गुरुवार, 19 नवंबर 2009

२ बाल दिवस पर विशेष

बच्चें के कुपोषण के लिए क्या करें ?
वंदना प्रसाद/राधा होल्ला/अरूण गुप्त
भारत में इस समय कुपोषण से पीड़ित बच्चें की संख्या बेहद निराशा और राष्ट्रीय शर्म का विषय है । यह स्थिति न केवल लंबे अर्सेंा से बरकरार हैं, बल्कि देश में जारी तेज़ आर्थिक विकास के दौर में भी इसमें कोई सुधार नहीं आया है । हाल तक इस बात पर काफी चर्चा हुई है कि कुपोषण की स्थिति से निपटने के लिए ऐसे क्या प्रयास किए जाएँ कि वे टिकाऊ हों, विशेषज्ञों के कईसमूहों ने नीतिकारों के समक्ष ऐसी रणनीतियाँ पेश की हैं जिनमें कुपोषण को रोकने के उपाय सुझाए गए हैं । यहां उस विशेष नीति के पड़ताल की गई है जो विभिन्न राज्यों में उसके अच्छे-बुरे प्रभावों पर समुचित चर्चा किए बगैर ही लागू कर दी गई ह। देश के कई राज्यों में अत्यंत गंभीर कुपोषण से निपटने के लिए रेडी टु यूज़ थेराप्युटिक फूड्स (आरयूटीएफ) नीति लागू की गई है । मौजूदा स्थिति इस प्रकार है : गंभीर कुपोषण से पीड़ित बच्चें के लिए मध्यप्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, बिहार और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में यूनिसेफ के बैनर तले और पोषण पुनर्वास केन्द्रों (एनआरसी) के माध्यम से वितरित करने के लिए एलम्पी नट नामक एक खाद्य पदार्थ का आयात किया जाता है । गंभीर कुपोषण के लिए इसे मानक उपचार बनाने का प्रस्ताव है । इस उत्पाद को फ्रांस की एक कंपनी न्यूट्रीसेट से आयात किया जाता है। यदि इसे भारत में ही तैयार किया जाए तो एक बच्च्े के उपचार पर ४० डॉलर (२००० रूपए) खर्च आएगा । एलम्पी नट की प्रभाविता का प्रदर्शन मलावी, नाइजीरिया, इथियोपिया, कांगो और मोज़ाम्बिक में आपदाआें व अकाल की स्थितियों में किया गया है । एलम्पी नट की प्रभाविता संबंधी अध्ययन मुख्यत: उन आपदाओं की स्थिति मे किए गए हैं, जहां गंभीर कुपोषण के लिए समुदाय आधारित उपचार नहीं था । गंभीर कुपोषण के इलाज में समुदाय आधारित उपचार (स्थानीय पदार्थोंा से बनी खाद्य पदार्थ) और प्लम्पी नट के प्रभाव के तुलनात्मक अध्ययन काफी कम हैं । तथ्यों की रोशनी में ये निष्कर्ष सामने आए है : - गंभीर कुपोषण के समुदाय आधारित उपचार के लिए कई विशेषज्ञों ने घरेलू खाद्य सामग्री के इस्तेमाल की ही अनुशंसा की है । इसका समर्थन भारतीय शिशु रोग विशेषज्ञ अकादमी ने भी किया है । अकादमी ने खास तौर पर आगाह किया है कि व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध आरयूटीएफ स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल, स्वीकार्य, सस्ता और टिकाऊ नहीं हो सकता है । - भारत में गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए कई प्रतिष्ठित अकादमिक व मेडिकल संस्थान और एनजीओ वर्षोंा से स्थानीय स्तर पर तैयार होने वाली खाद़्य सामग्री का ही इस्तेमाल करते आए हैं । यह सामग्री न केवल सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य है, बल्कि सस्ती भी पड़ती है । - गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए घरों में तैयार सामग्री को लेकर कई तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं । जोधपुर मेडिकल कॉलेज गंभीर कुपोषण के उपचार के लिए ऊर्जा से भरपूर खिचड़ी, दूध, रार, दाल, शक्कर, फल, फलों का रस और अंडों का इस्तेमाल कर रहा है । तमिलनाडु में जिला पोषण कार्यक्रम के तहत दो से चार साल की उम्र के प्रत्येक बच्च्े को ८० ग्राम चावल, १० ग्राम दाल, २ ग्राम तेल, ५० ग्राम सब्ज़ियां और मसालों से निर्मित खाद्य सामग्री दी जा रही है जिस पर खर्च प्रति बच्च महज १.