मंगलवार, 11 दिसंबर 2012



सोमवार, 10 दिसंबर 2012

प्रसंगवश 
हम सोते-सोते सीखते हैं
    हाल ही में नेचर न्यूरोसांइस में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक सोते हुए हम एकदम नई जानकारियां सीख सकते हैं । यह तो हर छात्र का सपना होगा ।
    इस्त्राइल के रिहोवाट में स्थित वाइजमैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के अनत अर्जी और उनके साथियों ने सोते वक्त सीखने की क्रिया को समझने के लिए ५५ स्वस्थ प्रतिभागियों पर शोध कार्य किया । सोते हुए प्रतिभागियों को कभी डिओडोरेंट व शैंपू जैसी कोई मनोहर सुगंध और कभी सड़ी मछली व मांस जैसी कोई अप्रिय गंध सुंघाई गई । हर बार गंध के साथ  एक विशिष्ट ध्वनि भी सुनाई गई ।
    यह पहले से ज्ञात है कि पहले से मौजूद याददाश्त को बढ़ाने में नींद एक प्रमुख भूमिका अदा करती है । और यह भी पता है कि जागृत लोगों में इस तरह का गंध व ध्वनि का जुड़ाव गंध संबंधी व्यवहार को बदल देता है । ऐसे व्यक्ति जब किसी मनोहर सुंगध से संबंधित ध्वनि सुनते हैं तो उनकी सूंघने की क्रिया तेज होती है, लेकिन जब अप्रिय गंध से संबंधित ध्वनि सुनते हैं तब वे उसे हल्के से सूंघते है ।
    लेकिन हाल ही के शोध में यह पता चला है कि नींद के दौरान हुआ अनुकूलन जागने के बाद भी बना रहता है । नींद के दौरान व्यक्ति किसी ध्वनि और गंध के बीच जो संबंध जोड़ता है वह उसे जागने के बाद भी याद रहता है ।     प्रयोग में किया यह गया था कि सोते समय प्रतिभागियों को कोई प्रिय या अप्रिय गंध सुंघाई गई और उसके साथ कोई विशिष्ट ध्वनि भी सुनाई गई । आमतौर पर माना जाता है कि सोते हुए व्यक्ति में घ्राणेंद्री सुप्त् रहती है मगर इस प्रयोग में देखा गया कि प्रिय गंध आने पर प्रतिभागी गहरी सांस लेते थे । इस प्रक्रिया से प्रतिभागी पूरी तरह अनजान थे ।
    जागने के बाद जब प्रतिभागियों को वे ध्वनियां सुनाई गई तो उनकी सांसों में वही पैटर्न नजर आया जो प्रिय/अप्रिय गंध की वजह से होता है - सांस का गहरा और उथला होना । मतलब सोते-सोते भी हम ऐसे सह-सम्बन्धों को याद रख पाते हैं । वैसे तो यह प्रक्रिया सारे प्रतिभागियों में दिखी मगर उन लोगों में ज्यादा नजर आई जिन्हें रेपिड आई मूवमेंट (आरईएम) नींद के दौरान यह संबंध बनाना सिखाया  गया था ।   
ग्लोबल वार्मिग से कृषि पैदावार में कमी के संकेत

               वातवरण में लगातार बढ़ रही कार्बन डाईऑक्साईड की मात्रा से न केवल वैश्विक तापमान में वृद्धि (ग्लोबलवार्मिग) तथा स्वास्थ्य संबंधी बीमारियां हो रही है, बल्कि फसलों की पैदावार कम होने से विश्व में खाद्यान्न संकट भी उभर रहा है ।
    विश्व के वैज्ञानिक फसलों की ऐसी नई किस्मों को विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो बदलते मौसम में अच्छी पैदावार दे सकें । धान की बौनी किस्म आई आर आई ने १९६० के दशक में खाद्यान्न पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दी थी लेकिन धीरे-धीरे इस किस्म को लोगोंने छोड़ दिया, क्योंकि यह वातावरण में बढ़ने वाली कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा को बर्दाश्त नहीं कर पायी  । हालंाकि, यह गैस हरे पौधों और वृक्षों के लिए  जरूरी है, क्योंकि धूप की उपस्थिति में पादप जगत कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करके प्रकाश संश्लेषण की क्रिया से ग्लूकोज बनाते है तथा ऑक्सीजन वातावरण में छोड़ते है ।
    लेकिन, हाल ही के शोधों में पाया गया है कि कार्बन डाइआक्साइड की अधिक मात्रा फसलों तथा पौधों के लिए  उचित नहीं है। जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ मोलिक्युलर प्लांट फिजियोलाजी तथा पोट्सडेम विश्वविघालय के शोधकर्ताआें ने पाया है कि कार्बन डाइआक्साइड की अधिक मात्रा फसलों की बौनी किस्मों को बहुत नुकसान पहुंचाती है । जिस समय धान की नई किस्म आई आर आठ विकसित की गई थी उसके बाद इसके नतीजे बहुत अच्छे रहे और पैदावार में गुणात्मक एवं मात्रात्मक वृद्धि भी हुई ।
     लेकिन विभिन्न शोधों में पाया गया है कि इस किस्म की पैदावार में १५ फीसदी तक की कमी आई है और अब इसे उगाना फायदे का सौदा नहीं रहा है । हालांकि, पिछले ५० वर्षो में इस किस्म की अनुवांशिक प्रणाली में कोई परिवर्तन नहीं आया है, लेकिन इससे होने वाली पैदावार काफी कम हो गई है ।
    गौरतलब है कि १९६० के दशक के बाद से वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में २५ फीसदी बढ़ोतरी हुई है । इस शोध से जुड़ी वैज्ञानिक जोस स्किफर्स का कहना है कि अब कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष ऐसी नई किस्में विकसित करने की चुनौतियां है, जो प्रतिकूल मौसम में भी अच्छी पैदावर दे सकें ।
सामयिक
क्या सारे भारतीय भ्रष्टाचारी है ?
न्या. चन्द्रशेखर धर्माधिकारी

