मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

आवरण



१ भोपाल गैस कांड

एक अंतहीन त्रासदी के २५ बरस
अब्दुल जब्बार
२-३ दिसम्बर १९८४ की मध्य रात्रि को घटी भोपाल गैस त्रासदी को २५ वर्ष हो गए हैं । परंतु न तो भारत सरकार ने और न ही मध्यप्रदेश सरकार ने इस दारूण त्रासदी से कोई सबक लिया है । बल्कि लापरवाहीपूर्ण नीतियों को बढ़ावा देने से देश के अनेक इलाकों में भोपाल जैसी स्थितियां निर्मित होने की नौबत आ गई हैं । वास्तविकता तो यह है कि देशभर के करोड़ो नागरिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं स्थानीय औद्योगिक इकाईयों की वजह से कार्यस्थलों एवं वातावरण में घुलने वाले जहरीले पदार्थोंा की चपेट में आते जा रहे हैं । यह कहने में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं हैं कि ये कंपनियां बिना सोचे-विचारे यह कार्य इसलिए कर पा रही हैं क्योंकि भोपाल गैस त्रासदी के अपराधियों पर विगत २५ वर्षोंा से न तो कोई कार्यवाही हुई और न ही निकट भविष्य में इसके होने की संभावना है । इससे विशेषत: बहुतराष्ट्रीय कंपनियों ने तो यह निष्कर्ष ही निकाल लिया है कि वे बिना किस डर के इस देश के स्वास्थ्य और पर्यावरण को तबाह कर सकती हैं और उनकी इस धृष्टतापूर्ण कार्यवाही के लिए उन्हें दोषी भी नहीं ठहराया जा सकताहैं । २५ वर्ष पहले हुई इस दुखद घटना की याद रोंगटे खड़े कर देती हैं । एक अध्ययन के अनुसार दुर्घटना के पहले ही हफ्ते में ८ हजार से अधिक इंसान मौत की नींद सो गए थे । बाद में इनकी संख्या बढ़कर २० हजार से भी अधिक हो गई । भारतीय स्वास्थ्य शोध संस्थान (आईसीएमआर) के अनुसार कम से कम ५ लाख २० हजार गैस प्रभावित लोगों के शरीर में इस दौरान जहरीला खून बह रहा था । (वर्तमान आंकड़ों के अनुसार ५७४३६७ लोग प्रभावित हैं) जिसने उनके शरीर के लगभग प्रत्येक तंत्र को हानि पहुंचाई । इसके परिणामस्वरूप मोतियाबिंद, भूख न लगना, अनियमित मासिक धर्म, बार-बार बुुखार आना, थकान, कमजोरी व व्यग्रता एवं तनाव के मामलों में वृद्धि आई हैं । परंतु यूनियन कार्बाइड भोपाल कारखाने से रिसी गैसों के मिश्रण व शरीर पर पड़ने वाले उनके प्रभावों की जानकारी लगातार गुप्त् बनाए रखे हैं । वह इसे अपना ट्रेड सीक्रेट मानती है । जानकारी के अभाव में भोपाल के चिकित्सक आज इस गैस संबंधी बीमारियों के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं । इसका सबसे अच्छा इलाज भी थोड़ी देर की राहत के अलावा कुछ नहीं देता । स्टेयोराइड, एंटीबायोटिक व साइकेट्रिक दवाआें का इस्तेमाल गैसजनित बीमारियों को और भी बढ़ा रहा हैं । गैस पीड़ितों में फेंफड़े की टी.बी. राष्ट्रीय औसत से तीन गुना अधिक, श्वास संबंधी समस्याएं और जानलेवा कैंसर भी औसत से कहीं अधिक है । इसकी वजह जानने के लिए एक बार पुन: २५ वर्ष पीछे लौटते हैं । रिसाव के समय जानबूझकर कारखाने का सायरन बंद रखा गया परिणामस्वरूप लोगों को हादसे के बारे में तभी पता लगा जब जहरीली गैसों ने उन्हें घेर लिया । लोग खांसते-हांफते उठे । उन्हें लगा जैसे उनकी आंखे गोया आग पर रखीें हो । लोग बच्चें को उठाए किसी भी दिशा में शहर से बाहर भागे । इस सैलाब में कई बच्च्े बिछुड़ भी गए । गैस के कारण लोगों के फेंफड़े जलने लगे । इससे उनके अंदर इतना पानी भरा कि फेंफड़े पानी से भर गए और लोग अपने ही शरीरिक द्रव्यों में डूबकर मर गए । ३ दिसम्बर १९८४ को जब यूनियन कार्बाइड के चिकित्सा अधिकारी को बुलाया गया तो उसने बताया कि यह गैस तो आंसू गैस के समान है आपको तो बस आंखों को पानी से धोना है । मिथाईल आइसों साइनाईट (मिक) नामक यह ६० टन गैस टैंक क्रमांक ई-६१० में भरी थी । जंग लगे पाईपों के माध्यम से बहुत सा पानी इस टैंक में घुसा । इस वजह से भारी मात्रा में गर्मी व दबाव उत्पन्न हुआ और मिथाइल आइसो साइनाईट हाइड्रो साइनाइड, मोनो मिथाइल, कार्बन मोनोआक्साइड व २० अन्य रसायनों का यह ४० टन जहरीला मिश्रण घने बादलों की शक्ल में शहर पर छा गया जिसके परिणामस्वरूप भोपाल के अस्पतालों के मुर्दाघर लाशोंसे पट गये । कब्रिस्तान और श्मशान लाशों के अंबार से निपटने मेंअसमर्थ थे और अगले तीन दिन और तीन रात तक शहर के विभिन्न हिस्सों में अनवरत रूप से अंतिम संस्कार होते रहे थे । मगर भोपाल त्रासदी के २५ वर्ष बाद भी अपराधियों को उनके अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सका है। गैस प्रभावितों को न्यायपूर्ण मुआवजा नहीं मिला है । आज भी ६००० गैस पीड़ित प्रतिदिन गैस त्रासदी से उत्पन्न बीमारियों का इलाज कराते हैा । इतना ही नहीं व्यवस्थित उपचार न मिल पाने से गैस पीड़ित अब भी लगातार असमय मृत्यु का शिकार हो रहे हैं । आर्थिक पुनर्वास का सरकारी कार्यक्रम कमोबेश थम गया है । हजारों गैस पीड़ितों की विधवाआें, अनाथ व अन्य विकलांगों के लिए पेंशन का प्रावधान तक नहीं किया गया है । पर्यावरणीय पुनर्वास कार्यक्रम के अंतर्गत सरकार पीने का स्वच्छ पानी व शौचालय जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध करवा पाने में असमर्थ रही है । बड़ी मात्रा में जहरीला पदार्थ अभी भी कारखाने में पड़ा है जो कि जमीन के अंदर पहुंचकर ५ वर्ग कि.मी. के इलाके के भूगर्भीय जल एवं भूमि को प्रदूषित कर रहा है । इस सबके बीच गैस पीड़ितों के स्मारक की बात तो कागजोंपर ही सीमित हैं । इतना ही नहीं भारत सरकार और युनियन कार्बाइड के बीच १९८९ में भोपाल निपटारा (समझौता भी कह सकते हैं ) हुआ । यह निपटारा इस कल्पना पर आधारित था कि केवल ३००० गैस पीड़ित मारे गए हैं और १०२००० विभिन्न प्रकार की चोटों से प्रभावित हुए हैं । वहीं भोपाल के कल्याण आयुक्त द्वारा स्थापित दावा न्यायालयों ने मृत व्यक्तियों सहित कुल ५७४३६७ व्यक्तियों को गैस प्रभावित माना है । इससे इस विपदा की व्यापकता का आभास होता है कि कितने लोग मारे गए होंगे । जबकि घायलों की संख्या निपटारे की बनिस्बत ५ गुना ज़्यादा हैं । यूनियन कार्बाइड और इसके आरोपी अधिकारियों के विरूद्ध भोपाल के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में आपराधिक मामला केंचुए की गति से चल रही है । राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा हाथ में लिए गए स्वास्थ्य, आर्थिक व सामाजिक पुनर्वास के मामले भी अधकचरी अवस्था में हैं । वहीं दूसरी ओर सरकार ने प्रारंभ में त्रासदी की क्षतिपूर्ति के लिए करीब ३९०० करोड़ का दावा किया था परंतु गैस पीडितों से पूछे बिना वह कंपनी से सांठगांठ कर ७१५ करोड़ रूपए के क्षतिपूर्ति समझौते पर राजी हो गई । सर्वोच्च् न्यायालय ने भी १५ फरवरी १९८९ को इस समझौते पर अपनी मोहर लगा दी । फलस्वरूप कंपनी को मात्र ५० सेंट प्रति शेयर का नुकसान हुआ और वालस्ट्रीट में उसके शेयरों की कीमतों में उछाल आ गया है । सरकारी आंकड़ों के अनुसार भोपाल में गैस त्रासदी विकारों के १०,०१,७२३ दावे एवं मृत्यु के २२,१४६ दावे आए थे । इनमें मनमानी कमी कर दी गई । ३ दिसम्बर १९८४ को भोपाल के थाना हनुमान गंज में लापरवाही के कारण हुई मृत्युआें को लेकर संगीन अपराध की श्रेणी में रिपोर्ट दर्ज की गई थी । सीबीआई ने इस हेतु दमदार मुकदमा भी तैयार किया गया था । जिसमें १० वर्ष तक की कैद हो सकती थी । परंतु १९९२ में वारने एंडरसन के खिलाफ जारी हुए समन की अभी तक तामील नहीं हो पाई है और मुकदमे की धाराएं बदलने से सजा मिलने की स्थिति में कैद की मियाद घटकर २ वर्ष रह गई हैं । भोपाल के गैस पीड़ित भूलने के खिलाफ याद रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे पूरी दुनिया को याद दिलाना चाहते हैं कि यूनियन कार्बाइड डाव केमिकल्स से विलय के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी रासायनिक कंपनी बन गई है । आवश्यकता इस बात की है कि २-३ दिसम्बर को मात्र २५ वीं बरसी न समझकर अन्याय के खिलाफ लड़ाई की शुरूआत मानना चाहिए । यही भोपाल गैस त्रासदी के प्रभावितों को सच्ची श्रद्धांजली होगी । ***संदर्भ - कोपनहेगन
खुद बुलाई त्रासदी
जलवायु परिवर्तन की वजह से पृथ्वी के गर्म होने , ग्लेशियरों के पिघलने और समुद्र के जलस्तर बढ़ने की वजह से दुनिया के बड़े हिस्से के डूब जाने के खतरा का कारण हम खुद हैं । आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों के लगातार उत्सर्जन के चलते ग्लोबल वार्मिंग के अंटार्कटिक में बर्फ तेजी से पिघलेगी । जिसकी वजह से वर्ष २१०० तक २० फीट के करीब समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी हो सकती है । वर्ष २००५ में ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे के दौरान यह तथ्य सामने आया कि अंटार्कटिक महाद्वीप में बर्फ के ग्लेशियर पिछले ५० साल में ८७ फीसदी तक पिघल चुके हैं । जबकि बीते पांच साल में दुनिया भर के ग्लेशियर १६४ फीट प्रतिवर्ष की औसत दर से पिघल रहे हैं । पृथ्वी की करीब ७० फीसदी आबादी समुद्र तटीय इलाकों में रहती है । दुनिया के १५ बड़े शहरों में से ११ तटीय क्षेत्र में हैं । इस सदी में अगर समुद्र का जलस्तर ९ से८८ सेमी तक भी बढ़ा तो इनमें से कई शहरों का नामोनिशान मिट जाएगा । वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगर अगले सौ साल में अगर १.४ से ५. डिग्री सेल्सियस की औसत से तापमान और औसतन ३.५ इंच से ३४.६ इंच के करीब समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी हुई तो दुनिया के लगभग सारे तटीय इलाकों में पानी भर जाएगा ।

२ सामयिक

भूमि प्रदूषण : संरक्षण एवं नियंत्रण
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
भूमि पर्यावरण की आधारभूत इकाई होती है । यह एक स्थिर इकाई होने के नाते इसकी वृद्धि मेंबढ़ोत्तरी नहीं की जा सकती हैं । बड़े पैमाने पर हुए औद्योगीकरण एंव नगरीकरण ने नगरों में बढ़ती जनसंख्या एवं निकलने वाले द्रव एंव ठोस अवशिष्ट पदार्थ मिट्टी को प्रदूषित कर रहें हैं । ठोस कचरे के कारण आज भूमि में प्रदूषण अधिक फैल रहा है । ठोस कचरा प्राय: घरों, मवेशी-ग्रहों, उद्योगों, कृषि एवं दूसरे स्थानों से भी आता है । इसके ढेर टीलों का रूप ले लेते हैं क्योंकि इस ठोस कचरे में राख, काँच, फल तथा सब्जियों के छिल्के, कागज, कपड़े, प्लास्टिक, रबड़, चमड़ा, इंर्ट, रेट, धातुएँ मवेशी गृह का कचरा, गोबर इत्यादि वस्तुएँ सम्मिलित हैं । हवा में छोड़े गये खतरनाक रसायन सल्फर, सीसा के यौगिक जब मृदा में पहुँचने हैं तो यह प्रदूषित हो जाती है। भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवाछिंत परिवर्तन, जिसका प्रभाव मनुष्य तथा अन्य जीवों पर पड़ें या जिससे भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट हो भू-प्रदूषण कहलाता है । भूमि पर उपलब्ध चक्र भू-सतह का लगभग ५० प्रतिशत भाग ही उपयोग के लायक है और इसके शेष ५० प्रतिशत भाग में पहाड़, खाइयां, दलदल, मरूस्थल और पठार आदि हैं । यहाँ यह बताना आवश्यक है कि विश्व के ७९ प्रतिशत खाद्य पदार्थ मिट्टी से ही उत्पन्न होते हैं । इस संसाधन (भूमि) की महत्ता इसलिए और भी बढ़ जाती है कि ग्लोब के मात्र २ प्रतिशत भाग में ही कृषि योग्य भूमि मिलती है । अत: भूमि या मिट्टी एक अतिदुर्लभ (अति सीमित) संसाधन है । निवास एवं खाद्य पदार्थोंा की समुचित उपलब्धि के लिए इस सीमित संसाधन को प्रदूषण से बचाना आज की महती आवश्यकता हो गयी है । आज जिस गति से विश्व एवं भारत की जनसंख्या बढ़ रही है इन लोगों की भोजन की व्यवस्था करने के लिए भूमि को जरूरत से ज्यादा शोषण किया जा रहा है । जिसके परिणाम स्वरूप आज भूमि की पोषक क्षमता कम होती जा रही है । पोषकता बढ़ाने के लिए मानव इसमें रासायनिक उर्वरकों को एवं कीटनाशकों का जमकर इस्तेमाल कर रहा है । इसके साथ ही पौधों को रोगों व कीटाणुआें तथा पशु पक्षियों से बचाने के लिए छिड़के जाने वाले मैथिलियान, गैमेक्सीन, डाइथेन एम ४५, डाइथेन जेड ७८ और २,४ डी जैसे हानिकारक तत्व प्राकृतिक उर्वरता को नष्ट कर मृदा की साधना में व्यतिक्रम उत्पन्न कर इसे दूषित कर रहे हैं जिससे इसमें उत्पन्न होने वाले खाद्य पदार्थ विषाक्त होते जा रहे हैं और यही विषाक्त पदार्थ जब भोजन के माध्यम से मानव शरीर में पहुँचते हैं तो उसे नाना प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं । भूमि (मृदा) प्रदूषण के कारण जब भूमि अपने प्राकृतिक स्वभाव से हटकर अर्थात् कृषि कार्य एवं मानक के उपयोग के लिए अनुपयुक्त हो जाये तो वह प्रदूषित मानी जाती है इस प्रदूषण के पीछे विभिन्न कारण जैसे रासायनिक प्रदूषण, भू उत्खनन, ज्वालामुखी उद्गार जो मानव एवं प्राकृतिक जनित होता है भूमि प्रदूषण के कारण मानते हैं। प्रतिदिन आवासीय क्षेत्रों से सफाई के दौरान रसोई का गीला जूठन कागज, प्लास्टिक के टुकड़े, कपड़े के टुकड़े, काँच, शीशियाँ, थर्मोकोल, एल्यूमीनियम, लोहे के तार, टिन कन्टेनर, टायर एवं अन्य कूड़ा करकट निकलता है । यही कचरा मिट्टी में मिलकर भूमि को प्रदूषित कर देता है । नगर पालिका के अंतर्गत सम्पूर्ण शहर का कूड़ा करकट, मानव मल, मरे जानवरों इत्यादि के अवशिष्ट मिट्टी एवं नालों में पड़े सड़ते रहते हैं जिससे भूमि दूषित हो जाती है । औद्योगिक इकाइयों से सबसे अधिक भूमि प्रदूषण फैल रहा है जिसमें उर्वरक व रसायन शक्कर कारखानों, कपड़ा बनाने वाली इकाइयों, ग्रेफाइट, ताप बिजली घरों, सीमेंट कारखानों, साबुन, तेल तथा धातु निर्माण कारखानों के द्वारा भारी मात्रा में हानिकारक एवं विषैले रसायन जब जमीन पर पड़ते हैं और इनके ठोस अवशिष्ट अनेक स्थानों पर पहाड़ व टीलों का रूप ले लेते हैं और इसके कारण उस स्थान की भूमि प्रदूषित होकर वनस्पति विहीन तथा अनउपजाऊ हो जाती है । कृषि में अधिक से अधिक पैदावार बढ़ाने के लिए व्यक्ति खेतों में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करता है । और फसलों की सुरक्षा में कीटनाशकों का छिड़काव भी करता है । वैज्ञानिकों का दावा है कि इन कीटनाशकों का प्रभाव भूमि पर १० से १५ वर्ष तक बना रहता है । वहीं फसलें कट जाने के बाद खेतों में अनावश्यक बचे पौधों के ढेर जब वर्षा के जल के साथ मिलते हैं तो सड़ने पर भूमि प्रदूषित हो जाती है । अपने निवास की तलाश में मानव ने भूमि से पेड़ काटकर उसमें रहने लायक मकान तथा कालोनियों का निर्माण किया । इस निर्माण के दौरान उसमें प्रयोग की गई सामग्रियां, सीमेंट, रेत, पत्थर, इंर्ट, गिट्टी, चूना तथा इधर-उधर बिखर जाना और कुछ दिन बाद यह मिट्टी मेें मिलकर भूमि को प्रदूषित कर देते हैं । खनन करते समय जब व्यक्ति उससे खनिज तत्व निकलता है तो खुदाई के दौरान निकले अनेक अनुपयोगी पदार्थोंा एवं वस्तुआें को बाहर छोड़ देते हैं । जिससे वहाँ की भूमि अनुपयोगी के साथ - साथ अनउपजाऊ भी हो जाती है क्योंकि यह खुली धूल जब हवा में उड़ती है तो उसकी ऊपरी पर्त भूमि को ढंक लेती है जिससे वह प्रदूषित हो जाती है । भूमि प्रदूषण के अन्य स्त्रोतों में रेगिस्तान की रेत उड़ती हुई अन्य क्षेत्रों की भूमि में आकर उसकी उर्वरता शक्ति को समाप्त् कर देती है, अम्ल वर्षा, इंर्टों का निर्माण, भूकम्प एवं प्राकृतिक आपदाआें के कारण टूटफूट, अस्पतालों का कचरा, अनुपयोगी तथा हानिकारक पौधों की खेती तथा सिंचाई व पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए नदियों पर बनने वाले बांधों के कारण वहाँ की भूमि दलदल में बदल जाती है जिससे भूमि प्रदूषण विविध रूपों में हमारे समक्ष आ खड़ा होता है । संरक्षण एवं नियंत्रण के उपाय - १. कार्य कितना भी कठिन हो यदि व्यक्ति उसे निस्वार्थ भाव एवं ईमानदारी से करता है तो उसमें सफलता अवश्य मिलती है । भूमि प्रदूषण के संरक्षण की जहां तक बात है यह अति कठिन यक्ष प्रश्न है क्योंकि सभ्यता के विकास की कीमत इस समाज में रहने वाले जीवों को चुकानी पड़ती है वह चाहे किसी रूप में ही क्यों न हो ? फिर भी हमें कोशिश करनी चाहिए कि इसमें नियंत्रण हो, इसके लिए - भूमि के क्षरण को रोकने के लिए वृक्षारोपण , बांध-बंधियां आदि बनाये जाने चाहिए। २. नवीन कीटनाशकोंका विकास किया जाये जो अन्य लक्ष्यगत कीटों के अतिरिक्त अन्य जीवाणुआें को विनष्ट कर सके ।३. कृषि कार्योंा में जैविक खाद व दुर्बल कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए।४. पौधारोपण एवं अधिक से अधिक हरी घास को लगाकर भूमि कटाव को रोका जाना ।५. औद्योगिक इकाइयों से उत्सर्जित कचरे को ठिकाने लगाने के लिए उचित प्रबंध किया जाना चाहिए ।६. कचरा निस्तारण के लिए नगर पालिकाआें के सख्त नियम बनाये जाने चाहिए ।७. कृषि अवशेषों को खेतों में न जलाने के लिए किसानों को प्रेरित किया जाना चाहिए ।८. भू-जल स्तर को बढ़ाने के लिए नई तकनीकों (रेन वाटर हार्वेस्टिंग विविधों का) प्रयोग किया जाना चाहिए ।९. जैव प्रौद्योगिकी का प्रयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।१०. सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाआें को इस पर व्यापक रणनीति बनाकर एक संयुक्त संघ बनाना चाहिए और लोगों में जागरूकता पैदा करनी चाहिए । ***

