शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

विशेष लेख
प्रकृति से प्यार
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    कभी कभी जेहन में स्वभाविक प्रश्न उठता है कि हमारे अस्तित्व का आधार क्या है ? अस्तित्व क्या है ? प्रगति क्या है ? प्रकृतिवाद क्या है ? मेरे विचार से ऐसे प्रश्नों की शब्द भंवर से बाहर निकलने के लिए सम्यक विचारधारा को ही पकड़ना होगा । संक्षेप में कहा जाये तो प्रकृति की प्रक्रिया ही अस्तित्व का आधार है तथा अस्तित्व बनाये रखने हेतु प्रकृतिपरक होना पड़ेगा । प्रकृति से प्यार करना ही होगा । प्रकृति में सर्वत्र प्रेम का प्रयोजन सिद्ध है ।
    प्रकृति का शाश्वत नियम है कि उसमेंसकारात्मक तथा नकारा-त्मक शक्तियों के मध्य द्वन्द चलता है । जिसके परिणामस्वरूप ही नूतन का अविर्भाव होता है । नव सृजन से दोनो धु्रवीय शक्तियों का समन्वय हो जाता है । सृष्टि में कोई भी त्रासदी नकारात्मक शक्ति के संचय की परिणति ही होती है । दार्शनिक हीगल ने भी कहा है कि - प्रत्येक वाद (थीसिस) के साथ किसी प्रतिवाद (एन्टी थीसिस) का संघर्ष होता है जिससे एक नये समवाद (सिनथेसिस) का विकास होता है जो प्रथम दोनों का समन्वित रूप होता है । इसी को अस्तित्ववाद कहा गया है । दरअसल सारी समस्याआें के मूल मेंकिसी भी क्रिया की प्रतिक्रिया ही होती है । लोक जीवन में हम देखते है कि हमारी सोच ही संघर्ष अथवा सहयोग का वरण करती है । भाव बदलने से भावनाएं बदल जाती है । आध्यात्मिक उक्ति है जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि । प्यार दो तो प्यार ही मिलता है और सौन्दर्यमयी सुवासित मन कुसुम खिलता है । 
  परम्परागत विचारधारा के अनुसार सृष्टि मेंपहले विचार (आइडिया) का उदय हुआ फिर वस्तु का अविर्भाव हुआ । यही तत्ववाद (आइडियालिज्म) है । इस विचार धारा के तोड़ में कहा गया कि जीवन ही क्षणभुंगर और मिथ्या है । तो विचार कैसे जन्मे, यह भी कहा गया कि व्यक्ति का अस्तित्व उसकी स्वयं की इच्छा पर निर्भर करता है । कोई व्यक्ति जैसा बनाना चाहता है वह वैसा ही बन जाता है । परिस्थितियों के बंधन को स्वीकारना अथवा न स्वीकारना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है । आप जो भी इच्छा रखते है वह सहप्रयासों से अवश्य ही पूरी होती  है । क्योंकि सम्पूर्ण कायनात उसे पूरा करने में जुट जाती है ।
    गीता में भगवान ने स्वयं कहा है कि मेरी अध्यक्षता में प्रकृति ही चर और अचर की रचना करती है । अपने कर्म और स्वभाव के अनुसार संसार बनता है और परिवर्तन होता रहता है । सभी क्रियाएं प्रकृति मेंहोती है । परमात्म अंश जीव भी निर्लिप्त् एवं असंग रहता है
    मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्
    हेतुननिन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।। (गीता ९/१०)
    अत: परिस्थितियों के अनुसार ढल जाने के लिए व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है । हम परिस्थितियोंपर भी निर्भर करते है । प्रतिकूल परिस्थिति को अनुकूल बनाने का प्रयत्न करते है । कभी हम अपने प्रयास में सफल होते हैं तो कभी असफल भी हो जाते है । प्रश्न उठता है कि हम सफल क्यों नहीं होते तो कहा जा सकता है कि संकल्प शक्ति में कमी रहती है । संकल्पों के विकल्प में जीते है हम । इसीलिए विकल रहते हैं ।
