शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019



सम्पादकीय
सरकारी अफसरों की जगह रोबोट काम करेगे
 इंडोनेशिया में अगले साल से सराकारी अफसरों की जगह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) से युक्त रोबोट काम करते दिखेंगे । राष्ट्रपति जोको विडोडो ने कैबिनेट की बैठक के बाद कहा कि आर्थिक हालात दुरूस्त करने के लिए उनके सचिवालय और कार्मिक मंत्रालय में अधिकारियों की चार में दो रैंक हटाकर उनकी जगह एआई का उपयोग शुरू कर दिया जाएगा ।
    जनवरी २०२० से यह फैसला लागू हो जाएगा । राष्ट्रपति विडोडो का कहना है कि इस फैसले से नौकरशाही चुस्त होगी और विदेशी निवेश बढ़ेगा । इंडोनेशिया सरकारी कामकाज में एआई का अधिकृत रूप से इस्तेमाल करने वाला दुनिया का पहला देश बन जाएगा, हालांकि  इस प्रस्ताव का विरोध भी हो रहा है ।
    इंडोनेशिया में सरकारी कामकाज में एआई के इस्तेमाल की तैयारी       ५ साल ये चल रही है । इसके लिए आलिया नामक रोबोट बनाया गया है । इसमेंचार श्रेणियों में कामकाज की प्रोग्रामिंग कर ली गई है । इंडोनेशिया के रिसर्च डेवलपमेंट मामलों केे मंत्री बंबांग ब्रोडजोनगोरो ने कहा कि हमने कई स्टार्ट-अप तैयार किए हैं जो जापान, भारत और कोरिया जैसे देशों के साथ मिलकर काम कर रहे है ।
    राष्ट्रपति ने कहा कि अब वक्त आ गया है बदलाव का । हमारा सबसे बड़ा लक्ष्य है दक्षिण पूर्वी एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता कम करके उसका स्वरूप बदलना । हमें इलेक्ट्रिक वाहनों जैसे उन्नत टेक्नोलॉजी की तरफ बढ़न चाहिए । इस तरह के बदलाव के लिए हमेंविदेशी निवेश की जरूरत होगी ।
    उधर विपक्षी दल के नेता पूर्व जनरल प्राबोबो सुबियान्तों ने कहा कि नौकरियों को कम करने के बजाय सरकार को रोजगार पैदा करने की योजना पर काम करना चाहिए । यह प्रस्ताव आर्थिक सुधारों के लिए एक चुनौती बन जाएगा ।

प्रसंगवश
भारत में इन्टरनेट मार्केट ११.४ लाख करोड़ का होगा

        साल २०२० को भारत में इंटरनेट आधारित बिजनेस की ग्रोथ के लिए का काफी अहम माना जा रहा है । गोल्डमैन साक्स की रिपोर्ट के मुताबिक २०२५ तक भारत इंटरनेट आधारित बिजनेस का मार्केट साइज १६,००० करोड़ डॉलर (करीब ११.४ लाख करोड़ रूपए) तक पहुंच जाएगा । यह मौजूदा मार्केट साइज से करीब तीन गुना ज्यादा है । इंटरनेट आधारित बिजनेस में ई-कॉमर्स, ट्रैवेल,फूड, क्लासिफाइड, ऑनलाइन कटेंट आदि आते हैं ।
        रिपोर्ट के अनुसार इस तुफानी ग्रोथ के फायदे के लिए जरूरी है कि ऐसे बिजनेस में तत्काल निवेश किया जाए । इस वजह से २०२० में इस क्षेत्र में जमकर निवेश बढ़ेगा । आने वाले कुछ सालोंमें भारत के ज्यादातर बड़े बिजनेस इंटरनेट आधारित होंगे । इसलिए निवेशक इसकी ग्रोथ के शुरूआती चरण में ही निवेश करनाचाहेंगे ताकि उन्हें ज्यादा से ज्यादा फायदा मिल सके ।
        भारत के ज्यादातर कैपिटल वेंचर फर्म ऐसे इन्वेस्टमेंट जरिए की तलाश में हैं जो उन्हें साल २०२० तक अच्छी स्थिति में पहुंचा दे । एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक भारत में २०२० की पहली तिमाही तक वेंचर कैपिटल इन्वेस्टमेंट का ट्रेंड मजबूत रहेगा । ये किसी स्टार्टअप के शुरूआती चरण में निवेश को तरजीह दे सकते हैं ।
        सॉफ्ट बैंक इस दिशा में पहले से ही सक्रिय हैं, लेकिन अब कई अन्य ग्लोबल इन्वेस्टमेंट फर्म भी भारत का रूख कर सकते हैं । सूत्रों के मुताबिक  प्राइवेट इक्विटी फर्म वालबर्ग भारत में निवेश के लिए १५० करोड़ डॉलर का फंड इकट्ठा कर रही है । वहीं, अलीबाबा की अगुवाई वाली एंट फाइनेंशियल भारत सहित दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए १०० करोड़ डॉलर का फंड इकट्ठा कर रही हैं ।
        रिपोर्ट के मुताबिक भारत में २०२० तक १०,५०० टेक र्स्टाटअप मौजूद होंगे । इनमें से कम से कम ५० में यूनिकॉर्न होने की संभावना जताई जा रही है । यूनिकॉर्न का मतलब ऐसे र्स्टाटअप से है जिसकी वैल्युएशन १०० करोड़ डॉलर के पार जाए । रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि २०२५ तक भारत में १०० से ज्यादा यूनिकॉर्न  हैं । ये प्रत्यक्ष रूप से ११ लाख जॉब के अवसर पैदा करेंगी ।
सामयिक
पराली प्रदूषण निवारण की नयी तकनीकें
डॉ. ओ.पी. जोशी


    जाडा आते-आते देश की राजधानी और उससे सटे इलाके पराली जलाए जाने से पैदा होते धुंए की तकलीफों से दो-चार होने लगते हैं।
    जमीन को सांस तक नहीं लेने देती आधुनिक ताबड-तोड़ खेती रबी फसलों की कटाई के तुरंत बाद बचे डंठलों, पराली को जलाकर खेतों को फिर से उत्पादन की चाकरी के लिए तैयार कर देती है। ऐसे में चहुंदिस व्याप्ति, बढ़ती धुंध और धुंए के अलावा क्या बचता है? वैज्ञानिकों ने पराली के लाभप्रद उपयोग को लेकर कई तरीके ईजाद किए  हैं ।

   शीत ऋतु के प्रारंभ में पराली जलाने से दिल्ली मेंवायु-प्रदूषण की समस्या पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा ही बढ़ गयी है। सुप्रीम कोर्ट एवं राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के निर्देशों तथा केन्द्र एवं संबंधित राज्य सरकारों के कुछ प्रयासों के बावजूद समस्या लगभग यथावत बनी हुई है। पराली का जब तक कोई ऐसा उपयोग नहीं खोजा जाता जो किसानों के लिए आर्थिक रूप से लाभदायक हो, तब तक किसान इसे नियम-कानून होने के बावजूद जलाते रहेंगे क्योंकि यह कार्य शून्य बजट का होता है ।
    पराली को लेकर अलग-अलग क्षेत्रों  में जो प्रयोग किये गये हैं उनमें से कई ऐसे  हैं जो किसानों को लाभ देकर रोजगार भी बढ़ाते हैं। देश के जाने-माने कृषि वैज्ञानिक डा. एम एस स्वामीनाथन ने तीन-चार वर्ष पूर्व पराली से भूसा, पशुचारा, कार्ड-बोर्ड एवं कागज बनाने में उपयोग किये जाने के लिये प्रधानमंत्री को लिखा था। पराली के प्रयोग को लेकर जो उपाय सुझाये गए हैं उनमें प्रमुख हैं, ताप बिजली घरों और ईंटों को पकाने में, बायोचार, मीथेनाल, जैविक ईंधन, खाद बनाने तथा भवन सामग्री (छत, टाईल्स, दरवाजे) एवं रस्सी निर्माण में उपयोग ।
    लगभग एक वर्ष पूर्व दिल्ली में तत्कालीन ऊर्जा-मंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में तय किया गया था कि उत्तरप्रदेश, हरियाणा एवं पंजाब में पैदा होने वाली पराली का कम-से-कम पांच प्रतिशत कोयले के साथ ताप बिजली घरों में जलाना अनिवार्य होगा। इसे मानकर इस वर्ष के प्रारंभ में नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन  (एनटीपीसी) ने दादरी तापघर की एक ईकाई में पराली से बनी गोलियों (पेलेट्स) से बिजली उत्पादन शुरू किया था। पेलेट?स की आपूर्ति आवश्यकता से कम होने से यह कार्य धीरे चला । इस आधार पर एनटीपीसी ने राज्य सरकारों को सुझाव दिया था कि किसानों को पेलेट?स बनाने की मशीनें उपलब्ध करायी जावें ताकि उन्हें रोजगार भी मिले एवं बिजली उत्पादन बढ़े । केन्द्र सरकार ने पराली खरीदने की भी बात कही थी ।
    प्रारंभिक तौर पर बताया गया था कि एक एकड़ के खेत से दो टन पराली निकलती है जिससे किसान को प्रति हेक्टर ग्यारह हजार रूपये का लाभ होगा। वर्ष २०१८-१९ में लिये गये निर्णयों पर केन्द्र एवं संबंधित राज्य सरकारें ईमानदारी से दृढ़तापूवे ९-१० महिनेेकाम करतीं तो शायद इस शीत ऋतु के प्रारम्भ में समस्या कुछ कम होती । पंजाब के नवां शहर जिले के तीन-चार गांवों में कार्यरत बेगमपुर को-आपरेटिव सोसायटी ने पिछले ३-४ वर्षों में कमाल का कार्य किया है। इससे किसानों की कमाई हो रही है, रोजगार मिल रहा है एवं बिजली भी पैदा हो रही है।
    दरसल सोसायटी ने पराली को दबाकर गठानों में बांधने वाली मशीन खरीदी जिसकी कीमत सरकारी सब्सिडी के बाद लगभग नौ लाख रूपये थी। पराली एकत्र करने एवं गांठ बनाने में तीन-चार लोगों को तीन-चार माह का रोजगार उपलब्ध हुआ । प्रशासन की सुविधा से पराली की गांठें पास के बिजलीघरों में भेजी गयीं । मशीन से प्रतिदिन १५ से २० खेतों की पराली का निपटान होता है। दो-तीन वर्षांे में मशीन की कीमत निकल जाती है एवं इसके  बाद फिर लाभ ही मिलता है।
    पंजाब के अबोहर शहर से लगभग २२-२५ किलोमीटर दूर स्थित गांव गद्दाडोब में आसपास के ३० गांवों के लगभग ५०० किसानों से पराली खरीदकर एक बिजलीघर बिजली बना रहा है। बिजलीघर के आसपास के २०-२५ कि.मी. के क्षेत्र में कोई भी किसान पराली नहीं जलाता। बिजली-घर १२७ रूपये प्रति क्विंटल के भाव से पराली खरीदता है एवं हर वर्ष छ: करोड़ यूनिट बिजली पैदाकर बिजली बोर्ड को बेचता है।
    बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के तुरकोलिया नामक स्थान पर अमेरिका से नौकरी छोड़कर आये ज्ञानेश पांडे भूसे से बिजली बना रहे हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि पराली का प्रयोग ईंट-भट्टों में कोयले के साथ किया जावे । पंजाब में लगभग ३००० ईंट-भट्टे सक्रिय हैं। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के प्राध्यापकों एवं छात्रों ने पराली से बायोचार बनाया है। लगभग १०० टन पराली से ४५ टन बायोचार बनता है। इसका उपयोग पानी साफ करने (विशेषकर जहरीले आर्सेनिक को हटाने) एवं बंजर भूमि को ठीक करने में किया जाता है।
    देश के नीति आयोग ने २०१७ के अंत में पराली से मोबाइल संयंत्र से मीथेनाल बनाने का सुझाव दिया था। इसके पीछे उद्देश्य यही था कि सयंत्र किसानों के पास ले जाकर पराली से मीथेनाल बनाया जाए । इस कार्य हेतु ५००० करोड़ रूपये का कोष (मिथेनाल-इका?नामी फंड) बनाने का सुझाव दिया गया था । इस राशि से किसानों को उचित कीमत पर पराली खरीदी का भुगतान और मीथेनाल निर्माण की प्रणाली को बेहतर बनाया जाना था।
    एक निश्चित मात्रा में मीथेनाल को पेट्रोल के साथ मिलाने पर वाहन प्रदूषण घट जाता है । कानपुर के सरसौला ब्लाक के गांव फुफुवार-सुई में उत्तरप्रदेश जैव ऊर्जा विकास बोर्ड की तकनीकी मदद से सितम्बर २०१६ से ५००० घनमीटर बायोगैस बनाई जा रही है। इस गैस की आपूर्ति आसपास के कारखानों, दवाखानों तथा होटलों में की जाती है। गैस उत्पादन के बाद बचे कचरे से खाद बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं। गैस का बाजार मूल्य एलपीजी से कम बताया गया है। सिरसा (हरियाणा) के चार गांव (चकराईया, चक्रसाहिब, ओटू व मंगाला) के लगभग पांच सौ परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी धान की पराली से रस्सी (स्थानीय भाषा में सुब्बड) बनाते आ रहे हैं। पराली खरीद कर ये लोग तीन माह तक रस्सियां बनाते हैं एवं गेंहू की फसल कटते ही उसके बंडल बनाने हेतु बेच देते हैं। एक रस्सी की लम्बाई तीन से पांच फीट होती है जो दो से पांच रूपये में बिक जाती है। वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के वैज्ञानिक डॉ. अशोकन ने पराली को हाइब्रीड कम्पोजिट में बदलने की किफायती विधि की खोज की है जिसका अमेरिका तथा भारत में पेटेंट भी कराया जा चुका  है । हाईब्रीड कम्पोजिट से अलग-अलग लम्बाई-चैड़ाई की शीट्स (चादरें) बनायी जाती हैं जिनसे छत, दरवाजे, पार्टिशन, पेनल व टाइल्स बनायी जाती हैं। यह कार्य पिछले १५ वर्षांे से किया जा रहा है। दो-तीन वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ की कम्पनी ईको ब्राइट को शीट बनाने की तकनीक दी गयी है। महाराष्ट्र , गुजरात एवं पश्चिमी बंगाल में भी शीट निर्माण की ईकाईयां लगायी गयी हैं। पराली से पशुचारा बनाने के प्रयोग ज्यादा सफल नहीं हुआ है क्योंकि धान की पराली में लगभग ३० प्रतिशत सिलिका पाया जाता है जो पशुओं की पाचन-प्रणाली खराब करता है। किसी वैज्ञानिक विधि से सिलिका अलग कर दिया जावे तो पराली के पशुचारा बनाने की काफी सम्भावना है।
    दिल्ली के वायु-प्रदूषण की चिंता से दुबले होते नेता, संबंधित सरकारें एवं स्थानीय निकाय पराली के उक्त उपयोगी प्रयोगों, विधियों को व्यापक स्तर पर फैलाने के प्रति क्यों उदासीन हैं? सत्ता में बैठे लोग इस समस्या पर एक-दो माह हल्ला मचाने की बजाय योजनाएं बनाकर उन पर ईमानदारी से अमल करें तो किसान और प्रदूषण के अलावा पराली भी गाली-गलौच से बच सकेगी ।
हमारा भूमण्डल
नाभिकीय उर्जा को जिन्दा रखने के प्रयास
एस. अनंतनारायण

