शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

ज्ञान विज्ञान
कीड़े खाओ, धरती बचाओ

    राष्ट्र संघ के खाद्य व कृषि आयोग ने लोगोंको सलाह दी है कि यदि वे अपनी धरती को बचाना चाहते हैं, तो उन्हें झिंगुर बिरयानी खाना शुरू कर देना चाहिए । यह सलाह हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट एडिबल इंसेक्ट्स :फ्रॉस्पेक्टस फॉर फूड एंड फीड सिक्यूरिटी में दी गई है ।
    रिपोर्ट के शीर्षक का हिन्दी तर्जुमा होगा - खाद्य कीट : खाद्यान्न व पशु आहार सुरक्षा की भावी संभावनाएं । रिपोर्ट में कहा गया है कि कीट हमारे भोजन में काफी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं । इनमें प्रोटीन का काफी मात्रा होती है और इनका उत्पादन सस्ता होता है । इसके अलावा, कीटों को खाने से पर्यावरण संबंधी लाभ भी मिलेंगे । 
    संगठन का कहना है कि सामान्य मांस खाना पोषण प्राप्त् करने का कार्यक्षम तरीका नहीं है क्योंकि इन पशुआें को आप जो दाना खिलाएंगे वह फसलों से प्राप्त् होगा । अब १ किलोग्राम गौमांस पैदा करने के लिए १० किलोग्राम दाने की जरूरत होती है । यानी फसलों से प्राप्त् उत्पादन की बरबादी हो रही है । इसके विपरीत यदि आप ०१ किलोग्राम झिंगुर का उत्पादन करना चाहें तो वह मात्र १.७ किलोग्राम पशु आहार लेगा । है ना फायदे का सौदा ? इसका मतलब यह भी है कि सामान्य मांस खाने के लिए काफी कृषि भूमि की जरूरत होती   है और खाद, कीटनाशक वगैरह का उपयोग होता   है ।
    उपरोक्त आधार पर खाद्य व कृषि संगठन का निष्कर्ष है कि झिंगुर सामान्य मांस के मुकाबले १२ गुना बेहतर साबित होंगे । यदि हम बराबर मात्रा में झिंगुर और कोई अन्य मांस प्राप्त् करना चाहें तो झिंगुर के उत्पादन में कही कम जमीन लगेगी और रसायनों का उपयोग भी कम होगा । मतलब प्रदूषण भी कम होगा ।
    मगर खाद्य व कृषि संगठन जैसी संस्थाआें के साथ दिक्कत यह है कि वे भोजन को एक तकनीकी मसला भर मानते हैं । पर्यावरण वगैरह तो ठीक है मगर कितने लोग हैं, जो अपना सामान्य भोजन छोड़कर धरती को बचाने की खातिर झिंगुर और टिड्डे और तिलचट्टे खाने को तैयार होंगे । फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता कि सिर्फ पर्यावरण का नाम जपकर कीटों को थाली में पहुंचाया जा सकेगा ।

जैव विविधता को बचाने की लागत

    हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि दुनिया में जोखिमग्रस्त प्रजातियों को बचाने की लागत दरसअल प्रकृति से मिलने वाले लाभों से कहीं कम है ।    
    साइन्स पत्रिका में प्रकाशित इस शोध पत्र में अनुमान लगाया गया है कि दुनिया की सारी जोखिम-ग्रस्त प्रजातियों को बचाने के लिए प्रतिवर्ष लगभग ४ अरब डॉलर खर्च करना होंगे । इसके अलावा उन इलाकों को सुरक्षित करना होगा । जहां ये प्रजातियां वास करती हैं । शोधकर्ताआें का अनुमान है कि इस काम में प्रतिवर्ष ७६ अरब डॉलर के निवेश की जरूरत होगी । 
     यह अध्ययन यू.के. स्थित बर्डलाइफ इंटरनेशनल नामक संस्था में कार्यरत संरक्षण वैज्ञानिक स्टुअर्ट वुचार्ट ने अपने साथियों के साथ मिलकर व्यक्त किया है । दरअसल यह दल समझने का प्रयास कर रहा था कि राष्ट्रों ने जिस जैव विविधता संधि पर हस्ताक्षर किए हैं, उसके लक्ष्यों की प्रािप्त् की लागत क्या   होगी । जैसे एक लक्ष्य यह है कि जोखिम-ग्रस्त प्रजातियों को उनकी स्थिति से एक स्तर ऊपर लाना । इसके आंकड़े भी गणना के लिए उन्होनें संरक्षण विशेषज्ञों से पूछा कि २११ जोखिमग्रस्त पक्षी प्रजातियों के संरक्षण का खर्च क्या होगा । विशेषज्ञोंके जवाबों के आधार पर गणना की गई तो पता चला कि दुनिया की कुल १११५ जोखिमग्रस्त पक्षी प्रजातियोंके संरक्षण हेतु ८७.५ करोड़ से १.२३ अरब डॉलर प्रति वर्ष तक खर्च होंगे । यदि इसी राशि के आधार पर समस्त जोखिमग्रस्त प्रजातियोंके लिए गणना की जाए तो आंकड़ा ३.४१ अरब से ४.७६ अरब डॉलर प्रति वर्ष आता है ।
    जैव विविधता संधि का एक और लक्ष्य पृथ्वी का १७ प्रतिशत भूमि सतह का संरक्षण है । इसकी गणना करना मुश्किल है मगर बुचार्ट व उनके दल का अनुमान है कि इस पर प्रतिवर्ष ७६.१ अरब डॉलर खर्च करने होंगे ।
    ये राशियां बहुत बड़ी-बड़ी नजर आती है मगर राष्ट्रों के बजट के संदर्भ मेंदेखें तो ये कुछ नहीं है । इसके अलावा बुचार्ट का कहना है कि ये राशियां उन सेवाआें की कीमत के सामने तुच्छ हैंजो प्रकृति हमेंप्रदान करती है । जैसे हमारे फसलों का परागण या हमारे द्वारा उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड का अवशोषण । इस तरह की इकोसिस्टम सेवाआें की कीमत २० से ६० खरब डॉलर के बीच आंकी गई है । तो दरअसल प्रकृति संरक्षण मेंखर्च को खर्च ने मानकर निवेश माना जाना चाहिए ।