    दुनियाभर में भारत की छवि ऐसी बन रही है कि मानो सारा देश और नागरिक समाज भ्रष्टाचार से ओतप्रोत हैं । लेकिन देश की यह छवि कितनी सच्ची हैं और कितनी झूठी है, इसे कोन तय कर सकता है ?
    पत्रकारिता के क्षेत्र में जो जो अपवाद या असाधारण घटना होती है, उसी की खबरें  छपती हैं । अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत में सदाचार या ईमानदारी की ही खबर छपनी चाहिये, क्योंकि  कहीं अब सामान्य नियम नहीं रहा । अब तो भ्रष्टाचार, बेईमानी, अन्याय या शोषण ही है, जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन का सामान्य नियम बन गया है । सारा देश, सारे भारतीय भ्रष्टाचारी ही है । इसलिए वही सामान्य नियम है । जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा है, उससे मैं बरसों पूर्व जुड़ा था ।
    असल में देखा जाए तो अण्णा हजारे ने जो आंदोलन खड़ा किया उसके पीछे की प्रेरणापुंज थे-स्वतंत्रजा सेनानी अच्युतरावजी पटवर्धन । जो आदर्श ग्राम योजना अभी अमल में लाई हे, उसकी भी प्रेरणा अच्युतरावजी की थी । दिल्ली में रामलीला मैदान पर भ्रष्टाचार समाप्त् करने के लिए जनलोकपाल की मांग सामने आई तब मैंने उस आंदोलन के प्रमुख व्यक्तियों से सवाल पूछा था कि आपके सपने का जनलोकपाल बन सके ऐसे एक भी व्यक्ति का नाम आप अवगत करा सकते है क्या ? क्योंकि  यह जनलोकपाल ऐसा होना चाहिए, जो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश से लेकर सबके खिलाफ कार्यवाही कर सके । उनके काम पर निगरानी रखे । वे असमंजस मेंपड़ गये । फिर उन्होंने मुझे पूछा कि गांधीजी ऐसे व्यक्ति नहीं है    क्या ?  तब मैं असमंजस मेंपड़ गया । क्योंकि  ऐसा सशक्त व्यक्ति, जो यह काम कर सकेगा मेरे ध्यान में नहीं आया । जो कुछ नाम प्रथमदृष्टा सामने आये, उनकी उम्र तथा स्वास्थ्य, उन्हें यह काम करने के लिए ससक्त नहीं मान सकता और आज तो तथाकथित गांधीजनों की संस्थाएं दुर्भाग्य से अदालतबाजी और सम्पत्ति के जतन, संवर्द्धन और संरक्षण में ही व्यस्त है ।
    दादा धर्माधिकारी ने १५ मई १९६८ को रांची में आयोजित गांधीजनों के शिविर में एक भाषण में कहा था कि हम पार्टियों को अपने में कोड ऑफ कण्डक्ट यानी आचार संहिता बनाना चाहिए । एक-दूसरे से ईमानदारी से व्यवहार करना चाहिए । लोग हमसे पूछ सकते है कि आपका क्या हाल है ? आपकी रचनात्मक संस्थाआें पर तो आये दिन गबन के आरोप हो रहे है । आपके भण्डारों में तो खादी स्टॉक-शॉर्ट (घट) हो जाते है । तो कौन-सी आपकी ऐसी संस्था है, जिसे हम लोकसत्ता के लिए नमूना माने ? किसी भी संस्था को ऐसा नहीं मान सकते । आपकी सारी की सारी संस्थाएं कलुषित और भ्रष्ट हो गई है । हम जो लोग गांधी-विनोबा को मानने वाले है, वे दुनियाभर के पापों का ही ध्यान करते है । तो मुझे कुछ ऐसा मालूम होता है कि हम उन पापों के साथ सम्बद्ध होने वाले है । असल में हमारे आशीर्वाद में भी शक्ति नहीं और शाप में भी शक्ति नहीं है । दादा का यह भाषण गांधीजनों को ही आत्मचिन्तन करने के लिए किया गया था । क्या जनलोकपाल अर्थात् जिस तरह का हम या लोग चाहते है, ऐसा व्यक्ति भारत में हमारे बीच है ? यही तो यक्ष प्रश्न है ? क्योंकि सभी पर भ्रष्टाचार के आरोप किये जा रहे है ।
    धार्मिक क्षेत्र में ऐसा व्यक्ति ढूंढने जाए तो करीब-करीब सारे के सारे धार्मिक ट्रस्ट और उनको चलाने वाले तथाकथित धर्मपुरूष भी इसी पापों में डूबे हुए है । तब ऐसा जनलोकपाल कहां से लाया जाएं या आएगा ? यह विचारणीय है । मैंने न्यायपालिका में वकील या न्यायमूर्ति के नाते आधी जिंदगी बिताई है । मैंने शकंराचार्य से इस देश के श्रेष्ठतम, नेताआें और महानुभावों के मामले चलाए है । इन्होंने अदालत में गीता, कुरान या बाइबल जैसे धर्मग्रंथों पर हाथ रखकर सच कहने की या सच के सिवा कुछ न कहने की शपथ ली । लेकिन इनमेंसे एक ने भी सौ फीसदी सत्य कथन नहीं कहा । सौ फीसदी सत्य कथन करने वाला गवाहदार मैंने नहीं देखा । ऐसी स्थिति में अपेक्षित जनलोकपाल कहां से    लाएंगे ?
    आज तो तथाकथित धार्मिक देश की यह स्थिति है कि ऐसा एक भी व्यक्ति बड़ी से बड़ी दूरबीन लेकर ढूंढने निकले तो भी मुश्किल हैं, जिस पर आरोप नहीं लगे है, या नहीं लगाये जा सकते । आज दुनिया में भारत की ऐसी छवि बनी है कि मानो सारा देश और सारे भारतीय भ्रष्ट हैं । देश की यह छवि कहां तक सच्ची या झूठी है यह कौन तय करेगा ? जब सारे भारतीय ही भ्रष्टाचारी है और ऐसा एक भी क्षेत्र, संस्था या प्रणाली नहीं है जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे हो । ईसा मसीह ने प्रश्न पूछा था कि जिसने कभी कोई पाप या कुकर्म नहीं किया है, वही कुकर्मी को पत्थर मारे । तब भीड़ में से एक भी व्यक्ति आगे नहीं आया । यही आज देश की स्थिति है । यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य  है ।
    ग्रीक साधु डायोजिनिस अपने ढंग के अनोखे व्यक्ति थे । एक बार दिन के सूर्य प्रकाश मेंलालटेन लेकर निकल पड़े । उनके एक परिचित व्यक्ति ने पूछा, हे महातमन् यह कौन-सा नया तरीका है ? इस सूर्य केे प्रकाश में यह लालटेन क्यों ? डायोजिनिस ने धीमे तथा शांतिपूर्वक कहा : मैं सज्जन की खोज में निकला हूं । एथेन्स के लोगों को सूर्यप्रकाश में भी कही सज्जन व्यक्ति नहीं दिखाई देता है । सब एक दूसरे की कमियां और दोष ही निकालते रहते है । अत: मैंने सोचा कि शायद लालटेन के उजाले में ही कोई सज्जन मिल जाए । यही स्थिति आज भारत की है । यहां किसी को भी सद्चरित्र या सज्जन व्यक्ति नहीं दिखाई दे रहा है । सारे के सारे व्यक्ति और संस्थाएं भ्रष्टाचार से लिप्त् है, ऐसे रोज आरोप-प्रत्यारोप हो रहे है । मंदिर में मच्छर हो गये, इसलिए मंदिर को ही जलाकर नष्ट-भ्रष्ट  क रने के  प्रयोग हो रहे है ।
    अब हमारे सामने यही यक्ष प्रश्न है कि जनलोकपाल कानून पारित हो भी जाए तो जैसी अपेक्षा है वैसा जनलोकपाल कहां से लाये ? कौन ऐसा जनलोकपाल बन सकेगा ? क्या हमारे पास इसका उत्तर है । जो आरोप कर रहे है वे भी इसका उत्तर नहींदे पा रहे है । कम से कम महादेव की पिंडी पर बिच्छू बैठा है और उसे जूता उठाकर मारने के सिवा अन्य पर्याय नहींहै । ऐसे वक्त जूते का वार भगवान की पिंडी पर नहीं होगा, इतना विवेक तो रखना जरूरी है । वरना सारा भारत और उसकी त्याग संस्कृति ही नष्ट-भ्रष्ट हो   जायेगी । यही हमारी वेदना है । अब तो कोई भी निर्णय ले तो भी कोई ना कोई भ्रष्टाचार का आरोप करेगा ही यह लगभग तय है, इसलिए अब शासकीय अधिकारियों ने निर्णय लेना ही बन्द कर दिया है और सारी व्यवस्था ठप्प हो गई है । क्या हम यही चाहते है ?
हमारा भूमण्डल
कचरा : अब हमारी पैतृक सम्पत्ति
एंड्रयु लाम