३ हमारा भूमण्डल

बीमार से दवाई छीनने की साजिश
मार्टिन खोर
यूरोपीय सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा भारत और चीन के विकासशील देशों को निर्यात की जाने वाली कम मूल्य वाली जेनेरिक दवाआें को जब्त कर लिए जाने से इन देशों के निवासियों के स्वास्थ्य को नया खतरा पैदा हो गया है । इस कार्यवाही से एड्स, हृदयरोग, अल्जीमर्स जैसी बीमारियों एवं मनोवैज्ञानिक समस्याआें एवं उच्च् रक्तचाप से पीड़ित मरीज दवाईयों से वंचित हो रहे हैं । मुख्यत: भारत के जेनेरिक दवाई निर्माताआेंद्वारा निर्मित ये दवाईयां लेटिन अमेरिका एवं अफ्रीकी देशों को निर्यात की जा रही थीं । अपने अंतिम गंतव्य पर पहुंचने के पहले ही इन्हें नीदरलैंड और जर्मनी के हवाई अड्डों पर नकली होने की संभावना बताते हुए जब्त कर लिया गया। अक्सर होता यह है कि यूरोप की बड़ी दवाई कंपनियां यह आरोप लगाते हुए शिकायत करती हैं कि ये दवाईयां नकली हैं या इनके निर्माण में बौदि्घक संपदा कानून का उल्लंघन किया गया है । हालांकि बाद में पता यह चला कि न तो ये उत्पाद नकली है और न ही इनके माध्यम से किसी पेटेंट कानून का उल्लंघन हुआ है । बल्कि इन्हें पूरी कानूनी वैद्यता के साथ भारतीय कंपनियेां ने उत्पादित किया है और ब्राजील, पेरू, कालंबिया, मेक्सिको, नाईजीरिया व अन्य अफ्रीकी देश इन्हें ब्रांडेड दवाईयों के मुकाबले काफी कम मूल्य पर खरीद रहे हैं। इस जब्ती से इन दवाईयों के निर्यातक व आयातक देशाों के अलावा स्वास्थ्य समूहों में भी रोष फैल गया है । उनकी चिंता का विषय यह है कि यूरोपीय सरकारें बड़ी दवाई कंपनियों के व्यावसायिक हितों को अवांछित रूप से प्रश्रय देते हुए विकासशील देशों के मध्य हो रहे इस पूर्णतया वैधानिक व्यापार को रोकने में लगी हुई हैं । वाल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार पिछले वर्ष नीदरलैण्ड और जर्मनी में २० से अधिक बार भारतीय औषधियों को यह कहते हुए रोक लिया गया है कि इनके निर्माण में यूरोपीय पेटेंट कानूनों का उल्लंघन किया गया है । जबकि ये दवाईयां यूरोप में बेचने के उद्देश्य से बनाई ही नहंीं गई थीं। भारत अब औपचारिक रूप से विश्व व्यापार संगठन में इस मामले की शिकायत करने जा रहा है जिससे कि यूरोपीय कार्यवाही को रोका जा सके । शिकायत में यह दवा किया जाएगा कि यूरोपीय यूनियन ने अपनी महाकाय दवाई कंपनियों को सीमा शुल्क नियमन के दुरूपयोग की छूट इसलिए दी है जिससे कि इस वैघानिक जेनेरिक औषधि व्यापार को रोका जा सके। कहा जा रहा है कि अनेक यूरोपीय देश मुख्यत: यूरोपीय आयोग नियमन १३८३/२००३ का दुरूपयोग कर रहे हैंजिसके अंतर्गत इस बात की अनुमति है कि किसी औषधि को नकली होने या बौद्धिक संपदा कानूनों की अवहेलना करने के शक पर राजसात किया जा सकता है। भारतीय वाणिज्यमंत्री आनंद शर्मा का कहना है कि उनकी सरकार ने यूरोपीय यूनियन से यह कहते हुए कि उनकी कार्यवाही पूर्णतया अनुचित है, अपना विरोध दर्ज करवाया है । भारतीय वाणिज्य एवं व्यापार फेडरेशन का कहना है कि इस कार्यवाही से देश की दवाई कंपनियों को गहरा धक्का लगा है । भारतीय कंपनियों को अब ऐसे वैकल्पिक मार्गोंा से दवाई भेजना पड़ रही है जो यूरोप से न गुजरता हो । इसमें उन्हें दुगुना व्यय करना पड़ रहा है । जिससे दवाई की लागत में वृद्धि हो रही है । इसी के साथ यूरोपीय कार्यवाही से स्वयं को बचाने के लिए वकीलों की सेवाएं लेने में भी उन्हें काफी खर्च करना पड़ रहा है । १६ गैर सरकारी संगठनों ने भी डच और जर्मनी की इन कार्यवाहियों का विरोध किया है । वालस्ट्रीट जर्नल ने जब्ती की कुछ घटनाओं का वर्णन करते हुए बताया कि नवम्बर २००८ में डच अधिकारियों ने एमस्टरडम हवाईअड्डे पर खून पतला करने वाली दवाईयों के दो शिपमेंट, जो कोलंबिया जा रहे थे, को जब्त कर लिया ।यह दवाई भारतीय कंपनी इंड-स्विफ्ट द्वारा निर्मित की गई थी एवं इसे यूरोपीय कंपनी सनोफी के कहने पर जब्त किया गया । इन दवाईयों को मई २००९ में लौटाया गया । इस दौरान भारतीय कंपनी को निर्यात हेतु मार्ग पुर्ननिर्धारण कर दवाईयां मलेशिया एवं सिंगापुर के रास्ते भेजना पड़ी जिसमें दुगुनी लागत आई । इसी तरह नवम्बर २००८ में भारतीय कंपनी सिपला द्वारा पेरू को निर्यात की जा रही अल्जीमर्स के उपचार की औषधी को नोवारटीस कंपनी के कहने पर जब्त कर लिया गया । ये दवाईयां अभी तक नीदरलैंड के ही कब्जे में हैं । फरवरी २००९ में पुन: एमस्टरडम हवाई अड्डे पर नाइजीरिया को निर्यात की जा रही एड्स निरोधक दवाईयों को जब्त कर लिया गया। नाईजीरिया द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में शिकायत किए जाने के बाद ही ये दवाईयां मुक्त की गई । विश्व व्यापार संगठन की बैठक में भारत और ब्राजील ने यूरोपीय यूनियन की इस मामले में आलोचना की है । आलोचना में कहा गया है कि वैधानिक रूप से निर्मित जेरेनिक औषधियों को नकली बताकर गरीब देशों की कम कीमत प दवाईयों की उपलब्ध पर रोक लगाने का प्रयास किया जा रहा है । ब्राजील का कहना है कि ये जेनेरिक दवाईयं पूर्णतया वैध हैं एवं इन्हं नकली या मिलावटी बताना एक भूल है । यूरोपीय सीमा शुल्क विभाग की कार्यवाही से विकासशील देशों की सस्ती जीवन रक्षक दवाईयों की पहुंच में बाधा पड़ रही है । चीन, क्यूबा, कोलंबिया, इक्वाडोर, मिस्त्र, अर्जेंाटाईना, वेनेजुएला और दक्षिण अफ्रीका ने भी यूरोपीय कार्यवाही की खिलाफत की है । यूरोपीय आयोग ने जवाब में कहा है कि वह सस्ती दवाईयों तक पहुंच बनाए रखने के प्रति पूर्णतया प्रतिबद्ध है, परंतु वह नकली दवाईयों की रोकथाम के खिलाफ सीमा शुल्क अधिकारियों की मुहिम भी जारी रखे ।***
विफल रहे तो फायदा : नासा
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के प्रमुख वैज्ञानिक जेम्स हंसेन ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन पर होने वाली कोपेनहेगन वार्ता का विफल होना पृथ्वी के लिए फायदेमंद साबित होगा । हंसेन ने कार्बन मार्केट योजना का विरोध करते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन के लिए परमिट खरीदना और बेचना जलवायु परिवर्तन को रोकने का हल नहीं है । नासा गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज के प्रमुख ने कहा कि इस वक्त जो कदम उठाए जा रहे हैं, या जिनके उठाने की तैयारी है उनकी बुनियाद ही गलत है , इसलिए पूरी स्थिति को दोबारा देखने की जरूरत है । उन्होंने कहा कि अगर यह क्योटो प्रोटोकॉल की तरह ही हुआ तो लोगों को इसे समझने में ही वर्षोंा लग जाएेंगें । कोपेनहेगन सम्मेलन की सफलता /विफलता को लेकर कयास लग रहे हैं । ब्रिटिश अखबार `गार्जियन' के एक सर्वे के मुताबिक दुनिया के १० में से ९ वैज्ञानिकों का मानना है कि कोपेनहेगन में उठाए जाने वाले कदम सफल नहीं होंगें । इसके पीछे जो कारण हैं उनमें चीन जैसे देशांे का रवैया और आर्थिक मंदी प्रमुख है ं ।

४ विशेष लेख

पेड़, हमारे प्राणदाता
-डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
पेड हमारे प्राण हैं क्योंकि पेड़ ही हमें प्राणवायु प्रदान करते हैं । सघन वनों को हमारी धरती के फेंफड़े कहा जाता है । क्योंकि वन ही वायु के शोधक होते हैं । पैड़ ही तो हमें जीवन देते हैं । फिर क्यों हम इन मूक परमार्थी पेड़ोें को काट डालते हैं तो विरोध नहीं करते । आखिर कब तक हम लोग अपने विनाश का कारण स्वयं बनते रहेंगे ? कृषि भूमि विस्तार, शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण के कारण वनों का अतिशय क्षरण हो रहा है । वन प्रतिपालित जीवों का मरण हो रहा है । वनों की अंधाधुंध कटाई से जंगली जानवरों के आवास नष्ट हो रहे हैं जिससे वह मानव के रिहायशी इलाकों में आये दिन आ जाते हैं । पेड़ काटने से प्रदूषण बढ़ा है । धीरे-धीरे जंगलों का सफाया तो हो ही रहा है बस्तियों के पेड़ भी नदारद हो रहे हैं और हम पेड़ की छाया में खड़े होने का सुख खो रहे हैं । कहा जाता है कि जंगल में ही मंगल होता है । यकीनन जंगल ही जलवायु के रक्षक हैं । जंगल ही जंगली जानवरों के आश्रयदाता हैं । जंगल दुनिया भर से तेजी से लुप्त् हो रहे हैं । ज्ञातव्य है कि इमारती लकड़ी और इंर्धन के लिए प्रतिवर्ष लगभग ३.१ अरब घन मीटर काष्ठ जंगलों से प्राप्त् की जाती है । वैश्विक परिदृश्य के मुताबिक दुनिया से प्रतिवर्ष १.३ करोड़ हेक्टेयर जंगल पूर्ण रूप से मर रहे है और इसके साथ हो रहा हैं आरण्यक सभ्यता का समूल अंत । जंगलों की बदहाली से बदल रहा है मौसम । हो रहा है जलवायु में व्यापक परिवर्तन । क्योंकि पेड़ कार्बन डाई आक्साइड को अवशोषित कर कार्बन को जमा कर लेते हैं । जंगल कार्बन के संग्रह कर्ता हैं । आकलन के अनुसार संसार के सारे जंगलों मे जैव भार के रूप में २८३ गीगाटन (१०९) कार्बन संग्रहित है । जंगल में जीवंत पेड़-पौधों के अलावा भी कार्बन जैविकी कचरे के रूप में रहता है । अत: कार्बन का अनुपात वायुमण्डल की तुलना में उससे भी अधिक रहता है। जंगलों से पेड़ों के नदारद होने में प्रतिवर्ष १०१ गीगाटन कार्बन का ह्रास हो रहा है और यही चिंता कारण है । जंगल और यही चिंता कारण बहुमूल्य खो रहे हैं । जंगल लगातार कम हो रहे हैं, हमें पता हीनहीं है कि हम क्या बहमूल्य खो रहे हैं। हमें पेड़ लगाने के प्रति संजीदा होना ही पड़ेगा । पेड़-पौधे हमारे अच्छे मित्र होते हैं । पर्वतीय क्षेत्रों में देवदार के सघन वन थे, तराई के क्षेत्रों में सागौन वन थे, पठारी इलाकों में साल वन तथा मैदानी इलाकों में शीशम के पेड़ बहुतायत में थे। कहा जाता है वन से जीवन । निश्चित ही हमें यह बात दिल से स्वीकारनी होगी । अनेक पेड़ो को विशिष्ट बतलाया गया है। जिनमें एक पीपल भी है जो आक्सीजन अधिक मात्रा में अवमुक्त करता है । जब पीपल की स्वर्णिम पत्तियाँ हवा के किंचित झोंके से हिलती है, तो प्राण रक्षक वायु प्रवाहित होती है । पीपल की पल्लव छतरी बड़ी होती है जो तेजी से कार्बन डाई आक्साइड अवशोषित करती है ।जड़ें जमीन में गहरे जाकर जल पहुँचाती है। पीपल के अलावा नीम, बरगद, आम , पाखड़, गूलर, जामुन, महुआ, इमली, ढाक, साल, सागौन, कचनार गुलमोहर और अमलतास इत्यादि पेड़ पर्यावरण के लिए अत्यधिक उपयोगी हैं । हर वृक्ष ही अनेक तरह से उपयोगी होता है । निश्चित ही वह एक अचल योगी होता है । विभिन्न प्रजाति के पेड़ों अपनी विशेषताएं होती है । पीपल, नीम, पाखड़ और देशी बबूल के पेड़ मिट्टी के क्षरण की रोकते हैं तथा ज़मीन की उर्वरा शक्ति के वर्धक होते हैं । तुलसी, अश्वगंधा, हरड़, घृतकुमारी की औषधीय महत्ता है । तुलसी तो इसीलिए हर घर आंगन में विराजती रही वृंदावन का महात्म हम जानते हैं । बहुत से पेड़ प्रदूषण रोकथाम में महती भूमिका निभाते है इन पेड़ों में नीम अमलताश, शीशम, बाँझ (ओक), पीपल, मोलश्री, आम, जामुन, अर्जुन, सागवान और इमली आते है । बबूल, गुलमोहर, अर्जुन, सिरस कदंब और अमलतास के पेड़ बंजर नम तथा कूड़े-करकट वाली जमीन को भी उपयोगी बनाते है । शोर भी प्रदूषण के रूप में बढ़ता जा रहा है । ध्वनि प्रदूषण रोकने वाले पेड़ों में अशोक, नीम, बरगद कचनार पीपल एवं सेमल सर्वोपरि है । गैसीय प्रदूषण को अवशोषित करने वाले पेड़ों में बेल, बोगनविलिया, शीशम, पीपल, महुआ इमली, तथा नीम का नाम है । ऊसर, क्षारीय, लवणीय तथा भारी धात्विक प्रदूषण से युक्त बंजर भूमि पर नींबू घास, पामरोज, वेटीवर, केमोमिल, कालमेघ, खस, सेट्रोनिला तथा जावा घास लगाने की सिफारिस विशेषज्ञ करते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि वृक्ष ही शिवरूप हैं जो हमारे परिवेश के जहर को पीकर हमें अभयदान देते हैं ऐसे शिवमयी पेड़ों पर भी कुल्हाड़ी चलाते हुए हम नहीं हिचकिचाते हैं यही लज्जा की बात हैं । वृक्षों से हमें बहुत कुछ व्यक्त-अव्यक्त मिलता है । पेड़ पर खिला हर फूल प्यार बांटता हैं । वृक्षों से हमें नीति-पालन और नैसर्गिक अनुकरण के साथ नैतिक शिक्षा भी मिलती है । हमारे निराशा भरे जीवन में आशा और विश्वास तथा धैर्य की शिक्षा नितांत जरूरी है । यह शिक्षा हमें वृक्षों से सहज ही मिलती है । मनुष्य जब यह देखता है कि ठूंठ में तब्दील पेड़ या शाखा विहीन पेड़ भी कुछ दिनों बाद समय अनुकूल होने पर फिर हरा भरा हो उठता है - तो उसकी समस्त निराशा शांत हो जाती है वह नये उत्साह से भर कर साहस बटोर कर आगे बढ़ता है । कहा जा सकता है कि उसकी आशाएं भी हरी भरी हो उठती है यहींतो हरित विश्वास है । यही बात हमारा शास्त्र कहता है -
``छिन्नोडपिरोहति तरू: क्षीणो%त्युपचीयते पुनश्चन्द्र:।
इंति विमृशन्त:सन्त:सन्तप्यन्ते न ते विपदा।।''
जब इस नीति श्लोक के भाव को हम आत्मसात करते हैं तो हमारे मुखमण्डल से मलिनता तिरोहित हो जाती है । मुस्कान हमारे होठों पर नर्तन करने लगती हैं । हमें प्रकृति प्रिय लगती है । सब और हरियाली और खुशहाली दिखती है। हरित विश्वास जमाने का काम कर रहा है उद्यान विभाग । अब विशेषज्ञों के प्रयास से बूढ़े पेड़ों को जवान करने की कवायद शुरू की गई है । यह कार्य एवं आपरेशन के तहत चलाया जायेगा जिसका आधा व्यय सरकार उठायेगी । तीस साल पुराने वृक्ष को तीन साल का बना दिया जायेगा । इसमें पेड़ से सभी पुरानी और रोगग्रस्त टहनियों को काटकर अलग कर दिया जायेगा । इन हिस्सों से जो नए कल्ले उगेगें उनका ट्रीटमेंट करके एक तंदरूस्त पौधा तैयार होगा । तकरीबन दो से तीन साल के भीतर फिर से यह पेड़ आम के फलों से लद जायेगा । ज्ञातव्य है कि आम के पेड़ की उम्र बढ़ने के साथ ही फसल कमजोर होती है । जानकारों के मुताबिक कई बार तो पेड़ दस से बीस साल पुराना होने पर इतना कमजोर हो जाता है कि उस पर बहार तक नहीं आती। अब इन बूढ़े आसक्त पेड़ों पर भी आ सकेगी अमराई ।यह सराहनीय है । विडम्बना है कि एक ओर तो मृतप्राय पेड़ों को पुर्नजीवित करने के सार्थक प्रयास किये जा रहे है दूसरी ओर सरसब्ज पेड़ भी काट डाले जाते हैं । पेड़ टूट जाते हैं । जब कोई पेड़ टूटता हैं तो मुझे लगता है जैसे किसी ने मेरी बाजू को उखाड़ फैंका हो । हमारा दायित्व है कि हम पेड़ों का दर्द समझे, उन्हें टूटने न दें , तभी तो कहता हूँ कि चुन ले कोई एक पेड़ और झटपट रोप दें उसे किसी उदास जमीन पर ताकि सरसब्ज हो हरियाली और खुशियाँ चहचहा उठें । ***

