शनिवार, 16 दिसंबर 2006

आवरण


आवरण नवंबर - दिसंबर 2006 संयुक्तांक



आवरण नवंबर - दिसंबर 2006 संयुक्तांक

नाम भी सुन्दर, काम भी सुन्दर

नाम भी सुन्दर, काम भी सुन्दर

-कुमार सिद्धार्थ

दस मार्च १९८४ को राष्ट्रपति भवन में चिपको आंदोलन के नेता सुन्दरलाल बहुगुणा को राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित करते हुए राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने कहा था ''सुन्दरलाल तेरा नाम भी सुन्दर है और काम भी सुन्दर और इस जमाने में जब आदमी - आदमी का कत्ल करने पर आमादा है तू पेड़ों को कत्ल होने से बचा रहा है।'' उन्हीं सुन्दरलाल बहुगुणा को रचनात्मक कार्योंा हेतु पेड़ों की कटाई रोकने में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए १९८६ के जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई थी। श्री बहुगुणा के इसी रचनात्मक आंदोलन की वजह से सरकार का ध्यान पर्यावरण की सुरक्षा के इस पहलू की तरफ गया।

आज से तेंतीस वर्ष पूर्व सन् १९७३ को ''चिपको आंदोलन का उदय गोपेश्वर में हुआ। जिसके असली जनक हैं- चंडीप्रसाद भट्ट। लेकिन चिपको आंदोलन के प्रचार प्रसार और दुनिया भर में चिपको आंदोलन का संदेश पहँुचाने में सुन्दरलाल बहुगुणा का उल्लेखनीय योगदान रहा है। इस आंदोलन का प्रारंभ तब हुआ जब राज्य सरकार ने इलाहाबाद की एक खेलकूद सामग्री उत्पादक कंपनी को अंगू के पेड़ स्वीकृत किए, जबकि स्थानीय लोगों द्वारा कृषि यंत्रों के निर्माण हेतु अंगू के पेड़ों की लकड़ी काटने की अनुमति मांगने पर कह दिया गया था कि वन में अंगू लकड़ी नहीं है। जैसे ही कंपनी के लोग पेड़ काटने के लिए गोपेश्वर पहँुची लगभग १०० लोग जिनमें महिलाएँ भी थीं, अपने गाँवों से ढोल-नगाड़े लेकर समारोह के साथ जंगल पहँुच गए। उनका एक ही नारा था - ''चिपको''। वे वृक्षों से चिपक गए और कहा कि हम इन्हें नहीं काटने देंगे।

इसके बाद चिपको आंदोलन का उत्तराखंड में व्यापक प्रसार हो गया तथा सारे देश का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हुआ। वास्तव में इसके पहले वहाँ की जनता का वन संबंधी अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष का लंबा इतिहास है।

''चिपको'' आंदोलन की वास्तविक उपलब्धि यह रही कि पहली बार पहाड़ के लोगों को यह एहसास हुआ कि जंगल कितने जरुरी हैं। साफ हवा पानी के लिए तो है ही, गरीब आदमी की रोटी भी है, जिसके बगैर जीवन संभव नहीं है। इस आंदोलन ने वन और वन संपदा पर स्थानीय लोगांंे के आजन्म अधिकार को अभिव्यक्ति दी थी। जंगल के लुटेरों और ठेकेदारों के तेज हथियारों के विरुद्ध पेड़ों से चिपक कर उन्हंे बचाने की जो मासूम शैली अपनाई गई, वह देश और विदेश में अनोखी मानी गई।

वनों के उजड़ने का सबसे गहरा असर महिलाआें पर हुआ, क्योंकि मीलों दूर से जलाऊ लकड़ी ढोकर लाना, जानवरों के चारों के लिए घास की खोज में भटकना पहाड़ी स्त्रियों के भाग्य में जैसे हमेशा के लिए लिखा हुआ है। ''चिपको'' महिलाआें और पुरूषों और बच्चों का एक मुख्य आंदोलन बन गया। इस तरह बहुगुणाजी के अथक प्रयासों से ''चिपको'' ने पेड़ और मनुष्य के जैविक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्तों के साथ-साथ आर्थिक रिश्ते पर भी ऊँगली रखी।

सुन्दरलाल बहुगुणा की पहल का रुख पर्यावरण की समस्याआें, वन-विनाश और भू-स्खलन के प्रति लोगों को जागरुक बनाने की ओर रहा है- ओर इस तरह प्रकृति के दर्शन और अरण्य संस्कृति की सुरक्षा का। बहुगुणाजी का कहना है कि ''पहाड़ मिट्टी के क्षरण और पानी के निरन्तर सूखते हुए स्त्रोतों के कारण धरती से उजड़ चुके हैैं। पर्वतीय जनता के पुनर्वास से ही जुड़ा हुआ देश की बाढ़, सूखे और रेगिस्तान के विस्तार के रुप में बढ़ते हुए पर्यावरणीय संकट में रक्षा का भी सवाल है।''