    अमेरिका में ४० प्रतिशत भोजन की कीमत करीब १६५ अरब डॉलर बैठती है । वैसे सामान्य भाषा में कहें तो ४ लोगों का अमेरिकी परिवार प्रतिवर्ष करीब १,१८,००० रूपए का खाना कचरे में फेंकता है । इस प्रवृत्ति ने पूरी मानव सभ्यता के लिये अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है ।
    बचपन में मैं सुपर बाजार के  कूड़ेदान से उठाया गया खाना खाता  था । ७० के दशक के मध्य में हम पहली बार एक शरणार्थी की तरह वियतनाम से अमेरिका में प्रविष्ठ हुए थे और मेरे सबसे बड़े भाई को घर के पास एक सुपर बाजार में काम मिल गया था । उसे दिए गए कई कामों में से एक जो उसे विशेष रूप से अरूचिकर लगता था । वह था रात में ऐसे भोज्य पदार्थो को कूड़ेदान में फेंकना, जिनकी खाने की तिथि निकल गई हो और इसके बाद उन पर क्लोरॉक्स नामक एक रसायन का छिड़काव करना, जिससे कि कचरा बीनने वाले एवं गरीब निराश हो ।
    बिना भूले वह अपने साथियों को रात के अंधेरे में बुलाता था और उस बचे हुए खाने - जिनमें बिस्कुटों के सीलबंद डिब्बे, खाने की जमी हुई ट्रे, टूना मछली के डिब्बे, आटे की थैलियां और खाने की नाना प्रकार की वस्तुएं शामिल थी, को हमारे द्वारा निकाल दिए जाने के बाद वह उन पर रसायन डाल देता था । एक दिन सुपर बाजार के प्रबंधक ने उसे रंगे हाथोंपकड़ लिया और वहां पर एक ताला बंद कचरा पेटी लगा दी । इसके बाद मेरे भाई को नौकरी से हाथ धोना पड़ा ।
    बदस्तूर जारी - जहां तक कचरे की बात है तब से अब तक स्थिति में अधिक परिवर्तन नहीं आया है । बल्कि स्थितियां और बदत्तर हुई हैं । यह सच है कि अमेरिकी वस्तुआें का पुनर्उत्पाद (रिसायकलिंग) करते हैं । हम हरियाली और धु्रवीय भालुआें की बचाने की बात भी करते है । लेकिन अमेरिकी पहले की तरह बर्बादी करने वाले बने हुए हैं । प्राकृतिक संसाधन रक्षा परिषद (एनआरडीसी) द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार औसत अमेरिकी नागरिक दक्षिण पूर्व एशिया के नागरिकों के मुकाबले १० गुना ज्यादा भोजन की बर्बादी करते हैं । यह १९७० के दशक में अमेरिकी नागरिकों द्वारा की जा रही बर्बादी से ५० प्रतिशत अधिक है । शोध में पाया गया कि हम हमारे भोजन का ४० प्रतिशत फेंक देते है । इसकी प्रतिवर्ष की अनुमानित कीमत करीब १६५ अरब डॉलर (एक डॉलर - ५३ रू.) होती है । इस लंबी मंदी के दौर में भी गणना करें तो औसतन चार लोगों का परिवार प्रतिवर्ष २२०० डॉलर (१,१८,००० रू.) मूल्य के बराबर का भोजन फेंक देता   है । इसके अन्य विपरीत प्रभाव भी है । जैसा कि अमेरिका में गत तीस वर्षो में कचरे की मात्रा दुगनी हुई है ।
    अनुमानत: अमेरिका के ८० प्रतिशत उत्पादों को एक बार प्रयोग करने के बाद  फेंक दिया जाता है, जबकि सभी प्रकार के प्लास्टिक के ९५ प्रतिशत, कांच के बर्तनों के ७५ प्रतिशत एवं एल्यूमिनियम पेय पदार्थ डिब्बों के ५० प्रतिशत का पुनचर्क्रण (रिसायकलिंग) होता ही नहीं है। इसके बजाय या तो इन्हें जला दिया जाता है या गाड़ दिया जाता है ।
    ग्रहीय कचरा - अमेरिका में विश्व की कुल जनसंख्या का महज ५ प्रतिशत ही निवास करता है जबकि वह विश्व ऊर्जा संसाधनों के ३० प्रतिशत से ज्यादा का उपभोग करता है और विश्व में पैदा होने वाले जहरीले कचरे में से ७० प्रतिशत अमेरिका में ही उत्सर्जित होता है । ग्लोबल अलायंस फॉर इनसिनेरेटर ऑल्टरनेटिव (वैकल्पिक भस्मक का वैश्विक संगठन) का कहना है कि यदि हमारे ग्रह पर रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अमेरिका की दर से उपभोग करने लगे तो हमें अपने उपभोग को पूरा करने के लिए ३ से ५ अतिरिक्त ग्रहों की आवश्यकता पड़ेगी ।
    अधिक समय नहीं बीता है जबकि मितव्ययता एक नैतिक कार्य माना जाता था । लेकिन अब हमारी दो तिहाई अर्थव्यवस्था उपभोग पर आधारित है । हम ऐसे युग में रह रहे है, जिसमें ग्लेशियर पिघल रहे है एवं बढ़ता समुद्री जलस्तर, धु्रवीय भालू डूब रहे हैं, मेढ़क महामारीकी रफ्तार से खत्म हो रहे हैं, कोरल गायब हो रहे है और वनों के साथ-साथ हमारी जैव विविधता भी लुप्त् हो रही है । हम बढ़ते वैश्विक तापमान के युग में रह रहे हैं । जहां तूफान हमारे शहरों और नगरों को तहस-नहस कर रहे हैं और हमारी जीवन रहने लायक ही नहीं बच पा रहा है । इसने हमारे ग्रह पर एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है ।
    प्रसिद्ध लेखक डेविड सुजुकी का कहना है कि जब अर्थव्यवस्था का अस्तित्व उपभोग पर आश्रित हो जाता है तो हम कभी नहीं पूछते कि इसकी अधिकतम सीमा क्या है ? हमें इन सबकी आवश्यकता क्यों है ? और क्या यह हमें और आनंदित कर रही है ? हमारे व्यक्तिगत उपभोग के पर्यावरणीय, सामाजिक एवं आध्यात्मिक परिणाम सामने आते है । अब हमारी जीवनशैली संबंधी धारणाआें के पुन: परीक्षण का समय आ गया है । तूफान केटरीना के बाद अमेरिकियों ने अधिक संख्या में इन सवालों को पूछना आरंभ कर दिया है । लेकिन उपभोक्तावाद एक ताकतवर शक्ति है और इसने अत्यधिक कुशग्रता से इसे विज्ञापन के माध्यम से अमेरिकी सपने की संज्ञा दे दी है, जिससे बहुत कम लोग उबर पाते हैं । उपभोक्ता द्वारा ही हमारी अर्थव्यवस्था के ७० प्रतिशत से अधिक व्यय किया जाता है । हम जानते हैं कि परिवर्तन की आवश्यकता है । परन्तु मोटापे के शिकार अनेक व्यक्तियों की तरह जो कि डाइटिंग एवं कसरत तो करना चाहते हैं ठीक उसी तरह एक देश की तरह हम भी इस आदत को छोड़ नहीं पा रहे हैं ।
    कचरा हमारे युग की पैतृक सम्पत्ति बन गया है । यह सबसे बड़ा मानव निर्मित ढांचा है । यह चीन की दीवार की तरह है । वर्तमान में सबसे बड़ा मानव निर्मित ढांचा, पूर्वी महान कचरा क्षेत्र (ईस्टर्न ग्रेट ेगारबेज पेच)  है । इसमें केलिफोर्निया एवं हवाई के मध्य समुद्र में प्लासिटक का विशाल वलयाकार बना हुआ है । कुछ वैज्ञानिकोंका मानना है कि इसका आकार टेक्सास प्रांत के बराबर है ।
    शरणार्थी से खरीदी की सनक तक - मेरा परिवार एवं रिश्तेदारों ने स्वयं शरणार्थी के रूप में शुरूआत की थी और आज ऐसा मध्यमवर्गीय अमेरिकी बन गये हैं, और कई बार प्रतीत होता है कि उनका  ध्येय भी सनक तक खरीददारी का हो गया है ।
    नवीनतम तकनीक, फैशन की नवीनतम धारा, नई से नई कारें, सर्वश्रेष्ठ लेपटॉप, नवीनतम आई पेड एवं आई फोन, हमारे पास ये सबकुछ है । और हां, हालांकि मैं मितव्ययी होने का प्रयास करता हॅू लेकिन मैं उसी समीकरण का हिस्सा हॅू । डिनर पार्टी में यदि जितना मैं खा सकता हॅू उससे ज्यादा परोस दिया जाता है तो मैं अच्छा खाना भी फेंक देता हॅू ।
    मेरे पास भी नवीनतम तकनीकें हैं और मैं इन्हीं आंकड़ों का हिस्सा हॅू । वैसे में इस तथ्य से वाकिफ हॅू कि आज मुख्यधारा के अमेरिकी ने सोचना प्रारंभ कर दिया है कि यदि सभी हमारे तरह का बनना चाहेंगे तो मौसम पर इसके क्या सीधे परिणाम पड़ेगे ? चीन से लेकर मुम्बई, केपटाउन से लेकर रियो डी जेनेरियो तक सभी अमेरिकी शैली का बेहतर जीवन चाहते हैं । हमारी सामूहिक इच्छाएं धराशायी होने के कगार पर पहुंचकर पारिस्थितिकी पर और अधिक दबाव डाल रही है ।
    सेनफ्रांसिस्को में अपने घर वापस लौटते हुए मैने देखा कि दो बूढ़ी चीनी महिलाएं मेरे घर के पास स्थित रेस्टोरेंट में पड़े एल्युमिनियम के डब्बों एवं प्लास्टिक की बोतलों को तलाश रही थी । एकाएक एक कर्मचारी बाहर आया और उसने चिल्लाकर बूढ़ी महिलाआें को ऐसा करने से रोका । मैं गाली देती उन दोनों महिलाआें को आड़ में छुपते देखता रहा और मुझे अपना दीन-हीन अतीत याद हो आया । मुझे भय है कि जिस तरह से सब कुछ घटित हो रहा है और वैश्विक तापमान में वृद्धि से हमारी सभ्यता खतरे मेंे पड़ गई है, ऐसे में ये दो बूढ़ी कचरा बीनने वाली हमारे अपने पूर्व भविष्य का ही प्रतिनिधित्व कर रही है ।
जन जीवन
गुटखा प्रतिबंध से मचा बवाल
अंकुर पालीवाल