५ हमारा आसपास

प्रकृति के प्रांगण में चलें
-सत्यनारायण भटनागर
हिमालय की ऊँचाई और विस्तार को दखते-देखते प्रकृति के विविध रूपों का भी दर्शन होने लगता है । ऐसा लगता है, ईश्वर ने प्रकृति को विभिन्न रूपों से सजा-धजाकर बैठा दिया है । अपार सौन्दर्य है, प्रकृति के रूपों का । हम सुन्दरता के लिये नये-नये वस्त्र, डिजाइन और रंग रोज प्रयोग करते हैं, किन्तु प्रकृति के इन रूपों को देखकर लगता है कि काश हम भी ऐसे ही सुन्दर होते । एक छोटी सी तितली के रंग-ढंग देखकर सिर चक्कर खाने लगता है । क्या सुन्दर रूप है उसका ! एक चिड़िया के रंग-बिरंगे परों को देखकर मन मोहित हो जाता है । ऐसी एक तितली या चिड़िया नहीं है, हजारों हैं संख्या में, पर आश्चर्य सब एक जैसी होते हुए भी भिन्न हैं । किसी से किसी का मेल नहीं। विविध रूप, विभिन्न ढंग, पर एक जाति की । प्रकृति की यह एकता और विभिन्नता मोहक हैं । यदि ये सब एक रूप, एक रंग की होती तो कितना भद्दा लगता ? प्रकृति का जो आनन्द इस विभिन्नता में है, वह एकरसता में हो ही नहीं सकता था, इसलिये कवि, नाटककार ऑलिवर गोल्डस्मिथ ने कहा है, विराट प्रकृति ज्ञान की एक पुस्तक हैं । प्रकृति का रंग-ढंग बड़ा विचित्र है । इसे देखों और देखते रहो । देखते ही रहो और फिर डूब जाआें विचारों में, अन्तर्तम की गहराई में । यही प्रकृति का ज्ञान देने का ढंग है शायद । यहाँ वन में बड़े-बड़े वृक्ष हैं तो छोटे-छोटे भी हैं । किसी में ढेर सारे फल हैं तो किसी में एक भी फल नहीं हैं, पर वे पुष्पों से लदे हैं । कुछ वृक्षों में न फल हैं और न पुष्प, पर प्रकृति ने इन्हें इतने सुन्दर चिकने पत्ते दिये हैं कि देखते ही रह जाआें । कितने विविध जाति के वृक्ष हैं । अलग-अगल रूप और रंग के । सब पास-पास खड़े हैं। हवा के हिलोर से झूल रहे हैं । आपस में मिल रहे हैं । सरसराहट का संगीत बज उठता है । सूरज की रोशनी से स्नान किये सूरज की गरमी से शक्ति पाये ये प्रफुल्लित हैं । जीवन के गीत गाते हैं । हवा इनको एक जैसी हिलोर देती है । सूरज एक जैसी गरमी देता हैं । वर्षा एक जैसा पानी बरसाती है । हमारे लिये भी तो प्रकृति यही सब करती है । हममें अैर इन वृक्षों में अन्तर क्या है ? यदि प्रकृति दयालु न हो तो न ये वृक्ष रह सकते हैं और न हम । किन्तु वृक्षों में कितनी ही भिन्नता हो । ऊँच-नीच हो, जातिगत भेद हों, रंग-भेद हो, गुणवत्ता के भेद हों, उत्पादकता के भेद हों, किन्तु प्रकृति के आंगन में वे बिना किसी मतभेद, विवाद तनाव के रह लेते हैं । उनमें कभी युद्ध नहीं होता । वे अपने फलों को नि:संकोच बाँट देते हैं । उनका जीवन है ही इसलिये । वे त्याग की मूर्ति हैं । हम भी प्रकृति के हाथों के खिलौने हैं, किन्तु हमारा अहंकार कितना बड़ा है ? शायद हिमालय से भी बड़ा । वह समाप्त् ही नहीं होता । शायद इसीलिये हम बड़े होकर भी हिमालय पर आकर बहुत छोटे लगने लगते हैं । अंग्रेजी के कवि वर्ड्सवर्थ ने कहा था, प्रकृति को अपना शिक्षक बनाआें । प्रश्न है कैसे बनायें ? हम तो खुद शिक्षक हैं।हम कितने ही अपने आपको शिक्षाशास्त्री बतायें, लेकिन प्रकृति के मौन मुखरित विश्वविद्यालय की बराबरी नहीं कर सकत। पउम चरिउ के रचियता स्वयंभूदेव ने एक कविता में कहा हैं वह वटवृक्ष मानो शिक्षक का रूप धारण कर पक्षी रूपी शिष्यों को सुन्दर स्वर और व्यंजन के पाठ पढ़ा रहा था । कोए का-का कर रहे थे । कोयल को-कौ और पपीहा कं-कं: का उच्चरण कर रहे थे । विभिन्न पक्षी विभिन्न बोली, विभिन्न आवाजें फिर भी वे एक वन प्रदेश के एक वृक्ष पर बैठ सकते हैं , फल खा सकते हैं, घोंसला बना सकते हैं और जीवन निर्वाह की अपनी गतिविधियाँ चला सकते हैं । उनमें भी मतभेद तो होते होंगें, पर खून-खराबा और हिंसा होते कभी नहीं सूनी, कौआ भले ही कर्कश ध्वनि करे और कोयल भरे ही मधुर गीत गाये, पर वे साथ-साथ रह लेते हैं । उन्होंने प्रकृति के विश्वविद्यालय में शिक्षा पायी है । हम प्रकृति से दूर चले गये हैं, इसलिये इस विश्वविद्यालय का पाठ हम तक नहीं पहुँच रहा । हम पशु-पक्षियों के मैत्री भाव, सद्भाव, सहयोग के पाठ को भूल कर हिंसा पर क्यों विश्वास करने लगे हैं ? यह एक प्रश्न है । इसी प्रश्न का उत्तर दिया है कवि वर्ड्सवर्थ ने । वे कहते हैं, वसन्तकालीन वन की एक अन्त:प्रेरणा तुम्हें मानवता, नैतिकता तथा पाप-पुण्य के विषय में समस्त संतों से अधिक शिक्षादे सकती है। किसी भी वन प्रदेश के वृक्ष, पशु पक्षी, नदी और पर्वत हमारे अर्न्तमन की गहराई को छूकर मौन भाषा में हमसे बहुत कुछ कहते हैं । आओ, हम समय निकालें और प्रकृति के प्रांगण में जाकर उसका सन्देश सुनें । ***

६ जीवन शैली

घरेलू प्रदूषक
- श्रीमती पुष्पलता सक्सेना
आज हर समझदार व्यक्ति प्रदूषण को रोकने के लिए जागरूक है । सभी शिक्षित यह जानते हैं कि प्रदूषण क्या है और इस समस्या का निदान कैसे पाया जा सकता है । आमतौर पर हम लोगों को प्रदूषण के नाम पर दौड़ती मोटर गाड़ियाँ और बड़े- बड़े कारखानों से निकलते धुएँ और जहरीले रसायन की याद आतीहै परंतु यह बहुत कम लोग ही जानते हैं कि हमारे घरों से भी अनेक प्रकार का प्रदूषण पाया जाता है । घरों में स्नानागार और शौचालय की स्वच्छताके लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एसीड प्रमुख घरेलू प्रदूषण प्रसारक है । सफाई के दौरान इस एसीड से न सिर्फ फर्श पर कटाव होता है अपितु यह सफाई के पश्चात् जिस मिट्टी में जाता है उसका भी कटाव करता है । एसीड प्रभाव तो उत्पन्न करेगा ही, मृदा में उपस्थित जीवों को भी नष्ट करेगा । एसीड के स्थान पर जल, विभिन्न प्रकार के ब्रश, चूना (कुंचा), हल्के डिटरजेंट का उपयोग किया जा सकता है । पर्यावरण को क्षति पहुंचाने में प्लास्टिक थैलियों की भूमिका भी कम नहंी है । बाज़ार जाते वक्त बिना झोला या कपड़े की थैली लिए निकल जाना हमारे लिए बेशक सुविधाजनक है पर जरा सोचिए कि ये प्लास्टिक बेग्ज़ पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं । प्रत्येक सामान की खरीदी के बाद दुकानदार आपको प्लास्टिक की थैली में समान दे देता है और थैलियां घरों के सामने , सड़कों पर, जल स्रोतों में सभी दूर फैली हुई नजर आती हैं । यह इसलिए भी खतरनाक है कि इन थैलियों में खाद्य पदार्थ रखकर फेंक देने से पशु इन थैलियों को भी उदरस्थ कर जाते हैं और इसका परिणाम पशुआें की मृत्यु होता है । शहरीकरण और मनुष्य की महत्वाकांक्षाआें ने इस कदर पैर पसारे हैं कि हर शहर में नई-नई कॉलोनियां का विकास हो रहा है । जहां आलीशान मकान बना लिए जाते हैं लेकिन निर्माण कार्य योजनाबद्घ तरीके से नहीं होने से घरेलू ड्रेनेज की गंदगी घर के आगे या पीछे फैली रहती है । जगह-जगह ग े भरे रहते हैं । सड़ांध आती है और बीमारी फैलाने के लिए मच्छरोंऔर अन्य माइक्रोब्स को मिलता हैं मनपसंद निवास । इन तकलीफों से बचने के लिए आवश्यक है कि घरेलू ड्रेनेज अंडरग्राउण्ड हो । हमें अपने आचरण में भी सुधार करना होगा और अपने घरेलू कचरे का निपटारा समझदारी से करना होगा वरना शिक्षित होकर भी हममें अशिक्षा ही परिलक्षित होगी और अपने पर्यावरण के विनाश का कारण हम स्वयं ही बनते रहेंगें जिन देशों में मक्खी, मच्छर नहींहोते हें अवश्य ही इस व्यवस्था में वहां की जनता की निजी समझ भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हर अच्छा कार्य डंडे के बल पर ही नहीं होता । अपने घर से कचरे को बाहर करके पड़ोसी के बंद घर के आगे ढेर लगा देने से इस समस्या का अंत नहीं हो सकता । फल एव सब्जियों के छिलकों तथा बासी भोजन (पुराना खाना) को पशु आहार में भी बदला जा सकता है । अन्य कई अनावश्यक घरेलू पदार्थोंा को जमीन में गड्डा बनाकर उसमें एकत्रित करके अपघटकों के द्वारा खाद में रूपान्तरित किया जा सकता है । महत्वकांक्षाी होना गलत नहंी है परन्तु आरामदायी जीवन जीने की मनुष्य की प्रबल इच्छाशक्ति के कारण घरों में एयर कंडीशनर और फ्रीज का उपयोग कई गुना बढ़ा है जिससे ओजोन परत को तो नुकसान पहुंच ही रहा है कई नई- नई बीमारियां मनुष्य को पकड़ती जा रही हैं । जब घर में ए.सी. की ठंडक है तो शुद्घ प्राकृतिक हवा में टहलने की क्या जरूरत ? फ्रीज है तो रोजाना झोला लेकर सब्जी मंडी जाने की क्या जरूरत? ऐसे में यदि डाइबिटिज, श्वास रोग, हृदय रोग, त्वचा रोग, मोटापा आदि बीमारियों का सामना करना पड़े तो आश्चर्य क्यों होना चाहिए ? घरेलू प्रदूषण में जोरों से आवाज़ करती मोबाईल की घंटियां, टी.वी. और टेप रिकार्डर का शोर भी पीछे नहंी हैं । इन साधनों ने मनुष्य की दृश्य-श्रृव्य क्षमताआें को चुनौती दे रखी है । कई बार हम दूर तक की सोच लेते हैं लेकिन सामने जो दिखाई दे रहा है उसके बारे में अपनी समझ स्पष्ट नहंी कर पाते हैं, घरों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण के बारे में भी यही स्थिति है । इस ओर भी हमें अपनी जागरूकता बढ़ानी होगी । ***