     वर्ष १९७० के दशक में, तेल संकट की शुरुआत से ही दुनिया भर में नाभिकीय उर्जा संयंत्रों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। साथ ही पवन और सौर उर्जा को भी जीवाश्म इंर्धन के विकल्प के रूप में देखा गया। इन सभी स्त्रोतों ने बिजली पैदा करने के के लिए कम कार्बन उत्सर्जन का आश्वासन भी दिया।
    वाशिंगटन के जेफ जॉनसन ने अमेरिकन केमिकल सोसाइटी की पत्रिका केमिकल एंड इंजीनियरिंग न्यूज में प्रकाशित अपने लेख में इन गैर-जीवाश्म ईधन आधारित संसाधनों की धीमी वृद्धि और कोयले एवं तेल पर हमारी निर्भरता को तेजी से कम करने के लिए विशेष उपाय करने की जरूरत की ओर ध्यान आकर्षित किया है। जेफ जॉनसन, पेरिस स्थित एक स्वायत्त अंतर-सरकारी संगठन, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहते हैं कि यदि सरकारें हस्तक्षेप नहीं करती हैं तो १९९० के दशक में नाभिकीय उर्जा का जो योगदान १८ प्रतिशत था वह २०४० तक घटकर मात्र ५ प्रतिशत तक रह जाएगा।

    आंकड़ों से पता चलता है कि नवीकरणीय संसाधनों पर ध्यान देने और उनकी बढ़ती उपस्थिति की रिपोट्र्स के बावजूद विभिन्न प्रकार के ऊर्जा उत्पादन में जीवाश्म इंर्धन की हिस्सेदारी लगभग आधी सदी से अपरिवर्तित रही है।नवीकरणीय संसाधनों में काफी धीमी वृद्धि हुई है, इसी तरह नाभिकीय ऊर्जा की हिस्सेदारी भी कम हुई है, कोयले का उपयोग अपरिवर्तित रहा है और तेल की जगह प्राकृतिक गैस का उपयोग होने लगा है।
    स्थिति तब और अधिक भयावह नजर जाती है जब हम देखते हैं कि गैर-जीवाश्म बिजली में कोई बदलाव न होने के पीछे बिजली की मांग में स्थिरता का कारण नहीं है। आंकड़ों से पता चलता है कि बिजली खपत की दर में तेजी से वृद्धि हुई है जो आने वाले दशकों में और अधिक होने वाली है।
    यह तो स्पष्ट है कि यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के उपयोग में कमी करनी है तो उसकी भरपाई नवीकरणीय संसाधनों और नाभिकीय उर्जा में तेज वृद्धि से होनी चाहिए। नवीकरणीय ऊर्जा में पनबिजली, पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा शामिल हैं। पनबिजली संयंत्र नदियों पर उपयुक्त स्थल पर निर्भर करते हैं और नए संयंत्र लगाने का मतलब आबादियों और पारििस्-थतिक तंत्र को अस्त-व्यस्त करना है।
    पवन ऊर्जा की काफी गुंजाइश है लेकिन इसका प्रसार इसकी सीमा तय करता है। साथ ही इसे स्थापित करने के लिए निवेश की काफी आवश्यकता होती है और समय भी लगता है। सौर पैनल अब पहले की तुलना में और अधिक कुशल हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर इन्हें स्थापित करने के लिए काफी जमीन की जरूरत होगी और जमीन पर वैसे ही काफी दबाव है।
    इसलिए विकल्प के रूप में हमें नाभिकीय ऊर्जा को बढ़ावा देना चाहिए । ऐसा नहीं है कि इसके कोई दुष्परिणाम नहीं हैं। इसके साथ रेडियोधर्मी अपशिष्ट का उत्पन्न होना, दुर्घटना का जोखिम और भारी लागत जैसी समस्याएं भी हैं। हालांकि, नवीकरणीय संसाधनों की भौतिक सीमाओं को देखते हुए और जीवाश्म इंर्धन को आवश्यक रूप से कम करने के लिए, अपशिष?ट के निपटान और सुरक्षा के मानकों के सबसे बेहतरीन उपायों के साथ, नाभिकीय ऊर्जा ही एकमात्र रास्ता है।
    इसी संदर्भ में हमें देखना होगा कि वर्तमान में कुल विश्व ऊर्जा में नाभिकीय घटक की भागीदारी केवल १० प्रतिशत रह जाएगी। इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हैं। एक महत्वपूर्ण कारक की ओर अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संगठन (आईईए) ने ध्यान दिलाया है। आईईए के अनुसार उत्पादन क्षमता का निर्माण तो हुआ है लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा काफी पुराना हो गया है जिसे प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है।
    विकसित देशों में कुल बिजली उत्पादन में नाभिकीय ऊर्जा की भागीदारी १८ प्रतिशत है। ५०० गीगावॉट के कुल उत्पादन में से अमेरिका अपने ९८ नाभिकीय संयंत्रों से १०५ गीगावॉट का उत्पादन करता है। फ्रांस अपने ५८ नाभिकीय संयंत्रों से ६६ गीगावॉट का उत्पादन करता है जो कुल बिजली उत्पादन का ७० प्रतिशत है। इसकी तुलना में, भारत में ७ स्थानों पर स्थित २२ नाभिकीय संयंत्रों से ६.८ गीगावॉट का उत्पादन होता है जबकि यहां बिजली का कुल उत्पादन ३८५ गीगावॉट  है।     
    आईईए की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, युरोपीय संघ और रूस के अधिकांश संयंत्र ३५ वर्षों से अधिक पुराने हैं। ये संयंत्र या तो अपना ४० वर्षीय जीवन पूरा कर चुके हैं या फिर उसके करीब हैं। विकसित देशों में पुराने संयंत्रों के स्थान पर नए संयंत्र स्थापित करना कोई विकल्प नहीं है। समय लगने के अलावा, नए संयंत्रों से बिजली उत्पादन की लागत मौजूदा संयंत्रों की तुलना में काफी अधिक होगी। इसके साथ ही नए संयंत्र प्रतिस्पर्धा में असमर्थ होंगे जिसके परिणामस्वरूप जीवाश्म आधारित बिजली का उपयोग बढ़ जाएगा । एक ओर जहां परमाणु संयंत्रों को अपशिष्ट निपटान और सुरक्षा के विशेष उपायों की लागत वहन करना होती है, वहीं जीवाश्म इंर्धन आधारित उद्योग को पर्यावरण क्षति के लिए कोई लागत नहीं चुकानी  पड़ती है। 
    इसलिए विकसित देशों में केवल ११ नए संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं जिनमें से ४ दक्षिण कोरिया में और एक-एक ७ अन्य देशों में हैं। हालांकि, आईईए के अनुसार विकासशील देशों में से, चीन में ११ (४६ गीगावॉट की क्षमता वाले ४६ मौजूदा संयंत्रों के अलावा), भारत में ७, रूस में ६, यूएई में ४ और कुछ अन्य देशों में स्थापित किए जा रहे हैं। सारे के सारे संयंत्र शासकीय स्वामित्व में हैं। 
    चूंकि कम लागत वाले नए संयंत्रों के किफायती निर्माण के लिए अभी तक कोई मॉडल मौजूद नहीं है, विकसित देश मौजूदा संयंत्रों को पुनर्निर्मित और विस्तारित करने के लिए कार्य कर रहे हैं। आईईए के आकलन के अनुसार, एक मौजूदा संयंत्र के जीवनकाल को २० वर्ष तक बढ़ाने की लागत आधे से एक अरब डॉलर बैठेगी । यह लागत, नए संयंत्र को स्थापित करने की लागत या पवन या सौर उर्जा संयंत्र स्थापित करने की लागत से कम ही होगी और इसको तैयार करने के लिए ज्यादा समय भी नहीं लगेगा । अमेरिका में ९८ सक्रिय संयंत्रों के लाइसेंस को ४० साल से बढ़ाकर ६० साल कर दिया गया है।
    जॉनसन के उक्त लेख में एमआईटी के समूह युनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट के पेपर दी न्यूक्लियर पॉवर डिलेमा का भी जिक्र किया गया है। यह पेपर, नाभिकीय ऊर्जा के प्रतिकूल अर्थशास्त्र और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को थामने में इसके निहितार्थ को लेकर आइईए की चिंता को ही प्रतिध्वनित करता है। एमआईटी का थिंक टैंक कार्बन उत्सर्जन कोकम करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप से कार्बन क्रेडिट की प्रणाली को लागू करने और कार्बन स्तर को कम करने वाले मानकों के लिए प्रलोभन देने की सिफारिश करता है। इसके साथ ही कम कार्बन उत्सर्जन वाली टेक्नॉलॉजी के लिए सब्सिडी की सिफारिश भी करता है ताकि वे प्रतिस्पर्धा कर सकें । 
कितनी बिजली चाहिए ?
    एक ओर तो इंजीनियर और अर्थशास्त्री बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए हरित ऊर्जा के उत्पादन के तरीकों पर चर्चा कर रहे हैं, वहीं हमें अपने द्वारा उपयोग की जाने वाली ऊर्जा कम करने के तरीके भी खोजना होगा। यह निश्चित रूप से एक कठिन काम है क्योंकि ऊर्जा हमारी व्यापार प्रणालियों का आधार है, और ऐसे परिवर्तन जिनका थोड़ा भी भौतिक प्रभाव है वे राजनैतिक रूप से असंभव होंगे।
    नाभिकीय ऊर्र्जा का कोई विकल्प नहीं है और उसमें भी कई बाधाएं हैं, यह विश्वास शायद आईईए और एमआईटी जैसी शक्तिशाली लॉबियों को मजबूर करे कि वे उत्पादन समस्या का समाधान खोजने की रट लगाना छोड़कर उपभोग कम करने का संदेश फैलाने का काम करें।
भोपाल गैस त्रासदी
जहरीली खेती से जुड़ा है, भोपाल गैस कांड
नरेन्द्र चौधरी

     लंबे, दुखद और तकलीफ देह ३५ साल गुजारने के बाद क्या हम यह कहने लायक हो पाए हैं कि अब कोई दूसरा भोपाल गैस कांड नहीं होगा ? जहरीले रासायनिक खादों, दवाओं और कीटनाशकों से लदी-फंदी आधुनिक कही जाने वाली खेती और उससे पैदा होने वाले अनाज को देखें तो ऐसा नहीं लगता।
    आज भी अपने चारों ओर खेती के लिए उसी जहर  का उत्पादन, उपयोग और असर दिखाई देता है जिसने साढ़े तीन दशक पहले हजारों निरपराधों को मौत की नींद सुलाया था और लाखों के जीवन को मौत जैसे संकट की चपेट में ले लिया था। क्या खेती की मौजूदा पद्धति को मिटाए बिना भोपाल गैस कांडो  से मुक्ति संभव है?  

    सर्दी की आहट के साथ दिसंबर का महीना एक और कारण से हमारे भीतर सिहरन पैदा करता है। दो-तीन दिसंबर १९८४ की दरमियानी रात को यूनियन कार्बाइड की भोपाल स्थित कीटनाशक फैक्ट्री के गैस-संग्रहण-टैंक से जहरीली मिथाइल आयसोसाइनेट (मिक) गैस का रिसाव हुआ था जिसने भोपाल को एक गैस-चेम्बर में बदल कर रख दिया था। इस गैस का उपयोग सेविन नामक एक अत्यधिक जहरीले कीटनाशक को बनाने में किया जाता था, जिसे यूनियन कार्बाइड की सहायक कंपनी डाउ केमिकल्स बनाती थी। विश्व इतिहास की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटनाओं में दर्ज इस त्रासदी को पर्यावरणविद् और नवधान्य की संस्थापक वंदना शिवा दुर्घटना नहीं, ऐसा नरसंहार मानती हैं जो आज भी जारी है। इस दुर्घटना में ३००० निरपराध लोगों की तुरंत मृत्यु हो गयी थी, लगभग ८००० लोग कुछ ही दिनों में मौत की चपेट में आ गए थे और लाखों लोग घायल हुए थे जिनमें से कई आज भी तिल-तिलकर मरते जा रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार पिछले तीन दशक में २०,००० से अधिक लोग इसके प्रभाव से मारे गए हैं।
    इस फेक्ट्री के आसपास का क्षेत्र व जलस्त्रोत प्रदूषित हैं और वहां के रहवासी आज भी भारी धातुओं, जैसे-आर्सेनिक, पारा, कैडमियम आदि से उत्पन्न प्रदूषण का खतरा झेल रहे हैं। हादसे में जीवित बचे लोग व उनके बच्च्े कैंसर, क्षय रोग (टीबी), जन्मजात विकृतियों और दीर्घकालीन स्वास्थ्य समस्याओं की पीड़ा झेल रहे हैं। इलाके की माताओं के दूध में पारा एवं विषाक्त पदार्थ खतरनाक स्तर तक पाए गए हैं। आज भी गर्भस्थ भ्रूण के विकास पर इस प्रदूषण का प्रभाव पड़ रहा है और विकृत बच्च्े पैदा हो रहे हैं।
    इस घटना के ३५ वर्ष हो जाने पर भी हम इस फेक्ट्री  से निकले कचरे के निपटारे का कोई रास्ता नहीं खोज पाए हैं। कम्पनी के  साथ समझौते के तहत जो मुआवजा मिला वह कंपनी द्वारा पहुंचाए गए नुकसान, घायल एवं मारे गए लोगों की तुलना में नगण्य था।
    बात सिर्फ भोपाल में जहरीली गैस के रिसाव के  दुष्परिणामों तक ही सीमित नहीं है। इन कंपनियों के जहरीले उत्पादों से लोगों के बीमार होने, उनकी मृत्यु होने, पानी के प्रदूषित होने के खतरे पूरे देश पर मंडरा रहे हैं। इस  त्रासदी के  लिए जिम्मेदार कंपनी हमारी जान की कीमत पर पैसा कूट रही है और अपनी सहयोगी कंपनियों के साथ विलय और विघटन के हथकंडों के जरिए दुष्प्रभावोंकी भरपाई से भी बच जाती है। कृषि-रसायन बेचने वाली इन कंपनियों की शुरूआत ऐसे रसायनों के निर्माण के लिए हुई थी जिनका उपयोग हिटलर ने कंसन्ट्रेशन केंप और गैस चेंबर में लोगों को मारने के लिए किया था ।
    डाउ कंपनी ने प्रथम विश्व युद्ध में मस्टर्ड नामक एक विषाक्त  गैस बनाई थी जिसे रासायनिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया था। वियतनाम युद्ध में भी नॉपाम बम बनाकर सैनिकों व नागरिकों पर बेरहमी से प्रयोग किया गया था । इसी युद्ध में डाउ ने एजेंट ओरेंज नामक विषैला पदार्थ बनाया था जिसका उपयोग शत्रु देश की खाने योग्य फसलों को नष्ट करने में किया गया था।
    युद्ध समाप्त् होने के  बाद इन कंपनियों ने जहरीले रसायनों को खेती में उपयोग करना शुरु कर   दिया । इन रसायनों की दम पर की जाने वाली खेती से कुछ खाद्यान्नों का उत्पादन तथाकथित रूप से बढ़ा भी, किन्तु अब इसके अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में भोजन के अधिकार विषय के प्रतिवेदक हिलाल एलवर के अनुसार कीटनाशकों के जहर के कारण प्रति वर्ष दो लाख मौतें होती हैं। कीटनाशकों के संपर्क में रहने से कैंसर, अल्जाइमर व पार्किंसंस रोग, हारमोन-असंतुलन, विकास संबंधी विकार और बांझपन की समस्या हो सकती है।
    किसानों, खेतिहर मजदूरों, गर्भवती महिलाओं एवं बच्चों को इन रसायनों से अधिक खतरा होता है। खेती में उपयोग किए जाने वाले इन रसायनों के प्रभाव से होने वाली मौतें दुनिया में सभी कारणों से होने वाली मौतों का १६ प्रतिशत है। यह मलेरिया, टी.बी. और एच.आई.वी (एड्स), तीनों को मिलाकर होने वाली कुल मौतों से तीन गुना अधिक है और युद्ध तथा अन्य प्रकार की हिंसा से होने वाली मौतों से १५ गुना अधिक। एक अनुमान के अनुसार विषाक्त प्रदूषण असामयिक मृत्यु का अकेला सबसे बड़ा कारण है। एक तरह से समूची पृथ्वी को हमने जहरीले गैस चेंबर में बदल दिया है।
    इसके अलावा कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से भूमि और जलस्त्रोत प्रदूषित होते हैं, जैव-विविधता घटती है, कीटों के प्राकृतिक शत्रु नष्ट होते हैं और भोजन की पोषण-क्षमता कम हो जाती है। वर्ष २०१४ में हुए विश्व की ४५२ कीट-प्रजातियों के अध्ययन में पाया गया कि पिछले ४० वर्षों में कीटों की आबादी में ४५ प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई थी । अमेरिका की कृषि-भूमि मधुमक्खियों जैसे कीटों के लिए अब ४८ गुना अधिक जहरीली हो गई है। इस जहर से लाखों प्रजातियां विलुप्त् होने की स्थिति में हैं और प्रतिदिन २०० प्रजातियां समाप्त हो रही हैं।
    कंपनियां किसानों में यह भ्रम फैला पाने में सफल रही हैं कि इन रसायनों और अनुवांशिक रूप से परिवर्तित बीजों (जीएम) के बिना खेती संभव नहीं है। इस दुष्चक्र ने किसानों को कर्ज के जाल में फंसाकर आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया है। मध्यप्रदेश में किसानों द्वारा आत्महत्या डरावनी व स्तब्ध करने वाली है। लोकसभा में २०१८ में कृषि मंत्री द्वारा प्रस्तुत आंकड़े दर्शाते हैं कि किसान आत्महत्या के मामले में पूरे देश में मध्यप्रदेश तीसरे स्थान पर है।
    इन कम्पनियों ने खाद्य आपूर्ति पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है जिससे गैर-सक्रामक बीमारियों, जैसे-हृदय व रक्त वाहिनियों संबंधी रोग, मधुमेह, कैंसर और दीर्घ अवधि के श्वास संबंधी रोग तेजी से फैल रहे हैं। इनमें ज्यादातर का संबंध बाजार के खाद्य-उद्योग के अस्वास्थ्यकर आहार से जुड़ा पाया गया है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान के अनुसार भारत में लगभग १३०० लोग प्रतिदिन कैंसर से मरते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष २०३० तक भारत में मधुमेह के १०.१ करोड़ रोगी हो जाएंगे।
    इन सारी बातों से हम समझ सकते हैं कि कैसे भोपाल की त्रासदी का परोक्ष रूप से पूरे देश में विस्तार हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष प्रतिवेदक की वर्ष २०१९ में मानवा-धिकार और हानिकारक पदार्थ एवं विषाक्त कचरे पर सामान्य सभा के सामने प्रस्तुत रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को यह बात विशेष जोर देकर समझाई गयी है कि विषाक्त पदार्थों को रोकना हर देश का कर्तव्य है।
    जहरयुक्त खाद्य पदार्थों की रोकथाम से जीवन तथा स्वास्थ्य का अधिकार, आत्म सम्मान व गरिमा युक्त जीवन तथा शरीर की अखंडता आदि मुद्दे जुड़े हैं। रसायन-मुक्त खेती से हम बीज-स्वराज, अन्न-स्वराज, भू-स्वराज व जल-स्वराज के साथ-साथ किसान को आत्महत्या व कर्ज से मुक्ति दिला सकते हैं। भोपाल गैस त्रासदी में जीवन गंवाने वालों को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
जनजीवन
विस्थापन का जवाब विद्यालय
बाबा मायाराम

