हिमालय त्रासदी - १
उत्तराखंड : त्रासदी के बाद क्या करें?
सुश्री सुनीता नारायण
उत्तराखंड में आई बाढ़ की सबसे बड़ी आपदा के बाद उजाड़ हो गए हिमालयी क्षेत्र के विकास के लिए नई रणनीति के साथ-साथ जिस बात की सबसे ज्यादा आवश्यकता है वह है पर्यावरण संरक्षण । हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस क्षेत्र का आर्थिक विकास बहुत जरूरी है, लेकिन यह विकास कम से कम पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए । यदि ऐसा कुछ होता है तो पहले से ही पारिस्थितिकीय रूप से असंतुलित और आपदा की दृष्टि से अधिक संवेदनशील इस पूरे क्षेत्र की स्थिति और अधिक कमजोर होगी और विकास प्रभावित होगा ।
हम इस बात को पहले से ही जानते है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र प्रभावित हुआ है और यह क्षेत्र दिनोदिन कमजोर हुआ है । अब जो सबसे बड़ा सवाल है वह यही कि इस क्षेत्र के लिए विकास की नई रणनीति किस तरह की होनी चाहिए ? इस सवाल पर विचार करते समय हमेंपूरे हिमालयी परिदृश्य को ध्यान में रखकर विचार करना होगा ताकि ऐसे सभी राज्यों के लिए एक जैसी नीति बनाई जा सके । यहां इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि ऐसी कोई भी विकास की रणनीति बनाते समय हमें इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों जंगल, जल और जैविक विविधताआें के साथ जैविक खाघ पदार्थो का ध्यान रखना होगा । इसके साथ-साथ हमें प्राकृतिक पर्यटन की अवधारणा पर भी फिर से विचार करना होगा ताकि विकास की कीमत हमें पर्यावरण क्षरण के रूप में न चुकानी पड़े ।
उत्तराखंड : त्रासदी के बाद क्या करें?
सुश्री सुनीता नारायण
उत्तराखंड में आई बाढ़ की सबसे बड़ी आपदा के बाद उजाड़ हो गए हिमालयी क्षेत्र के विकास के लिए नई रणनीति के साथ-साथ जिस बात की सबसे ज्यादा आवश्यकता है वह है पर्यावरण संरक्षण । हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस क्षेत्र का आर्थिक विकास बहुत जरूरी है, लेकिन यह विकास कम से कम पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए । यदि ऐसा कुछ होता है तो पहले से ही पारिस्थितिकीय रूप से असंतुलित और आपदा की दृष्टि से अधिक संवेदनशील इस पूरे क्षेत्र की स्थिति और अधिक कमजोर होगी और विकास प्रभावित होगा ।
हम इस बात को पहले से ही जानते है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र प्रभावित हुआ है और यह क्षेत्र दिनोदिन कमजोर हुआ है । अब जो सबसे बड़ा सवाल है वह यही कि इस क्षेत्र के लिए विकास की नई रणनीति किस तरह की होनी चाहिए ? इस सवाल पर विचार करते समय हमेंपूरे हिमालयी परिदृश्य को ध्यान में रखकर विचार करना होगा ताकि ऐसे सभी राज्यों के लिए एक जैसी नीति बनाई जा सके । यहां इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि ऐसी कोई भी विकास की रणनीति बनाते समय हमें इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों जंगल, जल और जैविक विविधताआें के साथ जैविक खाघ पदार्थो का ध्यान रखना होगा । इसके साथ-साथ हमें प्राकृतिक पर्यटन की अवधारणा पर भी फिर से विचार करना होगा ताकि विकास की कीमत हमें पर्यावरण क्षरण के रूप में न चुकानी पड़े ।
हिमालयी क्षेत्र की प्रमुख विशेषता है प्रचुर वन संसाधन । विकास के पहले चरण में जंगलों का विनाश किया गया । इसके तहत बड़े पैमाने पर जंगलों को काटा गया । इसी के परिणामस्वरूप पहाड़ी क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी और अपनी आधारभूत आवश्यकताआें के लिए जंगल पर निर्भर एक बड़ी आबादी को अपना आधार खोना पड़ा । पहाड़ी क्षेत्र में लगातार जंगलों को काटे जाने की समस्या को देखते हुए सरकार ने १९८० के दशक में वन संरक्षण कानून बनाया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बारे में दिशा-निर्देश दिए । सुप्रीम कोर्ट ने हिमालयी क्षेत्रों में जंगल पर आधारित उद्योगों को हटाने और उन्हें नियंत्रित करने के निर्देश दिए । यहां हमें देखना होगा कि इस क्षेत्र के आर्थिक विकास में वनों की भूमिका किस तरह उपयोगी बने । वर्तमान में वनों से होने वाली राज्यों की आमदनी घटी है । वन विभाग के खिलाफ स्थानीय लोगों की नाराजगी लगतार बढी है । इस सबसे साफ है कि हमें एक अलग तरह की विकास रणनीति बनानी होगी । नई रणनीति के तहत हमें विकास के लिए क्षेत्रीय संसाधनों के उपयोग को बढ़ावा देना होगा और स्थानीय लोगों को विशेष संसाधनों मुहैया कराने होंगे ।