७ प्रदेश चर्चा

हिमाचल : सेब से आलू तक की यात्रा
- सुश्री रावलीन कौर
वह दिन दूर नहीं जब हमें ठेलों पर हिमाचल के सेब ही जगह हिमाचल के आलू की पुकार सुनाई देगी । जलवायु परिवर्तन से सेब की पारम्परिक खेती को जबरदस्त नुकसान पहुंच रहा है। प्रकृति हमें संभलने के लिए एक के बाद एक संकेत दे रही है । परंतु हम इसे गंभीरता से लेने के बजाए घटिया विकल्पों को अपना रहे हैं । हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के सांगला विकासखंड के ५० वर्षीय हरीश नेगी जिन्होंने अभी- अभी और चीजों के साथ ही साथ रसोई गैस का कनेक्शन भी लिया है का सेबों का बगीचा अपने पूरे शबाब पर है और वे चाहते हैं कि उनके बच्च्े जो शिमला और चंडीगढ़ में पढ़ रहे हैं , घर लौट आएं । उनका कहना है कि उनकी यहां जरूरत है तो वे शहर में क्यों रह रहे हैं ? ६ वर्ष पहले तक हरीश अपनी ८ बीघा (०.६४ हेक्टेयर) जमीन से प्रतिवर्ष ३ लाख रूपये तक कमा लेते थे परंतु परिस्थितियों ने नया मोड़ लिया और इस पहाड़ी इलाके में ठंड कम पड़ने लगी । इससे उत्पादन बड़ा और हरीश और जमीन खरीदने में जुट गया । आज उसके पास १९ बीघा जमीन है और ६ वर्ष पहले के मुकाबले ८ गुना अधिक कमाता है । पहाड़ी सांगला गांव की बत्सेरी पंचायत के सचिव इंदर भगत का कहना है कि पिछले ६ वर्षोंा में एक तरह की क्रांति आई है । अब ९०% से अधिक किसान अनाज और फलियों की खेती छोड़कर सेबों की खेती में जुट गए हैं । हरीश भी उन्हीं मंे से एक है । ऊपरी क्षेत्रों जैसे काजा और टोगो में सेबों की फसल का क्षेत्र और उत्पादन में वृदि्घ हुई है । उदाहरण के लिए १९९८ और २००८ के मध्य किन्नौर जिले में उत्पादन दुगुना हुआ है, लाहौल और स्पीति जिलों में इसके उत्पादन में आठ गुना वृद्धि हुई है और शिमला जिले में डेढ़ गुना की वृद्धि हुई है। ऊपरी क्षेत्र के गांव वाले सेब की फसल की ओर इसलिए मुड़े क्योंकि यहां का वातावरण अब उनके अधिक अनुकूल हो गया है । पहले इस इलाके में सालभर बर्फ रहती थी और किसान इसके पिघलने पर ही कुछ करने की स्थिति में होते थे। किन्नौर जिले के फलोद्यान विभाग के उपनिदेशक एस.एस.मेहता का कहना है कि कुछ किसानोंका कारोबार तो २ से ३ करोड़ रूपए तक का हो गया है । इसके ठीक विपरीत हिमाचल का मध्य और निचले हिस्सा जो कि अपने मीठे सेबों के लिए प्रसिद्घ है, को घाटा उठाना पड़ रहा है । राज्य के फलोद्यान विभाग के अनुसार पिछले वर्ष जहां ५ लाख टन सेब का उत्पादन हुआ था इस वर्ष इसकी तुलना में मात्र २ लाख टन सेब के उत्पादन का अनुमान है । मीठे सेबों को प्रति मौसम कम से कम १ हजार घंटे की ठंड की आवश्यकता होती है । मध्य और निचले इलाके में यह कठिन होता जा रहा है । शिमला के शाथला गांव के बगीचा मालिक जितेंद्र सरकेक का कहना है कि इस वर्ष बर्फबारी ही नहीं हुई और इसके बाद अकाल भी पड़ गया । ठंड ने इस वर्ष तापमान १२ डिग्री से नीचे गया ही नहीं अतएव जमाने वाली ठंड पड़ी ही नहीं । भारतीय मौसम विभाग के निदेशक मनमोहन सिंह का कहना है कि तापमान (जनवरी व फरवरी) में प्रतिवर्ष ०.०१ डिग्री सेंटीग्रेड प्रतिवर्ष का इजाफा हो रहा है । अतएव ऊपरी क्षेत्रों के अपने सहभागियों की बजाए इस क्षेत्र के किसान राज्य के फलोद्यान विभाग की मदद से तेजी से खट्टे सेब का उत्पादन बढ़ाने में लग गए हैं । इस इलाके में बीचे भी काफी पहले लगाए गए थे ।अब ये पेड़ बूढ़े होकर अपना पूरा जीवन जी चुके हैं । नए रोपण के समय किसानों का खट्टे सेबों के प्रति झुकाव साफ नजर आता है इसका कारण है कि इनमें चार वर्षोंा में ही फल आ जाते हैं जबकि मीठी किस्मों में फल आने में आठ वर्ष लग जाते हैं । खट्टे हों या मीठे दोनों तरह के सेबों का अपना बाजार है । खट्टी किस्में इसलिए भी बिक जाती है क्योंकि वे अधिकाधिक सेब मौसम से दो महीने पहले जुलाई में ही बाजार में आ जाती हैं । दिल्ली में इनके २० किलो बक्से की कीमत ११०० से १५०० रूपये के मध्य होती है । हालांकि किन्नौर की मीठी किस्म अधिक लोकप्रिय है जो कि राजधानी में १६०० से २००० के मध्य बिकती है । राज्य के फलोद्यान विभाग के निदेशक गुरूदेव सिंह का कहना है कि जलवायु में आ रहे परिवर्तन से फलसचक्र भी बदल रहा है । इन खट्टे सेबों की किस्मों की जड़ स्पर कहलाती है । इसे अमेरिका से आयात किया जाता है और यह क्लोनल रूट स्टॉक (कृत्रिम कोशिकाआें से निर्मित मातृ पौधा) पर ही विकसित होता है । कोई मातृ पौधा तब कृत्रिम कोशिका कहलाता है जब नर्सरी में उसका विकास बजाए बीज के जड़ से हुआ हो। जब यह विकसित पौधे का रूप ले लेता है तो इसे किसानों को बेचा जाता है । इसके बाद किसान इस पर अपनी पसंद की किस्म जैसे `स्पर' आदि की कलम लगा (ग्राफ्ट) कर देते हैं । इन विदेशी जड़ों के साथ प्रायोग सन् २००० के दशक के प्रारंभ में शुरू किए गए थे । दो साल में ही ये स्थापित भी हो गए । इन जड़ों पर आश्रित इन पेड़ों को अन्य पेड़ों से विविधता के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। इन वृक्षों का कद छोटा होता है, फल का आकार व रंग एक सा होता है और यह जल्दी फल देता है । गौरतलब है कि इन वृक्षों का जीवन मात्र ४० वर्ष है जबकि बीजों से विकसित वृक्ष ७० वर्ष तक जीवित रहते हैं । चूंकि इन्हें पास-पास लगाया जा सकता है अतएव अधिक फल देते हैं । वैसे इस पौधे की लागत ५०० रूपए है परंतु शासन इसे कृषकों को १५० रूपए में दे रहा है । फलोद्यान विभाग गाईला और लाल फ्यूजी जैसी कम खट्टी किस्मों को इसलिए प्रोत्साहित कर रहा है क्योंकि इनमें स्वमेव परागण की क्षमता है । यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि तूफान की स्थिति में मधुमक्खियों की गतिविधियां सीमित हो जाती हैं और चूंकि फूलोें का जीवन तो मात्र १५ से २० दिन का होता है ऐसे में परागण में रूकावट से उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । इस सबसे इतर किन्नौर में सेब उत्पादकों को एक अन्य समस्या से भी दो-चार होना पड़ रहा है । किन्नौर के चगाहो ग्राम के जयचंद्र नेगी का कहना है कि इलाके में निर्मित हो रही जल विद्युत परियोजनाआें के कारण उड़ रही धूल से भी समस्याएं खड़ी हो रही हैं । जिस तेजी से यहां ये परियोजनाएं निर्मित हो रही हैं उससे यह कह पाना कठिन हो गया है कि किन्नौर अपनी सर्वश्रेष्ठ सेब उत्पादक की प्रतिष्ठा को कब तक कायम रख पाएगा ? जहां किसानों का कहना है कि अगर जलवायु अनुकूल रहती है तो हम अच्छे स्वाद वाले सेब अधिक मात्रा में और उचित मूल्य पर उपलब्ध करवा पाएंगे। यदि जलवायु इसी तरह परिवर्तित होती रही तो निचले एवं मध्यम के क्षेत्रों में सिंचाई एक समस्या बन जाएगी । परंतु शासन के पास तो अगली योजना तैयार है, फलोद्यान विभाग के निदेशक का कहना है कि अभी तो हमने `स्पर' को अपना लिया है । जब यह विकल्प भी कारगर नहीं रहेगा तो हम आलू के उत्पादन को प्रोत्साहित करेंगे ।***

८ पर्यावरण परिक्रमा

क्या अगली सदी तक लुप्त् हो जाएंगी नदियां
पूरी दुनिया में बदलते पर्यावरण से चिंतित पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताआें का मानना है कि हिमालयी ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं, उससे आने वाले दिनों में हिमालय से निकलने वाली नदियों के जल प्रवाह में न केवल जबरदस्त कमी आएगी, बल्कि अगली सदी तक नदियां लुप्त् हो जाएंगी। अहमदाबाद के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के वैज्ञानिक तथा ग्लेशियर विशेषज्ञ डॉ. एवी कुलकर्णी के नेतृत्व में वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के एक दल ने करीब ७ वर्षोंा तक हिमालय के विभिन्न ग्लेशियरों की स्थिति का अध्ययन करने के बाद गत जून में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी है । उत्तराखंड के माणा गांव के निवासी ने बताया कि उन्होंने १५ वर्ष की उम्र में पहली बार सतोपंथ का ग्लेशियर देखा था। उस समय सतोपंथ झील एकदम ऊपर थी और चक्रतीर्थ से मात्र आधे घंटे में ही झील के मुहाने पर पहंुचा जा सकता था, लेकिन पिछले साल वे अपने परिवार के साथ जब सतोपंथ गए तो उन्होंने देखा कि झील लगभग ५० मीटर नीचे चली गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले ४ दशकों में हिमालयी राज्यों के ग्लेशियरों में जबरदस्त कमी आई है । रिपोर्ट के अनुसार केवल उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की १० प्रमुख नदियों में जल आपूर्ति के प्रमुख स्त्रोत ग्लेशियरों का क्षेत्रफल वर्ष १९६२ से २००४ के बीच करीब १६ फीसदी कम हुआ है । उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित विश्व प्रसिद्ध बद्रीनाथ धाम के पास से निकलने वाली गंगा की प्रमुख सहायक नदी अलकनंदा के आसपास के १२६ ग्लेशियरों का अध्ययन करने के बाद यह तथ्य सामने आया है कि ग्लेशियरोंके क्षेत्रफल में गिरावट आई है । श्री कुलकर्णी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ४ दशक पहले अलकनंदा के पास के ग्लेशियरों का कुल रकबा ७६४ वर्ग किलोमीटर था, जो अब घटकर ४३८ वर्ग किलोमीटर रह गया है । इसी तरह गंगा की प्रमुख धारा भागीरथी के पास के १८७ ग्लेशियरों का १२१८ वर्ग किलोमीटर का दायरा अब घटकर १०७४ वर्ग किलोमीटर हो गया है। पिछले ४० वर्षोंा में भागीरथी के १४४ वर्ग किलोमीटर के ग्लेशियर पिघल गए हैं। उत्तराखंड की धौली और गौरी गंगा नदियों की स्थिति भी खराब है ।
बूढ़े बरगद से डरता है बुढ़ापा
मनुष्य की चार अवस्थाआें में बुढ़ापा सबसे नापसंद अवस्था है पर यह प्रकृति की वह हकीकत है जिसे स्वीकार करना ही पड़ता है । बहरहाल बुढ़ापे की ओर तेजी से बढ़ रहे लोगों के लिए यह खबर काफी राहत देने वाली होगी । अपने कई गुणों के कारण आयुर्वेद चिकित्सा और भारतीय जीवन पद्धत्ति का चहेता रहा बरगद अब बुढ़ापा भी रोकने में कामगार साबित होगा । इसकी हवाई जड़ों में एन्टी आक्सीडेन्ट की उपलब्धता सर्वाधिक पायी गयी है । इसके इसी गुण के कारण वृद्धावस्था की ओर ले जाने वाले कारकों को दूर भगाया जा सकेगा । कभी घर के बूढ़े बुजुर्गोंा की तरह ग्रामीण भारतीय समाज का अभिन्न व सम्मानित अंग रहे बरगद पर इलाहबाद विश्वविद्यालय में चल रहे शोध से छन कर ये बाते सामने आयी हैं। आयुर्वेदिक औषधि की खान माने जाने वाले बरगद पर अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी लट्टू है । इलाहबाद विश्वविद्यालय के जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष प्रो. बेचेन शर्मा के अनुसार यहां किये जा रहे पशुआें पर प्रयोग सल रहे तो बरगद मनुष्य में बुढ़ापा या एजिंग रोकने का सर्वसुलभ व सस्ता उपाय साबित होगा। उन्होंने बताया कि शरीर के अंदर विभिन्न मार्गोंा से स्वतंत्र मूलक या फ्री रैडिकल्स पहंुचते रहते हैं । यह विषाक्त फ्री रैडिकल्स विभिन्न बीमारियों व असामान्य शारीरिक स्थितियों के कारक होते हैं । इसमें शरीर मेंे झुर्रियां पड़ना, नींद न आना, बालों का जल्दी झड़ना या सफेद पड़ जाना, पसीना आना, सहन शक्ति की कमी, बिन कारण उत्तेजित हो जाना, निर्णय लेने की अक्षमता, संवेदनशीलता का कम हो जाना जैसी स्थितियां शामिल हैं । शरीर के उम्र दराज दिखने के पीछे भी इन्हीं फ्री रैडिकल्स को जवाबदार माना जाता है । प्रो. शर्मा के अनुसार शरीर की कोशिकाएं एन्टी आक्सीडेन्ट के माध्मय से इन फ्री रैडिकल्स का प्रबंधन करती हैं। शरीर के कई एन्जाइम भी इन फ्री रैडिकल्स को बदलते रहते हैं। शरीर में एन्टी आक्सीडेन्ट की मात्रा को बढ़ा कर फ्री रैडिकल्स पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है ।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानम, बाल
मुकुन्दम सिरसा नमामि...।
यह श्लोक बरगद की दीर्घ जीविता व महत्व को बताता है । प्रलय काल में भी यह नष्ट नहीं होता व भगवान विष्णु बाल रूप में सभी देवताआें के साथ इस पर निवास करते हैं । पंडित राम नरेश त्रिपाठी के अनुसार वट का आयुर्वेद में खासा महत्व है । इसकी जड़े छाल, फल, पत्ते, दूध सभी औषधि हैं । चर्म रोग व बहुमूत्र में छाल औषधि के रूप में इस्तेमाल होता है । इसका फलों का प्रयोग मधुमेह व बहुमूत्र जैसे रोगों में किया जाता है । वट का दूध कटे छिले व घाव में काफी असरकारक है ।
पवन ऊर्जा उत्पादन ३३ हजार मेगावाट हो जायेगा
देश में आगामी १०-१२ वर्षोंा में गैर परंपरागत स्त्रोतों से बिजली उत्पादन में तेज वृद्धि होने की उम्मीद है । वर्ष २०२२ तक पवन ऊर्जा उत्पादन वर्तमान ११ हजार मेगावाट से तीन गुणा बढ़कर ३३ हजार मेगावाट तक पहुंच जाने की उम्मीद है । नवीन एवं अक्षय ऊर्जा मंत्री डा. फारूख अब्दुल्ला ने कहा कि सरकार गैर परंपरागत ऊर्जा स्त्रोेतों को बढ़ावा दे रही है और आने वाले १०-१२ वर्षोंा में इस क्षेत्र में अच्छी सफलता मिलने की उम्मीद है। उन्होंने कहा कि अगले तीन वर्ष में ही सौर ऊर्जा उत्पादन जो कि इस समय नाममात्र का ही है बढ़कर १३०० मेगावाट तक पहुंच जायेगा । डा. अब्दुल्ला ने कहा कि पवन ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में निजी एवं सार्वजनिक भागीदारी प्रयासों के जरिये इसका उत्पादन २०२२ तक तीन गुणा बढ़कर ३३००० मेगावाट तक पहुंच जायेगा। मंत्रालय के पास निजी क्षेत्र से भागीदारी के अनेक प्रस्ताव आ रहे हैं, इनका परीक्षण किया जा रहा है और जल्द ही इन्हें मंजूरी दे दी जायेगी । इस क्षेत्र में सरकारी भागीदारी ज्यादा नहीं होगी लेकिन निजी क्षेत्र देश के दूरदराज इलाकों में पवन ऊर्जा संयंत्र लगाने के लिये काफी रूचि ले रहा है । उम्मीद है कि १३ वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक इस क्षेत्र में काफी प्रति देखने को मिलेगी । सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भी मंत्रालय ने अपने प्रयास तेज किये हैं । उन्होंने प्रधानमंत्री डा. मनमोहनसिंह को वचन दिया है इसलिये तीन वर्ष में ही सौर ऊर्जा उत्पादन भी बढ़कर १३०० मेगावाट तक पहुंच जायेगा।
बायोनिक आंखों से सबकुछ दिखने लगा
बायोनिक आंखो की मदद से ३० साल बाद दोबारा देखने में सक्षम हुए एक नेत्रहीन व्यक्ति ने लाखों नेत्रहीन लोगों के लिए उम्मीद की एक नई किरण जगा दी है । पीटर लेन (५१) ने ब्रिटेन के एक अस्पताल में बायोेनिक आंखे लगवाई और अपनी दृष्टि खोने के ३० साल बाद वह फिर से आंशिक रूप से देखने में सक्षम हो गया । पीटर उन ३२ लोगों में शामिल था, जो मैनचेस्टर रॉयल आई हास्पिटल में इस साल के शुरूआत में बायोनिक आंख एक अंतर्राष्ट्रीय परीक्षण में शामिल हुए थे। वह एक आनुवांशिक रोग के कारण अपनी दृष्टि खो चुका था, लेकिन इस प्रतिरोपण की मदद से अब वह साधारण शब्दों को पढ़ सकता है । डेली मेल मेें प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक बायोनिक आंख प्रकाश के श्रंृखलाबद्ध बिंदुआें की मदद से उसे किसी वस्तु की बाहरी रूपेरखा देखने में भी सहायता करता है । पीटर ने बताया कि किसी भी चीज को देखने में सक्षम नहीं होने के बाद अक्षरों और शब्दों को एक खास स्क्रीन पर देखना बहुत ही आश्चर्यजनक अनुभव है । मैं डैड, मैट, कैट पढ़ सकता हूं । पीटर ने बताया कि मैं इस वक्त सिर्फ छोटे शब्दों को ही पढ़ रहा हूं और चिकित्सक मुझसे छोटे अक्षर पढ़वाने की कोशिश कर रहे हैं । यह तो शुरूआत भर है और उन्होंने कहा है कि वे मुझे एक स्क्रीनदेंगे ताकि मैं घर में भी पढ़ सकूंगा। पीटर ने बताया कि अब वह बाहर निकलने पर अधिक स्वतंत्र और मजबूत महसूस करता है । नेत्ररोग विशेषज्ञ पाउलों स्टांजा ने बताया कि रोगियों की हालत में सुधार के बारे मेंे हमने जितना सोचा था, उससे तेजी से सुधार हो रहा है । यह निश्चित तौर पर रोगियों और वैज्ञानिक समुदाय, दोनों को बहुत अधिक प्रोत्साहित करने वाला है, हालांकि इस दिशा में अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है ।
क्यों खतरनाक है कार्बन डाइऑक्साईड
क्या ऑक्सीजन के बिना जीवन की कल्पना की जा सकती है ? बिल्कुल नहीं । लेकिन कार्बन डाइ ऑक्साइड में सांस लेना जानलेवा क्यों हो सकता है, इसका जवाब शायद कम ही लोगों के पास हो । लोवा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें ने चूहों पर किए गए अध्ययन में पाया कि कार्बन डाई ऑक्साईड मस्तिष्क में अम्ल पैदा करता है जो प्राणघातक हो जाता है । विश्वविद्यालय के साइकिएट्री एण्ड न्यूरोसर्जरी के प्रोफेसर जॉन वेमी ने बताया कि सांस के जरिए सीओटू फेंफड़ों से होकर मस्तिष्क तक पहुंचता है । इससे मस्तिष्क में अम्ल पैदा होता है जो व्यक्ति भय, चिंता और बेचैनी बढ़ाता है । उन्होंने कहा कि सीओटू की मात्रा यदि ज्यादा हो जाएतो व्यक्ति जान से हाथ धो बैठता है । जॅान वेमी ने बताया कि अध्ययन के इन निष्कर्षोंा से संत्रास और चिंता जैसी विकृति का इलाज विकसित करना संभव है। वेमी ने बताया कि अध्ययन के दौरान उनकी टीम ने मस्तिष्क में मौजूद ऐसे प्रोटीन का पता लगाया जेा कि किसी व्यक्ति में भय,चिंता हड़बड़ी के लिए जिम्मेदार होता है । ***