    पिछले कुछ समय से सिगरेट उद्योग व गुटखा उद्योग में यह लड़ाई चल रही है कि कौन सा तम्बाकू उत्पाद  मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए कम हानिकारक है । इन उद्योगोंने एक-दूसरे के खिलाफ विज्ञापनों के जरिए कमर कस ली है तथा भ्रामक स्थितियां पैदा की जा रही हैं । पर स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार लाख टके की बात तो यह है कि सिगरेट हो या गुटखा पाउच, दोनों ही मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए हानिकर है ।
    अगस्त २०११ में फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथारिटी एक्ट के चलते कोई १४ राज्यों ने गुटखा पर प्रतिबंध लगाया क्योंकि गुटखे को देशभर में होने वाले ८० प्रतिशत मुंह के कैंसर की बीमारी के लिये जिम्मेदार माना जाता  है । गुटखा उद्योग की तरफ से जारी विज्ञापन कहते हैंकि तंबाकू चबाने पर लगा प्रतिबंध पक्षपात पूर्ण है और उनका सवाल है कि सरकार ने सिगरेट पर प्रतिबंध क्योंनहीं लगाया ?
    इन विज्ञापनों ने गुटखा के खिलाफ कार्य कर रहे गैर मुनाफा अभियानों को त्वरित प्रेसवार्ता बुलाने के लिए प्रेरित किया । प्रेस वार्ता में स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रतिनिधि भी सम्मिलित हुए । मंत्रालय के निदेशक अमाल पुष्प ने प्रतिबंध को वाजिब ठहराते हुए कहा कि सरकार ने प्रतिबंध लगाने के लिये गुटखे को इसलिए चुना क्योंकि ज्यादातर लोग गुटखा खाते है । श्री पुष्प ने कहा कि भारत में तंबाकू  का सेवन करने वाले २७४.९ मिलियन वयस्कों में से ७५ प्रतिशत लोग धुआरहित तंबाकू  का सेवन करते हैं । इसके नुकसान की चपेट मेंआसानी से आ जाने वाले वर्ग, जिसमें महिलाएं और किशोर भी शामिल है, सिगरेट की तुलना में गुटखे का सेवन ज्यादा करत है । ग्लोबल एडल्ट टोबैको सर्वे २०१० के आंकड़ों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि लगभग १८ प्रतिशत महिलाएं धुआंरहित तंबाकू सेवन करती ले रही है, हैं, जबकि सिर्फ ३ प्रतिशत महिलाएं बीड़ी सहित और दूसरे तरीकों से तंबाकू के धुएं का सेवन करती हैं ।
    हालांकि जब श्री पुष्प को सिगरेट के बारे में पूछा गया तो वे असहाय नजर आए । उन्होंने कहा मैं मानता हूं कि सिगरेट भी उतनी ही हानिकारक है, लेकिन अभी तक ऐसा विधान नहीं है जिसके तहत इसे प्रतिबंधित किया जा सके । सिगरेट एंड अदर टोबैको प्रोडक्ट्स एक्ट, २००३ के दायरे में सिगरेट और गुटखा दोनों ही आते हैं, लेकिन यह एक्ट सिर्फ तंबाकू उत्पादों को ही विनियमित करता है । गुटखा भी, फ ूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथरिटी एक्ट के अमल मेंआने के बाद ही प्रतिबंधित किया जा सका है ।  कानून, गुटखा को एक खाद्य उत्पाद मानता है और ऐसी किसी भी खाद्य सामग्री पर प्रतिबंध की बात कहता है जिसमें निकोटीन जैसा हानिकारक पदार्थ है ।
    धुआं रहित तम्बाकू संगठन के एक प्रतिनिधि ने आरोप लगाया कि नीतियों में खामियों की आड़ लेकर दरअसल सरकार सिगरेट लॉबी का पक्ष वहीं प्रतिबंध का समर्थन करते हुए एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के जगदीप छोकर का कहना है कि भारतीय सिगरेट बाजार के ८० प्रतिशत हिस्से पर नियंत्रण रखने वाली, आई टी सी लिमिटेड कंपनी, सत्तारूढ़ पार्टी सहित, दूसरे राजनैतिक दलों को चंदा देने वाले बड़े दानदाताआें में से एक हैं । दिल्ली नॉन प्रॉफिट ने अभी हाल ही में राजनैतिक दलों का मिलने वाले चंदे के स्त्रोतों का अध्ययन किया है ।
    विज्ञापन में दर्शाये गये कई सारे तथ्यों में से एक यह जथ्य बताता है: गुटखा के एक पाउच में ०.२ ग्राम तंबाकू ह जबकि वहीं एक सिगरेट में ०.६३ ग्राम तंबाकू है । वॉलेन्टरी हेल्थ एसोसिएशन ऑफ इण्डिया की कार्यकारी निदेशक भावना मुखोपाध्याय इसे धोखाधड़ी बताती हैं । उनका कहना है कि १ ग्राम से लेकर ३.५ ग्राम तक की साइज वाले गुटखे बाजार में है जिनके मसाले में तंबाकू का प्रतिशत भिन्न-भिन्न है । और तो और गुटखे के मिश्रण के बारे में कोई प्रामाणिक हिसाब भी नहीं है ।
    एक और तथ्य यह भी कहता है कि सिगरेट में ४००० केमिकल्स हैं जबकि गुटखा में ३००० केमिकल्स । पब्लिक हेल्थ फॉउण्डेशन ऑफ इण्डिया के हेल्थ प्रमोशन एंड टोबैको कंट्रोल की निदेशक मोनिका अरोरा कहती है कि धुआंरहित तंबाकू में कुछ कम केमिकल्स हो सकते हैं लेकिन उनमें से २८ केमिकल्स ऐसे हैं, जो कैंसरजन्य   है । उन्होनें यह भी बताया कि कैंसरजन्य एक ही केमिकल बीमारी, अपंगता और मौत के लिये पर्याप्त् है ।
    इन विज्ञापनों का यह भी दावा है कि प्रतिबंध के कारण ४० मिलियन लोगों की रोजी-रोटी छिन गई है । मोनिका अरोरा बताती है कि सरकारी अनुमान के मुताबिक साल २००४-०५ में तंबाकू उद्योग जनित औपचारिक क्षेत्र में ७ मिलियन लोग रोजगार से लगे हुए थे । अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार जोड़कर भी यह ४० मिलियन तक नहीं पहुंच सकता । उन्होनें इस दावे का भी खण्डन किया कि देश में किसान कोई सात लाख हेक्टेयर जमीन पर तंबाकू की पैदावार ले रहे हैं । तंबाकू विकास निदेशालय के मुताबिक धुआंरहित तंबाकू की खेती के लिए इस्तेमाल की जा रही जमीन महज ४००० हेक्टेयर है । सुश्री मुखोपाध्याय कहती है कि अब जब प्रतिबंध के कारण मुनाफा बुरी तरह प्रभावित हो रहा है तो गुटखा उद्योग रोजी-रोटी के मुद्दे को आगे कर उसकी आड़ ले रहा है ।
    आंध्रप्रदेश के सेंट्रल टोबैको रिसर्च इंस्टीट्यूट ने बताया कि उसी जमीन पर गन्ने, मक्का, धान और कपास की फसल ली जा सकती है, इससे किसानों को वैकल्पिक आजीविका मिल सकती है । योजना आयोग की रिपोर्ट २०१० के मुताबिक गुटखा उद्योग द्वारा जनित सालाना राजस्व १.६२ बिलियन यू एस डालर है, जबकि इसके कारण होने वाली बड़ी बीमारियों के इलाज में होने वाला खर्च ६ गुना ज्यादा है ।
    प्रेस वार्ता में श्री पुष्प ने कहा संवैधानिक रूप से सभी राज्यों को प्रतिबंध को लागू करना चाहिए । हमने सभी राज्यों को इसके संबंध में लिखा है पर वे इसमें समय लगा रहे हैं ।
प्रदर्श चर्चा
पं. बंगाल : भू-जल मेंघुलता आर्सेनिक
नित्या जेकब

    पश्चिम बंगाल में भूजल विषैले रसायन आर्सेनिक से बुरी तरह प्रदूषित है । इससे निपटने के लिये सरकार ने कुछ कदम उठाये हैं । इसके साथ ही पश्चिम बंगाल में अनेक लोगों ने आर्सेनिक के जहर से निपटने के लिए छोटे-छोटे प्रयोग किये हैं ।
    भू-जल में आर्सेनिक की विषाक्तता दुनिया भर में एक बड़ी चिन्ता का विषय है । भारत के कई राज्यों - उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल एवं असम में यह अत्यधिक विषैला रसायन अपने  प्राकृतिक रूप में मौजूद है । इसके प्रभाव से त्वचा का बदरंग होना, मस्से उभरना और यहां तक की मौत भी हो सकती है ।
    सरकार इस समस्या से निजात पाने में कमजोर रही है । वर्तमान में सिर्फ पश्चिम बंगाल ही एक ऐसा राज्य है जहां भू-जल को पीने योग्य बनाने के लिये एक योजना चलाई गई है । राज्य सरकार का लक्ष्य है कि सन् २०१३ तक हर रहवासी इलाकों में कम से कम एक आर्सेनिक मुक्त जल स्त्रोत अवश्य उपलब्ध करायेंगे ।
    वर्ष २००५ में बंगाल सरकार ने अपनी आर्सेनिक निष्कासन योजनाआें के क्रियान्वयन के लिये एक टॉस्क फोर्स का गठन किया था । लेकिन दुर्भाग्य से ये योजनाएं असफल रही । शायद इसलिये क्योंकि राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयों के रोजमर्रा के काम और जल वितरण की जिम्मेदारियां लोगों पर डाल दी जो इसके लिये तैयार नहीं थे । बाद में राज्य सरकार ने इस काम के लिए उन कम्पनियों से जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जिन्होनें आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगाये   थे । लेकिन कम्पनियों को काम के बदले मिलने वाला मेहनताना बहुत ही कम लगा और उन्होनें भी इस काम से हाथ खींच लिए ।
    वर्ष २००९ में राज्य सरकार ने आर्सेनिक निष्कासन ईकाइयों के निर्माण, संचालन एवं रखरखाव की जिम्मेदारी लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग पर डाली । विभाग ने गांवों में जल वितरण का काम संभालने के लिये पंचायतों को कहा ।
    योजना के मुताबिक, भू-जल को साफ करने के लिये राज्य सरकार ३३८ आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित करेगी । योजना के लिये २१०० करोड़ रूपयों की राशि आवंटित की गई है । जिसमें से ९७४ करोड़ रूपये सिर्फ आर्सेनिक निष्कासन ईकाई स्थापित करने में खर्च किये जायेंगे । सतही जल या नदियों के जल के लिये परम्परागत तरीके ही इस्तेमाल किये जायेंगे । आमतौर पर नदियों के पानी में आर्सेनिक नहीं होता और इसे तलछट जमाव एवं क्लोरीनीकरण जैसे परम्परागत तरीकों से साफ किया जा सकता है ।
सफाई के विकल्प
    भू-जल में आर्सेनिक और लौह विषाक्तता के स्तर के आधार पर आर्सेनिक निष्कासन ईकाईयां स्थापित है । प्राय: ऐसा पानी जिसमें ५० पार्ट्स प्रति बिलियन से कम आर्सेनिक एवं एक मिलिग्राम प्रति लीटर से कम लौह तत्व हो, उसे पीने योग्य माना जाता है और उसे बिना उपचारित किये वितरित किया जा सकता है । अगर इन तत्वों की मात्रा इस सीमा से अधिक है तो पानी को उपचारित किया जाता है ।
    लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग नलकूपोंमें आर्सेनिक निष्कासन उपकरण लगायेगा, जो ५००० परिवारों को आपूर्ति कर सकता है । यह उपकरण फिटकरी अथवा ब्लीचिंग पाउडर के द्वारा पानी की प्रारंभिक सफाई करता है और फिर यह पानी एक लौह अयस्क हेमेटाइट की परत से गुजारा जाता है । इसके बाद पानी एक दूसरी टंकी में जाता है, जहां तलछट जमाव विधि द्वारा आर्सेनिक को अलग किया जाता है । तीसरी टंकी में रेत की मोटी परत के माध्यम से बचा हुआ आर्सेनिक भी छन जाता है । इस तरह पानी इस्तेमाल के लिये तैयार होता है ।
    एक आर्सेनिक निष्पादन इकाई लगाने का खर्च कोई ७० लाख रूपये तक आता है । हालांकि एक बार लग जाने के बाद इसका चालू खर्च सिर्फ १० रूपये प्रति किलोलीटर है । पश्चिम बंगाल आर्सेनिक टॉस्क फोर्स की सदस्या अरूनाभा मजूमदार के अनुसार आर्सेनिक निष्पादन इकाई टिकाउ एवं कारगर है । इस तरह से उपचारित पानी में १० पार्ट्स प्रति बिलियन से भी कम मात्रा में आर्सेनिक होता है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार पीने योग्य एवं सुरक्षित है । भारतीय मानक ब्यूरो ५० पार्ट्स प्रति बिलियन तक सुरक्षित मानता है ।
    पश्चिम बंगाल में अनेक लोगों ने अपने घरों में छोटी और सस्ती आर्सेनिक निष्कासन ईकाई लगवाई है । यह एक घरेलू फिल्टर है जिसमंें आसानी से उपलब्ध होने वाले फिटकरी और ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल होता है । इस प्रक्रिया में ब्लीचिंग पाउडर, आर्सेनिक को ऑक्सीकृत करता है और फिटकरी थक्का जमाने का काम करता है । इसके बाद पानी रेत के फिल्टर से गुजारा जाता है जहां बचा हुआ सारा आर्सेनिक सोख लिया जाता है । इस फिल्टर को हर तीन साल में बदलने की जरूरत पड़ती है । कुछ के अनुसार इस तरह के फिल्टरों को यदि इनकी कार्यक्षमता अवधि समाप्त् होने से पहले बदल दिया जाये तो ये हर तरह से कारगर हैं ।
    आर्सेनिक की सफाई का एक दूसरा विकल्प है - एकल चरण फिल्टर । इसे कोलकाता स्थित अखिल भारत जन स्वास्थ्य एवं स्वच्छता संस्थान के सेनेटरी इंजीनियरिंग विभाग द्वारा विकसित किया गया है । इसमें फिटकरी को पानी में मिलाया जाता है, जिससे पानी में मौजूद लौह तत्व और आर्सेनिक अलग हो जाते हैं । फिर इसे निथरने के लिये छोड़ दिया जाता है इस तरह से फिल्टर किया गया पानी, इस्तेमाल के योग्य होता है । पानी को फिल्टर करने का एक और तरीका है । इसमें ब्लीचिंग पाउडर, एल्यूमीनियर सल्फेट और क्रियाशील एल्यूमिना का इस्तेमाल किया जाता है । इस प्रक्रिया में बची हुई आर्सेनिक युक्त गंदगी को बार-बार हटाना पड़ता है ।
    ये छोटी-छोटी तकनीकें प्रदेश भर में इस्तेमाल की जा रही हैं, लेकिन सरकार के लिये इनमें से हर एक की
समय-समय पर निगरानी करना कठिन है । इसलिये सरकार की योजना है कि इन मौजूद विधियों की तकनीकों को बेहतर किया जाये ।
    पश्चिम बंगाल ने तो आर्सेनिक नियंत्रण की दिशा में छोटा पर सही कदम तो उठाया है पर दूसरे राज्य इस पर कुछ भी चितिंत नहीं दिखते । बिहार ने भी एक कोरी कागजी योजना बनाने से ज्यादा कुछ नहीं किया । बिहार  सरकार में ग्रामीण जल एवं स्वच्छता के सलाहकार प्रकाश कुमार स्वीकार करते हैं कि इस दिशा में अब तक कुछ   भी ठोस काम नहीं हुआ है । राज्य सरकार ने यूनिसेफ के साथ मिलकर कुछ आर्सेनिक निष्कासन इकाई लगवाई और भू-जल में आर्सेनिक की मात्रा को हल्का करने के लिये बारिश के पानी को जमीन मेंउतारना शुरू किया है । लेकिन इसमें भी बहुत ही कम सफलता हासिल हुई है । पटना स्थित अनुग्रह नारायण कॉलेज के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रमुख अशोक घोष के अनुसार इन असफलताआें के लिये जन भागीदारी की कमी है ।
    पटना से २० किलोमीटर दूर रामनगर गांव में यूनिसेफ ने आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिये बहुत से कुआेंमें सौर ऊर्जा चलित पंप लगाये थे । पटना विश्वविद्यालय में आर्सेनिक  विषय पर शोध करने वाले छात्र प्रकाश कुमार का कहना है कि पंप कुछ ही महीनोंके भीतर टूट गये क्योंकि इन्हें चलाने वाले ऑपरेटर प्रशिक्षित नहीं थे । ये चोरी भी कर लिये गये ।
    श्री प्रकाश कुमार कहते हैं कि आर्सेनिक निष्कासन इकाई के संचालन, रखरखाव, कचरे के सुरक्षित निपटान एवं अशुद्ध व उपचारित पानी के नियमित परीक्षण के मानक तौर तरीके बनाकर इन इकाईयों को कारगर किया जा सकता है । इसके लिये पंचायत और समुदाय को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिये । ये प्रयास बताते है कि भू-जल में आर्सेनिक विषाक्तता को गंभीरता से लिया जा रहा है । दूसरे राज्य भी इस काम में आगे आ रहे हैं । अब ऐसे में आर्सेनिक से निजात पाने के लिये इसके नियोजन और रखरखाव में जनता की भागीदारी महत्वपूर्ण है ।
कृषि जगत
खेती की पारम्परिक पद्धति की प्रासंगिकता
एस.के. सिन्हा