सिर्फ मनुष्य ही नकलची नहीं होते

    यह तो जानी-मानी बात है कि मनुष्यों में आदतें एक-दूसरे की नकल करके सीखी जाती हैं और धीरे-धीरे साथ रहते-रहते एक संस्कृतिविकसित होती है । सवाल है कि क्या अन्य प्राणियों में भी ऐसा होता है, खास तौर से समूह में रहने वाले प्राणियों में ? हाल ही में प्रकाशित शोध पत्रों का निष्कर्ष है कि कम से कम बंदरों और व्हेलों में ऐसा होता है ।
    यूके सेन्ट एण्ड्रयूज विश्वविद्यालय की प्रायमेट विशेषज्ञ एरिका नानडीवॉल और उनके साथियों ने जंगल में रहने वाले वर्वेट बंदरों के दो समूहों का अध्ययन  किया । उन्होनें इन दो समूहों के बंदरों को प्रशिक्षित किया कि वे एक खास रंग (गुलाबी या नीले) में रंगे मक्का के दाने ही खाएं और दूसरे रंग के दानोंसे परहेज करें । इसके बाद शोधकर्ता दल ने यह देखने के लिए इंतजार किया कि जब इन समूहोंमें नए सदस्य आएंगे तो क्या होगा । नए सदस्य यानी प्रवासी नर अथवा नवजात बंदर शिशु । 


     देखा गया कि उक्त दोनों किस्म के नवागंतुक सदस्य उस समूह की सामाजिक परिपाटी का पालन करते हैं । शिशु बंदर उसी रंग के दाने खाते थे जो उनकी मां खाती थी । जो दस वयस्क बंदर अन्य समूहों (जिनमें रंग की वरीयता भिन्न  थी) से उस समूह में आए थे, उनमें से सात ने उस समूह की रंग संस्कृतिअपना ली । यानी सीखने की प्रक्रिया कर-करके नहींहोती बल्कि सामाजिक रूप से होती है । यह अध्ययन अपने किस्म का अनोखा अध्ययन है ? इसमें प्राकृतिक स्थिति में इन चीजों को देखा गया है ।
    दूसरा अध्ययन एक छात्र जेनी एलेन ने किया । एलेन के नेतृत्व में इस दल ने कूबड़ वाली व्हेलों के व्यवहार के २७ वर्षोके आंकड़ों का उपयोग किया ।
    कूबड़ वाले व्हेलों की विशेषता है कि वे भोजन पाने के लिए मछलियों के किसी झुंड के नीचे से बुलबुले छोड़ती हैं । मछलियां इन बुलबुलों में फंसने से बचने के चक्कर में एक साथ आ जाती है । तब व्हेल उस पूरे झंुड को निगल जाती है । मगर १९८० में कुछ शोधकर्ताआें ने एक नई बात देखी एक कूबड़वाली व्हेल ने बुलबुले वाली करामात करने से पहले पानी की सतह पर अपनी पूंछ के फावड़े जैसे भाग (फ्लूक) से छपाका मारा । उस साल १५० भक्षण घटनाआेंमें ऐसा एक ही बार हुआ । मगर २००७ तक उस स्थान (मैन की खाड़ी) पर ३७ प्रतिशत कूबड़वाली व्हेल इस तकनीक का उपयोग करती देखी गई । यह इतनी प्रचलित तकनीक बन चुकी थी कि वैज्ञानिकों ने इसे एक नाम भी दे दिया - लॉबटेल भक्षण विधि ।
    एलेन और उनके साथी यह जानना चाहते थे कि लॉबटेल विधि इतनी प्रचलित कैसे हो गई । इसके लिए उन्होनेंग्लाउसेस्टर के व्हेल सेंटर ऑफ न्यू  इंग्लैण्ड द्वारा १९८०-२००७ के बीच एकत्रित आंकड़े देखे । विश्लेषण के पीछे मान्यता यह थी कि जो सदस्य ज्यादा समय साथ-साथ बिताते हैं, वे एक-दूसरे के व्यवहार को ज्यादा प्रभावित करते होंगे ।

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