९ जनचेतना

राष्ट्रीय जनमत संग्रह आयोग बने
- डॉ. बनवारीलाल शर्मा
इस समय देश के हर कोने से बचाओ-बचाआें की आवाजें आ रही हैं। उत्तर प्रदेश में गंगा एक्सप्रैस वे, जमुना एक्सप्रैस वे, ताज कॉरी-डोर जैसी परियोजनाआें से किसानों की सबसे बढ़िया, ऊपजाऊ लाखों एकड़ जमीन छिन रही है। कहने को तो सड़क बनाने के लिए जमीन ली जा रही है पर दरअसल इस बहाने सड़क के किनारे होटल, मोटल, कालोनी, माल आदि खड़े करने की योजनाएँ हैं । पिछले दिनों पश्चिम उत्तर प्रदेश के हजारों किसान दिल्ली में डेरा डाले पड़े थे, इसलिए कि वे अपनी गन्ने की खेती बचाना चाहते हैं । सरकार ने किसानों को पूछे बिना उनके गन्ने का दाम तय कर दिया है बाहर से चीनी मंगाने का फैसला कर लिया है। महाराष्ट्र में रायगढ़, गोराई, नासिक आदि स्थानों पर किसान सेज के खिलाफ, रत्नागिरी के गाँवों में परमाणु प्लांट के खिलाफ लड़ रहे है । पूरा झारखण्ड लड़ाई का मैदान बन गया है । कोयला, लोहा, युरेनियम तथा अन्य खनिजों की खदान लगाने के नाम पर लाखों लोगों की खेती, जंगल और घरद्वार से उजाड़ा जा रहा है। यही कहानी आन्ध्रप्रदेश के कोस्टल कॉरीडोर की है । वहॉ लग रहे सेज और परमाणु प्लांट के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं । तमिलनाडू में, कर्नाटक में, केरल में लोग अपने जमीन और जल को बचाने के लिए लोग सड़कों पर उतर आये हैं । मेघालय में ददाह (रेणुकाजी) में बाँध के विरूद्ध तथा उत्तराखण्ड में नदियों को बचाने के लिए लोग सड़कों पर उतर आये हैं । मेघालय में युरेनियम खान को रोकने के लिए आन्दोलित है । गुजरात में भावनगर में स्थापित होने वाले परमाणु प्लांट के खिलाफ लोगों ने मोर्चा संभाल लिया है। पंजाब के किसान अपने बेंगन बचाने के लिए मोनसांटो कम्पनी के बीटी ब्रिंजल के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं । यह तस्वीर कमोवेश पूरे देश की है । सरकार और देश-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मिल कर विकास के नाम पर लोगोंं जमीन, जंगल, जल और जीविका से विस्थापित कर रहे हैं । अगर लोग यह सब बचाने के लिए खड़े होते हैं तो उन्हें विकास विरोधी कहा जाता है और सरकार उन पर पुलिस की लाठियाँ बरसाती है । सरकार, कम्पनियों और कुछ पढ़े-लिखे विद्वानों-अर्थशास्त्रियों की तरफ से कहा जाता है कि विकास तो होना ही है, ९ फीसदी जीडीपी दर तो लानी ही है, फिर किसी न किसी को तो उसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी । यह तो होना ही है, और कोई रास्ता नहीं है । लोभ लालच देकर, भय दिखाकर, दमन करके लोगों को बड़े पैमाने पर उजाड़ा जा रहा है । सवाल यह है : यह देश है किसका ? ये जल, जंगल, जमीन हैं किसकी? क्या उन सरकारों की हैं जो किसी तरह से जैसे-तैसे वोट बटोर कर, गठजोड़ कर के बनती है? क्या उन देशी-विदेशी कम्पनियों की हैं जिन्होंने छल-फरेबी, घूसखोरी करके धन-दौलत बटोर ली है ? और जिनकी बेईमानी के काले कारनामे जगजाहिर हैं ? या फिर उन करोड़ों लोगों की, किसानों की, आदिवासियों की, वनवासियों की है जो सदियों से रक्षा करते हुए, इन्हें संभाले हुए और अपनी जीविका चलाते हुए चले आ रहे हैं ? देश में अभी तानाशाही तो है नहीं, लोकतंत्र है । पर यह कैसा लोकतंत्र है कि लोगों से पूछा तक नहीं जाता है कि तुम्हें परमाणु प्लांट चाहिए या नहीं, सेज चाहिए या नहीं, जंगल काटने चाहिए या नहीं, नदी बिकनी चाहिए या नहीं । जिन लोगों के वोट और नोट पर सरकार और कम्पनियों में बैठे लोग मौज कर रहे है उनके उनकी राय जानने की बात इन आकाश मेंउड़ने वालों के दिमाग में क्यों नहीं आती ? इसलिए नहीं आती कि वे जानते है कि उनके कारनामे जन विरोधी हैं । रायगढ़ में अम्बानी का २५ हजार एकड़ जमीन पर सेज सरकार ने मंजूर कर दिया। लोगों ने चिल्लाना शुरू किया कि हम उजड़ जायेंगे इस सेज की वजह से आन्दोलनकारियों ने दबाव बनाया कि लोगों से पूछो तो सही । कलेक्टर अच्छा था, सरकार से इजाजत लेकर उसने २२ गाँवों में जनमत संग्रह (रिफरेंडम) करा डाला । ९६ फीसदी लोगों ने सेज न बने यह वोट डाले । सरकार ने जनमत संग्रह का नतीजा घोषित ही नहीं किया । यह दूसरी बात है कि नतीजा लीक हो गया और एक अखबार ने छाप दिया । सरकारें लोगों के प्रति जिम्मेदार नहीं रह गयी है । उनकी निगाह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, विश्व बैंक, आईएमएफ , वर्ल्ड इकनोमिक फोरम, इण्डोयूएस बिजिनेस काउंसिल, अमरीकी सरकार, यूरोपीय संघ की तरफ हैं । इस देश की सरकारें जनमत संग्रह नहीं करायेंगी (जबकि कई अन्य देशों में ऐसा होता है ।) पर जो काम सरकार न करे तो उसे लोगों को करना होगा । वक्त आ गया है कि देश में एक राष्ट्रीय जनमत संग्रह आयोग (छरींळिरिश्र ठशषशीशर्विीा उिााळीीळिि) गठित किया जाये। देश में ५-७ ऐसे लोग इसके सदस्य हो जिनकी सत्यनिष्टा, न्याय निष्ठा पर कोई अंगुली न उठा सके । देश के जितने छोटे-बड़े जन संगठन है, वे इस आयोग को मान्यता प्रदान करें । यह आयोग पारदर्शी तरीके से जरूरत पड़ने पर अलग-अलग मुद्दों पर जनमत संग्रह करायेगा । जनमत संग्रह की प्रक्रिया खड़ी की जा सकती है, उसे खड़ी करने के लिए, दश्ेा में लोग हैं । सरकार इसे मान्यता न देगी, न दे, पर देश-विदेश के लोग इसके नतीजों को मानेंगे, उससे जन शिक्षण होगा, जन संघर्षोंा को बल मिलेगा और न्याय व्यवस्था की दिशा में सही कदम उठेंगे । (इस विषय में पाठकों की महत्वपूर्ण राय क्या है, यह जानने का हमें इन्तजार रहेगा - सम्पादक ) ***
पक्षियों ने लगाई विमानन कंपनियों को करोड़ों की चपत
पक्षियों ने इस साल देश की नागर विमानन कंपनियों को कम से कम ७ करोड़ रूपए का नुकसान पहुँचाया है । वास्तव में पक्षियों के विमान से टकराने की वजह से कंपनियों को यह नुकसान हुआ है । सरकार द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक इस वर्ष अक्टूबर के अंत तक विभिन्न घरेलू एयर लाइनों के विमानों से पक्षियों के टकराने की २४१ घटनाएँ दर्ज की गइंर्। पिछले वर्ष इसी अवधि में ऐसे २७७ मामले दर्ज किए गए । इनमें एयर इंडिया में २४, जेट में ४९, किंगफिशर ६०, इंडिगो २७, स्पाइस जेट ३०, पैरामाउंट १ और गो एयर ने ऐसी ७ घटनाआें की सूचना दी । इस दौरान अंतराष्ट्रीय एयरलाइनों ने ऐसे ३४ और अन्य विमानों ने ६ मामलों की रपट दी । ऐसी घटनाआें के कारण इस वर्ष स्पाईस जेट को ५.५७ करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ा, जबकि वेट एयरवेज को ८.९१ लाख रूपए, इंडिगो को ८७ लाख रूपए और गोएयर को ४५.६ लाख रूपए की चपत लगी । इस समस्या के निबटने के लिए एनबीसीसी द्वारा जारी दिशा-निर्देश पर नागर विमानन महानिदेशालय ने कार्रवाई की, उल्लेखनीय है कि नए नियमों के तहत हवाईपट्टी क्षेत्र और उसके आसपास के इलाकों में मरे हुए पशु-पक्षियों को खुला फेंकने की रोकथाम के लिए प्रावधान सख्त किए हैं क्योंकि इनसे पक्षी आकर्षित होते हैं । ऐसे मामले में एक लाख रूपए का जुर्माना या तीन महीने की कैद या दोनों की सजा का प्रावधान भी है ।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

१० ज्ञान विज्ञान

कहां से सीखते हैं पक्षी गुनगुनाना


एक नई सामाजिक नेटवर्क टेक्नॉलॉजी टिव्टर से पता लगाया जा सकेगा कि कौन सी सॉन्गबर्ड (गाने वाली चिड़िया) एक-दूसरे के साथ समय बीताती है और वे धुनें कैसे सीखती हैं । चिड़ियाआें के इस मेल - मिलाप को रिकॉर्ड करने के लिएउन पर एक बिल्ला लगाया जाएगा जो यह जानकारी देगा कि वे कब, कहां और कितनी देर एक-दूसरे के समीप रहती हैं । वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें की योजना है कि अगले बसंत तक शहर के पास के जंगल में गीत गाने वाली गौरैया पर ऐसे बिल्ले लगा देंगें । उनको लगता है कि अन्य इकॉलॉजिस्ट भी इनका उपयोग करने को आगे आएंगें । एक-एक ग्राम के ये बिल्ले जॉन बर्ट और उनके साथियों ने विकसित किए हैं । ये सोलर सेल से चलते हैं और उनमें ऊर्जा संग्रहण की क्षमता होती है । ये बिल्ले रेडियो द्वारा बताते रहते हैं कि कब दूसरा बिल्ला पास आया और कितनी देर तक पास रहे । यह डैटा जंगल में स्थापित एक बेस स्टेशन में रिकॉर्ड होता रहता है। बर्ट और उनके साथी नर सॉन्गबर्ड में पहला बिल्ला लगाने की योजना बना रहे हैं । ये नर पक्ष मादा पक्षियों को अलग- अलग प्रकार की धुनों से रिझाने की कोशिश करते हैं और पड़ोस के इलाके के अन्य नर पक्षियों से भी संवाद करते हैं। युवा नर अपना इलाका स्थापित करने से पहले अपनी ज़िंदगी का पहला साल इन धुनों व गीतों को सीखने और उनकी रियाज करने में बिताते हैं । बर्ट बताते हैं कि `` वे गीतों को आत्मसात करते हैं लेकिन गाते नहीं हैं ।'' युवा नरों में पड़ोसी इलाकों में रहने वाले वयस्कों से गीत सीखने की प्रवृत्ति होती है । वे अपने पड़ोसी इलाके के पक्षियों की धुन गुनगुनाकर आक्रमण का संकेत भी देते हैं और कभी- कभी तनाव कम करने में भी उपयोग करते हैं। इसका मतलब यह है कि अपने पड़ोसी की सबसे सफल धुनों को जानना बहुत महत्वपूर्ण है । जो पक्षी इसमें असफल हो जाते हैं , वे आपस में ज्यादा लड़ाई करते हैं और अपना इलाका छोड़ देते हैं। और इसी के साथ अपना साथी ढूंढने का मौका भी गंवा देते हैं । लेकिन सही-सही यह अभी तक पता नहीं चल पाया है कि युवा नरों को यह कैसे पताचलता है किाकौन-सी धुनें सीखें । वयस्कों और युवाआें पर बिल्ले लगाएंगे जो यह बता पाएंगें कि ये पक्षी किसके साथ कितना वक्त बिताते हैं और किसका गाना सुन रहे हैं । इन प्रोटोटाइप बिल्लों की कीमत अभी ४०० डॉलर के आस-पास है मगर जल्दी ही कम हो जाएगी । बर्ट को अपने प्रोजेक्ट के लिए कम से कम सौ के करीब बिल्लों की जरूरत होगी । वे कहते हैं कि `` हर कोई मेरी तरह चिड़ियाआें के इस तरह के व्यवहार को जानना चाहता है । '' इस तरह की प्रक्रिया चलाने के लिए दूसरी सहायक तकनीकों की भी ज़रूरत होगी , जैसे ऑडियो रिकॉर्डर, त्वरण मापी या जीपीस यूनिट । वे इस माड्यूलर बनाना चाहते हैं ताकि हर शोधकर्ता अपने हिसाब से इसके अलग-अलग घटकों में परिवर्तन कर सके। बिल्लों का उपयोग अन्य जंतुआें पर सामाजिक व्यवहार शोध के लिए भी किया जा सकता है ।



नर हार्मोन कंजूसी का द्योतक है



यदि आप किसी सेल्समेन से सौदेबाजी करने जा रहे हैं तो हट्टे-कट्टे , मोटे - तगड़े सेल्समेन से बचकर रहें । क्योंकि जो हार्मोन उसे हट्टे-कट्टा बनाता है वही उसे कंजूस भी बनाता है । यह बात एक नए शोध से साबित हुई है । केलिफोर्निया के व्हिटियर कॉलेज में न्यूरोइकोनॉमिस्ट केरन रेडवाइन कहती हैं कि `` टेस्टोस्टेरॉन मर्दोंा को कंजूस बनाता है'' । उन्होंने अपना यह निष्कर्ष हाल ही में सोसायटी फॉर न्यूरोसाइंस की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किया । लंदन शहर के १७ व्यापारियों पर पहले किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि यक्ति में सुबह टेस्टेस्टेरॉन स्तर का संबंध उस दिन के लाभ - हानि से होता है । हार्मोन ज़्यादा हो तो लाभ होता है । लेकिन इस अध्ययन से टेस्टेस्टेरॉन और चालाकी के बीच कार्य- कारण संबंध स्थापित नहीं हुआ । रेडवाइन और उनके साथियों ने इसे और समझाने के लिए विश्वविद्यालय के २५ युवाआें पर एक प्रयोग किया । इनमें से कुछ को टेस्टेस्टेरॉन युक्त और कुछ को साधारण मल्हम लगाया गया । टेस्टेस्टेरॉन यक्त मल्हम लगाने पर शरीर में इस हार्मोन की मात्रा बढ़ जाती है। मगर न तो शोधकर्ताआें और न ही वालंटियर्स को पता था कि किसके खून में हार्मोन बढ़ा हुआ है । फिर उनकी उदारता का परीक्षण किया गया । इन वालंटियर्स को कम्प्यूटर पर लेन-देन का एक सरल खेल खेला । एक वालंटियर को कहा गया कि वह १० डॉलर को दूसरे वालंटियर के साथ जैसे चाहे बांटे और दूसरे वालंटियर को यह ऑफर था किवह इस बंटवारे को स्वीकार कर ले या अगर उसे बंटवारा सही न लगे तो उसे अस्वीकार कर दे । अस्वीकार करने की स्थिति में किसी को भी कोई पैसा नहीं मिलेगा । सभी वालंटियर्स को बंटवारा करने तथा उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का मौका मिला । खेल का निष्कर्ष यह निकला कि बढ़े हुए टेस्टेस्टेरॉन के कारण उदारता में औसतन २७ प्रतिशत की कमी आई । बढ़े हुए टेस्टेस्टेरॉन वाले वालंटियर्स बंटवारे में सामने वाले को १० में से २.१५ से १.५७ डॉलर ही देते थे । यही प्रयोग टेस्टेस्टेरॉन के एक अपेक्षाकृत ज़्यादा शक्तिशाली रूप टेस्टेस्टेरॉन डाइहाइड्रोस्टेरॉन (ऊढक) के साथ भी किया गया । इसका प्रभाव और भी ज़्यादा रहा । जिसे ज़्यादा मात्रा में ऊढक दिया गया था उसने अपने पार्टनर को १० डॉलर में से मात्र ०.५५ डॉलर दिए औ जिसे कम ऊढक दिया गया था उसने ३.६५ डॉलर दिए । दूसरी ओर , हार्मोन की वजह से वालंटियर्स ४ डॉलर से कम की पेशकश को अस्वीकार भी करने लगे जबकि कम हार्मोन वाले वालंटियर्स २.५ डॉलर तक स्वीकार करने को तैयार हो जाते थे । यानी हार्मोन का असर लोगों को ज़्यादा स्वार्थी बना देता है, चाहे वे पेशकश करने की भूमका में हो या उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करने की भूमिका में हों। यह बंटवारे को ५०-५० की ओर धकेलने का एक तरीका हो सकता है । अभी यह स्पष्ट नहीं है कि व्यवहार में यह परिवर्तन कैसे होता है । एक कारण यह हो सकता है कि टेस्टेस्टेरॉन एक अन्य हार्मोन ऑक्सीटोसीन के साथ कुछ क्रिया करता है । ऑक्सीटोसीन उदारता को बढ़ाता है । रेडवाइन ने नोट किया है मस्तिष्ट में टेस्टेस्टेरॉन ऑक्सीटोसीन की क्रिया को रोक देता है।