''चिपको'' आंदोलन ने इस शाश्वत सत्य को उजागर कर कि मनुष्य को धरती से सीधा पोषण पाने का जन्म सिद्ध अधिकार है, रुढ़ चिन्तन के आधार पर खड़ी अर्थव्यवस्था के खोखलेपन को पहाड़ों के संदर्भ में प्रकट किया। यही कारण है कि उसके पारिस्थितिकीय स्वरुप के खिलाफ कई प्रश्न चिह्र खड़े किए हैं और यथा स्थिति को कायम रखने वाली शक्तियों ने सब स्तरों पर उसके खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। यह मानव जाति के सामने उपस्थित अस्तित्व के प्रश्न का उत्तर देने में असफल हुई राजनीति के, उन्हीं प्रश्नों का समाधान करने के लिए उदित परिस्थिति का जो अब भविष्य की आशा है, अपने को जिन्दा रखने का अंतिम प्रयास है। सौभाग्य से विज्ञान ने राजनीति का साथ छोड़कर मनुष्य और प्रकृृति के प्रेममूलक संबंधों की स्थापना करने वाली परिस्थितियों को अपनी सेवाएँ अर्पित की हैं।

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वनवासी ही शेर को बचायेंगे -सुन्दरलाल बहुगुणा

वनवासी ही शेर को बचायेंगे -सुन्दरलाल बहुगुणा

(पर्यावणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा से चिन्मय मिश्र की बातचीत )

चिन्मय - अब तो आपको भी टिहरी बांध ने विस्थापित कर दिया है। ऐसे में बांधों को लेकर आपका क्या नजरिया है?

श्री बहुगुणा - मैं प्रारंभ से यह कहता आया हूं कि बांध पानी जैसी समस्या का अस्थायी हल है। बांध का पानी मृत पानी है और नदियों का पानी कहे तो जिंदा पानी है। आस्ट्रिया के प्रसिद्ध लेखक शा-बर्गर ने इस संबंध में एक बड़ी ही सुन्दर पुस्तक दि लिविंग वाटर भी लिखी है। आप देखते है ना कि कृत्रिम बांध की क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है। गांधी ने अपने समय में ही बड़े बांधों के विचार को ही नकार दिया था। पर हमारे यहां तो कहावत है कि बूढ़े की बात और आंवले का स्वाद बाद में समझ आता है। हम अब कुछ-कुद समझ रहे हैं। पर बड़े बांध अन्तत: तबाही ही लायेंगे?

चिन्मय - पर पानी एक समस्या की तरह तो सामने आ रहा है, ऐसे में और क्या विकल्प हो सकता है ?

श्री बहुगुणा - यह बात सही है कि पानी आने वाले समय की सबसे बड़ी समस्या के रुप में उभरेगा। परन्तु किसी भी प्राकृतिक वस्तु का विकल्प कोई अप्राकृतिक साधन तो नहीं हो सकता। पानी का विकल्प पेड़ है, फलदार पेड़। अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिये मात्र इमारती लकड़ी वाले पेड़ लगवाये। उन्होंने प्रकृति के नियमों के विरुद्ध बजाय विधिता के एक सी प्रवृत्ति वाले पेड़ लगवायें सबसे पहले वे रेल्वे के स्लीपर के लिये हरिद्वार में लकड़ियां लाये। परन्तु इस तरह से हम तबाही की ओर जा रहे हैं। पेड़ों का रोपण ही हमें बचा सकता है। हमें काष्ठफलों के पेड़ लगाना चाहिए। इनकी जड़ों में ढेर सा पानी जमा रहता है। इसी के लिये मैने सन् १९८१ से १९८३ तक कश्मीर से कोहिमा तक पूरे हिमालय की करीब ४८६७ किलोमीटर की यात्रा भी की थी। मेरा मानता है कि भविष्य की खेती काष्ठ फल के पेड़ों की खेती है और भविष्य की मिठास शहद है।

चिन्मय - पर तात्कालिक रुप से पानी की समस्या का हल क्या है ?

श्री बहुगुणा - सवाल तात्कालिकता का नहीं है। सन् १९४९ की बनिस्बत हिमालय में अब आधा पानी बरसता है। इसलिये मेरा मनना है कि अफगानिस्तान से लेकर बंगलादेश तक, जब तक सघन वृक्षारोपण नहीं होगा तब तक कोई भी हल इस समस्या का नहीं निकल सकता।

चिन्मय - आजकल नदी जोड़ को पानी की समस्या का हल बताया जा रहा है। आप इस बारेमें क्या कहेंगे ?