    मध्यप्रदेश में निवास करने वाली आदिम जनजाति बैगा पारम्परिक तौर पर बेंवर खेती करती आ रही है । कृषि की इस पद्धति से न केवल जैव विविधता की रक्षा होती है बल्कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है । आवश्यकता इस बात की है कि कृषि की इस प्रणाली का उपयोग आधुनिक विकास प्रक्रिया का हिस्सा किस प्रकार बनाया जाये ।
    यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि हम लोग प्रतिदिन ०.५ मिलीग्राम जहर खाते हैं । इंटरनेशल फाउंडेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट नामक संस्था ने आलू के १०० नमूनों में से १२ और टमाटर के १०० नमूनों में से ४८ में जहर पाया था । इसी तरह उत्तरप्रदेश के वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया कि हमारे शरीर में साल भर में करीब १७४ मिली ग्राम जहर पहुंचता है और यह जहर अगर शरीर में एक साथ पहुंच जाए तो व्यक्ति की मृत्यु सुनिश्चित है । शरीर के अंदर यह जहर दूध, फल, सब्जी और अनाज खाने से धीमे गति से पहुंचता है और यह सब आज रासायनिक खेती में उपयोग होने वाले उर्वरक के कारण हो रहा है ।
    हम लोग ज्यों-ज्यों विकास की ओर अग्रसर हो रहे हैं, वैसे-वैसे हम अपनी संस्कृति और परम्पराआें को पीछे छोड़ते जा रहे हैं । देश ने वर्ष १९६६-६७ में हरित क्रांति का आगाज तो किया, लेकिन अंधाधंुध रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग भी इसी के साथ प्रचलन में आया, जिसका परिणाम आज फलों व सब्जियों में जहर के रूप में सामने आ रहा है । मौजूदा समय में जरूरत है तो रासायनिक खेती के बेहतर विकल्प तलाशने की और वह जैविक खेती के रूप में सामने आ रहा है । अर्थात फिर से प्राकृतिक तरीके से खाद तैयार कर खेती करना । लेकिन इस प्रक्रिया में हम आदिवासियों की बेंवर खेती को भूल रहे हैं, जिसमें खेती करने के लिए न तो किसी प्रकार की खाद व दवाई की आवश्यकता पड़ती है और न ही सिंचाई करने के लिए पानी और हल से जोत की जरूरत । उसके बावजूद इसमें बम्पर पैदावार होती है । विशेषकर यह पहाड़ी इलाकों के लिए बेहतर विकल्प बनकर उभर सकता है ।
    रासायनिक खेती की बनिस्बत बेंवर खेती के कई फायदे हैं । बिना हल चलाए खेती करने से पहाड़ अथवा ढलान की मिट्टी के कटाव को रोका जाता है । इसके खेत तैयार करने के लिए न तो पेडों को काटा जाता है और न ही जमीन जोती जाती है । इसकी सिंचाई व इसमें खाद डालने के लिए किसानों को सोचना भी नहीं पड़ता है । यह पूरी तरह बारिश पर निर्भर है । इसलिए तरह तरह की खेती पहाड़ी इलाकों में ज्यादा सुरक्षित है, जहां बारिश समय पर होती है । बेंवर खेती की मिश्रित प्रणाली के कारण  फसल में कीड़ा लगने का खतरा भी नहीं रहता है । इसमें बाढ़ व अकाल झेलने की क्षमता भी होती है और यह कम लागत व अधिक उत्पादन की तर्ज पर काम करता है । फिलहाल बैगा आदिवासी इसमें डोंगर, कुटकी, शांवा, सलहार, मंडिया, खास, झुझंरू, बिदरा, डेंगरा, ज्वार, कांग, उड़द, ककड़ी, मक्का, भेजरा सहित सौ से ज्यादा अनाज उगाते हैं । इसके अलावा औषधि की भी खेती करते हैं ।
    बेंवर खेती के लिए जमीन तैयार करने में भी मशक्कत नहीं करनी पड़ती । मौजूदा खेती की तरह इसमें किसानों को न तो बिजली, पानी के लिए रोना पड़ता है और न ही उर्वरक लेने के लिए मारामारी करनी पड़ती है । इसमें सबसे पहले खेती की जमीन पर छोटे-छोटे पेड़ों व झाड़ियों को काटकर बिछाया जाता है, फिर झाड़ियां सूखने के बाद उसमें आग लगा दी जाती है । आग जलने के बाद राख की वहां एक परत बन जाती है, जिसमें बरसात शुरू होने से एक सप्तह पहले विभिन्न किस्मों के बीज मिलाकर उसे खेत में छिड़क दिया जाता है । बारिश के बाद  उसमें फसल लहलहाने लगती है ।
    आज भी इस तरह की खेती आदिवासी इलाकों में होती है । यह जैविक खेती का ही एक रूप है । मध्यप्रदेश के डिंडौरी जिले के समनापुर विकासखंड के कई गांवोंमें बैगा आदिवासी इस तरह की खेती करके अनाज का उत्पादन करते हैं और अपनी आजीविका चलाते हैं । बेवर खेती पूरी तरह से जैविक, पारिस्थितिक, प्रकृति के अनुकूल और मिश्रित खेती है । इसकी खासियत यह है कि इस खेती में एक साथ १६ प्रकार के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें कुछ बीज अधिक पानी में अच्छी फसल देते हैं, तो कुछ बीज कम पानी होने या सूखा पड़ने पर भी अच्छा उत्पादन करते हैं । इससे खेत में हमेशा कोई न कोई फसल लहलहाते रहती है । इससे किसानों के परिवार को भूखे मरने की नौबत भी नहीं आती और न ही किसान को आत्महत्या करने की स्थिति उत्पन्न होती है । फिलहाल इस तरह की खेती पर रोक लगी हुई है । सन् १८६४ में अंगे्रेजों के वन कानून ने इस पर रोक लगा दी थी । उसके बाद भी डिंडौरी जिले के बैगाचक और बैगाचक से लगे छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले मेंकुछ बैगा जनजाति बेंवर खेती को अपनाए हुए हैं । सरकार को चाहिए की वह इसे बढ़ावा दे और इससे आम किसानों को भी जोड़ें ।
स्वास्थ्य
खुले मेंशौच से बीमारियों को निमंत्रण
सुश्री मीनाक्षी अरोड़ा
    भारत में आधी से अधिक आबादी खुले में शौच जाने को मजबूर  है । इसके परिणामस्वरूप अनेक बीमारियां जिनमें उल्टी-दस्त प्रमुख हैं, बड़े पैमाने पर फैलती है, जिनकी परिणिति कई बार मृत्यु पर ही होती  है । सरकारी योजनाआें में शौचालय निर्माण की बात तो जोर-शोर से की जाती है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर हमारे समाने रख रही है ।
    दुनिया में सर्वाधिक लोग दूषित जल से होने वाली बीमारियों से पीड़ित  है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकड़े बताते है कि दुनिया में प्रतिवर्ष करीब ६ करोड़ लोग डायरिया से पीड़ित होती है, जिनमें से ४० लाख बच्चें की मौत हो जाती है । डायरिया और मौत की वजह प्रदूषित जल और गंदगी ही है । अनुमान है कि विकासशील देशों में होने वाली ८० प्रतिशत बीमारियां और एक तिहाई मौतों के लिए प्रदूषित जल का सेवन ही जिम्मेदार है । प्रत्येक व्यक्ति के रचनात्मक कार्योमें लगने वाले समय का लगभग दसवां हिस्सा जलजनित रोगों की भेंट चढ़ जाता है । यही वजह है कि विकासशील देशों में इन बीमारियों के नियंत्रण और अपनी रचनात्मक शक्ति को बरकरार रखने के लिए साफ-सफाई, स्वास्थ्य और पीने के साफ पानी की आपूर्ति पर ध्यान देना आवश्यक हो गया है । निश्चित तौर पर साफ पानी लोगों के स्वास्थ्य और रचनात्मकता को बढ़ावा देगा । कहा भी गया है कि सुरक्षित पेयजल की सुनिश्चितता जल जनित रोगों के नियंत्रण और रोकथाम की कुंजी है ।
    ऐसे में हमें मर्यादापूर्वक शौच निपटाने की सही सोच के साथ शौचालय उपलब्ध होना ही चाहिए । सरकार निर्मल भारत अभियान, सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान आदि से शौचालय बनवाना चाहती है और इसके लिए काफी बड़े बजट का प्रावधान किया गया है, लेकिन सफाई-स्वच्छता पर खर्च होने वाला धन यदि केवल शौच गृह बनाने तक सीमित है तो हम मल प्रबंधन, खुले में शौच समस्या को ट्रांसफर भर कर रहे हैं । न किस इस समस्या का पूरा निराकरण कर रहे हैं । गांधीजी के अनुसार कचरा वह बीज हैं, जो अपने यथास्थान नहीं है । अगर वह अपने उचित स्थान पर पहुंच जाए तो वह हमारे लिए सम्पत्ति हो जाती है । पर सीवेज या लश जैसे इन तरीकों से मल खेती का बल नहीं बन पाता । इन तरीकों में उडाऊपन, फिजूलखर्ची का दोष है । मल की खाद यानी सोनखाद जैसी अपने हाथ की खाद व्यर्थ गंवाना बेवकूफी और दुर्देव का लक्षण है ।
    खुले में शौच से जल की गुणवत्ता खत्म हो जाती है और यह पीने के लायक नहीं रहता । इससे बीमारियां होने की भी संभावनाएं ज्याद होती है । जल गुणवत्ता में एक खास पहलू है कि इसमें मल की मौजूदगी नहीं होनी चाहिए, इसलिए जब पेयजल की बैक्टीरियोलॉजिकल जांच की जाती है तो उसमें सबसे पहला उद्देश्य मल प्रदूषण की उपस्थिति की जांच करना होता है । एक खास तरह का बैक्टीरिया मानव मल की जल में उपस्थिति के संकेत देता है, जिसे ई-कोलाई कहते है ।
    महाराष्ट्र राज्य में अमरावती जिले के गांवोंमें लोग पीने के लिए अलग-अलग स्त्रोतों-कुंआ, नलकूप, हैडपंप और ग्राम पंचायतोंका मुहैया कराए गए पानी से काम चलाते हैं । इस पानी की गुणवत्ता को जांचने के लिए  कुछ वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया जिसके तहत जिले के खुले मेंशौचमुक्त (ओपन डेफिकेशन फ्री-ओडीएफ) और खुले में शौच वाले (ओपन डेफिकेशन नॉट फ्री - ओडीएनएफ) गांव को चुना गया क्योंकि वह यह देखना चाहते थे कि मानव मल का जल की गुणवत्ता पर क्या और कितना असर पड़ता है । उन्होनें खुले में शौचमुक्त ६६ गंावों और खुले में शौच वाले बहत्तर गांवों से पेयजल के नमूने इकट्ठा किए । खुले में शौच मुक्त वाले गांवों में निर्मल ग्राम पुरस्कार प्राप्त् किए हुए गांव चिन्हित किए गए थे । ६६ ओडीएफ और ७२ ओडीएनएफ गांवों में से कुल मिलाकर २११ पेयजल के नमूने लिए  गए । जिनमें से १०४ ओडीएफ गांव से और १०७८ ओडीएनएफ से थे । नमूनों के लिए अलग-अलग स्त्रोतों को भी चुना गया । जांच के दौरान अलग-अलग परीक्षण किए गए और कई तरह के प्रदूषणों का पता लगाया गया तो नतीजे चौंकाने वाले थे । ओडीएनएफ गांवों में पेयजल में मानव मल से होने वाला जल प्रदूषण ३५ फीसदी था, जबकि ओडीएफ गांवो में यह मात्र ८ फीसदी था । अगर हम स्त्रोत की बात करें तो ओडीएनएफ गांवों में यह प्रदूषण खुले कुआेंमें सबसे ज्यादा ७७ फीसदी तक पाया गया जबकि ओडीएफ गांव में यह मात्र १५ फीसदी ही था । ओडीएफ गांवो में पेयजल ८३ फीसदी मानव मल के संक्रमण से मुक्त पाया गया जबकि ओडीएनएफ गांवों में पेयजल में मानव मल की मौजूदगी ५२ फीसदी पाई गई । इस परीक्षण से वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया कि खुले में शौच हमारे जल स्त्रोतों को किस तरह प्रदूषित कर देता है ।
    सेनिटेशन केवल मानवीय स्वास्थ्य के लिए ही महत्वपूर्ण नहींहै, बल्कि यह आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए भी निहायत जरूरी   है । बावजूद इसके भारत में पूर्ण स्वच्छता के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं । सरकारी से लेकर, खुले में शौच और साफ -सफाई से संबंधित आदतों तक की । लोगों के मन, वचन और कर्म में गहरे पैठी हुई आदतों को बदलना इतना आसान नहीं होता । आदतों में बदलाव तो एक चुनौती है ही पर सरकारों की समझदारी भी सवालों के घेरे में है । सरकारें सबको शौचालय देना चाहती है लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि अधकचरी समझ से बन रहे शौचालय कहीं देश के भूजल को न प्रदूषित कर दें । इसके अलावा सब्सिडी दे-देकर कब तक शौचालय बनवाएंगे । फिर उनकी रख-रखाव के लिए क्या कोई नई स्कीम लाएंगे ।
    हालांकि खुले में पड़े हुए मल से न केवल भू-जल प्रदूषित होता है, बल्कि कृषि उत्पाद भ्ज्ञी इस प्रदूषण से अछूते नहीं रहते । यही मल डायरिया, हैजा, टाइफाइड जैसी घातक बीमारियों के कीटाणुआें को भी फैलाता है । उचित शौचालय न केवल प्रदूषण और इन बीमारियों से बचने के लिए जरूरी है बल्कि एक साफ-सथुरे सामुदायिक पर्यावरण के लिए भी जरूरी है क्योंकि शौचालय ही वो स्थान है, जां मानव मल का एक ही स्थान पर निपटान संभव   है । जिससे पर्यावरण साफ-सुथरा सुरक्षित रखा जा सकता है । इससे मानव मल में मौजूद जीवाणु हमारे जल, जंगल, जमीन को प्रदूषित नहीं कर पाते हैं ।
    जल, स्वच्छता, स्वास्थ्य, पोषण और लोगों की भलाई ये सब आपस में जुड़े हुए हैं । प्रदूषित जल का पानी, मल का ठीक से निपटान न करना व्यक्तिगत और खाद्य पदार्थो के स्वास्थ्य और सफाई की कमी कचरे का ठीक से प्रबंधन न होना भारत में बीमारियों की सबसे बड़ी वजह है । यहां हर साल लगभग ५ करोड़ लोगों की जल जनित बीमारियों का शिकार होना पड़ता है ।
    दूषित पेयजल से स्वास्थ्य को जो सबसे बड़ा और आम खतरा है वो है मानव और पशु मल और उसमें मौजूद छोटे-छोटे जीवांश का    संक्रमण । आमतौर पर जिन्हें ई-कोलाई के नाम से जानते है । वैज्ञानिक परीक्षणोंने भी यह साबित कर दिया है कि खुले में शौच को रोककर और गांवो को निर्मल बनाकर ही हम न केवलपेयजल के प्रदूषण को कम कर सकते हैं बल्कि इससे गांव प्रदूषण मुक्त होने के साथ-साथ डायरिया, हैजा, टाइफाइड और अन्य सकं्रामक रोगों से भी मुक्त होंगे । बेहतर स्वच्छता सुविधाएं लोगों के स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि उनके आर्थिक और सामाजिक विकास को भी बेहतर बनाती है ।
पर्यावरण परिक्रमा
अब बिना पायलट के हवाई सफर