ग्रीन हाऊस प्रभाव का रासायनिक विश्लेषण



वैश्विक तापक्रम का सबसे बड़ा कारण कार्बन डॉईऑक्साइड हो सकता है, लेकिन दूसरी गैसें भी ग्रीन हाउस एजेंटों के रूप में ज़्यादा प्रभावी हैं । सवाल यह है कि इन अणुआें में ऐसी क्या बात है कि ये गर्मी को बांधने में इतने सक्षम होते हैं ? नासा में कार्यरत् एक दल का कहना है कि वह यह रहस्य जानता है और इसके आधार पर ज़्यादा पर्यावरण मित्र पदार्थ बनाए जा सकते हैं । कैलीफोर्निया के एम्स रिसर्च सेंटर के टीमोथी ली और उनके साथियों ने फ्लोरोकार्बन नामक ग्रीन हाऊस गैस के रासायनिक और भौतिक व्यवहार का विश्लेषण किया । उन्होंने पाया कि जिन अणुआें में फ्लोरीन परमाणु होता है वे गर्मी को कैद करने में अत्यंत सक्षम होते हैं । खासकर वे अणु जिनमें एक ही कार्बन परमाणु से कई फ्लोरीन परमाणु जुड़े होते हैं । फ्लोरोकार्बन इसी तरह का अणु है । ली का कहना है कि ग्रीनहाउस प्रभाव की दृष्टि से महत्व सिर्फ कार्बन -फ्लोरीन बंधनों की संख्या का नहीं बल्कि इस बात का भी है कि ये बंधन अणु में कैसे और कहां स्थित है । फ्लोरोकार्बन की ताप अवशोषित करने की क्षमता कार्बन-फ्लोरीन बंधनों के इलेक्ट्रिक गुणधर्म की वजह से होती है और यह प्रभाव तब ज्यादा होता है जब एक ही अणु मेंकई ऐसे बंधन मौजूद हों । यह बात ट्रेट्राफ्लोरोमीथेन के उदाहरण से समझी जा सकती है । इसमें एक ही कार्बन पर चार फ्लोरीन परमाणु जुड़े होते हैं, जो अधिकतम संभव है । टेट्राफ्लोरोमीथेन कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में ७३९० गुना ज़्यादा ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करता है । यह टेट्राफ्लोरोमीथेन की ग्लोबल वार्मिंग क्षमता है जिसकी गणना १०० साल की अवधि में की गई है । ***

११ विज्ञान हमारे आसपास

संजीवनी - कितना सच कितना मिथक

- डॉ. किशोर पंवार

देश की प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका करंट सांइस के एक लेख छपा है `इन सर्च ऑफ संजीवनी' । यह के.एन. गणैशय्या, आर. वासुदेव एवं आर. उमाशंकर का संयुक्त प्रयास है । यह खोजी प्रकृति का एक बहुत ही श्रेष्ठ कोटि का विश्लेषणात्मक लेख है । लेखकों ने रामायण में वर्णित संजीवनी बूटी की खोज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत ही सुन्दर एवं सराहनीय प्रयास किया है । हालांकि कुछ बिन्दु अभी भी ऐसे हैं जिन पर रोशनी डाली जाना बाकी है । जैसे संजीवनी का दीप्त्मिान होना । उक्त लेखकों का मत है कि यदि इस बात की ज़रासी भी संभावना है कि संजीवनी बूटी का नाम का कोई पौधा या समूह था या है, तो इसे खोजा जाना चाहिए। संभावनाआें को तलाशना विज्ञान का एक महत्वपूर्ण काम है । संजीवनी के संदर्भ में यदि ऐसा नहीं किया गया तो हो सकता है कि हम ऐसी महत्वपूर्ण जड़ी-बूटी गवां दें । लेखकों ने उनके खज़ाने - एक हज़ार पौधों के डैटाबेस `जैव सम्पदा' - में शुरूआती तौर पर १७ ऐसे पौधों को चुना जिसमें संजीवनी होने की संभावनाएं हैं । फिर उनमें ६ पौधे चुने और अन्त में वे अपनी खोज में इस निष्कर्ष पर पहंुचते हैं कि केवलदो ऐसे पोधे हैं जिनमें संजीवनी ब्रायोंप्टेरिस और दूसरा डेस्मोट्रायकम फिम्ब्रिएटम । पहला (सिलेजिनेला) एक सरल प्रकार का ज़मीनी पौधा है जो जैव विकास की प्रथम पायदान पर खड़ा है । दूसरा (डेस्मोट्रायकम) एक उपरिरोही ऑर्किड हैं जो विकास की सर्वोच्च् पायदान का प्रतिनिधि है । छह मंे से इन दो पौधों के चुनाव का कारण इनका आवास है । चूकि हनुमान को संजीवनी की तलाश में हिमालय पर्वत पर भेजा गया था अत: संजीवनी एक पहाड़ी पौधा ही होना चाहिए, मैदानी या रेगिस्तानी नहीं । ये दोनों पौधे इस मापदण्ड पर खरे उतरते हैं । सिलेजिनेला ब्रायप्टेरिस कटिबंधीय जंगलों के पहाड़ी क्षेत्रों मेंे मिलता है (जिसे अरावली पर्वत माला और विशेषकर मध्यप्रदेश के बस्तर, बिलासपुर और होशंगाबाद जिले में) । वहीं डेस्मोट्रायकम पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्वी राज्यों की पहाड़ियों पर उगता है । ये दोनों पौधे औषधीय गुणों से भरपूर भी हैं। सिलेजिनेला गर्मी और लू से बचाता है । रामायण के वर्णन से स्पष्ट होता है कि राम-रावण युद्ध के दौरान शक्ति लगने से लक्ष्मण मूच्र्छित हो गए थे और संजीवनी बूटी ने उन्हें वापस होश में ला दिया था । इससे यह स्पष्ट है कि मृत नहीं केवल मूच्र्छित हुए थे । अत: संजीवनी ऐसी बूटी/औषधि है जो मूर्च्छा तोड़कर पुन: होश में ला दे । यानी लगभग पुन: जीवित करने के गुण वाली बूटी ।

डॉक्ट्रीन ऑफ सिग्नेचर

यह एक पुराना सिद्धांत हैं जिसके अनुसार जो पौधा या पौधे का हिस्सा मानव शरीर के अंग से समानता रखता हैं उसमें उसे ठीक करने का गुण होता है । यह सिद्धांत विदेशों में काफी समय तक माना जाता रहा था, विशेषकर हर्बलिस्ट के बीच । जैसे बादाम आंख जैसी दिखता है तो यह आंख के रोग में लाभकारी होगी । अखरोट हूबहू दिमाग की रचना जैसा दिखता हे अत: यह याददाश्त बढ़ाने में उपयोगी होगा या तंत्रिका विकारों को ठीक करेगा । उसी तरह लिवरवट्र्स लीवर संबंधी रोगों में उपयोगी माने गए हैं । एक और पौधा है जिसे मैंने अक्सर अपने बगीचे से लोगों को ले जाते देखा है, नाम है हाड़-जोड़ यानी हड्डी जोड़ने वाला । अस्थिभंग की अवस्था में उसका पुल्टिस बांधते हैं । पौधा ऐसा दिखता है जैसे छोटी हडि्डयाँ जोड़ दी गई हैं । वानस्पतिक नाम है वायटिस क्वाड्रागुलेरिसा । यहां एक और पौधे मेन्ड्रेक यानी जिनसेंग का ज़िक्र लाज़मी है । इस पौधे की जड़े हूबहू मानवाकार होती हैं - सिर, पैर हाथ, धड़, और तो और उंगलियों भी दिखाई देती हैं इसकी जड़ों पर । यह पौधा पूरे शरीर के उपचार में उपयोग किया जाता है । यही है डॉक्ट्रीन ऑफ सिग्नेचर । इसी आधार पर संजीवनी को देखा जाए तो उस पौधे में स्वयं पुनर्जीवित होने का गुण होना चाहएि। अत: यह माना जा सकता है कि यह मूर्च्छा तोड़ने अर्थात पुन: जीवन के गणु लाने में सहायक होना चाहिए ।

पुनर्जीवित होने का गुण

सिलेजिनेला की कई प्रजातियां शुष्क स्थानों पर उगती हैं और इन्हें रीसरक्शन प्लांट कहा जाता है । पानी की कमी में ये लिपटकर एक हल्की-भूरी गेंदनुमा रचना बना लेते हैं और नमी मिलते ही ये पुन: खुलकर एकदम ताजे हरे हो जाते हैं जैसे ये कभी सूखे ही न थे । यह चमत्कारी गुण उन्हें विशिष्ट बनाता है । उसे कुछ जगह पर डायनोसौर पौधा भी कहते है क्योंकि यह लगभग मृत विलुप्त् अवस्था से पुन: जीवित हो उठता है । सिलेजिनेला की कई प्रजातियां, जैसे सिलेजिनेला लेपिडोफिला, सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस आदि दुनिया के कई देशों में एक अजूबे की तरह बेची जाती हैं । यूएस में १९२१ से इसे बेचा जाता है । कुछ लोग उसे फाल्स रोज़ कहते हैं तो कुछ स्टोन फ्लावर । सिलेजिनेला के पुन: जीवित हो उठता है। सिलेजिनेला की कई प्रजातियां, जैसे सिलेजिनेला लेपिडोफिला, सिलेजिनेला ब्रायोप्टेरिस आदि दुनिया के कई देशों में एक अजूबे की तरह बेची जाती हैं । यूएस में १९२१ से इसे बेचा जाता है । कुछ लोग उसे फाल्स रोज कहते हैं तो कुछ स्टोन फ्लावर । सिलेजिनेला के पुन: जीवित होने का यह गुण ही उसे संजीवनी बूटी मानने को विवश करता है । एक पौधा लगभग मृत अवस्था में पड़ा रहे, जड़ से उखड़कर भी पुन: पानी मिलते ही जिंदा हो जाए, क्या यह कम आश्चर्य नहीं? जो पौधा स्वयं पुन: जीवित हो जाता है वह दूसरे किसी जीव में जान क्यों नहीं डाल सकता ? इस संदर्भ में शाह और उनके साथियों द्वारा २००५ में किए गए शोध में सिलेजिनेला का रस चूहे की कोशिकाआें को ऑक्सीकारक तानव एवं तंत्रिका विकार से ठीक कर देता है । मूर्च्छा एक तरह का तंत्रिका विकार ही है । शोध की दिशा से यह संकेत तो मिल ही रहा है कि ऐसा कोई पौधा हो सकता है जो तंत्रिका विकार को ठीक कर सकता है । चूहे की कोशिका और मानव कोशिकाएं समान ही होती है। सिलेजिनेला ऐसा पौधा है जो बिलकुल सूखी अवस्था से पानी मिलते ही जिंदा हो जाता है, सांस लेने लगता है। ऐसे पौधों को पायकिलोहायड्रिक कहते हैं । हमारे यहां कई धार्मिक मेलों में सिलेजिनेला संजीवनी बूटी के नाम से बेचा जाता है । बेचने वाले उनके गट्ठर इकट्ठे कर लाते हैं और पानी भरी शीशियों में रखकर बेचते हैं । वे उसके औषधीय महत्व के बारे में कुछ नहीं कहते । सिर्फ इतना कहते हैं कि यह संजीवनी बूटी है । वैसे पुन: जीवित होने का यह गुण केवल सिलेजिनेला ही नहींअन्य कई ब्रायोफाइट्स एवं फर्न्स में भी पाया जाता है । संजीवनी बूटी की तलाश में मैंने आयुर्वेद के एक प्रमुख ग्रंथ भाव मिश्र द्वारा रचित भाव प्रकाश निघंटु तलाशा । इस पूरे ग्रंथ में संजीवनी नाम की किसी बूटी का ज़िक्र नहीं है । हां, सिलेजिनेला की जानकारी ज़रूर है परन्तु उसका हिन्दी नाम हत्था-जोड़ी है । इस क्षुद्र वनस्पति के बारे में लिखा है कि यह पथरीली सूखी और खुली जगहों पर पाई जाती है । सुबह यह ताज़ी हरी होती है और ज़मीन पर फैली रहती है । परन्तु दिन चढ़ने पर क्रमश: संकुचित होती जाती है और यदि उसे उखाड़कर पानी में डाल देंे तो शीध्र ही फैलकर ताज़ी हरी हो जाती है । गुणों से तो यह संजीवनी ही लगती है - अंग्रेजी नाम तथा उपयोग से भी । परन्तु इसे संजीवनी नाम क्यों नहीं दिया गया यह आश्चर्य का विषय है । इसे वात विकार, अपस्मार, सूखारोग, आर्तक विकार, रक्तपित, धातु दोर्बल्य और प्रसूति में उपयोगी बताया गया है । जैसा कि करंट साइन्स के लेख में जिक्र है, संजीवनी एक पौधा भी हो सकता है या पौधों का समूह भी । इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पिछले महीनों पातंजली योग पीठ हरिद्वार के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण जी ने संजीवनी बूटी धोलागिरी पर्वत से खोज लिए जाने की घोषणा बड़े जोर-शोर से मिडिया में की थी । उनके अनुसार संजीवनी बूटी चार पौधो का समूह है - रामायण में भी इन्हें चार कहा गया है । ये चार बूटियाँ है: १. विशल्यकरणी - ऐसी बूटी जो शल्य को बाहर कर दे ।२. सुवर्णकारी - त्वचा के रंग को पुन: एक सार कर दे ।३. मृत संजीवनी - मूर्च्छा तोड़ने वाली ।४. संधानकरणी - चोट को शीघ्र ठीक करने वाली । पातंजली योग पीठ द्वारा खोजी गई एक बूटी है फेनी कमल (सासूरिया बेसीवेरा) जो ब्रह्म कमल का बहुत करीबी संबंधी है । एक औषधि फर्न जैसी दिखती है जो सिलेजिनेला हो सकती है । तीसरी प्लूरियोस्पर्मम कोरिएंडोल है । इनकी खोज की सत्यता तो इनकी उपयोगिता सिद्ध होने पर ही पता चलेगी । विशल्यकरणी का ज़िक्र भावप्रकाश निघंटु में भी है । यह विंध्याचल पर्वत श्रेणियों एवं मैदानी इलाकों में मिलती है । तेलगु में उसे अग्निशिखा कहा गया हैं। दीप जैसी लौ वाली । इसका उपयोग सुख प्रसव, गर्भ घातक एवं बिच्छु के काटने पर करते हैं । इससे वेदना कम होती है, अत: दर्दहरा है । विषय हर है । शरीर से किसी वस्तु को बाहर निकालने वाली है अर्थात् संकोचन का गणु उसमे हैं। वानस्पतिक नाम है ग्लोरिओसा सुर्पना । संधानकरणी या संधानी के बारे में यहां एक घटनाका जिक्र उपयोगी होगा जो मैंने बार-बार सुनी है । घटना कोई ६०-६५ वर्ष पुरानी है । बागली के रहवासी एस.आर. व्यास ने बताया था कि अक्टूबर महीने में एक आदिवासी गन्ना छील रहा था । अचानक दराते से उसकी उंगली इतनी कट गई कि लगभग लटक ही गई थी । बागली से देवास के रास्ते भर जो भी पत्तियां मिली उन्हें तोड़-तोड़ कर उंगली पर लगाता रहा । देवास आकर वह अस्पताल गया तब डॉक्टर ने उसे अपनी उंगली दिखाने को कहा पत्तियां हटाकर जब उंगली देखती तो वह लगभग जुड़ चुकी थी । इसी तरह धार में टेकरी के नीचे फौजी केम्प लगा था । वहां एक व्यक्ति को लकड़ी काटते हुए कुल्हाड़ी जांघ पर लग गई । घाव बहुत गहरा था । फौज वाले उसे तुरंत स्ट्रेचर पर लिटा कर नीचे अपने कंेप में लाए । उसी बीच उसके परिजन टेकरी से नीचे उतरते समय रास्ते भर तरह-तरह की पत्तियों खून बहना रोकने के लिए लगाते रहे । बताते हैं कि नीचे आने तक खून रिसना बंद होकर घाव भर चुका था । फौज के डॉक्टर आश्चर्यचकित रह गए । उस वनस्पति की खोज दो-तीन दिन तक अंग्रेज डॉक्टर ने करवाई पर उन्हें वह नहीं मिली । खून बहना रोकने के लिए इस क्षेत्र के आदिवासी आज भी घावभरणी नाम की वनस्पति का उपयोग करते हैं । बरसात में उगने वाली यह एक आम वनस्पति है । वैज्ञानिक इसे ट्रायडेक्स प्रोकम्बेन्स कहते हैं । इस वनस्पति का भी जिक्र भाव प्रकाश निघंटु में नहीं है । ये लोक वनस्पति विज्ञान की विरासत है । यही तो एथ्नों बॉटनी है । संजीवनी जैसी बूटियों की खोज आदिवासियों के बीच जाकर ही संभव है। उनके पास सदियों के अनुभव का अनमोल खज़ाना है । इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अच्छी तरह से खंगालना अभी बाकी है ।***

अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित

देशभर में करीब तीन करोड़ मामले लंबित पड़े है जिनमें से निचली अदालतों में २.७ करोड़ उच्च् न्यायालयों में ४० लाख तथा उच्च्तम न्यायालय में ५३ हजार मामले लंबित हैं जबकि लंबित मामलों में उच्च्तम न्यायालय में १३९ प्रतिशत, उच्च् न्यायालय में ४६ प्रतिशत तथा निचली अदालतों में ३२ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने देश में लंबित मामलों तथा विलंब से न्याय मिलने की समस्या पर विचार करने के लिए बुलाए गए राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए यह जानकारी दी । उन्होंने कहा कि यह वृद्धि जनवरी २००० के लंबित मामलों के मुकाबले दर्ज हुई है । उन्होंने कहा कि २००६ में देशभर की जेलों में बंद कैदियों में से ७० प्रतिशत विचाराधीन कैदी थे । इनमें से बहुत से कैदियों को जितनी सजा सुनाई गई थी वे उससे भी अधिक सजा काट चुके थे । मोइली ने कहा, हमें इस संख्या में कमी लानी होगी । हमें एक साल के भीतर मामलों की पहचान कर अगले छह महीनों में उन मामलों को निपटाना होगा और वीडियो कान्फ्रेंसिंग जैसे अन्य तरीके अपना कर निर्धारित लक्ष्य शीघ्र हासिल करना होगा ।

