शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

प्रदेश चर्चा
उत्तराखंड : विकास का सालाना उत्सव
चिन्मय मिश्र
    उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ने क्या प्रलय की पूर्व सूचना जारी कर दी है ? इस विध्वंस को रोका जा सकता था या नहीं ? यह मानव निर्मित है या प्रकृति जनित  है ? जैसे अनेक सवाल हवा में तैर रहे हैं, मगर मजाल हैं कहीं से कोई भविष्य के प्रति आशान्वित करने वाला बयान आया हो । प्रधानमंत्री भी उत्तराखंड हो आए हैं और ताबड़तोड़ एक हजार करोड़ की राहत घोषणा भी कर चुके हैं । इस धन से उक बार पुन  उत्तराखंड का वैसा ही विकास होगा जो कि इस लघु प्रलय का कारण बना है  । आवश्यकता इस बात की थी कि मानवीय सहायता पहुंचाने के बाद सारी आर्थिक विकासात्मक गतिविधियोंपर रोक लगाकर एक स्वतंत्र इकाई से पूरे क्षेत्र के भौतिक विकास की आवश्यकताआेंके आकलन को कहा जाता! हमेंअब यह हिसाब लगाना होगा कि उत्तराखंड में एक किलोमीटर सड़क बनाने में कितने पहाड़ों को नष्ट करना पड़ता है । यानि विनाश का चक्र विकास के चक्र पर सवार रहेगा और यह विकास का सालाना उत्सव बन जाएगा  ।  


