हिमालय त्रासदी - २
त्रासदी, बेतरतीब विकास का नतीजा
भारत डोगरा
हिमालय के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में इस समय सबसे बड़ी प्राथमिकता निश्चय ही बचाव व राहत कार्य है और इसमें कोई कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए । पर एक बार विपदा का वक्त गुजर जाए तो हिमालय क्षेत्रकी विकास नीति को नए सिरे से तैयार करना बहुत जरूरी है ताकि इस तरह की आपदाआें की आशंकाआें को यथासंभव कम किया जा सके, साथ ही जनहित के अनुकूल टिकाऊ विकास हो ।
हिमालय हमारे देश का अत्याधिक महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्र है । इसके संतुलित व टिकाऊ विकास के लिए नीतियां बहुत सावधानी से बनानी चाहिए । जल्दबाजी में अपनाई गई या निहित स्वार्थोंा के दबाव में अपनाई नीतियों के बहुत महंगे परिणाम हिमालयवासियों को व विशेषकर यहां के गांवों में रहने वाले लोगों को भुगतने पड़े हैं ।
त्रासदी, बेतरतीब विकास का नतीजा
भारत डोगरा
हिमालय के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में इस समय सबसे बड़ी प्राथमिकता निश्चय ही बचाव व राहत कार्य है और इसमें कोई कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए । पर एक बार विपदा का वक्त गुजर जाए तो हिमालय क्षेत्रकी विकास नीति को नए सिरे से तैयार करना बहुत जरूरी है ताकि इस तरह की आपदाआें की आशंकाआें को यथासंभव कम किया जा सके, साथ ही जनहित के अनुकूल टिकाऊ विकास हो ।
हिमालय हमारे देश का अत्याधिक महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्र है । इसके संतुलित व टिकाऊ विकास के लिए नीतियां बहुत सावधानी से बनानी चाहिए । जल्दबाजी में अपनाई गई या निहित स्वार्थोंा के दबाव में अपनाई नीतियों के बहुत महंगे परिणाम हिमालयवासियों को व विशेषकर यहां के गांवों में रहने वाले लोगों को भुगतने पड़े हैं ।
वनों के प्रति जो व्यापारिक रूझान अपनाया गया उससे गंभीर क्षति हुई है । वन नीति के व्यापारिकरण की नीति ब्रिटिश राज के दिनों में ही आरंभ हो गई थी पर आजादी के बाद इसे रोकने के स्थान पर इसे और आगे बढ़ाया गया । कई क्षेत्रों में यह इस रूप में प्रकट हुई कि चौड़ी पत्ती के पेड़ कम होते गए व चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ बढ़ते गए । विदेशी शासकों की व्यापारिक प्रवृत्ति के कारण ही वनों का प्राकृतिक चित्र बदला और वन के क्षेत्र मेंचीड़ जैसे पेड़ों का प्रभुत्व बढ़ता गया जबकि स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी चौड़ी पत्ती के पेड़ (जैसे बांज) कम होते गए । चौड़ी पत्ती के पेड़ चारे के लिए भी उपयोगी है और इसकी हरी पत्तियों से खेतों के लिए बहुत अच्छी खाद भी मिल जाती है । अन्य लघु वन उपज के लिए भी यह उपयोगी है ।
दूसरी ओर चीड़ न स्थानीय लोगों के लिए अच्छा साबित हुआ, न पशुपालकों के लिए न किसानों के लिए । वन-नीति का यह प्रयास होना चाहिए था कि वन प्राकृतिक स्थिति के नजदीक हो यानी मिश्रित वन हो, जिसमें चौड़ी पत्ती के तरह-तरह के पेड़ भी हों और शंकुधारी भी । यदि इस तरह की जैव-विविधता नहीं होगी व केवल चीड़ छा जाएगें तो जमीन के नीचे उनकी जड़ों को जमने में कठिनाई होगी और ये पेड़ भी हलके सेआंधी-तुफान मेंभी आसानी से गिरने लगेंगे जैसा कि हो भी रहा है ।