    मध्यप्रदेश में आदिवासी बहुल अलीराजपुर जिले में नर्मदा-तट के गांव ककराना को भी, आसपास के कई गांवों की तरह, सरदार सरोवर परियोजना की डूब का सामना करना पडा था, लेकिन इलाके में सक्रिय खेडूत मजदूर चेतना संगठ  से जुडे कुछ युवाओं ने अपने साथी स्व. कैमत गवले की अगुआई में इसका जबाव शिक्षा से देना तय किया।
    पांच पडौसी गांवों ने रानी काजल जीवनशाला की स्थापना की और अपने बच्चें को शिक्षा की मार्फत जीवन जीने की कला सिखाने का बीडा उठाया।

    जब हमारे घर, गांव और जमीन सरदार सरोवर बांध की डूब में आ रहे थे, तब बार-बार जमीन खाली करने के लिए सरकारी नोटिस आते थे, लेकिन हम उन्हें पढ़ नहीं पाते थे, क्योंकि हम में से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था, उसी समय हमें अपने बच्चें को पढ़ाने की जरूरत महसूस हुई। हमने सोचा हमारी तो जिंदगी कट गई लेकिन बच्चें को पढ़ाना जरूरी है। इसलिए हमने स्कूल शुरू किया। यह भगतसिंह डाबर थे जो मुझे आदिवासी बच्चें के स्कूल के बारे में बता रहे थे। वे स्कूल के शिक्षक हैं। पश्चिमी मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में स्थित यह स्कूल सरदार सरोवर परियोजना के जलभराव की डूब से प्रभावित गांव में है। जब यहां के आदिवासियों के घर, जमीन डूब में चली गई, रोजगार के मौके कम हो गए तो एक दलित युवक कैमत गवले और कुछ गांव वालों ने मिलकर तय किया कि वे कहीं नहीं जाएंगे और यहीं रहकर बच्चेंका जीवन बेहतर बनाएंगे। उन्हें पढ़ाएंगे, इसके  लिए स्कूल  खोलेंगे।
    कैमत गवले की अगुआई में पांच गांवों-भादल, भिताड़ा, ककराना, झंडाना और सुगट के लोगों ने २० अगस्त २००० को रानी काजल जीवनशाला शुरु करने का निर्णय लिया था। कैमत पहले इस इलाके में सक्रिय आदिवासियों के खेड़ूत मजदूर चेतना संगठ से जुड़े थे। यहां के अधिकांश बाशिंदे आदिवासी हैं, जिनमें भील, भिलाला, नायक, बारेला, मानकर और कोटवाल शामिल हैं। यह देश के सबसे कम साक्षरता वाले जिले में से एक है।
    सवाल है कि जब सरकारी स्कूल सभी जगह हैं तो इस स्कूल की जरूरत क्यों पड़ी ? प्राचार्य निंगा सोलंकी और शिक्षक भगतसिंह डाबर बताते हैं कि सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में भील संस्कृति को कोई जगह नहीं है। उनकी भीली और भिलाली भाषा को पाठ्यक्रमों में कोई स्थान नहीं हैं। न उनमें बच्चें की दादी-नानी की कहानियां हैं और न ही उनकी बोली, भाषा के मुहावरे और कहावतें । इसलिए बच्च्े स्कूली पाठ्यक्रम से जुड़ नहीं पाते । वे आगे कहते हैं कि ज्यादातर सरकारी स्कूलों में एक-दो शिक्षक हैं और वे भी शहर से आते हैं। यहां पहुंच-मार्ग नहीं है और कई बार शिक्षक आते भी नहीं हैं। इस कारण बच्च्े शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। इसलिए ऐसे स्कूल की जरूरत थी, जिसमें शिक्षक-छात्र साथ रहें और उनकी बोली, भाषा में पढ़ाई हो।
    सबसे पहले गांव के  स्वास्थ्य केन्द्र में स्कूल शुरू  हुआ था। बाद में कुछ समय पंचायत भवन में लगने के बाद डेढ़ एकड़ जमीन खरीदकर खुद का स्कूल बनाया  गया । स्कूल निर्माण के लिए गांव-गांव से चंदा किया गया। लकड़ी, खपरैल, ईंटें सभी अभिभावकों ने दीं और श्रमदान से स्कूल तैयार हुआ । स्कूल कल्पांतर शिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र के नाम से पंजीकृत है। आठवीं तक के इस स्कूल में २१२ बच्च्े हैं जिनमें लड़कियां भी शामिल है। यह एक आवासीय स्कूल है। लड़कों का होस्टल, लड़कियों का होस्टल, १० शिक्षकों के आवास के लिए कमरे, अतिथि-कक्ष, कार्यालय, रसोईघर, पुस्तकालय समेत हरा-भरा परिसर है। यहां २००५ से बिजली भी है और सौर-ऊर्जा का विकल्प भी ।
    रानी काजल, जिनके नाम पर स्कूल को पहचान दी गई है, आदिवासियों की प्रमुख देवी हैं। मान्यता है कि समुद्र से वर्षा लाने वाली यह देवी संकट व महामारी से लोगों की रक्षा करती हैं। हर साल सितंबर-अक्टूबर में रानी काजल के स्थल पर उनकी पूजा की जाती है। यह एक प्रतीक है जो बच्चें को उनकी परंपरागत भील संस्कृति का बोध कराती है, उससे जोड़ती है और उनकी पहचान को कायम रखती है। रानी काजल जीवनशाला में पढ़ाई की ऐसी नवाचारी संयुक्त तकनीक विकसित की गई है जिसमें भिलाली शब्दों को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। उसे बच्च्े आसानी से समझते भी हैं और हिन्दी पढ़ना-लिखना भी सीखते हैं। तीसरी कक्षा तक भीली, बारेली और भिलाली भाषा में बच्चेंको पढ़ाया जाता है।
    यहां शिक्षा के मानदंड ऐसे हैं जिसमें बच्चें को आदिवासी इतिहास, गांव व कृषि संस्कृति की समझ होती है। आधुनिक शिक्षा के साथ यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि वे समाज और परिवार के काम-धंधों में अपनी भूमिका निभाएं । उनमें ऐसी क्षमताएं विकसित हों जो उनकी समृद्ध संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान से जोड़े और जंगल, जैव-विविधता और पर्यावरण की विरासत को सहेज सके । स्कूली पढ़ाई के अलावा यहां कई तरह की गतिविधियों के माध्यम से भी शिक्षा दी जाती है। स्कूल-परिसर में प्रत्येक बच्च्े का एक पौधा होता है, जिसे वह रोपता है और उसकी देखभाल करता है। यहां शीशम, नीम, आम, नींबू, बरगद, बांस, सागौन, अमरूद, बेर, बादाम, शहतूत आदि के पेड़ हैं।
    परिसर में भिंडी, ग्वारफली, करेला, लौकी, मिर्ची आदि तरकारियों (सब्जी) की खेती की जाती है। यहां देसी बीजों की पारंपरिक खेती के बारे में बताया जाता है और पुराने देसी अनाजों की पहचान कराई जाती है। इसके  अलावा बच्च्े ऊन के पर्स, थैले, मालाएं, घरों की साज-सज्जा के लिए झालर और मिट्टी के खिलौने, दीवारों पर चित्रकला, कलाकृतियां आदि बनाते हैं। स्कूल में हर शनिवार बालसभा होती है । स्कूल की व्यवस्था को चलाने के लिए कई तरह की जिम्मेदारियां बच्चों को दी गई हैं। जिसमें स्वास्थ्य-मंत्री, खेलमंत्री, पर्यावरण-मंत्री, सफाई-मंत्री आदि बनाए जाते हैं। स्वास्थ्य-मंत्री का काम होता है, किसी बच्च्े की तबीयत खराब होने पर उसके इलाज की व्यवस्था करना, खेलमंत्री बच्चेंके खेल की व्यवस्था करता है, पर्यावरण-मंत्री पौधों की देख-रेख और सफाई-मंत्री परिसर की साफ-सफाई की व्यवस्था संभालता है। पुस्तकालय में पढ़ाई पाठ्यक्रम का हिस्सा है। एक बार यहां के बच्चें ने ऊर्जा के  वैकल्पिक स्त्रोत पर पवन-चक्की का माडल भी बनाया था जिसे उन्होंने ज्वार के पौधे के डंठल व ताड़ के सूखे पत्तों से तैयार किया था। पवन-चक्की में न विस्थापन होता है और न ही जंगल डूबते हैं, जबकि सरदार सरोवर में उनके गांव, घर के आसपास का जंगल व जमीनें डूब गई थीं।
    रानी काजल जीवनशाला की वार्षिक फीस ८००० रूपए है, जिसे दो किस्तों में लिया जाता है। इसके साथ ५० किलो अनाज (गेहूं, मक्का, बाजरा, जो भी घर में हो), पांच किलो दाल भी देना होता है। स्कूल के प्राचार्य निंगा सोलंकी ने बताया कि करीब २५ प्रतिशत बच्चेंके अभिभावक गरीबी के कारण फीस नहीं दे पाते। वे मजदूरी करने पलायन कर जाते हैं। लड़कियों के लिए शिक्षा मुफ्त है ताकि वे अधिक संख्या में पढ़ सकें । स्कूल की व्यवस्था के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत चंदा भी मिलता है। कुछ संस्थाएं मदद करती हैं। यह सब स्कूल के संचालक कैमत गवले करते थे। उनकी मृत्यु के बाद स्कूल के मौजूदा शिक्षकों पर यह सामूहिक जिम्मेदारी आ गई है।
    इस स्कूल की उपलब्धियों में ऐसे बच्च्े शामिल हैं जो अच्छे पदों व उत्कृष्ट विद्यालयों में गए हैं। नास्तर बण्डेडिया (ककराना) तो मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास कर चयनित हुए हैं और फिलहाल वे जल-संसाधन विभाग में पदस्थ हैं। दो छात्र अब इसी स्कूल में शिक्षक हैं-मांगसिंह सोलंकी और कांतिलाल सस्तिया। कुछ छात्र स्नातकोत्तर कक्षाओं में पहुंचकर शोध कर रहे हैं। स्कूल की इससे भी बड़ी उपलब्धि है, आजाद भारत में आदिवासियों की पहली पीढ़ी का साक्षर होना और देश-दुनिया को जानने-समझने का नजरिया विकसित होना।
    यह स्कूल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें पलायन करने वाले पालकों के बच्चें को पढ़ने का मौका दिया जाता है। आमतौर पर बच्च्े अपने मां-बाप के साथ पलायन कर जाते हैं और शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। शायद इसलिए हर वर्ष यहां पालकों में बच्चेंको स्कूल में दाखिला दिलवाने की होड़ लगी रहती है।
    यह एक ऐसा स्कूल है जिसे स्थानीय लोगों द्वारा, स्थानीय लोगों के लिए, स्थानीय संसाधनों, स्थानीय ज्ञान और संस्कृति से जोड़कर चलाया जा रहा है। यहां सिर्फ स्कूली पाठ्यक्रम को ही प्रमुखता नहीं दी जाती, बल्कि आसपास के वातावरण, हाथ के काम से प्राप्त्  अनुभव, पीढ़ियों से चले आ रहे पारंपरिक ज्ञान से भी सीखा जाता है। हाथ के काम को हेय दृष्टि से नहीं, बल्कि  जीवन के लिए जरूरी व सम्मान की दृष्टि से देखने की समझदारी विकसित की जाती है। इसका असर यह है कि बच्च्े  आधुनिक शिक्षा पाकर भी पारंपरिक खेती-किसानी के काम-धंधों में हाथ बंटाते हैं और समाज में अपनी भूमिका तलाशते हैं। उनमें ऐसी क्षमताएं विकसित करने पर जोर दिया जाता है ताकि वे अपनी संस्कृति व विरासत को सहेज सकें । यह स्कूल  एक स्तंभ है, जो शिक्षा के माध्यम से एक उम्मीद जगा रहा है।         
प्रदेश चर्चा
राजस्थान : व्यापार से बचाया जाता पर्यावरण
अंकिता माथुर

    व्यापार-व्यवाय में आकंठ डूबा आधुनिक समाज पर्यावरण संरक्षण के लिए भी कार्बन ट्रेडिंग की तजबीज उपयोग करने लगा है ।
    भारत के पश्चिमोत्तर में स्थित राजस्थान, देश का एक रेगिस्तानी भू-भाग है। रेगिस्तान का विचार आते ही मस्तिष्क में उभरने लगता है, जल-विहीन, रेत का अथाह समुद्र जो वनस्पति रहित विषम जीवन लिये है।
    राज्य की सबसे अधिक आबादी वाला ये क्षेत्र अपनी अलग जैव-विविधता लिए सम्पूर्ण-सा प्रतीत होता है। जहाँ घग्घर, लूणी नदियों ने यहाँ जीवन अमृत दिया है, वहीं आधुनिक इन्दिरा गांधी नहर ने पश्चिमी राजस्थान की काया पलट की है। 