    अस्तित्ववादी इस बात को सिरे से खारिज करते हैं और नकारते है । उनके अनुसार सुख की लालसा ही मिथ्या है । मनुष्य चाहे कितनी भी प्रगति एवं उन्नति कर ले वह पूर्ण सुख नहीं पा सकता है । क्योंकि पूर्णत: संतुष्ट एवं सुखी होना मानव की प्रकृतिमें ही है तब तक वह सुखी नहीं हो सकता, या तो वह मनुष्यता को त्यागे या फिर सुख की कामना का परित्याग करे । मैं इस बात से असहमत हॅू । मेरे विचार से मनुष्य होकर ही सुख एवं आल्हाद को पाया जा सकता है, बशर्ते अन्त:करण निर्मल एवं निरामय हो । प्रेम से पुलकित व्यक्ति अहंकार रहित रहता है । वह आत्मबल एवं तेज से ओतप्रोत रहता है । सदैव प्रसन्न रहता है । प्रसन्नता हमें सुख देती है । निष्काम भाव से हमें शांति मिलती  है ।
    प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपयाजते ।
    प्रसन्नचेतसो ह्मयाशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते ।। (गीता २/६५)
    अर्थात अन्त:करण की निर्मलता प्राप्त् होने पर साधक के सम्पूर्ण दु:खो का नाश हो जाता है । और ऐसे शुद्ध चित्त वाले साधक की बुद्धि नि:संदेह बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है । स्थिर चित्त वाले मनुष्य में समत्व भाव रहता    है । तब प्रतिकूलता एवं अनुकूलता का भेद ही समाप्त् हो जाता है । मनु र्भव का भाव ही हमें उत्कृष्टता प्रदान करता है और अस्तित्व को आधार देता है ।
    प्रकृति ने सृष्टि में समस्त जीवों के जीवन यापन एवं अस्तित्व की रक्षा हेतु पर्याप्त् व्यवस्था की हुई है । प्रकृति में किसी चीज को कमी न हो इसलिए चक्रान्तरण है । जल चक्र, वायु चक्र है विविध तत्वों सहयोग एवं विनियोग हे । नदियाँ सागर को जल से भरती है । सागर से मेघ उठते है । मेघ धरती पर आते और बरसते है । पर्वतों पर हिमनद बनते हैं जिससे वर्ष पर्यन्त नदियाँ सदानीरा रहती हैं । वर्षा का जल हमारी कृषि का आधार है । वर्षा का जल ही परिस्रवण द्वारा अर्थात रिस रिस कर भूमिगत हो जाता है जो कि धरती के पार्थिव तत्व को सरस रखता है ताकि धरती में नमी बने रहे ।
    प्रकृति का प्यार पाने के लिए हम प्रकृति के साथ चले । प्रकृति नृत्यमयी है । प्रकृति नित्य नयी है । प्रकृति परिवर्तनीय एवं परावर्तनीय    है । जीवन में वही सफल होता है जो प्रकट सत्ता के साथ जाग्रत भाव रखता है । प्रकृति हमें सदा ही सबकुछ देती है । प्रकृति के प्रसाद को पाने की जितनी पात्रता हमारे अंदर होती है हम उतना ही अर्जित कर पाते है । प्रकृति ही प्रगति की प्रस्तावक  है । प्रकृति अपनी तुला पर कर्म के बांटों से फलों को तौलती है । कहीं भी असंतुलन हुआ तो तुला डोलती  है । प्रकृतिदाता है, प्रकृति के आँचल में मनुष्य जीवनाधार पाता है ।