श्री बहुगुणा - यह अप्राकृतिक है। यह मनुष्य के स्वार्थ की पराकाष्ठा है। नदी जलचरों का घर है। मछलिया ही नदी को स्वच्छ बनाती है। ठंड में मछलियां गंगासागर चली जाती है। गर्मी में वे वापस गंगात्री आती है। इस दौरान वे नदियों की साफ सफाई करती चलती है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सिर्फ पानी से पैदावार नहीं होती। हिमालय सिर्फ पानी ही नहीं, उपजाऊ मिट्टी भी देता है। नदी जोड़ के बाद क्या यह सब कुछ संभव है? और अगर उपजाऊ मिट्टी नहीं होगी तो रासायनिक खाद अधिक मात्रा में डालना पड़ेगी। पश्चिम इस समस्या को भुगत रहा है। अब वह इस मानव विरोधी विकास को हम सब पर थोप रहा है। इस नदी जोड़ से

करीब एक करोड़ लोग विस्थापित होंगे वो

सब कहा जाएगें ? मैं तो इतना ही कहूंगा कि यह एक अत्यंत क्रूर योजना है।

चिन्मय - विस्थापन की आपकी बात से एक और सवाल उभरता है वह है सरदार सरोवर बांध के संबंध में नर्मदा बचाओ आन्दोलन की याचिका पर सर्वोच्य न्यायालय ने जो निर्णय दिया है, उस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

श्री बहुगुणा - मेरा मानना है कि सर्वोच्य न्यायालय ने अपने निर्णय में भविष्य का ध्यान हीं रखा। यह विकास नहीं, विनाश है क्योंकि विकास में तो निरंतरता होना चाहिए ।

चिन्मय - हम अपने पुन: नदी जोड़ पर आते है। नदी जोड़ के संबंध में कहा जाता है कि इससे बाढ़ की विभीषिका से मुक्ति मिलेगी ?

श्री बहुगुणा - बाढ़ तबाही नहीं वरदान है। वह नई मिट्टी लाती है। बाढ़ इस तरह से नहीं रुक सकती हिमालय में बाढ़ रोकने के लिये यह अनिवार्य है कि नेपाल में सघन वृक्षारोपण हो। नदी जोड़ से पानी की किसी समस्या का हल नहीं है। पानी एक स्थानीय तत्व और समस्या है अतएव इसका हल भी स्थानीय ही निकलेगा।

चिन्मय - अब पर्यावरण से इतर कुछ अन्य प्रश्न का उत्तर हम आपसे चाहते है। इस संदर्भ में पहला प्रश्न है, बढ़ता शहरीकरण। नया राजनैतिक समाज इसे समृद्धि की निशानी बता रहा है। और आप?

श्री बहुगुणा - शहरीकरण आज का बहुत बड़ा खतरा है। शहरों मे अपने स्वयं के संसाधन तो होते नहीं ऐसे में वे इसे कहीं और से प्राप्त करते है, और यहीं से शोषण प्रारंभ होता है। पिछली शताब्दियों में यूरोप के देशों में शहरी करण प्रारंभ हुआ परिणाम स्वरुप उनके लिये संसाधनों की आवश्यकता पड़ी परिणाम स्वरुप सामने आया गरीब देशों का शोषण गुलामी के रुप में। हमने दो सौ वर्षो तक इसे भुगता है अब तक यूरोप के देशों ने ही शहरीकरण को अपनाया था। ये सब छोटे-छोटे देश थे। अगर भारत शहरीकरण को अपनायेगा तो यह सारी मानवता के लिये अनिष्टकारी होगा। गांधी और विनोबा दोनों ने गांवों की ओर लौटने का आग्रह किया था पर हम इसके विपरीत कार्य कर रहे हैं। भारत के शहरीकरण से तो सारी दुनिया ही नष्ट हो जाएगी।

चिन्मय - आप अन्य किन विषयों को आज के संदर्भ में भारत के लिये महत्वपूर्ण मानते है ?

श्री बहुगुणा - (इस उत्तर में श्रीमती बहुगुणा भी पूरी शिद्धत से शामिल थी) देखिये एक मसला है किसानों की आत्महत्याआें का। सरकार और समाज दोनों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसके बहुत ही विध्वंसकारी परिणाम निकलेंगे। अत्याचार लगातार बढ़ रहे है। उनकी और गंभीरता से ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

चिन्मय - तो इसका क्या समाधान हो सकता है ?