हिमालय के अनेक क्षेत्रों में अत्याधिक व अनियंत्रित खनन से वनों की भी बहुत क्षति हुई है व खेती-किसानी की भी । इस खनन ने अनेक स्थानों पर भू-स्खलन व बाढ़ की समस्या को विकट किया है और अनेक गावों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है । वन-कटान, खनन, निर्माण कार्य में विस्फोटकों के बहुत उपयोग से हिमालय की जमीन अस्त-व्यस्त होती है । इस तरह भू-स्खलन व बाढ़ का खतरा बढ़ता है और भूकंप मेंहोने वाली क्षति की आशंका बढ़ती है । हिमालय का भूगोल ही ऐसा है कि यहां ऐसी आपदा की आशंका बढ़ेगी तो उसका असर दूर-दूर के मैदानी क्षेत्रों में भी पड़ेगा ।
इस समय हिमालय क्षेत्र में सबसे बड़े विवाद का मुद्दा यहां की बांध परियोजनाएं बनी हुई हैं । पूरे हिमालय क्षेत्र में सैकड़ों बांध बनाए जा रहे हैं जिससे यहां के हजारों गांव तरह-तरह से संकटग्रस्त हो रहे हैं । यदि इन सब परियोजनाआें को समग्र रूप से देखा जाए तो ये ग्रामीण समुदायों व पर्यावरण दोनों के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं और अनेक आपदाआें की विकटता इनके कारण काफी बढ़ सकती है । पर ऐसा कोई समग्र मूल्याकंन पूरे हिमालय क्षेत्र में तो क्या किसी एक राज्य या नदी घाटी के लिए भी नहीं किया गया । बड़ी कंपनियों से जल्दबाजी में सौदेबाजी की गई व ग्रामीण समुदायों से कुछ पूछा तक नहीं गया ।
सच यह है कि उत्तराखंड पारिस्थितिक तौर पर खोखला होता जा रहा है । यहां अनगिनत विद्युत परियोजनाएं शुरू की गई हैं । बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है । एक अनुमान के मुताबिक राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लम्बाई करीब पन्द्रह सौ किलोमीटर होगी । इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ नदी के निशान ही बचे रहेंगे । पानी के नैसर्गिक स्त्रोत अभी से गायब होने लगे हैं । कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं जमीन धंसने लगी है ।
बिना बारिश के भी कई जगह भूस्खलन के डर से वहां के अनेक परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर रहते हैं । हिमालय की रक्षा और लोकतंत्र की रक्षा, दोनों की मांग यह है कि इन बांध परियोजनाआें पर पुनर्विचार किया जाए । स्थानीय गांववासियों तक जरूरी तकनीक पहुंचाकर उनसे व्यापक विचार-विमर्श करना चाहिए कि किस तरह से कितना पनबिजली उत्पादन गांवों को नदियों को क्षतिग्रस्त किए बिना हो सकता है ।
इसी तरह पर्यटन के कार्य में जन-सहयोग के लिए गांववासियों की आजीविका से जुड़कर कार्य करना चाहिए, इसमें पर्यावरण की रक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए । पर्यटन में भी स्थानीय गांववासी केवल निचले स्थान पर न हों अपितु उन्हें सम्मानजनक भूमिका मिले । वन्य-जीव रक्षा के लिए लोगों को उजाड़ना कतई जरूरी नहीं है अपितु सही योजना बने तो वन्य जीव रक्षा के साथ ही स्थानीय गांववासियों को आजीविका के अनेक नए स्त्रोत मिल सकते हैं ।
दूसरी ओर चीड़ न स्थानीय लोगों के लिए अच्छा साबित हुआ, न पशुपालकों के लिए न किसानों के लिए । वन-नीति का यह प्रयास होना चाहिए था कि वन प्राकृतिक स्थिति के नजदीक हो यानी मिश्रित वन हो, जिसमें चौड़ी पत्ती के तरह-तरह के पेड़ भी हों और शंकुधारी भी । यदि इस तरह की जैव-विविधता नहीं होगी व केवल चीड़ छा जाएगें तो जमीन के नीचे उनकी जड़ों को जमने में कठिनाई होगी और ये पेड़ भी हलके सेआंधी-तुफान मेंभी आसानी से गिरने लगेंगे जैसा कि हो भी रहा है ।