०७ रूपए आ रहा है । इससे प्रत्येक बच्च्े को ३५८.२ कैलोरी और ८.२ ग्राम प्रोटीन मिलता है । तमिलनाडु में ही ६ से ३६ माह की उम्र के बच्चें और गर्भवती व स्तनपान करवाने वाली महिलाआें कोें पूरक आहार के रूप में सत्तू दिया जाता है । इसकी प्रति किलो लागत केवल १५ रूपए आती है । गैर सरकारी संगठनों द्वारा किए गए कुछ अन्य प्रयोगों में अंडे, सोया उत्पाद और दूध दिया गया है जिसकी लागत प्रति बच्च ८ रूपए आती है और इससे बच्च्े का दिन भर का पोषण हो जाता है। - प्लम्पी नट को प्रचलित करने के प्रयास में उक्त खाद्य सामग्रियों की उपेक्षा कर दी गई है । हालांकि प्लम्पी नट भी प्रभावी है, लेकिन इससे खाद्य सुरक्षा की हमारी अवधारणा को नुकसान पहुंचाता है और हम ऐसे खाद्य पदार्थ पर निर्भर हो जाते हैं जिस पर परिवारों और समुदायों का नियंत्रण नहीं है । वैकल्पिक घरेलू खाद्य सामग्री के कई अन्य फायदे भी है : इससे स्थानीय कृषि को बढ़ावा मिलता है क्योंकि इस वैकल्पिक खाद्य सामग्री में प्राय: मोटा अनाज व स्थानीय स्तर पर मिलने वाली सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है । इससे कई परिवारों को अपनी जीविका कमाने का मौका मिलता है । कई बच्च्े तो मात्र इसलिए कुपोषण का शिकार होते हैं क्योंकि गरीबी की वजह से उन्हें पर्याप्त् व समुचित भोजन नहीं मिल पाता है । प्रक्रिया का विकेंन्द्रीकरण होने से अधिक से अधिक लोगों को इसमें भाग लेने का अवसर मिलता है । हालांकि इन खाद्य सामग्री की प्रभावोत्पादकता को साबित करने वाले अध्ययन बहुत कम हुए हैं, लेकिन इनकी सफलता के कई प्रमाण मिल जाएंगे । पोषण विशेषज्ञों व निकायों द्वारा इनके अध्ययन, विश्लेषण और दस्तावेज़ीकरण का अभाव चिंता का विषय होना चाहिए। यह बात समझ से परे हैं कि आखिर कुपोषण की समस्या के समाधान के लिए ऐसे खाद्य पदार्थ को इतने बड़े पैमाने पर क्यों प्रस्तुत किया जा रहा है जो हमारे लिए अनजाना है । गंभीर कुपोषण के लिए कोई रणनीति अख्तियार करने से पहले बेहतर होता कि कुछ और अध्ययन किए जाते और उसके बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाता । इससे लंबे अर्से से की जा रही उस मांग को बल मिलता है कि बच्चें के पोषण के लिए हमें ऐसी नीति के ज़रूरत है जिस पर व्यापक चर्चा की गई हो । ऐसी कोई नीति लागू करते समय हमें दिमाग में यह बात रखनी होगी कि बच्चें और परिवार की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में पूरक पोषण बहुआयामी रणनीति का शायद बहुत अहम मगर केवल एक हिस्सा हो सकता है । सबसे बेहतर पूरक पोषण तो वही होगा जो आत्म-निर्भरता को प्रोत्साहन दे, लागत कम हो और सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य हो । हमें अच्छी तरह से सोच-विचारकर, योजना बनाकर और पर्याप्त् शोध के बाद ही कुपोषण से निपटने की कोई रणनीति अपना लेते हैं तो उसे बदलना मुश्किल होगा और इससे उन्हीं समुदायों व परिवारों को नुकसान पहुंचेगा जिनके बच्चें का `उपचार' करना हमारा लक्ष्य है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारी समग्र नीति ऐसी हो जिससे सभी के लिए खाद्य, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। ***

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