श्री बहुगुणा - मेरा मानता है कि जब तक सत्ता पूर्णतया स्त्रियों के हाथ में नहीं आएगी पूरी मानवता का भविष्य अंधकार मय है। सभी चिन्तक और मनीषी मान रहे हैं पुरुष के पास मात्र मारने की शक्ति है। उसके पास करुणा का नितान्त अभाव है। वह पुशबल से भर गया है। पशुबल का लगातार विस्तार हो रहा है। अतएव महिलाआें को मात्र मुख्यधारा में ही नहीं मुख्य ही बनना होगा।

चिन्मय - इसके अतिरिक्त ?

श्री बहुगुणा - हमें शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। हमें इस तीन ऊंगली (जो सिर्फ कलम पकड़ना जानती है।) की जगह दस ऊंगलियों वाली शिक्षा पर जोर देना होगा। ऐसी शिक्षा जो श्रम के महत्व को पहचाने। अतएव शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। अच्छी शिक्षा से ही गतिशील विकास संभव है।

चिन्मय - पर्यावरण से संबंधित एक और प्रश्न है। आजकल शेरों के संरक्षण की बात जोर-शोर से चल रही है। टाईगर टास्क फोर्स का कहना है कि वन में रहने वाले मनुष्यों से वन खाली करवा लेने चाहिए।

श्री बहुगुणा - मनुष्य और पशु का सह अस्तित्व है। यही हमारे जिन्दा रहने का तरीका भी है। बाघों का अस्तित्व वहां रहने वालों से ही बचा रहा है। इन्होेंने शेरों का बचाव किया है। ये शेरों के दुश्मन नहीं है। यहां रहने वाले शहरी शिकारियों जैसे नही है, जो कि मजे के लिये शिकार करते हैं। आप यह मानकर चलिये कि अगर जंगल में वनवासी नहीं रहेंगे तो शेर भी बच नहीं पाएंगे।

चिन्मय - जटिल समस्याआें पर किस प्रकार मंथन किया जाये ?

श्री बहुगुणा - देखिये आज हम जिस तरह समस्याआें का हल कर रहे हैं, वह हास्यापद है। भूमि और जल हमारी पूंजी है। हमें ब्याज या लाभ पर जिन्दा रहना चाहिए। पर हम तो पूंजी ही खा रहे हैं ऐसे में किस प्रकार समस्याआें का हल निकलेगा। हमें जिन्दा रहने के लिये प्रकृति का सम्मान करना पड़ेगा। वृक्ष, खेत सभी का सम्मान करना पड़ेगा। हमें समाधान अपनी संस्कृति में मिलेगा। जिसे हम भूल रहे हैं।

चिन्मय -अंत में यह बताइये कि किस नये संघर्ष की तैयारी कर रहे है ?

श्री बहुगुणा - अभी तो हम खुद ही डूब रहे हैं। हम बाहर क्या करेंगे। पर जहां पर मानवविरोधी कार्य होगा उसके विरोध में हमें सब साथ पाएंगे।

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शनिवार, 18 नवंबर 2006

पर्यावरण डाइजेस्ट के इंटरनेट संस्करण का लोकार्पण सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा


पर्यावरण पर सन् 1987 से निरंतर प्रकाशित राष्ट्रीय हिन्दी मासिक पर्यावरण डाइजेस्ट के इंटरनेट संस्करण का लोकार्पण सुविख्यात पर्यावरणविद् व चिपको आंदोलन के प्रणेता श्री सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा दिनांक 19 नवंबर को एक सादे समारोह में किया गया. इस अवसर पर पर्यावरण डाइजेस्ट के लिए उनके दिया गया हस्तलिखित शुभकामना संदेश:

सोमवार, 13 नवंबर 2006

पर्यावरण को बचाने के लिए आवश्यकता है जन जागृति की


पर्यावरण को बचाने के लिए आवश्यकता है जन जागृति की

- पर्यावरणविद् डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के 50 वें जन्म दिवस के मौक़े पर उनसे रविशंकर श्रीवास्तव की खास बातचीत