    क्या आप पायलट रहित हवाई सफर के लिए तैयार है । हो सकता है कि आने वाले चंद सालों में यात्री विमानों में भी पायलट नहीं हो । चूंकि अब नागरिक विमानों में भी पायलट रहित उड़ान की वही तकनीक इस्तेमाल की जा रही है जो सैन्य विमान ड्रोन में है । इससे निश्चित रूप से हवाई सफर का खर्च कम होगा और उड़ान संबंधी सेवाआें में नई क्रांति आएगी ।
    ब्रिटेन सरकार समर्थित (करीब ५५१८ करोड़ रूपये) इस परियोजना का परीक्षण दिसंबर से स्क ॉटलैंड में शुरू होगा । इसलिए भविष्य के पायलट रहित विमानों को सैकड़ों मील दूर नियंत्रण कक्ष में बैठे पायलट रिमोट से ही नियंत्रित कर सकेंगे ।
    ड्रोन विमान की नई तकनीक वाले नई पीढ़ी के यात्री विमानों की इस परियोजना से जुड़े लोगों का मानना है कि परीक्षण सफल होने के बाद हवाई यात्रा में नए युग की शुरूआत होगी । इससे हवाई  यात्राआें के खर्च में कटौती के अलावा मानवीय त्रुटियों के कारण होने वाले हादसे रूकेंगे । उससे भी अधिक जरूरी पायलटों के रहते कभी भी एक उड़ान आठ घंटे से अधिक की नहीं हो सकती है । लेकिन ऐसा नहीं होने पर ये रूकावट भी दूर हो जाएगी और हवाई यात्रांए बिना किसी अंतराल के एकमुश्त की जा सकेगी । बिना रूके लंबी उड़ानों का चलन भी शुरू होगा । हालांकि उनका यह भी कहना है कि पायलट के बगैर उड़ान खतरनाक हो सकती है ।
    पायलट रहित यात्री विमानों में एक नए उपकरण री-टाइमर का इस्तेमाल होगा । इससे यात्री घंटो की उड़ान के बाद भी विमान से उतरने पर खुद को तरोताजा महसूस करेगें । ब्रिटेन से सीधे ऑस्ट्रेलिया तक की दूरी तय करने के बावजूद वह थकान महसूस नहीं करेगे । री-टाइमर की तकनीक ईजाद करने वाले प्रोफेसर लीयोन लैक का कहना है कि उड़ान के दौरान खास चश्मे पहनने होगे जिससे अनिद्रा से पीड़ित लोगों को भी ये राहत देंगे ।
    दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की फिल्नडर्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताआें ने बताया कि २५ घंटे के बॉडी क्लॉक को भी दिमाग पर चश्मे से पहुंचने वाली तरंगे प्रभावित करेगी और थकान नहीं होगी । छोटे चरणों में शरीर को नए टाइम जोन के लिए तैयार किया     जाएगा ।
    पायलट रहित इस विमान की एक और तकनीक में ऑस्ट्रिया जेट स्ट्रीम से वीडियो कैमरा मे दर्ज फोटो को पहचनान कर उसके अनुरूप फैसले लेने का भी दमखम होगा । छवि पहचानने वाले इस सॉफ्टवेयर का परीक्षण पहले से ऑयरलैंड के समुद्र के ऊपर उड़ान भर के किया जा चुका है । आयरलैंड के समुद्र के ऊपर कुछ अन्य परीक्षण अभी किए जाने बाकी है । अभी मानवरहित विमान को किसी वस्तु या अन्य उड़ती हुई चीज से टकराने के हालात उत्पन्न करके परीक्षण करना बाकी है । हालांकि परीक्षणों में अब तक के नतीजे बताते है कि मशीनें भी त्वरित गति से कठिन और सही फैसलेले सकती है ।