    आज जब समस्त दुनिया जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही है, तब सोचनीय है कि राजस्थान का इसमें क्या योगदान होगा ? किसी का विचार हो सकता है कि राजस्थान बीमारू राज्य है, आथिक व सामाजिक तौर पर बहुत पीछे है, ऐसे में प्रथम आवश्यकता सामाजिक व आर्थिक विकास की है। पर क्या कोई मध्यम मार्ग पर्यावरण बचाए, बनाये रखते हुए राज्य की आय में भी इजाफा कर सकता है ?
    आइए विचार करते हैं। क्योटो प्रोटाकॉल में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के तीन तरीके सुझाये गये थे। इनमें से एक है, कार्बन ट्रेडिंग, जिसके अनुसार प्रत्येक देश या उसमें मौजूद विभिन्न सेक्टर या कम्पनी को एक निश्चित सीमा तक कार्बन उत्सर्जित करने की छूट दी जाती है। अब यदि उसने निर्धारित सीमा तक कार्बन उत्सर्जित कर लिया है व आगे भी उत्सर्जित करना चाहता है जो उसे किसी ऐसे अन्य देश या कम्पनी से कार्बन खरीदना होगा जिसने निर्धारित सीमा तक उत्सर्जन न किया हो। इसे कार्बन ट्रेडिग कहा जाता है। यह व्यापार भी बाजार के मांग व आपूर्ति के नियमों के  अधीन है।
    अब अगर राजस्थान चाहे तो खाली पड़ी भूमि पर वनों का विकास करके व ओरणों, गोचरों, इत्यादि की रक्षा करके कार्बन क्रेडिट बना सकता है। वन वातावरण की कार्बन डाई-ऑक्साइड अवशोषित करते हैं, साथ ही प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने में भी सहायक हैं। राजस्थान का लगातार गिरता भूजल-स्तर भी वृक्षों की मदद से संतुलित किया जा सकेगा । ये वृक्ष जहां पश्चिम में रेगिस्तान को रोकने में सहायक हो सकते हैं, वहीं पूर्वी राजस्थान में मृदाक्षरण रोकने में भी मदद कर सकेंगे और सम्पूर्ण राजस्थान को वैश्विक व्यापार से जोड़ सकते हैं।
    अब बात करते हैं, जल की । वनों की तरह ही राज्य में जल की स्थिति भी भयावह होती जा रही है। अंर्तर्प्रभावी नदियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं। राजधानी के पास ढूंढ व बाणगंगा नदियां अब नहीं दिखतीं तो कांतली नदी भी बीती-सी बात लगती है। वर्षा जल संचयन की आवश्यकता को समझते हुए हमारे पूर्वजों ने अनेक बावड़ियों, जोहडों, ढाण्ढ, खड़ीन इत्यादि को महत्व दिया था। कहीं जल स्त्रोतों को धर्म का संरक्षण मिला, तो कहीं समाज का।
    सामाजिक व्यवस्था के चरमराने का असर हमारे परम्परागत जल-स्त्रोतों पर भी दिखाई पड़ता है। बात चाहे रामगढ़ बांध की हो या कड़ाना की, स्थितियाँ समान सी दिखती हैं। जब इन्दिरा गांधी नहर तिब्बत के राकसताल का जल आपके राजस्थान में लाती हैं तो क्यों न इस जल का प्रबंधन भी नयी आवश्कताओं के अनुसार ही सुनिश्चित किया जाए । इंदिरा गांधी नहर के आस-पास की खुली भूमि का उपयोग सौर ऊर्जा व पवन ऊर्जा उपकरणों के माध्यम से दूरस्थ क्षेत्र में बिजली उपलब्ध कराने के लिए भी किया जा सकता है साथ ही यह पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में सहायक है। आवश्यकता है एक सशक्त पहल की, एक संगठित-व्यवस्थित प्रयास की जो रोजगा-रोन्मुख भी हो।
    वनों के समान ही जल भी कार्बन अवशोषण कर पर्यावरण शुद्ध करने में सहायक है तो क्यों न पारम्परिक स्त्रोतों का संरक्षण कर नए स्त्रोतों के साथ नवीन प्रबंधन किया जाए । जब जयपुर के मध्य से बहती द्रव्यवती नदी पर्यटन बढ़ायेगी तब क्यों न जाना जाये ये कितना कार्बन अवशोषण करेगी? झीलों की नगरी उदयपुर अपनी झीलों केसाथ कितना कार्बन सोख रही है? क्या कार्बन ऑडिट की बात सोची जा सकती है?
    विकास एवं संरक्षण के बीच अब राजस्थान को आवश्यकता है कि जागरूकता के साथ यहां की सरकारें, निजी संगठन व जनता संरक्षण, नियम व समावेशी विकास की बात करें। बात करें कार्बन फ्रूट प्रिंट की, कार्बन टैक्स की, कार्बन ट्रेड की और कार्बन सिक्वेस्ट्रिशन की । यह एक आधुनिक तरीका भी होगा, पर्यावरण संरक्षण का ।           
कविता
वृक्ष की अभिलाषा
रमेश सिंह यादव

मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
तपते सूरज के धूप की मार,
ऊपर से कुल्हाड़ी की वार ।
क्रूर बना इंसान क्यों इतना ?
अब मैं दर्द सहूँगा कितना ?
घट गई मेरी जीवन प्रत्याशा ।
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी  है कुछ अभिलाषा ।

तुफानों की मार झेलता,
बारिश की प्रहार झेलता।
जी तो करता मेवे खाऊँ, 
कभी ना फिर मैं काटा जाऊं ।
कोई दे दे यही दिलाशा,
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।

मैं गुजारिश करता अनबोलता प्राणी,
हे ! जग के लोग बन जाओ माली ।
तभी भरेगी सबकी थाली,
ऐसी है यह मेरी आशा।
मैं हूँ वृक्ष, मेरी भी है कुछ अभिलाषा ।
पर्यावरण परिक्रमा
साल 2021 तक बढ़ सकता है पृथ्वी का औसत तापमान

    वैज्ञानिक चेतावनियों व राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद वर्ष 2018 में वैश्विक स्तर पर ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) के उत्सर्जन पर रोक नहीं bग पाई हैं । संयुक्त राï­ की ताजा रिपोर्ट ने चेताया है कि 2021 तक पृथ्वी के औसत तापमान में 3.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है । जbवायु परिवर्तन के ये भयावह हाbात पेरिस समझौते को bागू करने के बावजूद भी सामने आएंगे ।
    स्पेन में संयुक्त राï­ जbवायु सम्मेbन कोप-25 से पूर्व जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछbे दशक से जीएचजी उत्सर्जन में 1.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है । कार्बन डाइआक्साइड समकक्ष गैसीय उत्सर्जन 55.3 गीगाटन के सर्वकाbिक आंकड़े तक पहुंच गया हैं ।  संयुक्त राï­ की एमिशन गैप रिपोर्ट के अनुसार सभी देशोंको वर्तमान हाbात से निपटने के bिए सामूहिक प्रयास करने होंगे । रिपोर्ट मेंसुझाया है कि 2020 से 2030 के दौरान यदि के दौरान यदि जीएचजी उत्सर्जन हर वर्ष 7.6 प्रतिशत गिर जाता है तो प्रतिवर्ष तापमान मेंकेवb 1.5 डिग्री के औसत तापमान वृद्धि की परिस्थति को पाया जा सकता है ।
    सभी देशों के जीएचजी उत्सर्जन में पांच गुना तक की कमी bानी होगी, जिससे 1.5 डिग्री सेल्सियस के औसत तापमान पृद्धि के bक्ष्य को पाया जा सकेगा । उत्सर्जन मेंतीन गुना तक की कमी से 2 डिग्री के औसत तापमान वृद्धि के लक्ष्य हासिb किया जा सकेगा । विकसति देश दुनिया केे विकासशील देशों की तुbना में जल्द कार्रवाई   करें ।
    पेरिस समझौते के अनुसार भारत सहित चीन, मेक्सिको, रूस तुर्क, ईयू को उत्सर्जन में कमी bानी है । जबकि आस्ट­ेbिया, ब्राजीb, कनाडा, जापान, दक्षिण कोरिया, दक्षिण अफ्रीका व अमरीका को उत्सर्जन में कमी के और प्रयास करने होंगे ।

जीवन की खोज के लि‍ए मंगल से लाएंगे मिट्टी

    इंजीनियरों ने मंगल ग्रह पर चट्टानों को एकत्र कर पृथ्वी पर उसके नमूने bाने की योजना बनाई, जिसकी परिकल्पना सबसे जटिल रोबोट अंतरिक्ष परियोजनाओं में से एक है । इस मिशन को नाम दिया गया है-नासा मार्स 2020 रोवर । इस योजना को नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) मिbकर विकसित कर रहे     हैं ।
    असb में, इस योजना में एक ऐसे रोबोट रोवर्स को शामिb किया जा रहा है, जो पिछbी जिदंगी के सबूत जुटाएगा । हाb ही में नासा ने इस तरह के मिशन के bिए रूपरेखा तैयार की है, जिसमेंअरबों पाउंड खर्च होंगे । ईएसए के महानिदेशक जेन वॉर्नर ने पिछbे सáाह कहा कि मंगb से नमूना bाना हमारे भविष्य के अन्वेषण कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैंऔर मुझे बहुत उम्मीद है कि यूरोप के विज्ञान मंत्री इसे वापस करेंगे । हाbांकि, हमें स्पï होना चाहिए कि मिशन का हर कदम बहुत चुनौतीपूर्ण होगा । मार्स2020 रोवर को विकसित करने की तैयारी जोरोंपर हैं, जो 2021 की शुरूआत मंगल पर उतरनेके bिए निर्धारित है । रोवर मिट्टी के नमूनों को एकत्र कर टçूबों में डाb सीb कर चिन्हित स्थbों पर छोड़ेगा । इसके बाद नमूनों को गेंद जैसे कनस्तरमें bोड करेगा । इसे अर्थ–रिटर्न आर्बिटर नामक रोबोट कनस्तर को bेकर पृथ्वी की ओर आएगा व यूटा रेगिस्तन में पैराशूट से गिराएगा ।
    वैज्ञानिक मानते है कि अरबों साb पहbे मंगb ग्रह की स्थिति पृथ्वी पर मौजूद ूbोगों के समान थी मसbन, सतह पर घना वातावरण और बहता पानी । अब इसका अधिकांश वातावरण खत्म हो गया है और शोधकर्ता यह जानना चाहते हैं कि क्या वाकई पहbे जीवन था ।
    bंदन के वेस्टमिंस्टर विश्वविद्याbय के एक खगोb विज्ञानी प्रो. bुइस डार्टनेb कहते हैं, मिशन में अविश्वसनीय रूप से जटिb उपक्रम शामिb हैं, जो बाधा बन सकता है । फिर भी हम मंगb पर जीवन के प्रमाण पाना चाहते हैं, तो हमें यही करना होगा ।

गरीब ज्यादा होते हैं दिल के दौरों का शिकार
    माना जाता है कि गरीब bोगों को अमूमन दिb का दौरा कम पड़ता है, क्योंकि एक साधारण अमीर व्यक्ति की तुbना में उनका शरीर ज्यादा क्रियाशीb होता है, मगर स्विट्जरbैंड के वैज्ञानिकों ने अपने एक अध्ययन में इस धारणा को गbत बताया है ।
    उनका दावा है कि ज्यादा घंटे काम करने की मजबूरी और आस–पड़ोस मे ज्यादा शोरगुb होने के कारण गरीब तबके खासकर मजदूर वर्ग से आने वाbे bोगों में दिb का दौरा पड़ने का खतरा 50 फीसदी अधिक होता है । मूbतः इसकी वजह है पर्याá मात्रा में नींद नहीं bेना । विशेषज्ञों ने बताया कि एक दिन में एक आम इंसान को 6 घंटे नींद bेना स्वास्थ्य के bिए बेहद जरूरी होता है ।
    ऐसा नहीं होने पर दिb का दौरा पड़ने का खतरा 13 फीसदी तक बढ़ जाता है । गरीब तबके के इंसान का रहन–सहन उस स्तर का नहीं होता कि वह चैन से सो सके । वो सुबह काम की चिंता और शहरों के शोरगुb से अपनी नींद भी पूरी नही कर पाता ।
    बता दें कि हर तीन में से एक व्यक्ति अनिद्रा का शिकार होता है । वैज्ञानिकों ने अनिद्रा और इससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाbे असर को bेकर ही करीब 1.10 bाख पर अध्ययन किया है । अध्ययनकर्ताओं ने इस शोध के माध्यम से कुछ निष्कर्ष निकाbे हैं, जो इस प्रकार   हैं -
    1. bोगों की नींद में किसी प्रकार का व्यवधान  न पड़े, इसbिए सभी घरों में डबb ग्bेज्ड विंडों bगाने चाहिए ।
    2. हवाई अड्डों या राजमार्ग सड़कों के किनारे घरों के निर्माण से परहेज करना चाहिए ।
    विशेषज्ञों ने कहा कि नींद े कार्डियायोवास्कुbर सिस्टम को आराम मिbता है ।इसकी कमी बीपी बढ़ाती व मेटाबोbिज्म को बदb देती हैं ।  ये दोनोंहद्य रोग के bिए प्रमुख कारक हैं ।
    bॉसन में यूनिवर्सिटी सेंटर आफ जनरb मेडिसिन एंड पब्bिक हेल्थ के शिक्षाविदोंने इग्bैंड, फ्रांस, स्विट्जरbैंड व पुर्तगाb के डेटा का प्रयोग अध्ययन में किया है । कम आय वाbे पुरूषों में हद्य रोग से पीड़ित होने का खतरा 48 प्रतिशत पाया गया । महिbाओं के bिए यह 53 फीसदी था ।