  • र. श्री.: अपने जीवन के स्वर्णिम 50 वर्ष पूर्ण करने पर आपको हार्दिक बधाइयाँ। आप अपने बचपन के दिनों से ही पर्यावरण संरक्षण आंदोलन से जुड़े रहे हैं। अपनी पुरानी स्मृति को ताज़ा करते हुए हमें बताएँ कि आपके मन में कैसे और किस तरह इससे जुड़ने का खयाल आया।
  • खु. पु.: ऐसा तो कोई खास दिन या समय नहीं था। दरअसल हमारा परिवार बचपन से ही खेत खलिहान से जुड़ा हुआ था और आज भी यही स्थिति है। मेरे नाना रेंजर थे जो वन से बड़ा प्रेम करते थे। रामपुरा भानपुरा के वन क्षेत्रों में उनके साथ घूमकर वनों के प्रति प्रेम उपजा और बाद में विद्यार्थी जीवन में संत विनोबा के आश्रम में कुछ समय बिताने का अवसर मिला जहां भारत के पर्यावरण संरक्षण आंदोलन के प्रणेता श्री सुंदरलाल बहुगुणा का भी सान्निध्य मिला। बस सहज भाव से इस आंदोलन से जुड़ते चले गए। इसी क्रम में सन् 1987 में देश की पहली नियमित, पर्यावरण से जुड़ी पत्रिका- पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन-संपादन प्रारंभ किया जो आज 19 वर्षों से निरंतर प्रकाशित हो रही है। साथ ही विद्यार्थियों / शिक्षकों को प्रशिक्षण दे कर लोक चेतना जागृत करने का कार्य भी अनवरत जारी है।
  • र. श्री.: पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर आज का समाज थोड़ा सा जागृत है। परंतु जब आपने इस क्षेत्र में कार्य प्रारंभ किया तो ऐसा कोई मुद्दा अहम प्रतीत नहीं होता था। ऐसे में आपको अपने कार्यों में अड़चनें भी आई होंगी।
  • खु. पु.: अड़चनें तो हर क्षेत्र में हर कहीं आती हैं। सामाजिक ढाँचों में, रहन-सहन में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का घोर विरोध होता है। और ऐसे परिवर्तन धीरे-धीरे ही संभव हैं। प्रारंभ में शासकीय स्तर पर और सामाजिक स्तर पर भी लोग पर्यावरण बचाने के मुद्दों को हल्के से लेते रहे और अड़चनें हर स्तर पर आती रहीं। परंतु इन रुकावटों को मैंने थकावटों में बदलने नहीं दिया, और इन्हें हमेशा नई संभावनाओं का आहट माना। बाद में समाज का स्नेह और आदर तो मिला ही, पर्यावरण के प्रति उनमें जो जागरूकता पैदा हुई, वह पुरस्कार स्वरूप प्रतीत हुई।
  • र. श्री.: आपको पर्यावरण क्षेत्र के कई प्रतिष्ठित पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं
  • खु. पु.: पुरस्कार सम्मान की परंपरा तो प्राचीन समय से रही है। एक सभ्य समाज में इसकी उपयोगिता को भी नकारा नहीं जा सकता। हालाकि मैंने अपने कार्य को किसी पुरस्कार सम्मान से जोड़ कर नहीं देखा। दरअसल मेरा कार्य समाज सेवा और पर्यावरण सेवा है, और अगर अपने इस सतत काम में मैं रत्ती भर भी सफल होता हूँ तो यही मेरे लिए सर्वोच्च पुरस्कार है। फिर भी, अगर आप भौतिक पुरस्कार-सम्मान की बात करते हैं तो देश प्रदेश की कई सरकारों, सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं ने कई मर्तबा पुरस्कार प्रदान किए हैं, जिनकी सूची काफी लंबी है। इनमें से छठी विश्व पर्यावरण कांग्रेस नई दिल्ली में प्राप्त राष्ट्रीय पर्यावरण पुरस्कार विशेष उल्लेखनीय है। दरअसल, सम्मान पुरस्कार से सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी बढ़ती है और इससे इस क्षेत्र में जुड़ने का सामाजिक माहौल भी बनता है, समाज में जागरूकता पैदा होती है।
  • र. श्री.: पर्यावरण पर खतरा नित्य प्रति बढ़ता ही जा रहा है। क्या हैं समस्याएँ और क्या हो सकते हैं निदान।
  • खु. पु.: गंभीरता से देखें तो पृथ्वी पर जीवन के बुनियादी आधार हवा, पानी और मिट्टी तीनों पर ही खतरा मंडरा रहा है। और खतरा भयंकर, विनाशकारी है। मनुष्य की जीवन शैली में परिवर्तन और पिछले 100-150 वर्षों के वैज्ञानिक विकास ने पर्यावरण को तहस-नहस कर दिया है। दुनिया 80:20 के अनुपात में बँट गई है। दुनिया के 20 प्रतिशत विकसित राष्ट्र दुनिया के 80 प्रतिशत संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं और गंभीर प्रदूषण फैलाते हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों और सभी व्यक्तियों को समान संसाधन मिलने चाहिएँ। प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग ही पर्यावरण पर सबसे बड़ा खतरा है। इन संसाधनों के इस्तेमाल में गांधीवादी दृष्टिकोण अपनाना होगा। गांधी का कहना था कि धरती हर किसी की आवश्यकता पूर्ति में सक्षम है, परंतु किसी एक का लालच नहीं।
  • र. श्री.: पर्यावरण बचाने के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय क़ानून हैं ये कहाँ तक प्रभावी सिद्ध हुए हैं।
  • खु. पु.: कायदे क़ानून से पर्यावरण नहीं सुधरता। भारत में विश्व के किसी भी देश से ज्यादा क़ानून हैं पर्यावरण संरक्षा के कुल 200 से भी ज्यादा। पर यहीं पर इन क़ानूनों का खुलेआम उल्लंघन होता है, और भारत विश्व के सबसे प्रदूषित देशों की श्रेणी में आता है। दरअसल, इसके लिए सामाजिक जागरूकता की जरूरत है।
  • र. श्री.: तमाम विश्व सहित भारत में पेयजल समस्या गंभीर होती जा रही है।
  • खु. पु.: भारत में औसतन 1250 मिमी वर्षा प्रतिवर्ष होती है। इसका मात्र 10 प्रतिशत ही इस्तेमाल हेतु रोका जाता है। बाकी का सारा हिस्सा बहकर समुद्र में चला जाता है। ऊपर से हजारों लाखों वर्षों से संग्रहित भूगर्भ जल का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। अकेले भारत में एक करोड़ सत्तर लाख से ज्यादा नलकूप हैं। नलकूप ऐसी जगहों पर भी हैं, जहाँ धरती का पानी रीचार्ज नहीं हो सकता। पंजाब जैसे क्षेत्र में जहाँ वर्षा का पानी धरती को जल्दी ही रीचार्ज करता है, वहाँ तो नलकूप ठीक हैं, परंतु मालवा जैसे क्षेत्र में या रेगिस्तानी इलाके में जहाँ भूगर्भ जल को रीचार्ज किया जाना कठिन है, वहाँ इस जल के अंधाधुंध प्रयोग पर रोक लगनी चाहिए। कबीर कह गए हैं:

मानव धरती गहन गंभीर

डग डग रोटी पग पग नीर

परंतु अब नीर की जगह पीर ने ले ली है। नीर अब हर एक के लिए पीर का कारण बनता जा रहा है। जल का अंधाधुंध उपयोग के कारण कई सदानीरा, बारामासी नदियाँ बहना बन्द हो गई हैं। उज्जैन में सिंहस्थ का मेला हर बारह साल में लगता है वहाँ शिप्रा सूख गई है, संतों के स्नान के लिए वहाँ पानी दूसरी नदियों से लाकर डाला जाता है परंतु मूल समस्या की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। संत जन स्नान पर तो जोर देते हैं, परंतु पानी की शुद्धता पर नहीं। पानी के संरक्षण पर नहीं।

  • र. श्री.: जल समस्या के लिए जिम्मेदार कारक क्या हैं।
  • खु. पु.: भारतीय संदर्भ में देखें, तो अंग्रेजों के आने से पहले यहाँ जल और उसके संसाधन समाज की सम्पत्ति थी। अंग्रेजी राज में जल को सरकारी सम्पत्ति बना दिया गया जिसका प्रतिफल सामने है। अब तो जल प्राइवेट प्रापर्टी बनने की राह पर अग्रसर है। बोतलबंद पेयजल और सॉफ़्टड्रिंक की बढ़ती लोकप्रियता इसके प्रमाण हैं। यह समग्र समाज के लिए घातक है। थोड़े से अभिजात वर्ग को तो ये सुलभ हैं परंतु अधिसंख्य जनता के लिए पेय जल उपलब्ध नहीं है। जब समाज फिर से इन प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ेगा तो ये फिर स्वयमेव दीर्घायु होंगे, समस्या का हल ऐसे ही संभव है।
  • र. श्री.: जल प्रदूषण की भी समस्या बढ़ती जा रही है।
  • खु. पु.: प्रदूषणों के लिए जिम्मेदार हमारी नीयत रही है। नीति की बातें तो सभी करते हैं, व्यवहार में नहीं लाते हैं। जो क़ायदे क़ानून हैं, वे तंत्र गत भ्रष्टाचार के कारण कहीं पर भी लागू नहीं होते। एक अध्ययन के अनुसार, धरती का पानी 70 प्रतिशत प्रदूषित हो चुका है। उन्नत कृषि के नाम पर इस्तेमाल रासायनिक खादों, कीटनाशकों, उद्योगों के विसर्जन और अवैज्ञानिक धार्मिक कर्मकाण्ड जल को भयंकर रूप से प्रदूषित कर रहे हैं। जल के लिए लोक चेतना का पूर्ण अभाव है। भारत में गंगा 4 राज्यों से होकर बहती है, परंतु तमाम 28 राज्यों के लोगों का अंतिम सपना होता है कि उनके मृतक संबंधियों की राख उसमें प्रवाहित की जाए। ऐसे में जल प्रदूषित होगा कि नहीं।