चंद कंपनियोंके हाथ में४० प्रतिशत अर्थव्यवस्था

    आमतौर पर माना जाता है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को चलाने में रसूखदार और शक्तिशाली देशों का हाथ रहता है । लेकिन आपको यकीन नहीं होगा कि ४० फीसदी अर्थव्यवस्था को शक्तिशाली देश नहीं बल्कि कुछ कंपनियां चला रही है । एक नए शोध में इस बात का खुलासा किया गया है कि १४७ कंपनियों के हाथ में दुनिया की ४० फीसदी अर्थव्यवस्था है ।
    यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख के एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया है जिसमें कहा गया है विश्व की कुल अर्थव्यवस्था में से ४० फीसदी की कमान महज १४७ कंपनियों के हाथ में है । खास बात ये है कि १४७ में अधिकतर वित्तीय संस्थाएं यानी की बैंक और फाइनेंस कंपनियां है । शोध में कहा गया है कि १४७ कंपनियों में से २० कंपनियां वित्तीय सेक्टर से ताल्लुक रखती है । इनमें जिनमें गोल्डमैन सैक्स और बार्कले जैसी कंपनियां प्रमुख है । यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरिख ने अपने अध्ययन में ४३,०६० कंपनियों को शामिल किया । इनमें १३१८ उद्योगों को सबसे ज्यादा ताकतवर माना गया है । जबकि २० सबसे बड़ी वित्तीय संस्थाएं (बैंक) शामिल है । इस सूची के अनुसार ४० फीसदी अर्थव्यवस्था १४७ कंपनियों के निमंत्रण में संचालित हो रही है । ये १४७ कंपनियां भी एक गठजोड़ की तरह काम कर रही है और ४० फीसदी अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रही है । हालांकि ये गठजोड़ अब खत्म होने के कगार पर आ गया है लेकिन फिर भी ये काफी प्रभावी है ।

कैंसर मनुष्यों को ही क्यों ?

    टेक्सास साउथवेस्टर्न विश्वविद्यालय मेडिकल सेंटर के जेनेविएक कोनोप्का और उनके साथियों ने मनुष्यों और चिपैंजियों के डीएनए का विश्लेषण करके एक अनोखी बात का पता लगाया है । उन्होनें यह समझने का प्रयास किया है कि जब इंसान और चिपैंजियों के अधिकांश जीन्स एक से हैं, तो कैंसर जैसी कुछ बीमारियां मनुष्यों को ही क्यों ज्यादा प्रभावित करती है ।
    कोनोप्का व साथियों का मत है कि इन दो प्रजातियों के बीच मुख्य फर्क जिनेटिक संरचना का नहीं बल्कि उस जिनेटिक संरचना में हुए कुछ अतिरिक्त परिवर्तनों का है । इन्हें एपि-जिनेटिक परिवर्तन कहते हैं और ये पर्यावरण के कारण होते हैं ।
    इस तरह के एक परिवर्तन में मिथाइल समूह डीएनए से जुड़ जाते हैं । इसे डीएनए-मिथाइलेशन कहते हैं । जिस जीन का मिथाइलेशन हो जाता है उसके अभिव्यक्त होने की संभावना कम हो जाती है । अर्थात वह जीन डीएनए में मौजूद तो होता है मगर अपना काम यानी संबंधित प्रोटीन का निर्माण नहीं कर पाता ।
    कोनोप्का के दल ने मानव और चिपैंजियों के दिमाग के एक हिस्से प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स - में डीएनए मिथाइलेशन के स्तर का आकलन करने पर पाया कि मनुष्यों का यह भाग अपेक्षाकृत कम मिथाइलेटेड होता है । थोड़ा और बारीकी से देखने पर पता चला कि मनुष्यों और चिपैंजियों के जिन जीन्स के  मिथाइलेशन में अंतर है, वे ऐसे जीन्स हैं जिनका संबंध संज्ञान संबंधी गड़बड़ियों और कतिपय कैंसर से है ।
    टीम का मत है कि अपेक्षाकृत अधिक मिथाइलेशन होने की वजह से चिपैंजियों में ये जीन अभिव्यक्त नहीं होते या कम अभिव्यक्त होते हैं जबकि इंसानों में इनकी अभिव्यक्ति अधिक होती है । जब ये जीन्स अभिव्यक्ति होते हैं तो कैंसर जैसी स्थितियां उभरने की संभावना बढ़ती है ।
    कोनोप्का व उनके साथियों की राय है कि उनके इस अनुसंधान से यह समझने में मदद मिलती है कि मनुष्यों के दिमाग के विकास में मिथाइलेशन की एक प्रमुख भूमिका रही है ।