भारत में हर वर्ष कैंसर के 11 लख मामले
    विश्वभर में कैंसर के बढ़ते मामbों के बीच भारत मेंहर वर्ष कैंसर के 11 bाख मामbे दर्ज किए जा रहे हैं और करीब सात bाख 80 हजार bोगों की हर वर्ष कैंसर के कारण मौत हो जाती है ।
    ग्bोबb कैंसर इंसीडेंस, मोराbिटी और प्रीविbेंस (ग्bोबोकोन) के विश्वभर में जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार भारत में कैंसर के मामbों में  तेजी से वृद्धि हो रही है और यह बीमारी दिन पर दिन अधिक घातक बनती जा रही है । ग्bोबोकोन की रिपोर्ट के अनुसार कैंसर के मामbों में 30 और कैंसर से मरने के मामbोंमें 20 फीसदी वह वृद्धि दर्ज की गयी है । ग्bोबोकोन के राज्यों के आंकड़ों के अनुसार भारत में कैंसर के होने और उससे मौत के मामbे सबसे ज्यादा उत्तर–पूर्वराज्यों में दर्ज किए गए हैं । रिपोर्ट के अनुसार पुरूषों में प्रोटेस्ट कैंसर के सबसे ज्यादा मामbे पाए गए  हैं । आम तौर पर इस तरह का कैंसर धीरे–धीरे पनपता है और फिर प्रोटेस्ट गांठ में सीमित हो जाता है । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने अपने सर्वे में पाया कि देश के महानगर कोbकाता, पुणे, त्रिवेंद्रम, बेंगbुरू और मुबई में इस घातक बीमारी को bेकर जागरूकता बेहद कम और यहां युवा पुरूष इसके ज्यादा शिकार हो रहे हैं ।
    यूरोbॉजी एवं यूरो– आन्कोbॉजी के सbाहकार डॉ. अभयकुमार ने कैंसर के बढ़ते मामbों को bेकर कहा कि प्रोटेस्ट कैंसर के बढ़ती उम्र के साथ होने की सबसे ज्यादा संभावना है । विशेष रूप से ५०वर्ष की आयु के बाद कैंसर के होने की संभावना सबसे अधिक रहती हैं । एक अध्ययन के अनुसार  70 वषर््ा की आयु के बाद 31से  83 प्रतिशत पुरूषों में प्रोटेस्ट कैंसर का कोई न कोई रूप होता है और इसके bक्षण बार–बार पेशाब आना, पेशाब रूकने में कठिनाई या रूकावट, मूत्र नbी कमजोर होना या रूकवाट, पेशाब या स्खbन के दौरान जbन या जbन जैसे कोई बाहरी bक्षण हो सकते हैं ।
चीन में कभी न खत्म होने वाला ईधन बनाने की तैयारी
    चीन ने सूर्य की ऊर्जा यानी नाभिकीय संbयन पर आधारित परमाणु रिएक्टर तैयार कर bिया है। रिएक्टर एचएb–2एम को सिचुआन प्रांत की राजधानी चेंगदू में बनाया गया है । रिएक्टर 2020 में काम करना शुरू कर देगा । इसके जरिए चीन जीवाश्म ईधन यानी पेट­ोb कोयbा डीजb पर निर्भरता कम करना चाहता है । सूर्य में नाभिकीय संbयन (न्यूक्bियर फ््यूजन) ही होता है । इस प्रक्रिया में हाइड­ोजन के दो परमाणु मिbकर हीbियम बनाते हैं । संbयन आधारित रिएक्टर बनाकर चीन स्पï संदेश देना चाहता है कि प्रदूषणरहित ऊर्जा की सप्bाई कभी बाधित नहीं होगी । संbयन आधारित तकनीक पर रिएक्टर बनाना काफी महंगा है । कई वैज्ञानिक इसे जीवाश्म ईधन का विकल्प बनाने पर अव्यावहारिक बताते है ।                             
वातावरण
जलवायु परिवर्तन और भारत की चुनौतियां
डॉ. डी बालसुब्रमण्यन

    न्यूयॉर्क में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर हाल ही में आयोजित बैठक में स्वीडिश छात्रा ग्रेटा थनबर्ग ने सौ से भी अधिक देशों के प्रतिनिधियों को दो तीखे बयान दिए ।
    पहला, आपने अपनी खोखली बातों से मुझसे मेरा बचपन छीन  लिया । और दूसरा, आप सभी, हम युवाओं के पास (पर्यावरण को पहुंचे नुकसान को कम करने की...) उम्मीद लेकर आए हैं। आप लोगों की हिम्मत कैसे हुई? जैसा कि ग्रेटा के वक्तव्य पर दी हिंदू के 1 नवंबर के अंक में कृषण कुमार का संवेदनशील विश्लेषण कहता है, वहां मौजूद (देश के प्रतिनिधि) श्रोताओं ने यह नहीं स्वीकारा कि जलवायु परिवर्तन के लिए उनके उद्योग जिम्मेदार हैं; इसकी बजाय वे इस बात पर सहमत हुए कि वे आने वाले दशक में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के  सुविधाजनक लक्ष्यों को पूरा करेंगे। 

     कृष्ण कुमार अपने लेख में आगे बताते हैं कि ना सिर्फ हर अमीर देश, बल्कि सभी देशों में रहने वाले प्रत्येक अमीर व्यक्ति को अब भी यह लगता है कि वे अपने और अपनी संतानों के लिए जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से राहत खरीद सकते हैं और उन्हें जलवायु परिवर्तन के परिणामों से बचा सकते हैं।
    कार्बन-प्रचुर जीवाश्म र्इंधन को जला-जलाकर, जो 1750 के दशक में औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू  हुआ था, ही पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। तापमान में यह वृद्धि मानव जीवन, जानवरों, पेड़-पौधों और सूक्ष्मजीवों को प्रभावित कर रही है। समुद्र गर्म हो रहे हैं, बर्फ पिघल रही है, और इसलिए ग्रेटा का यह आरोप पत्र है।
    वर्ष 2015 में दुनिया भर के देश पेरिस में इकÆे हुए थे और तब 197 देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे कि वे साल 2030 तक वैश्विक तापमान को उद्योग-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री से अधिक नहीं होने देंगे। इन हस्ताक्षरकर्ता देशों में भारत भी शामिल था । विष्णु पद्मनाभन ने अपने ब्bॉग में भारत के समक्ष तीन बड़ी जलवायु चुनौतियों का जिक्र किया है। भारत ने वादा किया है कि वह साल 2015 की तुलना में, साल 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को 33-35 प्रतिशत तक कम करेगा ।
    ऐसा लगता है कि यह जरूरी है और इसे पूरा भी किया जा सकता है। लेकिन इसे पूरा करने में भारत के सामने पहली चुनौती यह है कि भारत का ज्यादातर कार्बन उत्सर्जन (लगभग 68 प्रतिशत) ऊर्जा उत्पादन से होता है, जो अधिकतर कोयला आधारित है। इसके बाद उद्योगों (लगभग 20 प्रतिशत) और खेती, खाद्य और भूमि उपयोग (10 प्रतिशत) का नंबर है। इसलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम ऊर्जा के अन्य साधनों या óोतों का उपयोग करें, जैसे पनबिजली, पवन, सौर, नाभिकीय ऊर्जा वगैरह । भारत को उम्मीद है कि वह अपनी 40 प्रतिशत ऊर्जा इस तरह के  गैर-कोयला óोतों से प्राá कर पाएगा ।
    दूसरी चुनौती: खेती, भूमि उपयोग और जल संसाधनों की बात करें तो ये भी जलवायु परिवर्तन में योगदान देते हैं। कैसे? न्यूनतम समर्थन मूल्य, सब्सिडी (रियायतें), 24 घंटे मुफ्त बिजली प्रदाय और अधिक पानी की जरूरत वाली फसलें इसके कुछ कारण हैं। समय आ गया है कि हमें इन्हें रोकें और जांचे-परखे तरीकों को अपनाएं और नवाचारी तरीकों पर काम करें। इनमें से कुछ तरीके हैं डि­प या टपक सिंचाई (जैसा कि इóाइb ने किया है), एयरोबिक खेती (जो पानी की बचत के लिए खेती का एक तरीका है और इसमें खास गुणधर्मों के विकास पर शोध किया जाता है ताकि जड़ें अच्छे से फैलें और जमीन में गहराई तक जाएं (जैसा कि बैंगलुरू की युनिवर्सिटी आफ एग्रीकल्चर साइंस ने किया है), बेहतर और अधिक पौïिक अनाज ।
    भारत की सबसे अधिक पानी की खपत करने वाली फसल धान पर इस तरीके को आजमा कर पानी की बचत की जा सकती है। किसानों के बीच अधिक पौïिक किस्मों (जैसे सीसीएमबी और एनआईपीजीआर द्वारा विकसित साम्बा मसूरी) को बढ़ावा देना चाहिए । इत्तफाकन इस किस्म में कार्बोहाईड­ेट भी कम है तो यह डायबिटीज के मरीजों के लिए अच्छी भी है। नरवाई (पराली) जलाना पूरी तरह बंद होना चाहिए, हमें इसके बेहतर रास्ते तलाशने होंगे।  इसके लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है, भारतीय वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ यह कर सकते हैं। उन्हें इससे निपटने के बेहतर और सुरक्षित तरीके ढूंढने चाहिए ।
    और तीसरी चुनौती है प्राकृतिक तरीकों से वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड के स्तर को कम करना। इसके लिए वनीकरण और स्थानीय किस्मों के पौधारोपण बढ़ाना चाहिए । यहां फिलीपींस सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का अनुसरण करना फायदेमंद होगा। फिलीपींस में प्रत्येक छात्र/छात्रा को अपना स्कूbी प्रमाण पत्र या कॉलेज की डिग्री प्राá करने के पहले 10 स्थानीय पेड़ लगाकर उनकी  देखभाल करनी होती है।
    दरअसल स्थानीय पेड़ पानी सोखकर उसे जमीन में पहुंचाते हैं। भारत ने वृक्षारोपण और वनीकरण के माध्यम से अतिरिक्त कार्बन सोख्ता बनाने की योजना बनाई है ताकि ढाई से तीन अरब टन कार्बन डाईआक्साइड कम की जा सके ।
    कई अध्ययन बताते हैं कि कैसे जलवायु परिवर्तन और बढ़ता वैश्विक तापमान धीरे-धीरे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बन गए हैं। 2010 में दी न्यू इंग्लैंड जर्नल आफ मेडिसिन में प्रकाशित एमिली शुमैन का पेपर - वैश्विक जलवायु परिवर्तन और संक्रामक रोग बताता है कि जब हम जीवाश्म र्इंधन जलाते हैं तो तापमान में वृद्धि होती है, जिससे ग्रीष्म लहर (लू) चलती है और भारी वर्षा होती है। यह कीटों (और उनमें पलने वाले जीवाणुओं और वायरस) के पनपने के लिए माकूb वातावरण होता है। गर्म होती जलवायु की बदौलत ही हैजा, डायरिया जैसे जल-वाहित रोगों के अलावा मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियां भी बढ़ी हैं। ये बीमारियां हर भौगोलिक परिवेश में बढ़ रही हैं: पहाड़ी इलाके, ठंडे इलाके, रेगिस्तान जैसे गर्म इलाके और तटीय इलाके । इसी संदर्भ में वी. रमना धारा द्वारा साल 2013 में इंडियन जर्नल आफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित एक अन्य महत्वपूर्ण पेपर - जलवायु परिवर्तन और भारत में संक्रामक रोग: स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के  लिए निहितार्थ बताता है कि किस तरह समुद्र की सतह के बढ़ते तापमान के कारण वष्णकटिबंधीय इलाकों में चक्रवात और तूफानों की संख्या बढ़ रही है जिससे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के तटीय इलाकों में प्रदूषित पानी, अस्वास्थ्यकर परिस्थितियां, जनसंख्या का विस्थापन, विषैलापन, भूख और कुपोषण जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं।
    कुछ बीमारियां जानवरों से मानवों में फैलती हैं और कुछ मानव से मानव में। इसका सबसे हालिया उदाहरण है निपाह वायरस जो चमगाड़ों से मानव में फैलता है। इस मामले में केरल सरकार द्वारा उठाए गए त्वरित कदम सराहनीय हैं जिसमें सरकार ने संक्रमित लोगों को अलग-थलग करने की फौरी व्यवस्था की थी।
    सौभाग्य से, हमारी कई प्रयोगशालाएं और दवा कम्पनियां, अन्य बीमारियों के लिए स्थानीय वनस्पति óोतों से दवाइयों और टीकों का निर्माण करने में स्वयं व अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर अनुसंधान कर रही हैं। हम इस कार्य को बखूबी कर सकते हैं और विश्व में इस क्षेत्र के अग्रणी भी बन सकते हैं। ध्यान रखने वाली बात है कि हमारी दवा कम्पनियां विश्व भर में लोगों को वहनीय कीमत पर दवाइयां उपलब्ध कराती रही हैं, हमारी दवा कम्पनियां विश्व के लगभग 40 प्रतिशत बचपन के टीके  उपलब्ध कराती हैं और इनमें से कुछ दवा कंपनियां मौजूदा महामारियों के टीके बनाने के लिए प्रयासरत हैं। 
ज्ञान विज्ञान
अमेरिका की जलवायु समझौते से हटने की तैयारी

    पिछbे दिनों अमेरिका ने विगत 4 नवंबर को पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने की औपचारिक कार्यवाही शुरू कर दी है। पेरिस समझौता बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास में साल 2015 में हुआ था और इसमें दुनिया के 197 देश शामिल हैं। वैसे साल 2017 से ही अमेरिका का इरादा इस समझौते से बाहर निकलने का था। अमेरिका के राï­पति डोनाल्ड ट­म्प के अनुसार पेरिस जलवायु समझौते में बने रहने से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा। 


    पेरिस जलवायु समझौते पर अमेरिका के निर्णय की घोषणा करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री माइकल पोम्पियो ने कहा कि साल 2005 से 2017 के बीच अमेरिका की अर्थव्यवस्था में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि ग्रीन हाउस गैस के  उत्सर्जन में 13 प्रतिशत की कमी आई थी ।
    वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने अमेरिका द्वारा लिए गए इस फैसले की अलोचना की है। कैम्ब्रिज के यूनियन आफ कंसन्र्ड साइंटिस्ट समूह के  एल्डन मेयर का कहना है कि राï­पति ट­म्प का पेरिस समझौते से बाहर निकलने का फैसbा गैर-जिम्मेदाराना और अदूरदर्शी है। वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीटçूट के एंड­य लाइट का कहना है कि पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने पर अमेरिका के राजनैतिक और आर्थिक रुतबे पर असर पड़ेगा, क्योंकि अन्य देश कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।
    पेरिस समझौते के  नियमा-नुसार 4 नवंबर 2019 इस समझौते से बाहर निकलने के लिए आवेदन करने की सबसे पहली तारीख थी । और आवेदन के बाद भी वह देश एक साल तक सदस्य बना रहेगा। अर्थात अमेरिका इस समझौते से औपचारिक तौर पर 4 नवंबर 2020 को बाहर निकल सकेग ा।
    वैसे अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जलवायु परिवर्तन की समस्या को संजीदगी से ले रहे हैं। तो यदि इनमें से कोई उम्मीदवार अगला चुनाव जीतता है तो आशा है कि जनवरी 2021 में पदभार संभालने के बाद वे वापस इस निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे। पेरिस जलवायु समझौता छोड़ चुके देश, पुन: शामिल होने के अपने इरादे के बारे में राï­ संघ जलवायु परिवर्तन संधि कार्यालय को सूचित करने के 30 दिन बाद इस समझौते में पुन: शामिल हो सकते हैं।
     यदि ट­म्प दोबारा नहीं चुने गए तो सरकार द्वारा यह फैसला बदलने की उम्मीद है। और यदि ट­म्प वापस आते हैं तो वहां के शहरों, राज्यों और कारोबारियों पर निर्भर है कि वे जलवायु परिवर्तन के मामले में अपना रुख तय करंे ।
भारत में जीनोम मैपिंग
    लगभग हाल ही में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा एक परियोजना के तहत भारत के एक हजार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग (अनुक्र-मण) की योजना तैयार की गई है। इसके  अंतर्गत लगभग दस हजार भारतीय लोगों के जीनोम को अनुक्रमित  करने का लक्ष्य है। यह पहला मौका होगा जब भारत में इतने बड़े स्तर पर जीनोम के गहन अध्ययन के लिए खून के नमूने एकत्रित किए जाएंगे ।
    हम जीव विज्ञान की सदी में रह रहे हैं। अगर 20वीं सदी भौतिक विज्ञान की सदी थी तो 21वीं सदी निश्चित तौर पर जैव-प्रौद्योगिकी (बायोटेक्नॉलॉजी) की सदी होगी। पिछले दो-तीन दशकों में जैव-प्रौद्योगिकी में, विशेषकर आणविक जीव विज्ञान और जीन विज्ञान के क्षेत्र में, चमत्कृत कर देने वाले नए अनुसं-धान तेजी से बढ़े हैं।  