यहाँ मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा कि संत विनोबा के पिता का निधन जब 1949 में हुआ तो उनके सभी भाई जो संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, धर्मग्रंथों में दी गई बातों की वैज्ञानिक व्याख्या कर इस नतीजे पर पहुँचे थे कि पंचतत्व से बने शरीर को मिट्टी में ही मिलना चाहिए और इसीलिए उन्होंने अस्थियों को अपने आँगन में दफन किया और वहाँ तुलसी का पौधा रोपा। अगर ऐसा दृष्टिकोण सभी भारतीय हिन्दू अपनाएँ, तो एक हद तक गंगा जैसी नाम के लिए पवित्र रह चुकीं नदियाँ सचमुच पवित्र हो जाएँ।

इसी तरह, गणेशोत्सव जैसे धार्मिक आयोजनों में मिट्टी और प्लास्टर ऑफ पेरिस की रंगीन मूर्तियों को नदी तालाबों में विसर्जित किया जाता है जिससे पानी प्रदूषित होता है, इस पर भी आधुनिक दृष्टिकोण अपनाते हुए इसके तरीकों को बदलना होगा। कायदे क़ानूनों को सख़्ती से लागू करने का समय तो आ ही गया है, सामाजिक ढाँचे में वैज्ञानिक चेतना जगाने की जरूरत भी है।

