महिला आरक्षण : लालिमा का माधुर्य
चिन्मय मिश्र
लोकसभा और विधानसभाआें में महिलाआें के ३३ प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव अंतत: राज्यसभा में पारित हो गया। इस प्रक्रिया में यादव त्रिमुर्ति अर्थात लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और शरद यादव और उनके समर्थकों ने राज्यसभा के अंदर और बाहर जिस भूमिका का निर्वाह किया है `निंदा' उसके लिए छोटा श्ब्द है। संविधान संशोधन खासकर ऐसा जो कि भारतीय राजनीति में प्रतिनिधित्व के तयशुदा ढर्रे में आमूलचूल परिवर्तन की नींव रखने वाला हो, को लेकर असहमति होना, किसी भी दृष्टिकोण से अनुचित नहीं है । परंतु संसदीय लोकतंत्र में न तो स्वयं कुछ कहना और किसी और को भी न बोलने देना आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आता है । पिछले १४ वर्षोंा से महिला आरक्षण विधेयक कमोबेश इसी तिकड़ी की वजह से पारित नहीं हो पा रहा था । ये आज भी उन्हीं मुद्दों पर इस संविधान संशोधन विधेयक का विराोध कर रहे हैं, जिन पर पहले दिन कर रहे थे । अगर यह संशोधन १४ वर्ष पूर्व क्रियान्वित हो जाता तो हम आज इसके गुण-दोष से परिचित हो चुके होते और महिलाएं कमोवेश पूरे भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी होती । अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित व अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम महिलाआें के उत्थान से किसे आपत्ति हो सकती है ? गौरतलब है कि इस वर्ग की महिलाआें की वकालत करने वाले इस गुट में से एक ने महिला सशक्तिकरण के नाम पर अपनी पत्नी को सशक्त बनाया तो दूसरे ने अपनी बहू को व तीसरे जहर की पुड़िया लिए अभी तक इंतजार कर रहे हैं कि यह संविधान संशोधन विधेयक संंसद के दोनों सदनों में पारित हो और वे इस पुड़िया को फांक लें । इसमें दो राय नहीं है कि महिलाआें को आरक्षण दिया जाना भारतीय लोकतंत्र को और मजबूत करेगा । पंचायत एवं नगरीय निकायों में आज भी स्थितियों उनके बहुत अनुकूल नहीं हैं । इसके बावजूद उनहोंने कदम आगे बढ़ाए हैं । इन संस्थानों में वे बने बनाए कानूनों के तहत कार्य करने को मजबूर थीं । लेकिन लोकसभा एवं विधानसभा में अपनी बढ़ी हुई उपस्थिति से वे अब कानून बनाने में भी बढ़ी हुई उपस्थिति से वे अब कानून बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगीं। दरअसल मीडिया और प्रशासन ने पंच पति, सरपंच पति और पार्षद पति जैसे नए पदनाम सृजित कर महिलाआें का मजाक उड़ाने का नया मसाला तैयार कर लिया था । परंतु वह इतना जानता है कि इसके आगे के पद पर चुनी गई महिला का इस तरह से परिहास नहीं बना सकता । इसीलिए हमें `महापौर पति' शब्द शायद ही कहीं सुनने को मिला हो । इसी बढ़ते क्रम में विधायक पति और सांसद पति भी मीडिया का ध्यान नहीं खीच पाएगें । दरअसल तीनों यादव व्यक्ति भर नहीं है ये भारतीय समाज में व्याप्त् उस मनोवृत्ति के प्रतीक हैं जो सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास ही नहीं रखता । इसमें से लालू और मुलायम अपने दलों के अध्यक्ष नहीं बल्कि सुप्रीमों हैं और शरद यादव स्वयं के `केरिकेचर' । इन तीनों भाग्य विधाताआें ने पिछले दिनों जिस तरह का व्यवहार किया है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि ये अंदर से बहुत डरे हुए है । जबकि आवश्यकता इस बात की थी कि ये पिछले करीब डेढ़ दशक में बजाए सत्ता पर काबिज बने रहने की जुगाड़ में पड़े रहने के पूरे भारत में वंचित वर्ग की महिलाआें को आगे लाते । इस वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने के लिए इन्हें कम से कम ५० प्रतिशत स्थानों पर इन महिलाआें को चुनावी टिकट देने थे । परंतु इन्होंने ऐसा नहीं किया । ये तीनों जिस महान समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम से कसमें खाते हैं और संयोग से यह वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष भी है, ने ग्वालियर की तत्कालीन महारानी विजयाराजे सिंधिया के विरूद्ध प्रतीक स्वरूप एक सफाई करने वाली हरिजन महिला को खड़ा किया था। इसके पीछे उनके अकाट्य तर्क थे । वे जब संसद में या बाहर महिला समानता पर बात करते थे तो उनकी बात को गौर से सुना जाता था क्योंकि वे वास्तव में महिलाआें के उत्थान की बात करते थे । महात्मा गांधी का कहना था `कानून की रचना ज्यादातर पुरूषों द्वारा हुई है और इस कार्य को करने में, जिसे करने का जिम्मा मनुष्य ने अपने ऊपर उठा लिया है, उसने हमेशा न्याय और विवेक का पालन नहीं किया है ।' इतना ही नहीं उन्होंने महिलाआें को अलग रखे जाने की प्रवृत्ति के दुष्परिणामों की विवेचना करते हुए कहा है `हमारे कई आंदोलनों की प्रगति हमारे स्त्री समाज की पिछड़ी हुई हालत के कारण बीच में ही रूक जाती है । इस तरह हमारे किए हुए काम का जैसा और जितना फल आना चाहिए वैसा और उतना नहीं आता । हमारी दशा उस कंजूस व्यापारी के जैसी है, जो अपने व्यापार में पर्याप्त् पूंजी नहीं लगाता और इसलिए नुकसान उठाता है ।' भारतीय लोकतंत्र का आंदोलन भी पिछले ६३ साल से इस बात का खामियाजा भुगत रहा है कि उसने महिलाआें ओर उनके दृष्टिकोण की लगातार अवहेलना की है । अपवादस्वरूप जब भी उसने महिलाआें के दृृष्टिकोण का सम्मान किया तो परिणाम भी सामने आए है । पिछले पांच वर्षोंा में बने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और सूचना का अधिकार कानून इसके ज्वलंत उदाहरण है । इन दोनों कानूनों की पहल महिला नेतृत्व ने की थी और इसके प्रारूप बनाने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था । आज भी पूरे भारत में पर्यावरण और विकास को लेकर अधिकांश प्रश्न महिलाआें के द्वारा ही उठाए जा रहे है । इसलिए हो सकता है यह आरक्षण भारतीय लोकतंत्र को नई दिशा प्रदान करे । पिछले दो दशकों में शासन करने की पद्धतियों में आमूलचूल परिवर्तन आया है । प्रजातंत्र के नाम पर लगातार अधिनायकवाद को प्रोत्साहित किया जा रहा है । आम भारतीय पहले के मुकाबले अधिक विपन्न हुआ है । यह विपन्नता आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर भी बढ़ी है । इसका भी प्रतिरोध आवश्यक है । यह सच है कि महिला आरक्षण से संबंधित अंतिम निर्णय अभी भी दूर की कौड़ी है । राज्यसभा के बाद इसे लोकसभा में और इसके बाद दो तिहाई राज्य विधान सभाआें से भी स्वीकृति का इंतजार है । इस प्रक्रिया में समय लग सकता है । परंतु पहला कदम उठ चुका है जो कि मंजिल तक पहुंचने की एकमात्र शर्त होती है । सिर्फ लोकसभा में इसे पारित करवाने में सरकार को समस्या आ सकती है । उम्मीद है कि त्रिमूर्ति शायद जनभावनाआें को समझे । इनमें से एक शरद यादव पढ़ी लिखी महिलाआें को `परकटी' कहकर अपमानित करने का प्रयत्न भी करचुके हैं । परंतु यदि हम इस उपमा को दूसरी तरह से व्याख्यायित करें तो कह सकते हैं कि `पारियो ने अपने पंख नोच कर फेंक दिए हैं और वे अब तब तक स्वर्ग नहीं जाएगीं जब तक पृथ्वी पर समता, समानता, स्वतंत्रता ओर बंधुता स्थापित नहीं हो जाएगी ।' हमें इंतजार है अगली लोकसभा का जब हम कुछ ऐसी मुस्कुराहटों के माध्यम से पहचाने जाएगें जो बजाए कुटिलता के मानवता को परिभाषित कर रहीं होगी । हम हजारों सालों से समानता के लिए प्रतीक्षारत हैं । उम्मीद है २०१४ में इसकी पहली किरण हम तक पहुंचेगी । वैसे पहली किरण के दिखाई देनेे के पहले की लालिमा भी कम मनोहारी नहीं होती।***
1 टिप्पणी:
namaskar sir, paryavaran ke baren me aapke vichar jan kar bahut ascha laga. aage bhi likhte rahiye sir.
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