     मात्र दो अक्षरों का शब्द जीन आज मानव इतिहास की दशा और दिशा बदलने में समर्थ है। जीन सजीवों में सूचना की बुनियादी इकाई और डीएनए का एक हिस्सा होता है। जीन माता-पिता और पूर्वजों के गुण और रूप-रंग संतान में पहुंचाते हैं। डीएनए के उलट-पलट जाने से जीन्स में विकार पैदा होता है और इससे आनुवंशिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं।
    जीन्स के पूरे समूह को जीनोम नाम से जाना जाता है। जीनोम के अध्ययन को जीनोमिक्स कहा जाता है। वैज्ञानिक लंबे समय से अन्य जीवों के अलावा मनुष्य के जीनोम को पढ़ने में जुटे हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार मानव शरीर में जीन्स की कुb संख्या अस्सी हजार से एक लाख तक होती है। 
    वर्ष 1988 में अमेरिकी सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट की शुरुआत की जिसे 2003 में पूरा किया गया। वैज्ञानिकों ने इस प्रोजेक्ट के जरिए इंसान के पूरे जीनोम को पढ़ा । इस परियोजना में अमेरिका के साथ ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट­ेbिया, जर्मनी, जापान और चीन ने भाग लिया था। इस परियोजना का लक्ष्य जीनोम सिक्वेंसिंग के जरिए बीमारियों को बेहतर समझने, दवाओं केशरीर पर प्रभाव की सटीक भविष्यवाणी, अपराध विज्ञान में उन्नति और मानव विकास को समझने में मदद करना था। उस समय भारत का इस परियोजना से अपने को अलग रखना हमारे नीति निर्धारकों की अदूरदर्शिता का परिणाम कहा जा सकता है।
    अब सीएसआईआर द्वारा दस हजार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग की योजना ने जीनोमिक्स के क्षेत्र में भारत के प्रवेश की भूमिका तैयार कर दी है जिससे चिकित्सा विज्ञान में नई संभावनाओं के द्वार खुलेंगे ।
    सीएसआईआर की इस परियोजना के अंतर्गत सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी, हैदराबाद और इंस्टीट्यूट आफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटेड बायोलॉजी, नई दिल्bी संयुक्त रूप से काम करेंगे। जीनोम की सिक्वेंसिंग खून के नमूने के आधार पर की जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति के डीएनए में मौजूद चार क्षारों (एडेनीन, गुआनीन, साइटोसीन और थायमीन) के क्रम का पता लगाया जाएगा।
    डीएनए सीक्वेंसिंग से लोगों की बीमारियों का पता लगाकर समय रहते इलाज किया जा सकता है और साथ ही भावी पीढ़ी को रोगमुक्त करना संभव होगा । इस परियोजना में भाग लेने वाले युवा छात्रों को बताया जाएगा कि क्या उनमे परिवर्तित जीन हैं जो उन्हें कुछ दवाओं के प्रति कम संवेदनशील बनाते हैं। दुनिया के कई देश अब अपने नागरिकों की जीनोम मैपिंग करके  उनके अनूठे जेनेटिक लक्षणों को समझने में लगे हैं ताकि किसी बीमारी विशेष के प्रति उनकी संवेदनशीलता के मद्देनजर व्यक्ति-आधारित दवाइयां तैयार करने में मदद मिल सके ।
    वर्ष 2003 में मानव जीनोम के अनुक्रमण के बाद प्रत्येक व्यक्ति की अद्वितीय आनुवंशिक संरचना तथा रोग के बीच सम्बंध को लेकर वैज्ञानिकों को एक नई संभावना दिख रही है। जीनोम अनुक्रम को जान लेने से यह पता लग जाएगा कि कुछ लोग कैंसर, कुछ  मधुमेह और कुछ अल्जाइमर या अन्य बीमारियों से ग्रस्त क्यों होते हैं। जीनोम मैपिंग के जरिए हम यह जान सकते हैं कि किसको कौन सी बीमारी हो सकती है और उसके क्या लक्षण हो सकते हैं। जीनोम मैपिंग से बीमारी होने का इंतजार किए बगैर व्यक्ति जीनोम को देखते हुए उसका इलाज पहले से शुरू किया जा सकेगा । इसके माध्यम से पहले से ही पता लगाया जा सकेगा कि भविष्य में कौन -सी बीमारी हो सकती है। वह बीमारी न होने पाए तथा इसके नुकसान से कैसे बचा जाए इसकी तैयारी आज से ही शुरू  की जा सकती है। सिस्टिक फाइब्रोसिस, थैलेसीमिया जैसी लगभग दस हजार बीमारियां हैं जिनके लिए एकल जीन में खराबी को जिम्मेदार माना जाता है। जीनोम उपचार के जरिए दोषपूर्ण जीन को निकाल कर स्वस्थ जीन जोड़ना संभव हो सकेगा ।
    अब समय आ गया है कि भारत अपनी खुद की जीनोमिक्स क्रांति की शुरुआत करे। तकनीकी समझ और इसे सफलतापूर्वक लॉन्च करने की क्षमता हमारे देश के वैज्ञानिकों तथा औषधि उद्योग में मौजूद है। इसके लिए राï­ीय स्तर पर एक दृïि तथा कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है।
प्रकाश प्रदूषण से मुश्किb मेंकीटों की प्रजाति
    रात के समय कृत्रिम प्रकाश से होने वाbा प्रकाश प्रदूषण कीटोंको विनाश की ओर धकेb रहा है । प्रकाश प्रदूषण पर 200 से ज्यादा अध्ययनों की समीक्षा के बाद वैज्ञानिकों का दावा है कि एक दशक में हम बग के 40 प्रतिशत प्रजातियों को खो देगे । 
     रात के समय कृत्रिम प्रकाश से जब हम अपने जीवन में प्रकाश फैbाते है, उसी समय कई कीट प्रजातियों को खोते भी जाते है ।        
    हमारा यह कृत्रिम प्रकाश कई तरीकों से कीटों के जीवन को प्रभावित करता है । यह उन्हें हमसे कहीं दूर जाने के bिए विवश करता है तो कई बार उनके जीवनचक्र को ही बदb देता है । इस घटते कीट संख्या से वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र के बिगड़ने की भी आशंका जताई जा रही है । जैसे कि पिछbे 50 वर्षो में उत्तरी अमेरिकी पक्षियों की संख्या में 30 करोड़ की कमी आई है ।
पुण्य स्मरण
जब्बार भाई : एक योद्धा की विदाई
बादल सरोज

    दुनिया की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी को समाज और सरकार के दिमाग में करीब 35 साल तक जिन्दा रख पाने में कामयाब रहे अब्दुल जब्बार, जिन्हें सब प्यार से जब्बार भाई कहकर पुकारते थे, पिछले दिनोंहम सबसे सदा के लिए विदा हो गए ।
    सारे ज्ञान और जानकारी के बावजूद इल्bत ये है कि शुतुरमुर्गी-सिन्ड­ोम इतना हावी रहता है कि आप जिन्हें प्यार करते हैं उनके बिना दुनिया की कल्पना तक नहीं करते । वे नहीं रहेंगे तब भी रहना होगा-इस स्थिति के बारे में कभी सोचते तक नहीं और जब ऐसी नौबत आती है तो सन्न रह जाते हैं, इतने कि रो तक नहीं पाते।    

    अनगिनत साथी और कामरेड्स कमाए हैं, जीवन में, ऐसे कि जिन पर आंख मूंदकर एतबार और भरोसा किया जा सकता है। मगर दोस्त इने-गिने हैं, भोपाल में तो और भी कम ये जब्बार भाई उनमें से एक हैं।
    दोस्त यानि जिनसे बिना कहे-सुने ही संवाद हो जाये, दोस्त याने जिनकी याद से ही मन प्रफुल्bित हो जाये, दोस्त मतलब जिनके साथ बैठने भर से हजार हॉर्स पावर की हिम्मत आ जाये, दिलोदिमाग ताजगी से भर जाये, दोस्त मतलब यह तय न कर पायें कि लाड़ ज्यादा है या आदर, दोस्त मतलब आल्टर ईगो । जब्बार हमारे दोस्त और हम जैसों के आल्टर ईगो हैं।   
    मगर जब्बार भाई स्ट­गल-मेड आइकॉन हैं। गली के एक मकान से दुनिया के आसमान तक पहुंचे खुद्दार इंसान हैं। पिछली आधी सदी के भोपाल के जन-संघर्षो के प्रतीक, सिर्फ यूनियन कार्बाइड ही नहीं, हर किस्म की जहरीली हवाओं के विरूद्ध लड़ाई के सबसे सजग और सन्नद्ध योद्धा-एकअजीमुश्शान भोपाली ।
    उनसे पहली मुलाकात दिवंगत कामरेड शैलेन्द्र शैली के साथ 1992 के दिसम्बर में साम्प्रदायिक दंगों के दौरान भोपाल में हुई थी जब दिग्विजय सिंह, शैली, रामप्रकाश त्रिपाठी, हरदेनिया जी आदि की एक छोटी-सी टीम जलते-सुलगते भोपाल की आग बुझाने में लगी थी। जब्बार भाई उसके सबसे सक्रिय और जनाधार वाले हिस्से थे।
    आखिरी बार उनका मेसेज पिछbे दिनों आया था, जब उन्होंने सहयोग के लिए आभार व्यक्त करते हुए मिलने के लिये बुलाया था। अपने ठीक होने की आश्चस्ति जताई थी । हम पेंडिंग काम निबटाने और अखबार निकालने में ऐसे मशगूल और मशरूफ हुए कि चिरायु अस्पताल जाना आज के लिए टाल दिया।
    पिछली साल भोपाल के जेल फर्जी एनकाउंटर के खिलाफ आंदोलन की एक मीटिंग उनके  दफ्तर में हुई थी। मीटिंग के बाद जब लौट रहे थे तब उन्होंने जिद करके  वापस बुलाया और कहा चाय पी जाइये, एक बात बतानी है। थोड़ी देर में उनकी शरीके-हयात चाय लेकर आईं । उनसे परिचय कराते हुए वे बोले ‘’ये मेरी बेगम हैं। कामरेड सुल्तान अहमद की बेटी - फिर शरारती मुस्कान के  साथ जोड़ा य इस तरह मैं सीपीएम का दामाद हूँ। हमने तुरन्त अपनी नई कलम निकाली उन्हें भेंट की और कहा: वलीमे की दावत के लिए बाद में बुलाएंगे । जब्बार भाई, आपकी दावत उधार है -अब हमेशा उधार रहेगी ।
    अकेले एक शख्स का जाना भी संघर्षों की शानदार विरासत वाले शहर भोपाल को बेपनाह और दरिद्र बना सकता है। एक आवाज का खामोश होना भी कितना भयावह सन्नाटा पैदा कर सकता है -कल शाम से महसूस हो रहा है।
    मगर उनका, अपनों के बिना जाना अखर गया । जब्बार भाई, पिछली आधी सदी के सबसे कंसिस्टेंट, संघर्षशील, अजीमुश्शान भोपाली थे - मगर उनका सबसे बड़ा योगदान गैस कांड की लड़ाई और कामयाबियां नहीं हैं। उनका ऐतिहासिक योगदान भोपाल की महिलाओं को उस लड़ाई में सड़कों पर उतारना और उनमें से सैकड़ों - जी, सैकडों - में आत्मविश्वास और नेतृत्व की क्षमता विकसित करना   था ।
    हिन्दू, मुसलमान, दलित, सवर्ण सभी समुदायों की भोपाली महिलाओं की जितनी तादाद, पांच से 10 हजार तक के जितने भी बड़े हुजूम हमने देखे हैं, वे जब्बार साब की रहनुमाई में देखे हैं। उनके तो संगठन का नाम ही भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन था।   
    कल उनका घर तलाशने में एक-के-बाद- एक, तीन महिलाओं से पूछा, तीनों ने कहा ये ‘‘भाई का   घर ?  भाई को तो अभी-अभी ले गए ।
    इस सबके बाद कल की  सबसे बड़ी त्रासद विडम्बना यह थी कि भाई अकेbे थे - उनकी लड़ाईयों की मुख्य ताकत जो महिलाएं थीं, वे ही उनकी अंतिम यात्रा से दूर थीं दूर रखी गई थीं ।
    कुछ महिला एक्टिविस्ट्स कब्रिस्तान पहुंच गईं थीं। घंटे भर तक, खुद को खुदाई खिदमतगार मानने वाले डेढ़ दर्जन से ज्यादा बन्दे, उन्हें कभी एक गेट पर तो कभी दूसरे गेट पर बाहर जाने की सलाह देने पधारते रहे। जब वे उसकी वजह पूछतीं तो बिना कोई लॉजिक दिए ये सलाहदाता आगे बढ़ लेते थे। इनमें से एक साथी ने पूछा भी कि यहां औरतें भी तो दफ्न होती होंगी, फिर ..... बहरहाल वे डटी रहीं। कम थीं, मगर थीं।
    गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन का अजीम नेता आखिर में उन्हीं की मुट्ठी भर मिट्टी पाये बिना सुपुर्दे-खाक हो गया, जो उसे सबसे भरोसेमंद भाई मानती थीं। जो उसकी फौज और ढाल दोनों थीं। अगर ऐसी कोई रवायत है तो उसे आज ही बदल दिया जाना चाहिए ।
    अलविदा जब्बार साब यू लॉन्ग लिव अब्दुल जब्बार, द वन एंड ओनली । सिर्फ भोपाल ही नहीं, समूची इंसानियत मिस करेगी आपको।                           
विज्ञान हमारे आसपास
भ्रम और विज्ञान के बीच झूलते पेड़
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

     पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का एक बयान काफी चर्चा में रहा । एक समारोह को संबोधित करते हुए इमरान खान ने कहा कि देश में 10 सालों में हरित आवरण कम हुआ है, इसके नतीजे तो आने थे क्योंकि पेड़ हवा को साफ करते हैं, रात को आक्सीजन देते हैं और कार्बन डाइआक्साइड लेते हैं।   
    मानव जाति के पूर्वज अपना अधिकांश समय पेड़ों पर बिताते थे । वैज्ञानिक तथ्य इस बात का संकेत करते हैं कि जब तक इंसान दो पैरों पर चलने में पूरी तरह सक्षम नहीं हो गया उस समय तक उसका ज्यादा समय पेड़ों पर ही बितता था । जमीनी पेड़ों का जन्म 50 से 65 करोड़ साल पहले का बताया जाता है । 