इसके बजाय वर्तमान में देखने को यहीं मिल रहा है कि सड़क और जलविद्युत परियोजनाआें के लिए जंगलों का बड़े पैमाने पर विनाश किया जा रहा है । हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि यहां मौजूद वृहद वन पहाड़ी क्षेत्रों की जैविक विविधता को संजोये रखने में बहुत उपयोगी है । जंगल न केवल मृदा क्षरण को रोकते है, बल्कि यह मैदानी इलाकों में बाढ़ को रोकने के साथ-साथ कार्बन की बढ़ती मात्रा को भी नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाते है । इस सबको देखते हुए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि स्थानीय लोगों के साथ मिलकर यहां के बचे जंगल को कटने से बचाया जाए ।
इसके लिए १२वें और १३वें वित्त आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जंगलों को काटने से बचाने के एवज में इन राज्यों को वित्तीय मदद दी जाए । दुर्भाग्य से इस मद में दिया जाने वाला धन बहुत अल्प रखा गया है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज तक इस मद का धन संबंधित राज्यों को दिया ही नहीं गया । हिमाचल प्रदेश सरकार ने अब पारिस्थितिकीय अध्ययन करना शुरू किया है । वह अपने जंगलों को बचाने के लिए कार्बन ट्रेडिंग की नीति पर जोर दे रहा है । इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार किए जाने की आवश्यकता है और वन संसाधन को बचाने और बढ़ाने के लिए हिमालयी राज्यों में एक जैसी नीति बनाई जानी चाहिए । ऐसी कोई भी नीति बनाते समय खेती और अपनी दूसरी आधारभूत जरूरतों के लिए जंगलों पर निर्भर स्थानीय लोगों की आवाज को भी महत्व दिया जाना चाहिए । उच्च् हिमालयी क्षेत्रों में स्थित गांवों के अध्ययन से पता चलता है कि यहां खेती के लिए जल आदि की आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए जंगल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है । अभी भी जो सबसे बड़ा सवाल है वह यही है कि किस तरह स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए जंगल का इस्तेमाल हो ? इन क्षेत्रों का दूसरा प्रमुख संसाधन पहाड़ियों और ग्लेशियरों से मैदानी तक पहुंचने वाला जल है । वर्तमान में इसके दोहन के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में तमाम नदी परियोजनाआें और बांधों का निर्माण किया जा रहा है । सभी हिमालयी राज्यों में निजी कंपनियों की तरफ से जल विघुत परियोजनाआें की बाढ़ सी आई हुई है ।
जल विद्युत परियोजनाएं देश की ऊर्जा आवश्यकता और राज्य की आमदनी के लिए जरूरी है, लेकिन हमें इससे पैदा होने वाले पारिस्थितिकीय प्रभाव को भी ध्यान रखना होगा । अब यह साफ है कि उत्तराखंड में बाढ़ की आपदा बढ़ने की एक वजह यहां जल विघुत परियोजनाआें का गलत नियोजन और निर्माण है । इन परियोजनाआें की नए सिरे से समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है । इन परियोजनाआें का निर्माण करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि इनसे स्थानीय जल तंत्र और पहाड़ों को किसी तरह का नुकसान नहीं हो । इसी तरह आर्थिक विकास के लिए यहां प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा करते समय क्षेत्रीय पारिस्थितिकी का भी ध्यान रखना होगा । हमें नहीं भूलना चाहिए कि यदि पर्यावरण प्रभावित होता है तो पर्यटन भी प्रभावित होगा । यदि पर्यटन को बेहतर प्रबंधन नहीं किया गया तो पर्यावरण प्रभावित होगा ।
उत्तराखंड की बाढ़ ने हमें सिखाया है कि कमजोर पहाड़ी इलाकों में पर्यटन की बजाय तीर्थयात्रा आधारित विकास का मॉडल बनाया जाए । होटल और ठहरने के लिए बनाई जाने वाली इमारतों के अनियंत्रित निर्माण पर रोक लगानी होगी और यह सब कुछ सरकार की निगरानी में होना चाहिए । इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि यहां के पर्यटन से स्थानीय लोग लाभान्वित हो । उदाहरण के तौर पर लेह में सरकार ने घरों पर ठहरने की योजना के माध्यम से पर्यटन को बढ़ावा दिया है । इससे प्रदूषण की समस्या भी हल होगी और पारिस्थितिकी की भी । उत्तराखंड में आई बाढ़ हमारे लिए एक अवसर भी है कि हम स्थानीय संस्कृति और पारिस्थितिकी पर आधारित विकास का एक नया मॉडल अपनाएं ।
