शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

कविता
यह कैसा सृजन ?
डॉ.ए. कीर्तिवर्द्धन

    आज यह कैसा सृजन हो रहा है      ,
    अपने ही हाथों पतन हो रहा है ।
    काट कर वन - वृक्ष, पेड-पौधे सारे,
    कंकरीट का उपवन सघन हो रहा है ।
    आती नही हवायें पूरब - पश्चिम से अब,
    ए.सी. की हवा का चलन हो रहा है ।
    भीतर तो ठण्डा, मगर बाहर गरम है,
    आज हर कूंचा, अगन हो रहा है ।
    देखकर हालात अपने गुलशन के
    खून के आँसू वतन रो रहा है ।
    दिखते नही पशु - पक्षी, तितली आैं मौरें
    सूना - सूना सा चमन अब हो रहा है ।
    है यहाँ चिन्ता किसे, कल के जहाँ की,
    आज के सुख में, कीर्ति मगन हो रहा है ।
    करते हैं बातें पर्यावरण की, जो दफ्तर में बैठकर,
    विकास का ठेका अर्पण उन्हें ही हो रहा है ।    

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