कविता
यह कैसा सृजन ?
डॉ.ए. कीर्तिवर्द्धन
आज यह कैसा सृजन हो रहा है ,
अपने ही हाथों पतन हो रहा है ।
काट कर वन - वृक्ष, पेड-पौधे सारे,
कंकरीट का उपवन सघन हो रहा है ।
आती नही हवायें पूरब - पश्चिम से अब,
ए.सी. की हवा का चलन हो रहा है ।
भीतर तो ठण्डा, मगर बाहर गरम है,
आज हर कूंचा, अगन हो रहा है ।
देखकर हालात अपने गुलशन के
खून के आँसू वतन रो रहा है ।
दिखते नही पशु - पक्षी, तितली आैं मौरें
सूना - सूना सा चमन अब हो रहा है ।
है यहाँ चिन्ता किसे, कल के जहाँ की,
आज के सुख में, कीर्ति मगन हो रहा है ।
करते हैं बातें पर्यावरण की, जो दफ्तर में बैठकर,
विकास का ठेका अर्पण उन्हें ही हो रहा है ।
यह कैसा सृजन ?
डॉ.ए. कीर्तिवर्द्धन
आज यह कैसा सृजन हो रहा है ,
अपने ही हाथों पतन हो रहा है ।
काट कर वन - वृक्ष, पेड-पौधे सारे,
कंकरीट का उपवन सघन हो रहा है ।
आती नही हवायें पूरब - पश्चिम से अब,
ए.सी. की हवा का चलन हो रहा है ।
भीतर तो ठण्डा, मगर बाहर गरम है,
आज हर कूंचा, अगन हो रहा है ।
देखकर हालात अपने गुलशन के
खून के आँसू वतन रो रहा है ।
दिखते नही पशु - पक्षी, तितली आैं मौरें
सूना - सूना सा चमन अब हो रहा है ।
है यहाँ चिन्ता किसे, कल के जहाँ की,
आज के सुख में, कीर्ति मगन हो रहा है ।
करते हैं बातें पर्यावरण की, जो दफ्तर में बैठकर,
विकास का ठेका अर्पण उन्हें ही हो रहा है ।
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