इसके बजाय वर्तमान में देखने को यहीं मिल रहा है कि सड़क और जलविद्युत परियोजनाआें के लिए जंगलों का बड़े पैमाने पर विनाश किया जा रहा है । हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि यहां मौजूद वृहद वन पहाड़ी क्षेत्रों की जैविक विविधता को संजोये रखने में बहुत उपयोगी है । जंगल न केवल मृदा क्षरण को रोकते है, बल्कि यह मैदानी इलाकों में बाढ़ को रोकने के साथ-साथ कार्बन की बढ़ती मात्रा को भी नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाते है । इस सबको देखते हुए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि स्थानीय लोगों के साथ मिलकर यहां के बचे जंगल को कटने से बचाया जाए ।
इसके लिए १२वें और १३वें वित्त आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जंगलों को काटने से बचाने के एवज में इन राज्यों को वित्तीय मदद दी जाए । दुर्भाग्य से इस मद में दिया जाने वाला धन बहुत अल्प रखा गया है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज तक इस मद का धन संबंधित राज्यों को दिया ही नहीं गया । हिमाचल प्रदेश सरकार ने अब पारिस्थितिकीय अध्ययन करना शुरू किया है । वह अपने जंगलों को बचाने के लिए कार्बन ट्रेडिंग की नीति पर जोर दे रहा है । इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार किए जाने की आवश्यकता है और वन संसाधन को बचाने और बढ़ाने के लिए हिमालयी राज्यों में एक जैसी नीति बनाई जानी चाहिए । ऐसी कोई भी नीति बनाते समय खेती और अपनी दूसरी आधारभूत जरूरतों के लिए जंगलों पर निर्भर स्थानीय लोगों की आवाज को भी महत्व दिया जाना चाहिए । उच्च् हिमालयी क्षेत्रों में स्थित गांवों के अध्ययन से पता चलता है कि यहां खेती के लिए जल आदि की आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए जंगल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है । अभी भी जो सबसे बड़ा सवाल है वह यही है कि किस तरह स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए जंगल का इस्तेमाल हो ? इन क्षेत्रों का दूसरा प्रमुख संसाधन पहाड़ियों और ग्लेशियरों से मैदानी तक पहुंचने वाला जल है । वर्तमान में इसके दोहन के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में तमाम नदी परियोजनाआें और बांधों का निर्माण किया जा रहा है । सभी हिमालयी राज्यों में निजी कंपनियों की तरफ से जल विघुत परियोजनाआें की बाढ़ सी आई हुई है ।
जल विद्युत परियोजनाएं देश की ऊर्जा आवश्यकता और राज्य की आमदनी के लिए जरूरी है, लेकिन हमें इससे पैदा होने वाले पारिस्थितिकीय प्रभाव को भी ध्यान रखना होगा । अब यह साफ है कि उत्तराखंड में बाढ़ की आपदा बढ़ने की एक वजह यहां जल विघुत परियोजनाआें का गलत नियोजन और निर्माण है । इन परियोजनाआें की नए सिरे से समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है । इन परियोजनाआें का निर्माण करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि इनसे स्थानीय जल तंत्र और पहाड़ों को किसी तरह का नुकसान नहीं हो । इसी तरह आर्थिक विकास के लिए यहां प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा करते समय क्षेत्रीय पारिस्थितिकी का भी ध्यान रखना होगा । हमें नहीं भूलना चाहिए कि यदि पर्यावरण प्रभावित होता है तो पर्यटन भी प्रभावित होगा । यदि पर्यटन को बेहतर प्रबंधन नहीं किया गया तो पर्यावरण प्रभावित होगा ।
उत्तराखंड की बाढ़ ने हमें सिखाया है कि कमजोर पहाड़ी इलाकों में पर्यटन की बजाय तीर्थयात्रा आधारित विकास का मॉडल बनाया जाए । होटल और ठहरने के लिए बनाई जाने वाली इमारतों के अनियंत्रित निर्माण पर रोक लगानी होगी और यह सब कुछ सरकार की निगरानी में होना चाहिए । इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि यहां के पर्यटन से स्थानीय लोग लाभान्वित हो । उदाहरण के तौर पर लेह में सरकार ने घरों पर ठहरने की योजना के माध्यम से पर्यटन को बढ़ावा दिया है । इससे प्रदूषण की समस्या भी हल होगी और पारिस्थितिकी की भी । उत्तराखंड में आई बाढ़ हमारे लिए एक अवसर भी है कि हम स्थानीय संस्कृति और पारिस्थितिकी पर आधारित विकास का एक नया मॉडल अपनाएं ।
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