     श्रीमद् भागवत में लिखा है,  साक्षात भगवान यज्ञ पुरूष त्रिविक्रम के (तीन डगोंसे) पृथ्वी, र्स्वगादि आदि को लांघते हुए वामपद के अंगुष्ठ (अंगूठे) से निकलकर उनके चरण पंकज का अवनेजन करती हुई भगवती गंगा जगत के पाप को नष्ट करती हुई स्वर्ग से हिमालय के ब्रह्म सदन में अवतीर्ण हुई । वहां से सीता, अलकनंदा, चक्षु एवं भद्रा चारों दिशाआें में प्रवाहित हुई । भारत की ओर आने वाली अलकनंदा कहलाई । जो हेमकुट आदि पर्वतों को लाघंती हुई भारत के दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बहकर समुद्र की ओर बढ़ती    है ।  यानि भारत की बड़ी आबादीं गंगा के आश्रम में है, लेकिन हमने तो उत्तराखंड में ही इसे इतनी जगह रोकने की अव्यवस्था बना दी है कि जैसे सारे भारत की बिजली यही बन जाएगी और हम रोशनी से नहा  जाएंगे । जबकि वास्तविकता यह है कि टिहरी जैसे बांधों का पानी दिल्ली सरीखे शहरों के निवासियों के शौचालयों को साफ कर यमुना नदी को गंदे नाले में बदलने के काम में लाया जा रहा है ।
    अब भारत के मौसम विभाग ने स्पष्ट कर दिया है कि हिमालय क्षेत्र में बादल नहीं फटे थे, बल्कि लगातार तेज बारिश से ही यह कहर बरपा है और जिसकी विधिवत पूर्व सूचना दो दिन पूर्व दी जा चुकी        थी । इसरों के सूत्र बताते हैं कि अंतरिक्ष से खींची गई तस्वीरें बता रही है कि पिछले एक दशक में इस इलाके में हजारों नए भवन निर्मित किए गए हैं और नदी मार्ग में रूकावटें खड़ी की गई हैं । इससे नदी बेसिन में पानी का प्रवाह अवरूद्ध हुआ है । केदारनाथ नगर में आई बाढ़  के लिए वे यहां से ६ किलोमीटर ऊपर स्थित हिमनद (ग्लेशियर) वे केदार गुंबज के एक टुकड़े के टूटने को जिम्मेदार बता रहे हैं ।
    इसको पढ़कर प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जिन्होंने उत्तराखंड के दुर्गमतम इलाकोंका पैदल भ्रमण किया है और वे आज भी इन स्थानों की दूरी मील या किलोमीटरों में नहीं बल्कि दिनों में गिनाते हैं, ने अपने अनूठे निबंध  गौना ताल : प्रलय का शिलालेख  में लिखा है,  सन् १८९३ में उत्तराखंड के समीप स्थित एक सकरी घाटी के मुंह पर एक चट्टान गिरकर अड़ गई थी । धीरे-धीरे उस गहरी घाटी में पीछे से आकर बिरही और सहायक नदियों का पानी इकठ्ठा होने लगा । इस पर अंग्रेजों ने यहां एक तारघर स्थापित कर दिया और उसके माध्यम से ताल के जलस्तर की निगरानी करते रहे । एक साल तक नदियां ताल में पानी भरती रहीं । जलस्तर १०० गज उपर उठ गया । तार घर ने खतरे का तार नीचे भेज दिया । ताल सन् १८९४ में फूट    पड़ा । किनारे के गांव खाली करा लिए गए थे । प्रलय को झेलने की तैयारी थी । फूटने के बाद ४०० गज का जलस्तर ३०० फुट मात्र रह गया था । ताल सिर्फ फूटा था, पर मिटा नहींथा ।
    वो स्थान आज भी तारघर कहलाता है । अंग्रेज विदेशी शासक थे लेकिन उन्होंन अपने तारबाबू पर विश्वास किया था और प्रलय को समेट लिया था । लेकिन आज तो स्थितियां भयावह रूप लेती जा रही हैं और हमारी व्यवस्था मान रही है कि प्रकृति उनकी गुलाम है और उसकी इतनी औकात नही है वह चूं-चपड़ भी कर सके । तभी तो मौसम विभाग जब अपने आधुनिकतम यंत्रोंसे प्राप्त् सूचनाआें को संबंधित विभागों तक पहुंचाता है तो वे उस पर गौर नहीं करते । उत्तराखंड में मची हालिया तबाही के बाद जब उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन मंत्री श्री आर्य ये इस संबंध में सवाल किया गया तो उनका जवाब था,  ऐसी चेतावनियां तो जारी होती रहती हैं   यानि उन्हें जिस विभाग की जिम्मेदारी दी गई हैं उसे लेकर वे कतई गंभीर नहीं है और मौसम विभाग की भविष्यवाणियों या पूर्व सूचनाआें को वे  भेड़िया आया-भेड़िया आया  जैसी कहानी से ज्यादा कुछ नहीं मानते । शायद उन्होंने इस कहानी का अंत नहीं पढ़ा, जिससे एक दिन सच में भेड़िया आ भी जाता है । आपदा प्रबधंन विभाग को तो भेड़िये आने तक सतर्कताबरतना अनिवार्य है ।
    वैसे यहां की कांग्रेस सरकार ने सन् २०१२ में भागीरथी नदी से गोमुख तक के १०० कि.मी. पूरे हिस्से को पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र अधिसूचित भी कर दिया था तथा इस क्षेत्र में खनन, बांध सड़कों के निर्माण एवं पेड़ काटने पर रोक लगा दी     थी । यदि समाचार माध्यमों पर विश्वास करें तो उनके अनुसार भारतीय जनता पार्टी ने इसका विरोध किया । बीजेपी की ठेकेदार और बिल्डर लॉबी ने स्थानीय जनता को साधा और इस कार्यवाही को जनविरोधी बताया   गया । गंगा अलकनंदा और मंदाकनी नदियों एवं सहायक नदियों पर ७० जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित है । सोचने वाली बात यह है कि इन बांधों को निर्माण साम्रगी तो इसी इलाके सेआएगी और डायनामाइट के विस्फोटोंने पूरे उत्तराखंड को युद्ध भूमि के सदृश्य बना दिया है । बारिश के बिना भी यहां पहाड़ों का टूटना जारी रहता है । इस बाढ़ के साथ आई गाद ने बांध को १५ वर्षोंा जितना एक दिन भर में दिया है ।
    बात यदि उत्तराखंड तक सीमित होती तो भी निपटने के बारे में सोचा जा सकता था । लेकिन पूरे देश का विकास ही इस तरह से किया जा रहा है कि बाढ़ एवं सूखा इसके अभिन्न अंग बन चुके हैं । पिछले एक बरस से हम सुनते-पढ़ते आ रहे हैं  कि महाराष्ट्र में पिछले ५० वर्षोंा को सबसे भंयकर सूखा पड़ा है, लेकिन इन क्षेत्रों में पानी के भंडारण की इतनी भी क्षमता नहीं बची है कि वे एक दिन की बरसात के पानी को अपने में समेट सके । पुणे और मुंबई इसके जीवंत उदाहरण है । इंदौर मेंभी यही हुआ । यहां के एक पुराने तालाब पीपल्यामाला के आसपास पुराने टाइप के बगीचे को अत्याधुनिक सीमेंट कांक्रीट के बगीचे में बदल दिया  गया । इसमें प्रवेश शुल्क भी लगा दिया गया । बाहर सैकड़ों कारों के लिए पार्किंग की व्यवस्था भी कर दी गई । लेकिन हाल में जब बारिश आई तो सारे बाहरी इलाके तालाब बन गए थे, लेकिन तालाब में पानी नहीं गया, क्योंकि पानी जाने के रास्ते पर सड़के बन गई थी । ऐसा विकास हर शहर हर गांव में हो रहा है । इसी के साथ हमें छोटे राज्यों के गठन, उनकी आर्थिक व्यवहार्यता को भी देखना होगा । उत्तराखंड जैसे राज्यों की पर्यटक जिसमें धार्मिक पर्यावरण भी शामिल है पर अत्याधिक निर्भरता को भी जांचना होगा । क्योंकि यहां अधिकांश निर्माण पर्यटन की दृष्टि से किए गए हैं ।
    गंगा गंगोत्री या गांमुख से निकलकर कोलकाता से करीब १३० कि.मी. दूर सागर द्वीप में गंगासागर में मिलती हैं । यहीं पर संक्रांति पर गंगासागर का मेला लगता है । जहां अभी मेला लगता है पहले वहीं गंगा समुद्र में मिलती थी । लेकिन अब सागरद्वीप के पास गंगा की बहुत छोटी सी धारा समुद्र में मिलती है । यानि जो विकरालता उद्गम में नजर बाती है वह गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते लुप्त् या मात्र प्रतीकात्मक रह जाती है । दुनिया के अनेक देश आज प्राकृतिक संपदाआेंको जीवित इकाई मानते हुए उन्हें मनुष्यों की ही तरह जीवन के अधिकार दे रहें हैं, लेकिन हम तो जैसे उत्तराखंड में नदियों की भ्रूण हत्या कर रहे हैं । क्या हम नदियों के बिना बच पाएंगे ? हमें अमृत जहर बनने से रोकना होगा ।

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