    प्रकृति अपने हिसाब की पक्की है । हमारा जीवन प्रकृति तत्वों पर ही आश्रित है । ईश्वरीय कृपा से प्रकृति ही हमारी आवश्यकताआें को पूर्ण करती है । प्रकृति की दया पर हमारी दशा निर्भर होती है । जब जब हम प्रकृति के विरूद्ध जाकर उसका अमंगल करते है वह भी हमसे प्रतिशोध लेती है । तब प्रकृति के आगे आदमी बौना एवं असहाय हो जाता है । प्रकृति हमें सबकुछ नि:शुल्क देती है बदले में केवल प्यार चाहती है । अत: हमे प्रकृति के साथ चलना चाहिए । प्रकृति संवेदनशील होती है, सहनशील होती है और हमें सजग भी करती है ।
    क्या हमने कभी गंभीरतापूर्वक यह विचार किया है कि हम दु:ख क्यों पाते है । क्योंकि हम प्रकृति की लगातार अवहेलना करते जाते है । प्रकृति हमें बार-बार संकेत देती है । हम उन्हें नहीं समझते अथवा समझने का प्रयास ही नहीं करते । हमने पेड़ काट डाले तो क्या हमें हरियाली मिलेगी ? हमने विकास के नाम पर क्या-क्या नहीं किया । पर्यावरणीय प्रदूषण जनित हलाहल को पेड़-पौधे ही तो पीते है । ऐसे शिवत्व पूर्ण पेड़ों को क्या हम सहेज रहे है ।
    मनुष्य यह बात नहीं समझ रहा है कि जितनी अधिक सुख-सुविधाएं वह जुटाता जाता है उतनी ही अधिक अशांति पाता है । भीड़ में भी स्वयं को तन्हा, एकाकी अनुभव करता है । क्योंकि सम्बन्धों में अपनत्व और प्रेम नहीं रहा सौन्दर्य से पुलकित परिवेश नहीं रहा । समस्त प्रकृति की जैव विविधता संकटापन्न हो रही है । फिर भी हमें चिंता नहीं है । हम चेतना शून्य होते जा रहे    है । हमारी जीवन शैली कृत्रिमतापूर्ण, यांत्रिक एवं निराशापूर्ण होती जा रही है । सौन्दर्य बोध खत्म हो रहा है । मलिनता ही मन में समा रही है । आज के खण्डित समाज में पाखण्ड अधिक है । आस्था एवं विश्वास हमारे पास नहीं ठहर पा रहा है । हम अपनी अक्षमताएं दूसरों पर थोपते जा रहे    है । ऐसे में कैसेसुरक्षित रहेगा हमारा अस्तित्व ?
    हम व्यष्टि चैतन्य तो है किन्तु समष्टि चैतन्य नहीं है । अत: सृष्टि एवं सृष्टा की अवहेलना करते हैं । प्रकृति के विपरीत जाते है दु:ख पाते है । प्रकृति एवं मनुष्य दोनो एक ही कलाकार की जीवंत कृतियां है ।  एकाकार होकर भी भिन्न प्रतीत होती है । प्रकृति निर्विकार है तो मनुष्य विकारों का पुतला है । प्रकृति में सबकुछ अनावृत है । उसकी सदाशयता मेंभी हम रहस्य ढूंढते है क्योंकि हम प्रकृति को समग्रता से जानने का प्रयास नहींकरते है ।
    हम प्रकृति के अनुसार चले । प्रकृति के साथ चलें । प्रकृति की प्रेरणाआें के अनुरूप अपना दृष्टिकोण बनाए तथा अपने क्रिया कलापों का निर्धारण करें । प्राकृतिक उत्कृष्टता तथा आदर्श का समन्वय हमारे अन्त:करण को ऋतबद्ध बनाता है । पवित्रता एवं उदारता के साथ हम प्रकृति के आराधक बनें ।
    हम अपनी भौतिक महत्वाकांक्षाआें को सीमित करें हमारा निर्वाह प्रकृतिके साथ हो हमारा आचरण प्रकृति के तद्रूप हो । इससे अभाव एवं असंतोष नहीं रहेगा । प्रकृति का वरदान एवं अभयदान मिलेगा । हम अहोभाव से भरे रहेंगे । संसार यज्ञकर्म के सहारे चलता है । प्रकृति की समुन्नत नियामक व्यवस्था है । हम उसमेंभरपूर सहयोग करे । हम कभी भी कहीं भी भ्रष्ट आचरण का हिस्सा न बने । इससे हमारा अस्तित्व भी सुरक्षित रहेगा और हमे स्थायी सुख मिलेगा ।

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