     वैज्ञानिकों के अनुसार मानव सभ्यता की शुरुआत के समय धरती पर जितने पेड़ थे वर्तमान में उनमे 46 प्रतिशत की कमी आ गई है । दुनिया में 5 करोड़ पेड़ प्रति वर्ष लगाए जाते हैं जबकि करीब 10 करोड़ पेड विभिन्न कारणों से काटे जाते हैं ।  इन दिनो पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं इसके लिए विश्व भर के 38 शोधकर्ताओं के दल ने विस्तृत अध्ययन कर बताया कि दुनिया में 30 खरब पेड़ मौजूद हैं । इस हिसाब से प्रति व्यक्ति के हिस्से में 422 पेड़ आते हैं, दुनिया में प्रति व्यक्ति 422 पेड़ का आंकड़ा संतोषजनक कहा जा सकता है लेकिन वास्तविक स्थिति देखें तो वर्ष 2015 की रिपोर्ट में 151 देशो मे प्रति व्यक्ति पेड़ों की उपलब्धि की सूची में चीन 130 पेड़ों के साथ 94वें स्थान पर, श्रीलंका 118 पेड़ों के साथ 97वें स्थान पर बांग्लादेश से 6 पेड़ों के साथ 137वें स्थान पर और पाकिस्तान 5 पेड़ों के साथ 138वें स्थान पर है ।
    वैज्ञानिकों ने शताब्दियों पहले ही पता लगा लिया था कि मनुष्य समेत सभी प्राणी श्वसन करते हैंउससे प्राá ऊर्जा का अपने कामकाज के लिए उपयोग करते हैं । प्राणियों के समान ही पेड़ पौधे भी श्वसन क्रिया करते हैं, इसमें कार्बन डाइआक्साइड का उपयोग होता है और आक्सीजन का निर्माण होता   हैं ।  यह आंशिक सत्य हैं । मनुष्य जो हवा सांस के लिए अंदर लेते है और जो हवा वापिस बाहर छोड़ते हैं उसकी बनावट में ज्यादा अंतर नहीं होता हैं । श्वसन क्रिया मे कुछ कुछ प्रतिशत ही आक्सीजन का उपयोग होता है ।
     जिस वायुमंडल में मनुष्य श्वास लेता है उसमें 78.8 प्रतिशत नाईट­ोजन 20.95 प्रतिशत आक्सी-जन 0.93 प्रतिशत आर्गन, 0.038 प्रतिशत कार्बनडाइ आक्साइड एवं थोड़ी मात्रा में वाष्प होती है  । अब यदि श्वास में छोडी जाने वाली हवा की बनावट देखें तो उसमें 78.8 प्रतिशत नाइट­ोजन, करीब 16 प्रतिशत  आक्सीजन और 0.038 प्रतिशत कार्बन डाइ आक्साईड होती हैं । यानी कुछ प्रतिशत में आक्सीजन का उपयोग हो रहा है । यदि मनुष्य द्वारा आक्सीजन लेकर कार्बन डाइआक्साइड छोड़न की बात सत्य होती तो फिर एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को कृत्रिम सांस कैसे दी इस दी जा सकती है ?
      अब पेड़ पौधों की बात करें तो पेड़ पौधों में श्वसन के लिए कोई विशेष अंग नहीं होते हैं ।  पेड़ों मे श्वसन क्रिया पत्तियों में उपस्थित छिद्रों (स्टोमेटा) द्वारा होती है । इस क्रिया में पोधे आक्सीजन का उपयोग करते हुए कार्बन डाइआक्साइड का निर्माण करते हैं । पेड़ पौधे हवा की मदद से एक और क्रिया करते हैं जिसे प्रकाश संश्लेषण कहा जाता है । इसमे कार्बन डाइआक्साइड और पानी की मदद से प्रकाश की उपस्थिति में शर्करा और आक्सीजन का निर्माण करते हैं ।
    इसमें खास बात यह है कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पेड़ पौधों के सिर्फ उन भागों में होती है जहां क्लोरोफिल की उपस्थिति रहती है ।  प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पौधों में सिर्फ पत्तियों तक सीमित है और रात में संभव नहीं है । जबकि श्वसन क्रिया दिन रात चलती रहती हैं । दिन के समय श्वसन में पैदा हुई कार्बन डाइआक्साइड का उपयोग प्रकाश संश्लेषण मे हो जाता है और पौधों से केवb आक्सीजन ही निकलती है । इसके बाद जब रात होती है तो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया तो बंद हो गई लेकिन श्वसन चलता रहता है यानि पोधों मे श्वसन के कारण आक्सीजन खर्च हो रही है एवं कार्बन डाइआक्साइड बन रही है । शायद कुछ लोग इसी बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि रात मे पेड के नीचे सोना खतरनाक तो नहीं हैं ?  
    इसके लिए हमे पेड़ पोधो एवं मनुष्य की ऊर्जा की आवश्यकताओं एवं श्वसन के अंतर को समझना पड़ेगा । प्राणियों एवं पेड़ पोधों की गतिविधियों मे बहुत अंतर है । पेड़ पोधे चलते फिरते नहीं हैं इस कारण उनकी ऊर्जा की आवश्यकता प्राणियों की अपेक्षा बहुत कम है । इसलिए उनकी श्वसन दर भी बहुत कम होती है । कार्बन डाइआक्साइड की उत्सर्जन दर देखें तो एक मनुष्य दिन भर में करीब 500 ग्राम कार्बन आक्साइड उत्सर्जित करता है, रात में यह मात्रा काफी कम होती है  ।  रात को मनुष्य सोते हैं इसलिए श्वसन दर कम रहती है । अनुमान है कि एक व्यक्ति द्वारा रात भर में 100 से 150 ग्राम कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन होता हैं । इसके विपरीत पेड़ पौधों का रात में कार्बन डाइ आक्साइड का उत्सर्जन देखें तो यह मात्रा काफी कम होती हैं । पेड़ों की श्वसन दर निकालना मुश्किल काम है,
    अनुमान है कि 10 टन वजनी एक सामान्य आकार का पेड़ रात भर में करीब 10 ग्राम कार्बन डाइ आक्साइड उत्सर्जित करता  होगा  ।  यह मात्रा इतनी कम है कि इससे किसी को भी संकट नहीं हो सकता  हैं । अगर रात में पेड़ के नीचे सोना हैं और एक कमरे में 8-10 लोगों के साथ सोना है तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आक्सीजन की उपलब्धता कहां पर कम हो सकती है ।
    पेड़ के नीचे सोने मे यदि रात में आक्सीजन का संकट होता तो अनेक पक्षी और अन्य लघुप्राणी तो रात मे पेड़ पर ही रहते हैं, वह कैसे जीवित रह सकते है ? bेकिन कुछ अन्य कारणों से पेड़ के नीचे सोने से खतरे हो सकते हैंजिनमें पेड़ की शाखा का टूट कर गिर जाना, पक्षियों द्वारा गंदगी करना या रात्रि में पक्षी का पेड़ से नीचे गिर जाना जैसे कारण हो सकते हैं लेकिन पेड़ के नीचे सोने पर  कार्बन डाइआक्साइड से संकट पैदा होना कोरा भ्रम है, वैज्ञानिक आधार पर इसको सत्य नहीं कहा जा सकता  हैं ।
जल जगत
जलधिकार: हकदारी और जिम्मेदारी
अरूण तिवारी

    मध्यप्रदेश में इन दिनों जलाधिकार अधिनियम की भारी धूम मची है और कहा जा रहा है कि विधानसभा के  शीतकाbीन सत्र में कमलनाथ सरकार इसे पारित भी करवा लेगी।
    चर्चा है कि मध्यप्रदेश, इन दिनों जलाधिकार अधिनियम बनाने में अव्वल आने की तैयारी में लगा है। राज्य सरकार ने हालांकि अधिनियम के प्रारूप को जन-सहमति के लिए अब तक सार्वजनिक भी नहीं किया है, लेकिन इसे विधानसभा के  शीतकालीन-सत्र में पेश करने की खबरें आनी शुरु हो गई हैं। ऐसे में जरूरी है कि जलाधिकार अधिनियम पर चर्चा कर ली जाए । अव्वल तो बादल, नदी, समुद्र, भूगर्भीय जल-वाहिनियां और हवा-मिट्टी की नमी पृथ्वी पर जल के सबसे बड़े भण्डार हैं। 
     यदि जलाधिकार अधिनियम बनाना हो, तो सबसे पहले इन प्राकृतिक भंडारों से छीने जा रहे स्वच्छ व पर्याप्त जल को वापस लौटाने का अधिनियम बनाना चाहिए। प्रकृति के इन विशाल जल-भण्डारों का जलाधिकार सुनिश्चित होते ही अन्य सभी का जलाधिकार स्वतः सुनिश्चित हो जाएगा । चूंकि प्राकृतिक जल-भण्डारों का जलाधिकार सुनिश्चित करने में मानव समेत सभी कृत्रिम जल भण्डारों का योगदान जरूरी है और योगदान सुनिश्चित करने के  लिए इन सभी का जीवित रहना भी जरूरी है।
    इस नाते कृत्रिम जलभण्डारों के जलाधिकार को प्राथमिकता सूची में दूसरे नंबर पर रखा जाना चाहिए । कम पानी व प्रदूषित पानी के कारण लुप्तप्राय श्रेणी में आ चुकी विभिन्न नस्लों के लिए जरूरी जलाधिकार सुनिश्चित करना, अधिनियम की प्राथमिकता नंबर तीन होना चाहिए। मानव समेत शेष सभी नस्लों का जलाधिकार, चौथी प्राथमिकता बनना चाहिए ।
    मध्यप्रदेश के तीन-चार हजार गांव और शहर मार्च-अप्रैल आते-आते सूखा-सूखा चिल्bाने लगते हैं। राज्य के 22 जिलों का भूजल स्तर 63.25 फीसदी नीचे गिर गया है। नर्मदा, शिप्रा, तापी, तवा, चम्बल, कालीसिंध जैसी नदियां बदहाल हैं। देश के कमोबेश हर राज्य के प्रमुख नगर आसपास के इलाकों के हिस्से का पानी खींचकर अपनी जरूरतों का इंतजाम करने वाले परजीवी बन गए हैं। ऐसे में जब जल-स्वावलम्बन ही नहीं, तो जलाधिकार का दावा कितना कारगर होगा ? यदि नल से पानी पिला रही नगरीय जलापूर्ति ही मानकों पर खरी नहीं उतर पा रही तो हर गांव-हर परिवार को नल कनेक्शन दे भी दिया, तो स्वच्छ जलापूर्ति की गारण्टी कैसे दे सकेंगे ?
    मध्यप्रदेश पिछले 15 वर्षों में अपनी जलप्रदाय परियोजनाओं पर 35 हजार करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। जवाहरलाल नेहरु राï­ीय शहरी नवीनीकरण मिशन, मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना,छोटे-मझोले नगरों की अधोसंरचना विकास योजना आदि के जरिए मध्यप्रदेश के धार, शहडोल, अमरकंटक, पिपरिया, इटारसी, शिवपुरी, होशंगाबाद समेत सभी नगरों में पेयजल परियोजनाओं का विस्तार किया गया है।
    ग्रामीण समूह जलप्रदाय योजना पर भी काम हुआ है। क्या ये योजना- परियोजनाएं घरेलू उपयोग लायक जल का अधिकार दे पाई ? राज्य के गांवों की 15787 नल-जल परियोजनाओं मेंसे 1450 पूरी तरह ठप्प हैं। 600 पर भूजल स्तर में गिरावट के कारण ताला लगाना पड़ा है। छोटे-बड़े 378 नगरों में से 120 में दिन में एक बार, 100 में एक दिन छोड़कर और 25 में दो-दो दिन छोड़कर जलापूर्ति हो पा रही है। वितरण में असमानता यह है कि भोपाल-इंदौर जैसे बड़े नगरों में प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन 180 लीटर जलापूर्ति हो रही है, तो दूसरी तरफ योजना (डीपीआर) बनाने वाली कंपनी के दिशा-निर्देश ही इटारसी के नल कनेक्शनधारी परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 70 लीटर तथा सार्वजनिक नलों से पानी लेने वाले परिवारों को 40 लीटर प्रति व्यºि , प्रतिदिन पानी मुहैया कराने के हैं।
    सरकारों ने जल-स्त्रोतों पर अपना हक जमाने और पानी का प्रबंधन खुद करने की सामुदायिक परम्परा को हतोत्साहित करने में मुख्य भूमिका निभाई है, किन्तु इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पानी प्रबंधन को लेकर बढ़ती हमारी परावलम्बी प्रवृति, जल संसाधनों पर सरकार और बाजार का कब्जा तथा जल के कुप्रबंधन को बढ़ाने वाली साबित हुई है।
    यही कारण है कि मध्यपद्रेश पंचायती-राज एवंग्राम-स्वराज अधिनियम-1993 के अनुसार गांवों में पेयजल प्रबंधन का दायित्व व अधिकार पंचायतों का होने के बावजूद, गांव बेपानी हुए हैं। ऐसे में यह जांचना जरूरी होगा कि मध्यप्रदेश जलाधिकार अधिनियम सभी समुदायों, पंचायतों, नगर-निगमों नगर पालिकाओं, उद्योगों तथा पानी बेचकर मुनाफा कमाने वालों समेत सभी को जलाधिकार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी हेतु बाध्य करता है अथवा नहीं ?
    ताजा जानकारी के मुताबिक जल उपलब्धता सुनिश्चित करने संबंधी सभी योजना -परियोजनाओं से संबंधित समस्त विधायी व वित्तीय अधिकार राज्य जल प्रबंधन प्राधिकरण के पास रहेंगे। पहले जल-शुल्क तय करने का अधिकार पंचायतों का था, किंन्तु मध्यप्रदेश नल-जल प्रदाय योजना, संचालन एवं संधारण नियम-2014 ने पंचायतों से उनका यह अधिकार छीन लिया है। कंपनियों के सामाजिक दायित्व (सीएसआर) की मद से प्राप्त धनराशि का 50 प्रतिशत तथा मनरेगा का 70 प्रतिशत हिस्सा जलाधिकार सुनिश्चित करने में खर्च करने की जानकारी भी अखबारों में छपी हैं। क्या इन प्रावधानों में जन-समुदायों की जिम्मेदारी का कोई भाव मौजूद  है ? यदि जिम्मेदारी नहीं देंगे, तो हकदारी की गारण्टी जन-समुदायों के हाथ में रहेगी, ऐसी आशा करना तर्कहीन होगा ।
    यदि जल-उपलब्धता का आश्वासन सिर्फ नल से जल तक सीमित है, तो क्या अधिनियम सुनिश्चित करेगा कि यह जल किफायती दरों पर उपलब्ध होगा ? जो पानी का बिल नहीं चुका सकेंगे उनके कनेक्शन काटे तो नहीं   जायेंगे ? जलापूर्ति में सतही जल-स्त्रोतों के बढ़ते इस्तेमाल को देखते हुए आशंका व्यक्त की जा रही है कि जलापूर्ति करने वाली कंपनी जल-स्त्रोतों पर अधिकार की गारंटी चाहेंगी।
    ऐसे में गरीब-गुरबा, किसान सिंचाई जैसे अन्य उपयोगों के लिए उस स्त्रोत से पानी नहीं ले सकेगा। पानी लेने केलिए उसे कंपनी द्वारा तय दर पर भुगतान करने की बाध्यता होगी। पानी के निजीकरण का अध्ययन करने वाली संस्था मंथन अध्ययन केन्द्र, बड़वानी ने जलप्रदाय के गलत आधार, त्रुटिपूर्ण डीपीआर, टेण्डर प्रक्रिया में घालमेल, लागत में अतार्किक वृद्धि, सलाहकार नियुक्ति में पक्षपात, असफल जलापूर्ति जैसे जमीनी तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि जलापूर्ति का पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट-र्पाअनरशिप) मॉडल पूरी तरह असफल साबित हुआ है।
    राज्य सरकार को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जलाधिकार गारंटी के नाम पर यदि जल-स्त्रोत को किसी निजी कंपनी या संस्थान को एक बार लीज पर दे दिया गया, तो आगे चलकर स्थितियां स्वयं सरकार के हाथ से निकल जाएंगी। यूं भी वे कैसे भूल सकते हैं कि सरकार, प्राकृतिक संसाधनों की मालकिन नहीं, सिर्फ  ट­स्टी भर है। ट­स्टी का कार्य देखभाल करना होता है, वह संसाधनों को किसी अन्य को सौंप नहीं सकता। हां, यदि  ट­स्टी ठीक से देखभाल न करे, तो उसे ट­स्टीशिप से बेदखल जरूर किया जा सकता है।
    ट­स्टीशिप के अंतराï­ीय सिद्धांत का मूल यही है। आखिरकार, व्यास नदी की धारा पर अतिक्रमण करने के जिस मुकदमे (एम.सी. मेहता बनाम कमलनाथ) के फैसले में सुप्रीमकोर्ट ने इस सिद्धांत को समर्थन दिया था, वह स्वयं कमलनाथ जी से संबंधित कंपनी स्पेम मोटल  प्रा. लि. से संबंधित था।              
पर्यावरण समाचार
वाहन एक्ट राज्य जुर्माना नहीं घटा सकते