१२ हमारा देश

बाढ़-सूखे की चपेट में मानव जीवन
- नरेन्द्र देवांगन
आज देश का अधिकांश भाग-सूखा-अकाल की चपेट में है । देश का बड़ा भाग जहां एक ओर सूखाग्रस्त है, वहीं दूसरी ओर कुछ भाग में बाढ़ एवं तूफान ने तबाही मचाई हुई है । विशेषज्ञों का मत है कि किसी भी भू-भाग का पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए कम से कम एक तिहाई भू-भाग पर वन होने चाहिए । पहाड़ी क्षेत्र में तो ६० प्रतिशत भू-भाग पर ही जंगल हैं । वैज्ञानिकों का मत है कि जिस क्षेत्र का वन क्षेत्र १० प्रतिशत से कम हो जाता है वहां का पर्यावरण विनाश की कगार पर पहुंच जाता है । विकास के नाम पर वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से देश में प्रति वर्ष १५ लाख हैक्टर क्षेत्र में वनों का विनाश हो रहा है जिसमें प्रति मिनट एक हैक्टर भूमि बंजर हो रही है । आशंका है कि यदि पर्यावरण संतुलन पर ध्यान नहीं दिया गया तो पृथ्वी का तापमान बढ़ जाने से प्रलय की स्थिति पैदा हो सकती है और कई समुद्र तटीय क्षेत्र जलमग्न हो सकते हैं । बढ़ते तापमान का सबसे बड़ा असर यह होगा कि हिम शिखर व ग्लेशियर पिघलकर समुद्र में गिरने लगेंगे । इससे समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा व की भूभाग उसमें डूब जाएगा । आज सबसे बड़ी चुनौती जनसंख्या विस्फोट, तीव्र औद्योगिकरण तथा प्रदूषण की है । वैज्ञानिक उपलब्धियों की जगमगाहट में हम आज पृथ्वी की जीवनदायी व्यवस्था में व्यवधान उपस्थित करने पर इतने उजारू हैं कि स्वयं अपनी मौत को निमंत्रण दे रहे हैं । अपनी सुख-सुविधा के लिए उन्हीं प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रहे हैं, जो प्रकृति ने एक स्वचालित व्यवस्था के रूप में हमें दिए थे। मनुष्य ने इस स्वचालित व्यवस्था के रूप में इतनी गड़बड़ी फैला दी है कि पूरी जीवनदायी व्यवस्था डगमगा रही है । जीवन चक्र कहीं से भी टूटे, पुरी श्रृंखला बिखर जाएगी और प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने के लिए सर्वाधिक ज़िम्मेदार मानव स्वयं भी इसका शिकार होगा । औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप विषैली गैसों और अवशिष्ट पदार्थ के कारण जन स्वास्थ्य प्रभावित हुआ है । कैडमियम, मरकरी, आर्सेनिक, सल्फ्यूरिक अम्ल, लेड आदि विषैले पदार्थ निरंतर वातावरण और जल स्त्रोतों में छोड़े जा रहे हैं । एक अध्ययन के अनुसार लेड से कैंसर तथा लकवे की शिकायत और निरंतर धुएं युक्त वातावरण में सांस लेने से फेफड़ों के विभिन्न रोग होते हैं । ८० प्रतिशत पारा-वाष्प सांस द्वारा शरीर के अंदर जाकर स्नायु मंडल के रोग उत्पन्न करती है । १९७१ मेंइराक में पारा युक्त कीटनाशक मिश्रण से साफ किए गए अनाज की रोटी खाने के बाद ६ हजार व्यक्ति बीमार हो गए तथा ५०० से अधिक मौत के शिकार हुए । मैंगनीज़ डाईऑक्साइड से पार्किंसन रोग तथा मनोविकार देखे गए हैं । इस्पात उद्योगों में उपयोग में लाए जाने वाले निकल मिश्रण से निकल कार्बेनल के द्वारा ज़िगर, नाक तथा कैंसर की बीमारियां बढ़ गई हैं । वेनेडियम, जो इस्पात निर्माण में महत्वपूर्ण है, के सांस द्वारा शरीर मेंे जाने से अत्यधिक सूखी खांसी, आंख व गले में जलन तथा दमा जैसे रोग होते हैं । मथुरा के पास तेल शोधक कारखाने के दुष्प्रभाव भरतपुर के पक्षी अभयारण्य की वीरानी एवं विश्व प्रसिद्ध ताजमहल पर धब्बों के रूप में देखने को मिलते हैं । प्रकृति में वनस्पति, जंतु, जल स्त्रोत एवं वायुमंडल एक स्वस्थ पर्यावरण का निर्माण करते हैं । यदि इनमें से किसी एक इकाई में असंतुलन पैदा हो तो इसका प्रभाव पूरी श्रृंखला पर पड़ता है । आज भू क्षरण इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि यदि क्षरित मिट्टी को मालगाड़ी के डिब्बों में भर दिया जाए तो वह दिल्ली से लेकर कन्याकुमारी तक लंबी होगी । एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष ६० अरब टन उपजाऊ मिट्टी भू क्षरण से प्रभावित होती है । फसलों के मूल्य के रूप में यह हानि ३०० करोड़ तथा उर्वरक के रूप में यह हानि १२०० करोड़ रूपए प्रति वर्ष आंकी गई है । कुल मिलाकर वार्षिक हानि १५०० करोड़ रूपए प्रति वर्ष होती है । भूमि उर्वरता घटने के साथ नदियों, तालाबों में मिट्टी भर जाने से बाढ़े आती हैं, वहीं कंकरीली मिट्टी उपजाऊ क्षेत्रों में फैलकर उसे कृषि के लिए अनुउजाऊ भी बनाती है । वन क्षेत्रों में तेज़ी से कमी आती जा रही है । इंर्धन, घर बनाने एवं कृषि यंत्रों के लिए, वनोपज पर आधारित उद्योग धंधे जैसे कागज़, प्लाईवुड आदि शहरी आवास व्यवस्था, विस्थापितों को बसाने तथा कृषि क्षेत्र की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए वन निरंतर काटे जा रहे हैं। वन क्षेत्रों पर जनसंख्या विस्फोट एवं पशु संख्या में बढ़ोतरी के कारण दबाव निरंतर बढ़ रहा है । भारत में प्रतिवर्ष १३ करोड़ टन लकड़ी काटी जा रही हैं । वायुमंडल में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन दिखाई पड़ने लगे हैं, खास तौर से नगरीय एवं औद्योगिक क्षेत्रों में । वर्तमान वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा ३५० पीपीएम है जो कि औद्योगीकरण से पूर्व के समय से १४ प्रतिशत अधिक है । जीवाश्म इंर्धन की वर्तमान खपत की दर से सन् २०२० तक वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर दुगना हो जाएगा, जिससे विश्व तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा, जिसके कारण ध्रुवीय बर्फ पिघलेगी तथा तटवर्ती क्षेत्र डूब जाएंगे । चावल की खेती कम हो जाएगी । थल क्षेत्रों में कमी के कारण जनसंख्या का दबाव और अधिक बढ़ जाएगा और खाद्यान्न की कमी होगी। भूमिगत कोयले के जलने तथा सीमेंट उत्पादन हेतु चूना पत्थर के गत १५० वर्षोंा के उपयोग के कारण वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा १५० अरब टन बढ़ी है । एक हज़ार मेगावॉट वाला बिजली केंद्र प्रति मिनट १६ टन कार्बन डाईऑक्साइड गैस उगलता है । ऊर्जा केन्द्रों में कोयले के दहन से वायुमंडल मं १० पाउंड प्रति सेकंड की दर से सल्फर डाईऑक्साइड छोड़ी जाती हैं । कोयले के ज़हरीले धुएं से अनगिनत लोग सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं, मौत के शिकार हो रहे हैं । कोयले के महीन कण सांस नली में जम जाते हैं । परमाणु बिजली घरों से निकले अवशिष्ट रेडियोधर्मी पदार्थ के कारण गंभीर स्थिति उत्पन्न हो रही है । भूमिगत अथवा वायुमंडलीय परमाणु विस्फोट से उपजी ऊष्मा वायुमंडल में नाइट्रोजन ऑक्साइड का निर्माण करती है, जिससे पृथ्वी के वातावरण को सुरक्षित रखने वाली ओज़ोन गैस की परत नष्ट होती जा रही है । वायुयान भी ओज़ोन परत को नष्ट करने में सहायक हो रहे हैं । ओज़ोन परत के पतन का मतलब है तापक्रम में वृद्धि तथा जीव समूहों पर कैंसर का प्रकोप तथा फसलों का विनाश । अवशिष्ट पदार्थोंा को पानी में बेखटके छोड़ने से जल स्त्रोत प्रदूषित हो रहे हैं । जलीय जीव नष्ट हो रहे हैं । समुद्र तटों पर लगे तेल शोधक कारखानों के अवशिष्अ समुद्र में छोड़े जाने से एक तैलीय परत जल सतह पर फैली जाती है जिसके कारण सामान्य वाष्पीकरण न होने से वर्षा में कमी एवं सूखे की स्थिति पैदा होती है । वन सौर ऊर्जा को संग्रह करने के सबसे बड़े साधन हैं । पहाड़ी क्षेत्रों में आधुनिक तकनीक के द्वारा शीध्र उगने वाले वृक्षों को लगाकर प्रति हैक्टर सर्वाधिक आय प्राप्त् की जा सकती है, जिससे न केवल लोगों को रोज़गार मिलेगा बल्कि बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकता की पूर्ति भी होगी । अत: आवश्यक है कि प्रत्येक आबादी के पास नए-नए उपवन, बाग-बगीचे लगाए जाएं जो शुद्ध वायु प्रदान कर सकें । औद्योगिक प्रतिष्ठानों एवं मुख्य मार्गोंा के निकट तो वृक्ष लगाना बहुत आवश्यक है । भारत में स्तनपायी जीवों की पांच सौ, चिड़ियों की ३ हज़ार एवं कीट आदि की ३० हज़ार प्रजातियां पाई जाती हैं । तरह-तरह की मछलियां, सरिसृप तथा उभयचर भी पाए जाते हैं । पर्याप्त् वन क्षेत्र न रहने से या वायु एवं जल प्रदूषण के कारण ये मृत्यु के शिकार हो रहे हैं । चिड़िया नहीं होगी तो विभिन्न कीड़ों से फसलों की रक्षा कौन करेगा ? सर्प चूहों को खाकर बचाता है । मांसाहारी जीव शाकाहारी जीवों को खाकर कृषि की रक्षा करते हैं । विकास के नाम पर हो रहे हृास के कारण भावी पीढ़ी के लिए छोड़ रहे हैं ज़हरीली वायु, दूषित जल, बंजर ज़मीन, नंगे पहाड़, मौसम में घातक परिवर्तन, तेजाबी वर्षा एव बिगड़ता पर्यावरण ।**
मध्यप्रदेश में वन आवरण १६८७ वर्ग किमी बढ़ा
मध्यप्रदेश के वन आवरण क्षेत्र में पिछले चार साल में १६८७ वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है । प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक ए.के. दुबे ने भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान देहरादून के वर्ष २००९ के प्रतिवेदन के हवाले से यह जानकारी देते हुए बताया कि वर्ष २००५ में जारी प्रतिवेदन में मध्यप्रदेश का वनावरण ७६०१३ वर्ग कि.मी. बताया गया था जो बढ़कर ७७,७०० वर्ग कि.मी. हो गया है । प्रदेश में वनों के बाहर वृक्ष आवरण क्षेत्र में भी वर्ष २००५ की तुलना में वर्ष २००९ तक ६०४ वर्ग कि.मी. की बढ़ोतरी हुई है । प्रतिवेदन में पूरे देश के लिए यह आंकड़ा ११०३ वर्ग कि.मी. बताया गया है । इसमें अकेले मध्यप्रदेश की ५० प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी रही है । श्री दुबे ने बताया कि इसी प्रकार देश में झाड़ी वन क्षेत्र में ३०५० वर्ग कि.मी. की शुद्ध वृद्धि प्रतिवेदन में बताई गई है । इसमें भी प्रतिवेदन अवधि में मध्यप्रदेश के झाड़ी वन क्षेत्र में ४२२९ वर्ग कि.मी. वृद्धि हुई है । उन्होंने बताया कि झाड़ी वन को वन आवरण अथवा वन के बाहर वृक्ष आवरण क्षेत्र में शामिल नहीं किया गया है । प्रदेश में वन आवरण वृद्धि का कारण वन विभाग द्वारा किए गए वन संवर्द्धन और वन सुरक्षा के उपायों के साथ ही विभाग तथा वन विकास निगम द्वारा किया गया वृक्षा रोपण शामिल है ।

१३ खास खबर

कोपनहेगन से उम्मीद है
(विशेष संवाददाता द्वारा)
ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी को बचाने के मकसद से दुनिया के करीब १९२ देशों के १५ हजार से ज्यादा प्रतिनिधि कोपेनहेगन में इकट्ठा होने जा रहे हैं। विश्व बैंक के पूर्व अर्थशास्त्री लॉर्ड निकोलस स्टर्न इसे दूसरे विश्वयुद्घ के बाद सबसे बड़ा शिखर सम्मेलन बाते हैं । स्टर्न के मुताबिक दुनियाभर के देशों में ने जलवायु परिवर्तन को पहले गंभीरता से नहीं लिया, जिसका खामियाजा हम पहले भी भुगत चुके हैं। इसके अलावा कई देश, शहर व द्वीप खत्म होने की दलहीज पर है । ऐसे में विकसित व विकासशील देशों के नेताआें को एक साफ दृष्टिकोण के साथ इस सम्मेलन में भाग लेना होगा, ताकि मानव सभ्यता को खत्म होने से बचाया जा सके । दुनिया के रईस देशों को गरीब देशों की हर तरह से मदद करना होगी, ताकि वे इस दिशा में तुरंत ठोस कदम उठा सकें । संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में दुनियाभर के पर्यावरण मंत्री व अधिकारी भाग लेंगें, ताकि जलवायु परिर्वतन के मुद्दे पर `क्योटो प्रोटोकॉल' से आगे की रणनीति तय कर सकें । इस सम्मेलन का उद्देेश्य वर्ष १९९२ के पृथ्वी सम्मेलन के नियमों को और बेहतर बनाना व संशोधिक करना है, जिससे दुनियाभ में तेजीसे हो रहे जलवायु परिवर्तन को रोका जा सके । `सीओपी -१५' कोपेनहेगन सम्मेलन का अधिकारिक नाम है ।सीओपी यूनाइटेड नेंशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसी) का उच्च्तम अंग है , जिसमें प्रतिनिधि देशों के पर्यावरण मंत्री व अधिकारी सदस्य होते हैं । इस सम्मेलन के प्रतिभागी देश कोशिश करेंगें कि क्योटो प्रोटोकॉल का क्रमिक अनुसरण कर सकें । क्योटो प्रोटोकॉल की पहली अवस्था २०१२ में खत्म हो रही है । निकोलस स्टर्न के अनुसार पृथ्वी का तापमान अगर औसत दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ा तो प्रलय आने में देर नहीं लगेगी । इसे रोकने के लिए हमें वर्ष २०१० तक ४७ बिलियन टन , २०२० तक ४४ बिलियन टन और २०५० तक २० बिलियन टन सालाना कार्बन उत्सर्जन कम करना होगा । लिहाजा जरूरत है कि एक ठोस वैश्विक कार्ययोजना और तुरंत उस पर अमल शुरू करने की । कोपेनहेगन सम्मेलन आखिरी मौका है । चाहे कैसे भी हो, सब देशों को मिलकर इस सम्मेलन के दौरान एक वैश्विक संधि लागू कर उस पर अमल के लिए खुद को तैयार करना ही होगा । इस समस्या के हल के लिए अगर यह आखिरी मौका खो दिया तो वर्ष २१०० तक धरती का एक बड़ा हिस्सा जलमग्न हो जाएगा । यूएनएफसीसी के कार्यकारी सचिव यूवो डे बोएर के अनुसार इस सम्मेलन के मुद्दों में विकसित व विकासशील देशों द्वारा ग्रीन हाउस गैसों में कमी की सीमा निर्धारित करना अहम् है । विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए व्यवसायिक मदद और इसके लिए मुद्रा प्रबंधन भी प्रमुख मुद्दा है, लेकिन इन उद्देश्यों को हासिल करने में कुछ अड़चने भी हैं , जिनमें सबसे बड़ी है धन का प्रबंध । इस समस्या से निबटने की दिशा में विकासशील और अविकसित देश भी बेहतर काम कर सकें, इसके लिए धन का प्रबंध करने की जिम्मेदारी विकसित देशों को उठानी होगी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन के मुताबिक २०२० तक जलवायु परिवर्तन संबंधी निधिकरण के लिए १०० बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष खर्च करना पड़ेगा, लेकिन आर्थिक मंदी ने इस राह में रोड़ा डाला है ।फिर भी आशा है कि कोपेनहेगन में जुटने वाले विभिन्न देशों के प्रतिनिधि इस महाप्रलय से निपटने के लिए सार्थक कदम उठा पाएंगें । ***

१४ कविता

कोंपलो की बात हो
आशीष दशोत्तर
पेड़ के सूखे तने पर कोंपलों की बात हो, इस बयाबाँ में कही तो हौंसलों की बात हो । वो समन्दर ढल रहा है बर्फ के आकार में है मुनासिब वक्त अब तो हलचलों की बात हो । इस ज़मीनों-आसमांं पर हक हमारा है नहीं, ऐसा जो बतला रही उन फाइलों की बात हो । मंूदने से आँख को हालत बदलती है कहाँ, मुंह बाए जो खड़ी उन मुश्किलों की बात हो । सारी दुनिया एक हो जाए, बहस ये व्यर्थ है, दिल ही दिल में बढ़ रहे उन फासलों की बात हो । पीढ़ियाँ गुजरी, मगर पथराई आँखे अब तलक, तारीखों में गुम हुए उन फैसलों की बात हो । बुझदिली, मनहूसियत, नैराश्य को अब छोड़िए, दे हमेशा ताज़गी, उन काफिलों की बात हो ।
एक पौधा भी लगाएँ और उसकों सींच लें, फिर बहारों, फूल, खुश्बू और फलों की बात हो ।
जो हमें `आशिष' करते हैं हवा-पानी से दूर, छीनते हैं टाट भी उन मखमलों की बात हो ।***