  • र. श्री.: भारत में अच्छी औसत वर्षा के बावजूद गर्मियों में सर्वत्र पेयजल की किल्लत रहती है।
  • खु. पु.: भारत के गांव हो या शहर, यहाँ का जल प्रबंधन तंत्र अपने आप में ही गलत है। जल शोधन संयंत्रों से वितरित किए वाले पेय जल का, जिसे कि हजारों किलोवाट की ऊर्जा खर्च कर, तमाम संसाधनों को झोंक कर शुद्ध किया जाता है उसका मात्र 4 प्रतिशत पीने में इस्तेमाल किया जाता है। इसका 8 प्रतिशत खाना बनाने में, 10 प्रतिशत हरियाली के लिए और इसका बड़ा हिस्सा 29 प्रतिशत बाथरूम में और शेष 39 प्रतिशत शौचालयों में इस्तेमाल किया जाता है। ऐसी स्थिति में पेयजल की किल्लत होना स्वाभाविक है। पेयजल को शौचालय में डाला जाएगा तो पीने का पानी कहाँ, किसे मिलेगा। ऊपर से डिटर्जेंटों ने पानी का खर्च बढ़ाया है। इनका झाग ख़त्म ही नहीं होता। पानी की कीमत में आपको सफेदी हासिल होती है। घर में इस्तेमाल किए जाने वाली जल को घर में ही रीसायकल किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, धुलाई के लिए इस्तेमाल में जल को यूँ ही बहने न दिया जाकर शौचालय में फ़्लश के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। पर्यावरण का प्रश्न जीवन शैली से जुड़ा है। जीवन शैली में व्यापक परिवर्तन की जरूरत आज है।
  • र. श्री.: जलीय चक्र में असंतुलन के लिए बड़े बाँधों को दोष दिया जाता रहा है।
  • खु. पु.: बड़े बाँधों के संदर्भ में अमेरिका के रिचर्ड डाउथवेट ने अपनी पुस्तक मेजर डेम ए सेकंड लुक में मुख्यत: तीन बातें कहीं हैं, जो हर कहीं लागू होती हैं- पहला कोई भी बाँध पूरा नहीं भरा गया, दूसरा भरे बाँध से मिट्टी निकालने का काम कहीं नहीं किया गया, तीसरा कहीं पर भी विस्थापितों से न्याय नहीं किया गया। बड़े बाँधों के बनने में सर्वे से लेकर उद्घाटन तक आमतौर पर पच्चीस वर्षों का समय लगता है। इस दौरान परिस्थितियाँ, वर्षा के आंकड़े, जल ग्रहण क्षेत्र सभी कुछ में परिवर्तन आता है। ऊपर से कोई भी बड़ा बाँध अमूमन 100 वर्ष से अधिक जीवन नहीं जी पाता। ऐसे में विकल्प छोटे बाँधों और तालाबों का ही बचता है। और इसके जीवंत उदाहरण सामने है जहाँ राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में तरूण भारत संघ द्वारा राजस्थान में छोटे बाँध और तालाबों के जरिए जल क्रांति कर दी है। इसके फल स्वरूप पिछले कई दशकों से सूख चुकी नदियाँ न सिर्फ पुनरुज्जीवित हो गई हैं, वे सदानीरा हो गई हैं।
  • र. श्री.: गाँवों में पानी की समस्या ज्यादा है।
  • खु. पु.: अगर गांव के साढ़े सात प्रतिशत जमीन में तालाब बना कर पानी संग्रहित कर दिया जाए, तो वहाँ के वर्ष भर के जल की आवश्यकता की पूर्ति आसानी से हो सकती है। पानी एक दुर्लभ संसाधन है। धरती का तीन चौथाई हिस्सा पानी में होने के बावजूद पीने योग्य साफ पानी इसका पाँच-सात प्रतिशत ही है। जहाँ जल है, वहाँ के लोगों का अधिकार उस पर होना चाहिए। सरकार जल संरक्षण कानून बनाकर गांव के लोगों को मुहैया पानी शहर की जनता को देती है। प्राकृतिक जल संसाधनों को स्थानीय निवासियों के इस्तेमाल के लिए छोड़ देना चाहिए। औसत से अधिक वर्षा होने के बावजूद भारत के गांव के गांव प्यासे रहते हैं तो इसकी वजह सिर्फ सरकार पर निर्भरता और गलत जल प्रबंधन है, जिसे समाज के सहारे ही ठीक किया जा सकता है।
  • र. श्री.: आपका जन आंदोलन पैसिव प्रकार का रहा है।
  • खु. पु.: लोक तंत्र में प्रतिकार के कई रास्ते हैं - धरना आंदोलन प्रदर्शन बहिष्कार इत्यादि। कुल मिलाकर, किसी भी अभियान या आंदोलन का मूल स्वरूप सरकार और समाज को सचेत करना है। मेरा मानना है कि धरना आंदोलन प्रदर्शन का जन शक्ति स्वरूप प्रदर्शन तब सही था जब देश में विदेशी सरकार थी। अब हमारी खुद की सरकार है, हमारी चुनी हुई सरकार है, हमारे ही बंधु, मित्र सरकारी मशीनरी के अंग हैं, तब उनके सामने मिथ्या शक्ति प्रदर्शन करने के बजाए दूसरे सशक्त माध्यमों से अपनी बात कहना ज्यादा उचित है। धरना आंदोलन कुटिल राजनीति के पर्याय बन चुके हैं जिससे सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग तो होता ही है, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदूषण भी फैलता है। जन शक्ति बरबाद होती है। जब आपके पास क़ानूनन अपनी बात पुख़्ता तरीके से रखने और लागू करवाने के जरिए हैं, तो ऐसे धरना आंदोलनों की जरूरत ऐसे कामों में कतई नहीं है। उदाहरण के लिए वायु और जल का अत्यंत भीषण प्रदूषण फैलाती एक रासायनिक संयंत्र के खिलाफ हमने सर्वोच्च न्यायालय तक गुहार लगाई और पर्यावरण की जीत हुई।
  • र. श्री.: आरोप लगते रहे हैं कि तथा कथित अग्रेसिव पर्यावरण वादियों को विदेशों से पैसा मिलता रहा है।
  • खु. पु.: ऐसी जानकारी मुझे नहीं है। यह संभव है कि कुछ कुटिल राष्ट्र देश में अस्थिरता फैलाने के प्रयोजनों से ऐसी फंडिंग करते हों। अगर ऐसा है तो यह सिरे से गलत है और इसे नकारा जाना चाहिए।
  • र. श्री.: पर्यावरण डाइजेस्ट को 19 साल से पालते पोसते चले आ रहे हैं।
  • खु. पु,: संकट तो कई पैदा हुए, परंतु पाठकों का सहयोग और पर्यावरण के प्रति निष्ठा, प्रतिबद्धता इसे जिंदा रखे हुए है। ऐसा भी हुआ है कि कई मर्तबा अपने हिस्से का अर्घ्य भी इसे अर्पित करना पड़ा है, परंतु मेरी कोशिश यह है कि मेरे जीवन पर्यंत यह प्रकाशित होता रहे। पर्यावरण के प्रति समाज में जागरूकता फैलाता रहे। मेरी यही इच्छा है यही कोशिश है।
  • र. श्री.: आपसे बातचीत कर हमें पर्यावरण के प्रति ईमानदार बने रहने का अहसास और भी गहराया है। पर्यावरण के प्रति आपकी प्रतिबद्धता और कार्यों के लिए समाज सदैव आपका ऋणी रहेगा। धन्यवाद।

पर्यावरण डाइजेस्ट का इंटरनेट पर पहला अंक...

मित्रों,
पर्यावरण को समर्पित पत्रिका - पर्यावरण डाइजेस्ट का इंटरनेट पर पहला अंक शीघ्र ही अवतरित हो रहा है.

कृपया इंतजार करें.

डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
सम्पादक