              राज्य सराकारों को मोटर वाहन एक्ट के तहत कंपाउंडेबb अपराधों में जुर्माना घटाने का मनमाना अधिकार नहीं मिb सकता है । ये अधिकार राज्य में मोटर वाहन अपराध से संबधित दुर्घटनाओं के आंकड़ों पर निर्भर हैं ।
    यदि किसी राज्य में खास तरह की सड़क दुर्घटनाएं bगातार बढ़ रही हैंं, तो उस पर जुर्माना कम नहीं किया जा सकता । राज्य केवb उन्हीं उल्ल्घंनों में जुर्माना कम कर सकते हैं, जिनमें हादसों का ग्राफ नीचे गिर रहा हो । यह राय विधि मंत्राbय ने मोटर वाहन एक्ट पर जुर्माना घटाने के राज्यों के अधिकार के बाबत सड़क परिवहन मंत्राbय को दी है । यह गुजरात समेत उन राज्यों के bिए बड़ा झटका हैं, जिन्होंने बढ़े जुर्माने bागू करने से इनकार कर दिया था ।
    राज्यों ने कंपाउंडेबb अपराधों में धारा 200के प्रावधानों के अनुसार कम जुर्माना वसूbने की घोषणा की थी । भारत सरकार के विधि मंत्राbय का मानना हैकि संशोधित एक्ट 2019 का मकसद सड़क दुर्घटनाओं में कमी bाना है ना कि जस का तस रखना या दुर्घटनाओं को बढ़ावा देना ।
    विधि मंत्राbय का कहना है किसी राज्य को कंपाउंडेबb अपराधों में भी जुर्माना घटाने का असीमित अधिकार नहीं मिb सकता । यह उस राज्य में दुर्घटनाओं के आंकड़ों से तय होगा । मोटर वाहन एक्ट की धारा 174 से bेकर 198 तक के अपराध कंपाउंडेबb श्रेणी में आते हैं, जिनमें कोर्ट में चाbान भेजे बगैर पुbिस मौके पर जुर्माना वसूb सकती है ।
    उदाहरण के bिए बिना हेbमेट दुपहिया चbाने पर पहbी बार 500 रूपए और दोबारा, तिबारा पकड़े जाने पर 5000 रूपए तक के जुर्माने व तीन माह की जेb तक का प्रावधान है । इसमें कोई राज्य तभी जुर्माना घटा सकता हैं, जब वहां बिना हेbमेट दुपहिया चाbकों की मौतें कम हो रही हों । यदि मौतें बढ़ रही है ते राज्य जुर्माना नहीं घटा सकता ।
    मोटर वाहन एक्ट पारित होने के बाद सड़क मंत्राbय फिbहाb इसकी 63 धाराओं को एक सितबंर से bागू करने की अधिसूचना जारी कर चूका है । ये वे धाराए हैं, जिनके bिए नियम बनाए जाने की आवश्यकता नहीं हैं ।

गुरुवार, 21 नवंबर 2019



प्रसंगवश
नौणी विश्वविद्यालय ने निकाला प्याज का विकल्प 

हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में नौणी स्थित डॉ. यशवन्त सिंह परमार औघोगिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय ने प्याज की एक किस्म विकसित की है जो खरीफ मौसम में उगाई जा सकेगी और किसानों के लिए भी यह बेहतर आमदनी का स्त्रोत बनेगा । 
समय-समय पर यह देखा गया है कि प्याज के दाम, आम जनता की पहुंच से दूर हो जाते हैं । खरीफ प्याज जैसी नई किस्म न केवल आम जनता को महंगाई के दंश से बचा सकती है । अपितु किसानों की आमदनी बढ़ाने का भी एक विकल्प हो सकता है, बशर्ते किसान इसकी खेती की तकनीक हासिल कर वैज्ञानिक विधि अपनाएं । खरीफ प्याज की फसल ऐसे समय में बाजार में दस्तक देती है है जब आम जनता प्याज के आसमान छूती कीमतों से परेशान होती है । 
विश्वविद्यालय के सब्जी वैज्ञानिक डॉ. दीपा शर्मा, खरीफ प्याज की लोकप्रियता एवं जागरूकता बढ़ाने के लिए केन्द्र के विज्ञान एवं प्रौघोगिकी विभाग द्वारा स्वीकृत २०.४३ लाख रूपए की एक परियोजना पर कार्य कर रही   है । 
यह योजना वर्तमान मेंचम्बा जिले के विभिन्न स्थानों पर  चलाई जा रही है जिसमें विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. राजीव रैना और डॉ. संजीव बन्याल सह प्रमुख अन्वेषक के रूप में कार्य कर रहे है । इस परियोजना के अन्तर्गत गत दो वर्षोमें चम्बा जिले के विभिन्न स्थानों पर २४५ प्रदर्शन एवं १४ प्रशिक्षण कार्यक्रम किए गए जिनसे लगभग ३६२ किसान लाभान्वित हुए । 
डॉ.शर्मा के अनुसार खरीफ प्याज की एक क्विंटल गठि्ठयां तैयार कर रख ली जाएं तो बाद में प्याज के रूप में छह गुणा अधिक उत्पादन देती है । बाजर में यही प्याज ५० रूपए किलोग्राम के हिसाब से आराम से बिक जाता है । किसान एक क्विंटल गठि्ठयों से लगभग छह क्विंटल प्याज प्राप्त् कर ३० हजार रूपए तक आय प्राप्त् कर सकता है । लिहाजा किसान न केवल अपने लिए प्याज उत्पादन कर सकता है बल्कि आम जनता के लिए भी बाहरी राज्योंकी आवक के बजाय क्षेत्रीय प्याज को सस्ते दामोंपर उपलब्ध करा सकता है । 
विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. परविंदर कौशल ने खरीफ प्याज पर किए इस कार्य को किसानों द्वारा व्यावसायिक स्तर पर अपनाने तथा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को इसे अधिकाधिक किसानों तक पहँुचाने का आग्रह किया है । 
सम्‍पादकीय
अब देश में बनेगी जीन कुण्डली 

अब देश में ही जीन कुंडली बनवा पाना संभव हो गया है । इससे पता चल सकेगा कि भविष्य में आपको या आपकी संतानों को १७०० से ज्यादा किस्म की आनुवांशिक बीमारियों में से कौन सी बीमारी हो सकती है । यह भी जान सकेगे कि एक ही बीमारी से पीड़ित दो अलग-अलग मरीजों में से किसके लिए कौन सी दवा ज्यादा असरदार होगी । जीन कु ण्डली बनाना दरअसल किसी व्यक्ति के जीनोम को सीक्वेंस कर लेना है । 
किसी व्यक्ति की आंख, त्वचा, बालों के रंग, नाक व कान के आकार, आवाज, लम्बाई जैसे सभी लक्षणों से लेकर बीमारियों का होना या न होना जीन से तय होता है । जीन हर प्राणी की कोशिका में होते हैं । शरीर की हरेक कोशिका में मौजूद ३.३ अरब जीन को सामूहिक रूप से जीनोम कहा जाता है । सभी जीन को क्रमबद्ध करना जीन कुण्डली कहलाता है । 
काउंसिल ऑफ साईटिफिक एंड इंडस्ट्रीयल रिसर्च (सीएसआईआर) की हैदराबाद और दिल्ली की लैब ने छह महीने के भीतर देशभर से एकत्र किए गए १००८ नमूनों की जीनोम सीक्वेसिंग पूरी कर ली है । सैंपल देने वाले सभी लोगों की सीएसआईआर की आईजीआईबी लैब ने इंडिजेन कार्ड भी जारी किया है । सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि लैब में समय सीमा के अंदर जीनोम सीक्वेंस करने में सफलता पाई है । 
अभी तक जीन सीक्वेंस तैयार करने में सालों लगते थे । इंडिजेन कार्ड में व्यक्ति विशेष के जीनोम का पूरा डेटा उपलब्ध है जिसे एक विशेष एप व क्लीनिकल एक्सपर्ट की मदद से इस्तेमाल किया जा सकता है । इससे पता चल सकता है कि आनुवांशिक रूप से होने वाली बीमारियों में से किस बीमारी का जीन आपके शरीर में मौजूद है । यदि ऐसे व्यक्ति की शादी इसी किस्म के जीन वाले व्यक्ति से होती है, तो संतान को वह रोग हो सकता है । इसीलिए विवाह तय करने या संतान की योजना बनाने में इंडिजेन कार्ड यानी जीन कुण्डली उपयोगी साबित हो सकती है । 
सामयिक 
नर्मदा-घाटी में बांध-जिद या जरूरत 
शमारूख धारा / राकेश चान्दौरे 

पिछले साल तत्कालीन मुख्यमंत्री की नर्मदा यात्रा को लेकर भोपाल में हुए नर्मदा-प्रेमियों के जमावडे में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण` के तत्कालीन उपाध्यक्ष न े बड़े बांधों से तौबा करते हुए कहा था कि मध्यप्रदेश में अब इस तरह की परियोजनाएं केवल नागरिकों के आग्रह पर ही हाथ में ली जाएगी । 
मध्यप्रदेश राज्य और नर्मदा नदी के लगभग बीच में प्रस्तावित मोरंड-गंजाल परियोजना पिछली सरकार के इसी वायदे की अनदेखी का एक नायाब नमूना है । राज्य की नर्मदा घाटी में बनी और बन रही २९ बडी बांध परियोजनाआें में से एक मा ेरंड-ग ंजाल म ें भी व े सब कारनामे दोहराए जा रह े हैं जिन्हें 'रानी अवंतीबाई सागर,` 'इंदिरासागर,` ओंकारेश्वर,` 'महेश्वर` और 'सरदार सरोवर` ने भोगा है। 
इस साल के मानसून में सबसे ज्यादा व लगातार कोई मीडिया और आम जन-मानस के बीच चर्चित रहा है, ता े वह है बड़े बांध और उनसे प्रभावित लोग । प्रदेश ही नहीं देश के कई हिस्सों में मानव निर्मित इन बड़े बांधों के कारण मची तबाही से जनता उबर भी नही ं पाई है कि मध्यप्रदेश से एक और बड़ बांध के निर्माण की खबर मिली है। नर्मदा घाटी के तीस बडे बांधों में से पहला बांध होशंगाबाद जिले में तवा नदी पर वर्ष १९७८ में बनकर तैयार हुआ था । उसके करीब ४० साल बाद नर्मदा घाटी में ही सिंचाई और पीने के पानी की आपूर्ति के लिए एक और बडा बांध मोरंड एवं गंजाल नदी पर बनाया जाना प्रस्तावित है । यह बांध 'नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण` (एनवीडीए) द्वारा बनाया जायेगा । मोरंड-गंजाल बांध से हरदा, होशंगाबाद आ ैर बैतूल जिले के २३ गाँवों की जमीन और जंगल सीधे प्रभावित होंगे । 
मोरंड-गंजाल संयुक्त सिंचाई परियोजना का प्रस्ताव दो वर्ष की वैधता के साथ अक्टूबर २०१२ में मिला था, परन्तु 'एनवीडीए` निर्धारित समयावधि में पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रियाआ ें को पूर्ण नहीं कर पाया और नतीजे में इस अवधि का े बढ़ाकर चार वर्ष किया गया । किसी भी परियोजना के लिए अनिवार्य पर्यावरणीय मंजूरी प्रभावितोंकी जन-सुनवाई और पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) की प्रक्रिया की रिपोर्ट केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, को भेजने के बाद मिलती है, लेकिन एनवीडीए ने यह खानापूर्ति महज दो हफ्तों में ही पूरी कर दी । तीन से १८ नवम्बर २०१५ के बीच मात्र १५ दिनों में तीनों प्रभावितों जिलों हरदा, होशंगाबाद और बेतूल के प्रभावितों के तीखे विरोध के बावजूद जन-सुनवाई का तमाशा निपटा दिया गया और जुलाई १६ मेंपरियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी के लिए प्रस्तुत कर दिया गया । 
इस परियोजना का दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि इससे प्रभावित होने वाले तीनों जिलों का २३७१.१४ हेक्टेयर घना जंगल डुबोया जा रहा है । कानून के अनुसार इतने बड़े पैमाने पर वनभूमि को डुबोेने के लिए शुरुआत में ही मंजूरी लेना अनिवार्य हैै, लेकिन 'सूचना का अधिकार कानून-२००५` के तहत मिली जानकारी से पता चला कि इस मंजूरी के लिए जरूरी क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए सितम्बर २०१९ तक आवश्यक भूमि आरक्षित नही ं हो पाई थी । 
तीसरा मसला है 'पेसा कानून,` जिसक े तहत बिना ग्रामसभा की अनुमति लिए आदिवासी क्ष ेत्र में कोई परियोजना लागू नहीं की जा सकती । परियोजना प्रभावित परिवारों में ९४ प्रतिशत लोग जनजातीय समुदाय, विशेषतरू कोरकू और गौंड जनजाति के हैं, शेष ६ प्रतिशत दलित एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के । इन स्थानीय आदिवासी समुदायों द्वारा ग्रामसभाओं के माध्यम से लगातार मोरंड- गंजाल सिंचाई परियोजना का विरोध किया जा रहा है और कई बार अपनी-अपनी ग्रामसभाओं में वे इस बाबत प्रस्ताव भी पारित कर चुक े  हैं, लेकिन उनकी एक नहीं सुनी जा रही । ग्रामसभाओं के ठहराव-प्रस्ताव प्रदेश के हुक्मरानों को भी भेजे गए, परन्तु इन सभी तथ्यों को  दरकिनार करते हुए इस बांध परियोजना को प्रशासनिक स्वीकृति दे दी गई । यह लोकतंत्र की बुनियाद मानी जाने वाली ग्रामसभाआेंके अस्तित्व को नकार कर 'मध्यप्रदेश पंचायत एवं ग्राम स्वराज अधिनियम-१९९३` का भी स्पष्ट उल्लंघन था । 
इस परियोजना से जुडा चौथा मुद्दा है, 'अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-२००६` के तहत परियोजना प्रभावित गांवों में वन संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों का अभी तक निराकरण नहीं किया जाना । 'केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय` ने भी मार्च २०१७ में ही स्पष्ट कह दिया था कि इस परियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी तभी मिलेगी जब 'एनवीडीए` कोे पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्त होगी । इन सभी तथ्यों के आधार पर 'एनवीडीए` द्वारा बांध के निर्माण के लिए टेन्डर जारी करना कानून का उल्लंघन है । इससे हम समझ सकते हैं कि हमारे योजनाकारों को विकास के लिए बड़े बांध ही एकमात्र तरीका नजर आता है । 
परियोजना के आर्थिक पक्ष को देखें तो जब वर्ष २०१२ में इस परियोजना को बनाने का विचार शुरू हुआ था, तब सरकार ने उसका अनुमानित खर्च करीब १४३४ करोड़ रूपये बताया था, लेकिन करीब सात साल बाद इसी परियोजना का खर्च बढ़कर २८१३ करोड़ रूपये हो गया है । जब यह परियोजना शुरू होगी तो निश्चित ही इससे कई गुना ज्यादा खर्च होगा और लागत में यह बढ़ोत्तरी परियोजना के आगे बढ़ने के साथ-साथ लगातर बढ़ती रहेगी । मध्यप्रदेश जैसे राज्य के लिए यह विचारणीय सवाल है कि क्या करोड़ों खर्च कर लोगों को उजाड़ने के साथ ही पर्यावरणीय मुद्दों को नजर-अंदाज करना ठीक होगा ? 
हमारे पास यदि इतने संसाधन हैं तो बांध बनाने के बजाए व्यापक जन-संवाद कर जनता के विचारोंऔर जरूरतों के अनुसार पहले हमें पानी के उपयोग, संरक्षण, संवर्धन आदि के संबंध में नीति बनाना चाहिये । क्या सिंचाई तथा पीने के पानी की व्यवस्था स्थानीय स्तर पर छोटे तालाब, छोटी जल-संरचनायें और पानी बचाने के प्रयासों से नहीं की जा सकती ?
सरदार सरोवर का ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है जहाँ इसी साल मध्यप्रदेश के धार, अलीराजपुर, बड़वानी जिलों के १७८ गाँव बांध जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं । दूसरी ओर, मध्यप्रदेश के ही गांधीसागर बांध में पूर्ण जलाशय स्तर से ऊपर पानी भरने से डूब क्षेत्र का रामपुरा गाँव ही प्रभावित हो गया है । इन संकटों से सीख लेने की बजाए अपने अनुभवों को अनदेखा करके हम एक और बड़े बांध का सपना देख रहे हैं, जो निश्चित ही प्रदेश के हित मेंनहीं होगा ।