हिमालय के अनेक क्षेत्रों में अत्याधिक व अनियंत्रित खनन से वनों की भी बहुत क्षति हुई है व खेती-किसानी की भी । इस खनन ने अनेक स्थानों पर भू-स्खलन व बाढ़ की समस्या को विकट किया है और अनेक गावों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है । वन-कटान, खनन, निर्माण कार्य में विस्फोटकों के बहुत उपयोग से हिमालय की जमीन अस्त-व्यस्त होती है । इस तरह भू-स्खलन व बाढ़ का खतरा बढ़ता है और भूकंप मेंहोने वाली क्षति की आशंका बढ़ती है । हिमालय का भूगोल ही ऐसा है कि यहां ऐसी आपदा की आशंका बढ़ेगी तो उसका असर दूर-दूर के मैदानी क्षेत्रों में भी पड़ेगा ।
इस समय हिमालय क्षेत्र में सबसे बड़े विवाद का मुद्दा यहां की बांध परियोजनाएं बनी हुई हैं । पूरे हिमालय क्षेत्र में सैकड़ों बांध बनाए जा रहे हैं जिससे यहां के हजारों गांव तरह-तरह से संकटग्रस्त हो रहे हैं । यदि इन सब परियोजनाआें को समग्र रूप से देखा जाए तो ये ग्रामीण समुदायों व पर्यावरण दोनों के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं और अनेक आपदाआें की विकटता इनके कारण काफी बढ़ सकती है । पर ऐसा कोई समग्र मूल्याकंन पूरे हिमालय क्षेत्र में तो क्या किसी एक राज्य या नदी घाटी के लिए भी नहीं किया गया । बड़ी कंपनियों से जल्दबाजी में सौदेबाजी की गई व ग्रामीण समुदायों से कुछ पूछा तक नहीं गया ।
सच यह है कि उत्तराखंड पारिस्थितिक तौर पर खोखला होता जा रहा है । यहां अनगिनत विद्युत परियोजनाएं शुरू की गई हैं । बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है । एक अनुमान के मुताबिक राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लम्बाई करीब पन्द्रह सौ किलोमीटर होगी । इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ नदी के निशान ही बचे रहेंगे । पानी के नैसर्गिक स्त्रोत अभी से गायब होने लगे हैं । कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं जमीन धंसने लगी है ।
बिना बारिश के भी कई जगह भूस्खलन के डर से वहां के अनेक परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर रहते हैं । हिमालय की रक्षा और लोकतंत्र की रक्षा, दोनों की मांग यह है कि इन बांध परियोजनाआें पर पुनर्विचार किया जाए । स्थानीय गांववासियों तक जरूरी तकनीक पहुंचाकर उनसे व्यापक विचार-विमर्श करना चाहिए कि किस तरह से कितना पनबिजली उत्पादन गांवों को नदियों को क्षतिग्रस्त किए बिना हो सकता है ।
इसी तरह पर्यटन के कार्य में जन-सहयोग के लिए गांववासियों की आजीविका से जुड़कर कार्य करना चाहिए, इसमें पर्यावरण की रक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए । पर्यटन में भी स्थानीय गांववासी केवल निचले स्थान पर न हों अपितु उन्हें सम्मानजनक भूमिका मिले । वन्य-जीव रक्षा के लिए लोगों को उजाड़ना कतई जरूरी नहीं है अपितु सही योजना बने तो वन्य जीव रक्षा के साथ ही स्थानीय गांववासियों को आजीविका के अनेक नए स्त्रोत मिल सकते हैं ।
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