मस्तिष्क की संरचना का अंतर है ।
हाल ही में इस तरह का प्रयोग अमेरिका और मैक्सिको की ४०० यूनिवर्सिटी में भी हुआ । इसमें यह पाया गया कि महिलाएँ एक दिन में १६,००० से २०,००० शब्दों का उच्चरण करती हैं व पुरूष ७,००० शब्दों तक ही सीमित रहते हैं ।
अमेरिका के ऑस्टिन शहर की यूनिवर्सिटी टैक्सास के मनोविज्ञान विभाग के प्रमुख जेम्स पेनेबेकर ने अध्ययन भी किया था उनकी टीम ने अपने नतीजे ६ जुलाई के सांइस के अंक में प्रकाशित कराए हैं ।
आर्कटिक के जलाशय सूखे
अमेरिका में धरती के निरंतर बढ़ते तापमान के कारण आर्कटिक सागर के कुछ प्राचीन जलाशय भी अब सूखते जा रहे हैं । कनाडा के शोधकर्ताआें ने जानकारी देते हुए बताया कि ग्लोबल वॉर्मिंक के कारण आर्कटिक सागर के हजारों साल पुराने कुछ जलाशय सूखने लगे है और इसका असर यहाँ के जीव-जंतुआें के जीवन-चक्र पर भी पड़ रहा है ।
दल के प्रमुख मेरियाने डगलस ने बताया कि पिछले साल इन जलाशयों का दौरा करने पर पता चला कि इनमें से कुछ जलाशय सूख चूके हैं या सूखना शुरू हो गए हैं । इनमें कुछ जलाशय तो छ: हजार साल पुराने हैं और इनको सूखता देख पूरा दल आश्चर्यचकित रह गया । इतने कम समय में इन जलाशयों का सूखना वास्तव में न सिर्फ आश्चर्य की बात है, बल्कि इससे ग्लोबल वार्मिंग के त्वरित असर का भी अंदाजा लगाया जा सकता है । यह दल पिछले वर्ष जुलाई के शुरू में इस इलाके में गया था ।

एक आग्रह पर्यावरण डाइजेस्ट के रचनाकारों तथा सहयोगियों से
* रचनाएँ हशिया छोड़कर स्वच्छ लिपि में साफ-साफ व काग़ज़ के एक ओर ही लिखे अथवा टाइप करा कर भेजें । कार्बन कॉपी अस्वीकृत होगी ।
* रचनाऍं पोस्टकार्ड अथवा छोटे काग़ज़ पर न भेजें ।
* डाक टिकट लगा लिफ़ाफ़ा साथ आने पर ही अस्वीकृत रचना लौटायी जा सकती है अन्यथा नष्ट कर दी जाएगी । इस संदर्भ में कोई पत्र-व्यवहार नहीं होगा ।
* रचनाएँ एक वर्ष के अंदर या अवसर विशेष पर छपेगी ।
* रचनाएँ पर पारिश्रमिक देय नहीं होगा ।
* किसी भी रचनाकार की रचनाएँ उसके अपने विचार हैं । उनसे संपादक-प्रकाशक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है ।
* लेखकीय प्रति अवश्य भेजी जाती है पर पत्र लेखकों को प्रति भेजने का प्रावधान नहीं है।
* लेखकीय प्रति प्रत्येक माह उसी अंक के साथ डाक में प्रेषित की जाती है ।
* नवोदित की रचनाआें को प्राथमिकता के आधार पर प्रकाशित किया जाता है ।
* अन्य लेखकों की कृतियों की समीक्षा के लिए पुस्तक की दो प्रतियाँ भेजना अनिवार्य है। केवल पर्यावरण संबंधी पुस्तकें ही समीक्षार्थ भेजी जाएँ । किसी विद्वान समालोचक द्वारा लिखित समीक्षा भी भेजी जा सकती है ।
* आपके आस-पास पर्यावरण से जुड़े सेमिनार/सम्मेलन अवश्य होते होंगे । ऐसे कार्यक्रमों की संक्षिप्त् रपट हमें समय से प्राप्त् हुई तो हम उसे पत्रिका में छापने का प्रयास करेंगे।
* पत्रिका सदस्यता राशि बैंक ड्राफ्ट या मनीआर्डर से पर्यावरण डाइजेस्ट के नाम से ही भेजी जाए ।
* मनीआर्डर के निचले हिस्से में अपना नाम व पात तथा अपनी बात भी साफ-साफ लिखें।
* दूर दराज़ के क्षेत्रों में २० तारीख तक पत्रिका न पहुँचने पर तत्काल सूचित करें।
* पत्रिका के पांच आजीवन सदस्य बनाने पर आपकी सदस्यता नि:शुल्क हो जाएगी।
* पता बदलने पर तुरंत सूचित करें ताकि नये पते पर पत्रिका भेजी जा सके ।
प्र. सम्पादक

पाठकों से आग्रह पर्यावरण डाइजेस्ट के सभी संस्थागत और व्यक्तिगत सदस्यों से आग्रह है कि जिनका सदस्यता शुल्क बकाया है, वे यथाशीघ्र राशि भेजकर सदस्यता का नवीनीकरण करा लें । सभी सदस्यों से आग्रह है कि सदस्यता समािप्त् के एक माह पूर्व नवीनीकरण हेतु राशि भेजकर पत्रिका की नियमित प्रािप्त् सुनिश्चित करें ।***