१५ पर्यावरण समाचार

आज भी शेष है भोपाल में जहर
भोपाल गैस त्रासदी के २५ साल बाद भी यूनियन कार्बाइड फेक्ट्री के जहरीले रसायन भोपाल की जमीन और पानी को बुरी तरह प्रदूषित कर रहे हैं । फेक्ट्री से तीन किमी दूर तक जमीन के अंदर पानी में जहरीले रसायनिक तत्व मौजूद हैं जिनका उत्पादन यूनियन कार्बाइड की फेक्ट्री में होता था । इनकी मात्रा पानी में निर्धारित भारतीय मानकों से ४० गुना अधिक पाई गई है । फैक्ट्री परिसर मेें सतही जल के पानी में कीटनाशकों का मिश्रण मानक से ५६१ गुना ज्यादा पाया गया । ये निष्कर्ष सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट नई दिल्ली द्वारा किए अध्ययन में सामने आए हैं । सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण और संयुक्त निदेशक चंद्र भूषण ने भोपाल में १ दिसम्बर को पत्रकारवार्ता में अध्ययन से संबंधित रिपोर्ट जारी करते हुए कहा जांच के निष्कर्ष चिंताजनक है । निष्कर्षोंा से पता चलता है कि पूरा क्षेत्र बुरी तरह दूषित है और फैक्ट्री क्षेत्र भीषण विषाक्तता को जन्म दे रहा है लिहाजा यह जरूरी हो गया है कि फैक्ट्री के प्रदूषित कचरे का न केवल जल्द से जल्द निष्पादन किया जाए बल्कि पूरे फैक्ट्रि परिसर की सफाई हो । इसकी जिम्मेदारी यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डाउ केमिकल्स की है । डाउ केमिकल्स ने जिम्मेदारी से बचने के लिए भारत और अमेरिका में अभियान चला रखा है । श्री भूषण ने कहा फैक्ट्री से बाहर की बस्तियों के भूजल के नमूनों में मिले रसायनों का चरित्र और फैक्ट्री परिसर व उसके निस्तारण स्थल के कूड़े से मौजूद रसायनों से मेल खाता है । सुश्री नारायण ने कहा यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस प्रदूषण से तत्काल हमारे शरीर पर कितना कैसा असर पड़ेगा लेकिन यह साफ है कि इसका असर धीमे जहर की तरह हो रहा है । भूजल और मिट्टी में पाए गए क्लोरिनोटिड बेंजीन के मिश्रण हृदय और रक्त कोशिकाआें को प्रभावित कर सकते है जबकि ऑर्गेनोक्लोरिन कीटनाशक कैंसर और हडि्डयों की विकृतियों की बीमा के जनक है । सीएसई का मानना है कि इस रसायनों से होने वाले प्रभावों का विस्तृत अध्ययन होना चाहिए । हादसे के तत्काल बाद इसकी जिम्मेदारी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद को दी गई थी, लेकिन वर्ष १९९४ में यह अनुसंधान अचानक बंद कर दिया गया । ***

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

आवरण




१ सामयिक

सूखे में डूबती आधुनिक सभ्यता
एलेक्स बेल
पर्यावरण आंदोलन अब उस रोचक दौर में पहुंच चुका है और इसके बारे में तकरीबन सभी तक जानकारी पहुंच चुकी है सिवाय राजनीतिक हलके के जहां यह अभी भी एक बाहरी तत्व है । वैसे हरियाली की बात (ग्रीन्स) करने वाले अभी एक अनजान व्यक्ति की तरह आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं और दुनिया इस दुविधा में है कि उन्हें घर में प्रवेश दें या नहीं । जलवायु परिवर्तन के विचार की ओर लम्बे-लम्बे डग भरते हुए हम यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि हमें इस दिशा में त्वरित कार्यवाही करना ही होगी । हालांकि हममें से बहुतों के लिए यह दूसरों की समस्या है या वे सोचते हैं कि इस खतरे को बड़ा-चढ़ा कर बताया जा रहा है । लेकिन यह दौर भी अब समािप्त् की ओर है । पिछले दो साल वैश्विक जलसंकट पर शोध करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि विश्व के कई भागों में अब इतनी अधिक मात्रा में जमीन से पानी निकाला जा रहा है जितनी कि प्रकृति द्वारा आपूर्ति नहीं की जा सकती । ये पानी बड़े शहरों के निर्माण में और बढ़ती जनसंख्या की भरपाई में लग रहा है परंतु यह स्थिति अनंत तक नहीं चल सकती । जब हम पानी की चरम उपलब्धता को पार कर लेंगें तक खेत सूख जाएंगे, शहर असफल या नष्ट हो जाएंगे और इससे समाज को जबरदस्त चोट पहुंचेंगी । भारतीयों के लिए यह कोई आश्चर्य नहीं होगा । पिछले कुछ वर्षोंा में भारतीय यह जान गए हैं कि इस उपमहाद्वीप में खेती के लिए निकाले जाने वाले भू-जल की दर पुनर्भरण की दर से कही ज्यादाहै । मानसून की वर्षा का बदला मिजाज भी अब नई बात नहीं रह गई है । इसी के साथ असफल बांध परियोजनाआें एवं सूखी नदियों की त्रासदी भी अब वास्तव में पुरानी कहानी हो गई है । भीगे-भीगे से रहने वाले उत्तरी यूरोप मे रहते हुए लोग इस सूचना से अभी तक बहुत परिचित नहीं है । ये भीगा-भीगा सा विश्व कल्पना करता है कि पानी की समस्या तो गरीबों के लिए ही है । यहां की कुछ सरकारें मदद का वायदा करती हैं। कुछ और हैं जो इसके भंडार के लिए धन उपलब्ध करवा रही हैंऔर कुछ की समझ टेलीविजन पर अगला अकाल देखने की संभावना पर ही टिकी हुई है । परंतु हर एक दिमाग में यह तो है ही, कि जल को लेकर युद्ध तो होगा मगर वह उनकी अपनी धरती पर नहीं, बल्कि सुदूर किसी विदेशी भूमि पर होगा । जब भारत में पानी की समस्या और भी गंभीर हो जाएगी तब स्वीडन, कनाडा और ब्रिटेन के लोगों को न केवल इसकी जानकारी होगी बल्कि वे इसे गहराई से महसूस भी करेंगे । अगर विश्व के किसी एक हिस्से में फसलें नष्ट होंगी और उत्पादन घटेगा तो समृद्ध विश्व की अर्थव्यवस्थाएं भी डांवाडोल हो जाएगीं । अगर व्यापक जनसमुदाय प्यासा रहेगा तो समाज टूटेगा और हर कोई संकट में आ जाएगा । हम अधिकतम पानी या चरम की स्थिति को पार कर चुके हैं क्योंकि आज सभ्यता प्यासी दिखाई दे रही है । हजारों साल पहले इस ग्रह पर रहने की जिस संगठित व सुगठित जीवनशैली का आविष्कार इराक और सिंधु नदी के किनारे पर किया गया था । वह ताजे जल के अधिकार पर ही आश्रित थी । हरेक के पीने के लिए भरपूर पानी की अनिवार्यता से इंकार नहीं है परंतु पानी पर अधिकार और सभ्यताआें का अंर्तसंबंध इससे कहीं अधिक गहरा है । हमने यह विश्व इस परिकल्पना पर निर्मित किया है कि पानी को मनुष्य की सनक के अनुरूप हमेशा निर्देशित किया जा सकता है । जबकि इतिहास बताता है कि जब भी पानी का प्रवाह थमा तब -तब सभ्यता धराशाही हो गई । हमारे सामने चुनौती है कि विश्व यह जाने कि भारत के जलसंकट से पेरिस और न्यूयार्क के निवासियों के जीवन स्तर में भी गिरावट आएगी क्योंकि इससे वैश्विक खाद्य व अन्य वस्तुआें के व्यापार में मूलभूत परिवर्तन आएगा । इससे भी बढ़कर विश्व को यह जानने की आवश्यकता है कि पानी मात्र राष्ट्रीय सीमाआें ओर सरकारों को समर्पित नहींहैं तथा इस संकट का हल युद्ध संबंधी किसी बंधे-बंधाए विचार या संरक्षणवाद में भी निहित नहीं है । पानी एक वैश्विक संसाधन है और इसका प्रबंधन भी वैश्विक नजरिए से होना चाहिए । इस हेतु ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाआें की जरूरत हैं जिनमें विश्व बैंक से ज्यादा कल्पनाशक्ति और इच्छा शक्ति हो । क्यों कि विश्व बैंक तो अभी बड़ी योजनाआें और मुक्त बाजार के मोहपाश में जकड़ा हुआ है । अतएव मेरा सोचना है कि हम पर्यावरणीय जागरूकता के इस नए चरण के ऐसे मुहाने पर खड़े हैं जब हर तरफ लोगों ने अपने कार्योंा एवं उससे इस ग्रह पर पड़ रहे प्रभावों के परिणामों के बीच गहन संबंधों को समझना प्रारंभ कर दिया हैं । इससे हमें सभ्य शब्द के अर्थ के संबंध में अपने विचारों में मूलभूत परिवर्तन लाने में भी मदद मिलेगी । सबकुछ झपट लेने के पश्चिमी विचार के अंधानुकरण को सफलता समझ लेने के बजाए हमें यह समझना होगा कि सफलता का पैमाना यह है कि हमारे स्थानीय संसाधनों पर न केवल न्यूनतम भार पड़े बल्कि यह भी देखना होगा कि हम उनका संरक्षण किस प्रकार से करते हैं । हमंे अपने घरों, कार्यालयों, शहरों और खेतों का निर्माण नए तरीकों से कराना चाहिए जो कि हमारे स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हो । जब हम चरम पर पहुंच जाते हैं तो हमारे सामने चुनाव का क्षण आता है । अतएव इस परिस्थिति में हमें चुनाव करना होगा कि या तो हम इसे अंत समझे या एक नई कहानी की शुरूआत ।***केन्द्र सरकार पाउचों पर प्रतिबंध लगायेगी केन्द्र सरकार ने पाउच पर प्रतिबंध लगाने का मन बना लिया है। पाउच पर्यावरण पर मंडराते उस संकट का नाम है, गुटखा, शैंपू सहित अनेक खाद्य पदार्थ, जिसमें काफी करीने से पैक करके बाजार में उतारे जाते हैं । इनमें मौजूद सामग्री तो उपभोक्ता इस्तेमाल कर लेते हैं, पर पाउचों को फेंक दिया जाता है, क्योंकि उस विनाशकारी कचरे को अपने घर में रखा भी तो नहीं जा सकता । बहरहाल, हम कचरा अपने घर से भले ही निकाल फेंके, पर पर्यावरण के लिए तो फिर भी वह खतरनाक ही होता है । अत: कायदे से होना तो यह चाहिए था कि चूंकि पाउच हमारी सेहत और हमारे पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हैं, इसीलिए हमें उनका इस्तेमाल स्वत: बंद कर देना चाहिए । यानी, जो लोग पाउच बनाते हैं, वे बनाना बंद कर दें तथा जो उनको खरीदते-बेचते हैं, वे लोग खरीदना-बेचना बंद कर दें पर साफ यह भी है कि हम भारतीय स्वप्रेरणा से ऐसे समाज-हितैषी निर्णय कभी नहीं ले पाते, इसीलिए रास्ता यही था कि सरकार कानूनबनाकर पाउचों की बिक्री रोके ।

२ बाल दिवस पर विशेष

बच्चें के कुपोषण के लिए क्या करें ?
वंदना प्रसाद/राधा होल्ला/अरूण गुप्त
भारत में इस समय कुपोषण से पीड़ित बच्चें की संख्या बेहद निराशा और राष्ट्रीय शर्म का विषय है । यह स्थिति न केवल लंबे अर्सेंा से बरकरार हैं, बल्कि देश में जारी तेज़ आर्थिक विकास के दौर में भी इसमें कोई सुधार नहीं आया है । हाल तक इस बात पर काफी चर्चा हुई है कि कुपोषण की स्थिति से निपटने के लिए ऐसे क्या प्रयास किए जाएँ कि वे टिकाऊ हों, विशेषज्ञों के कईसमूहों ने नीतिकारों के समक्ष ऐसी रणनीतियाँ पेश की हैं जिनमें कुपोषण को रोकने के उपाय सुझाए गए हैं । यहां उस विशेष नीति के पड़ताल की गई है जो विभिन्न राज्यों में उसके अच्छे-बुरे प्रभावों पर समुचित चर्चा किए बगैर ही लागू कर दी गई ह। देश के कई राज्यों में अत्यंत गंभीर कुपोषण से निपटने के लिए रेडी टु यूज़ थेराप्युटिक फूड्स (आरयूटीएफ) नीति लागू की गई है । मौजूदा स्थिति इस प्रकार है : गंभीर कुपोषण से पीड़ित बच्चें के लिए मध्यप्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, बिहार और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में यूनिसेफ के बैनर तले और पोषण पुनर्वास केन्द्रों (एनआरसी) के माध्यम से वितरित करने के लिए एलम्पी नट नामक एक खाद्य पदार्थ का आयात किया जाता है । गंभीर कुपोषण के लिए इसे मानक उपचार बनाने का प्रस्ताव है । इस उत्पाद को फ्रांस की एक कंपनी न्यूट्रीसेट से आयात किया जाता है। यदि इसे भारत में ही तैयार किया जाए तो एक बच्च्े के उपचार पर ४० डॉलर (२००० रूपए) खर्च आएगा । एलम्पी नट की प्रभाविता का प्रदर्शन मलावी, नाइजीरिया, इथियोपिया, कांगो और मोज़ाम्बिक में आपदाआें व अकाल की स्थितियों में किया गया है । एलम्पी नट की प्रभाविता संबंधी अध्ययन मुख्यत: उन आपदाओं की स्थिति मे किए गए हैं, जहां गंभीर कुपोषण के लिए समुदाय आधारित उपचार नहीं था । गंभीर कुपोषण के इलाज में समुदाय आधारित उपचार (स्थानीय पदार्थोंा से बनी खाद्य पदार्थ) और प्लम्पी नट के प्रभाव के तुलनात्मक अध्ययन काफी कम हैं । तथ्यों की रोशनी में ये निष्कर्ष सामने आए है : - गंभीर कुपोषण के समुदाय आधारित उपचार के लिए कई विशेषज्ञों ने घरेलू खाद्य सामग्री के इस्तेमाल की ही अनुशंसा की है । इसका समर्थन भारतीय शिशु रोग विशेषज्ञ अकादमी ने भी किया है । अकादमी ने खास तौर पर आगाह किया है कि व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध आरयूटीएफ स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल, स्वीकार्य, सस्ता और टिकाऊ नहीं हो सकता है । - भारत में गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए कई प्रतिष्ठित अकादमिक व मेडिकल संस्थान और एनजीओ वर्षोंा से स्थानीय स्तर पर तैयार होने वाली खाद़्य सामग्री का ही इस्तेमाल करते आए हैं । यह सामग्री न केवल सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य है, बल्कि सस्ती भी पड़ती है । - गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए घरों में तैयार सामग्री को लेकर कई तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं । जोधपुर मेडिकल कॉलेज गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए ऊर्जा से भरपूर खिचड़ी, दूध, रार, दाल, शक्कर, फल, फलों का रस और अंडों का इस्तेमाल कर रहा है । तमिलनाडु में जिला पोषण कार्यक्रम के तहत दो से चार साल की उम्र के प्रत्येक बच्च्े को ८० ग्राम चावल, १० ग्राम दाल, २ ग्राम तेल, ५० ग्राम सब्ज़ियां और मसालों से निर्मित खाद्य सामग्री दी जा रही है जिस पर खर्च प्रति बच्च महज १.०७ रूपए आ रहा है । इससे प्रत्येक बच्च्े को ३५८.२ कैलोरी और ८.२ ग्राम प्रोटीन मिलता है । तमिलनाडु में ही ६ से ३६ माह की उम्र के बच्चें और गर्भवती व स्तनपान करवाने वाली महिलाआें कोें पूरक आहार के रूप में सत्तू दिया जाता है । इसकी प्रति किलो लागत केवल १५ रूपए आती है । गैर सरकारी संगठनों द्वारा किए गए कुछ अन्य प्रयोगों में अंडे, सोया उत्पाद और दूध दिया गया है जिसकी लागत प्रति बच्च ८ रूपए आती है और इससे बच्च्े का दिन भर का पोषण हो जाता है। - प्लम्पी नट को प्रचलित करने के प्रयास में उक्त खाद्य सामग्रियों की उपेक्षा कर दी गई है । हालांकि प्लम्पी नट भी प्रभावी है, लेकिन इससे खाद्य सुरक्षा की हमारी अवधारणा को नुकसान पहुंचाता है और हम ऐसे खाद्य पदार्थ पर निर्भर हो जाते हैं जिस पर परिवारों और समुदायों का नियंत्रण नहीं है । वैकल्पिक घरेलू खाद्य सामग्री के कई अन्य फायदे भी है : इससे स्थानीय कृषि को बढ़ावा मिलता है क्योंकि इस वैकल्पिक खाद्य सामग्री में प्राय: मोटा अनाज व स्थानीय स्तर पर मिलने वाली सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है । इससे कई परिवारों को अपनी जीविका कमाने का मौका मिलता है । कई बच्च्े तो मात्र इसलिए कुपोषण का शिकार होते हैं क्योंकि गरीबी की वजह से उन्हें पर्याप्त् व समुचित भोजन नहीं मिल पाता है । प्रक्रिया का विकेंन्द्रीकरण होने से अधिक से अधिक लोगों को इसमें भाग लेने का अवसर मिलता है । हालांकि इन खाद्य सामग्री की प्रभावोत्पादकता को साबित करने वाले अध्ययन बहुत कम हुए हैं, लेकिन इनकी सफलता के कई प्रमाण मिल जाएंगे । पोषण विशेषज्ञों व निकायों द्वारा इनके अध्ययन, विश्लेषण और दस्तावेज़ीकरण का अभाव चिंता का विषय होना चाहिए। यह बात समझ से परे हैं कि आखिर कुपोषण की समस्या के समाधान के लिए ऐसे खाद्य पदार्थ को इतने बड़े पैमाने पर क्यों प्रस्तुत किया जा रहा है जो हमारे लिए अनजाना है । गंभीर कुपोषण के लिए कोई रणनीति अख्तियार करने से पहले बेहतर होता कि कुछ और अध्ययन किए जाते और उसके बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाता । इससे लंबे अर्से से की जा रही उस मांग को बल मिलता है कि बच्चें के पोषण के लिए हमें ऐसी नीति के ज़रूरत है जिस पर व्यापक चर्चा की गई हो । ऐसी कोई नीति लागू करते समय हमें दिमाग में यह बात रखनी होगी कि बच्चें और परिवार की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में पूरक पोषण बहुआयामी रणनीति का शायद बहुत अहम मगर केवल एक हिस्सा हो सकता है । सबसे बेहतर पूरक पोषण तो वही होगा जो आत्म-निर्भरता को प्रोत्साहन दे, लागत कम हो और सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य हो । हमें अच्छी तरह से सोच-विचारकर, योजना बनाकर और पर्याप्त् शोध के बाद ही कुपोषण से निपटने की कोई रणनीति अपना लेते हैं तो उसे बदलना मुश्किल होगा और इससे उन्हीं समुदायों व परिवारों को नुकसान पहुंचेगा जिनके बच्चें का `उपचार' करना हमारा लक्ष्य है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारी समग्र नीति ऐसी हो जिससे सभी के लिए खाद्य, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। ***