जुगनू क्यों चमकते है

    रात के समय पेड-पौधों के झरमुट के आसपास चमकते हुए जुगनुआें को तो आपने देखा ही होगा । जुगनू के बारे मेंतो आप सब जानते ही होंगे । जुगनुआें के चमकने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य अपने साथी को आकषित करना, अपने लिए भोजन तलाशना होता है । ये जुगनू आजकल शहरों में कम ही दिखते हैं । इन्हें ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में देखा जा सकता है ।
    वर्ष १९६७ में इस चमकने वाले कीट की खोज वैज्ञानिक रॉबर्ट बायल ने की थी । पहले यह माना जाता था कि जुगनुआें के शरीर में फास्फोरस होता है, जिसकी वजह से यह चमकते हैं, परन्तु इटली के वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया कि जुगनू की चमक फास्फोरस से नहीं, बल्कि ल्युसिफेरेस नामक प्रोटीनों के कारण होता है । जुगनू की चमक का रंग हरा, पीला, लाल तरह का होता है । ये अधिकांश रात में ही चमकते हैं । दिखने में यह एकदम पतले और दो पंख वाले होते हैं । ये जंगलों में पेड़ों की छाल में अपने अंडे देते हैं । जुगनू की तरह ही चमकने वाले ऐसे कई जीव हैं । जुगनू की तरह ही रोशनी देने वाले जीवों की एक हजार प्रजातियों की खोज की जा चुकी है जिनमें से कुछ प्रजांतियां पृथ्वी के ऊपर व कुछ समुद्र की गहराईयों में भी पाई जाती है ।
वन्य प्राणी
जंगल में बाघ बचें या पर्यटन
प्रमोद भार्गव

    अब तक बाघों व अन्य दुर्लभ वन्य प्राणियों को प्राकृतिक परिवेश परविेश उपलब्ध कराने के बहाने जंगलों में आदिकाल से रहते आ रहे वनवासियों को निर्दयता से उजाझा जाता रहा है और कोई उफ तक नहीं करता । किन्तु जब देश के सर्वोच्च् न्यायालय ने बाघ संरक्षित क्षेत्रों के अंदरूनी इलाकों में पर्यटन पर प्रतिबंध का अंतिरम किन्तु बाध्यकारी आदेश दिया तो पर्यटन से मोटी कमाई में लगे शासन - प्रशासन की भृकुटियांतन गई ।
    मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस फैसले के विरूद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करने का ऐलान कर दिया । यही नहीं, उन्होंने दलील दी कि इस रोक से घने जंगलों में नक्सली गतिविधियां बढ़ सकती हैं और जिन आदिवासियों को पर्यटन से रोजगार मिलता है उन्हें आर्थिक संकट से जूझना होगा ।
    दरअसल ये आशंकाएं बेबुनियाद हैं । हकीकत यह है कि पर्यटन को लगातार बढ़ावा दिए जाने से ही बाघों की संख्या घटी है । वर्ष २००० में अकेले मध्यप्रदेश में करीब ७०० बाघ थे, जो २०११ में घटकर २५७ रह गए । दरअसल लोगों के बेरोजगार हो जाने या नक्सली समस्या के पनप जाने से बड़ा संकट उन व्यवसायियों को है, जिन्होंने वन्य प्राणी अधिनियम १९७२ की अवहेलना कर बाघ के प्राकृत वास में होटल और रिसॉर्ट स्थापित किए हैं ।
    यह आदेश न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार और इब्राहिम खली उल्लाह की खण्डपीठ ने प्रयत्न संस्था की जनहित याचिका पर वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम १९७२ की धारा ३८ के अन्तर्गत दिया है । याचिका में दलील दी गई थी कि अंदरूनी क्षेत्रों में पर्यटन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि मानवीय हलचल से बाघ के स्वाभाविक जीवन पर विपरीत असर पड़ता है और उनका प्रजजन प्रभावित होता है । यही वजह है कि देश के सभी बाघ अभ्यारण्यों में बाघों की संख्या घट रही है । मूल रूप से यह याचिका पन्ना और मध्यप्रदेश के सभी बाघ संरक्षित क्षेत्रों में पर्यटन पर रोक लगवाने की दृष्टि से जबलपुर उच्च् न्यायालय में लगाई गई थी, लेकिन पर्यटन से प्रदेश के लाभ को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया  था ।
    इसी याचिका की सुनवाई में सर्वोच्च् न्यायालय ने निर्देश दिया है कि तीन सप्तह के भीतर बाघ संरक्षित क्षेत्रों में कोर और बफर क्षेत्र सुनिश्चित किए जांए, वरना यह न्यायालय की अवमानना मानी जाएगी । दरअसल इसी न्यायालय ने अप्रैल २०१२ में भी उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान, तमिलनाडु और कर्नाटक को कोर व बफर क्षेत्र तय करने के आदेश दिए थे, लेकिन राजस्थान के अलावा अन्य किसी राज्य सरकार ने ऐसा नहींकिया था । इसलिए न्यायालय ने इस बार कड़ा कदम उठाते हुए बाध्यकारी आदेश दिया ।
    शीषर्स्थ न्यायालय से आदेश जारी होने के साथ ही विरोध के स्वर भी मुखर होना शुरू हो गए हैं । मध्यप्रदेश का विश्व प्रसिद्ध हिल स्टेशन पचमढ़ी एक दिन के लिए बंद रहा है और लोगोंने न्यायालयीन आदेश के विरूद्ध रैली भी निकाली । स्थानीय लोगों का मानना है कि इस प्रतिबंध से पचमढ़ी में बेरोजगारी बढ़ेगी । विरोध के स्वरोंको बल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के उस बयान से मिला है जो उन्होनेंपर्यटन पर प्रतिबंध को लोगों की आजीविका से जोड़कर दिया था । उन्होंने इस तथ्य पर भी सवाल उठाया कि केवलप्रतिबंध से ही राष्ट्रीय पशु बाघ को नहीं बचाया जा सकता, उल्टे वह संकट से घिर जाएगा । पर्यटन नहीं होगा तो लोगों का बाघ के प्रति रूझान बदल जाएगा । यदि बाघ ग्रामीणों के मवेशियों को खाएंगे तो लोग बाघ से छुटकारे के लिए पानी में जहर मिलाकर उसे मारने की कोशिश करेंगे ।
    मुख्यमंत्री इस बयान के जरिए उस पर्यटन उद्योग को बचाना चाहते हैं, जिससे मध्यप्रदेश शासन को सालाना ४०० करोड़ की आमदनी होने लगी है । हैरानी इस बात पर है कि अब तक करीब चार करोड़ आदिवासियों को अभयारण्यों, बांधों, राजमार्गो और औद्योगिक स्थापनाआें के लिए  उजाड़ा गया है, लेकिन अपवादस्वरूप ऐसा एकाध ही मामला हो सकता है जिसमें किसी आदिवासी ने बाघ या तेंदुए को जहर देकर मारा हो । जबकि अपने मूल निवास स्थलों से उजड़ने के बाद  इनकी आमदनी बेतहाशा घटी है ।
    सतपुड़ा बाघ अभयारण्य से विस्थापितों के जीवन स्तर के आकलन में पाया गया कि इनकी आमदनी में ५० से ९० प्रतिशत तक की कमी आई है । कर्नाटक के बिलिगिरी रंगास्वामी मंदिर अभयारण्य में लगी पाबंदी के कारण सोलिंगा आदिवासियों को दो दिन में एक ही मर्तबा बमुश्किल भोजन नसीब हो पा रहा है । इसके बावजूद यह कहीं देखने में नहीं आया कि इन लाचार लोगों ने बाघ की जिन्दगी को जोखिम में डालकर अपनी रोजी-रोटी के हित साधे हो ।
    इसके उलट मध्यप्रदेश के ही पन्ना और उच्च्ेहरा में बाघ के शिकार के साथ शिकारी भी पकड़ा गया था । किन्तु वह भाग निकला अथवा भगा दिया   गया । इसके बाद समाचार माध्यमोंके जरिए जो जानकारियां सामने आई उनसे पता चला कि आला वनाधिकारियों की मिलिभगत से कुख्यात डकैत ठोकिया ने अन्तर्राष्ट्रीय वन्य प्राणी तस्कर संसारचंद और शब्बीर के लिए बाघोंकी हत्या की है । मामला उछला तो शासन ने एक समीति से जांच भी कराई । जांच में शिकारियों के साथ पन्ना राष्ट्रीय उद्यान के संचालकों की मिलीभगत और भोपाल में शिकार की जानकारी मिलने के बावजूद तमाशाबीन बने बैठे रहे वनाधिकारियों को भी दोषी ठहराया  गया । १६० पृष्ठीय इस जांच प्रतिवेदन के आधार पर वनमंत्री सरताजसिंह ने इस मामले की जांच सीबीआई से कराने का फैसला लिया और राज्य सरकार के पास कार्यवाही को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव भेज दिया, लेकिन राज्य सरकार इस प्रस्ताव पर दो साल से कुंडली मारकर बैठी हुई है ।
    यदि जांच शुरू होती तो वनाधिकारियों के चेहरों से नकाब उतरते और शिकारी, तस्कर व वनाधिकारियों के गठजोड़ के हौसले पस्त होते । सर्वोच्च् न्यायालय के इस आदेश के बाद यह उम्मीद जगी है कि यदि देश के उद्यानों व अभयारण्यों में कोर क्षेत्रों का सीमांकन कर दिया जाए, तो बाघ और तेंदुए जैसे दुर्लभ प्राणियों की संख्या में वृद्धि होगी । दरअसल बाघ संरक्षित क्षेत्रों के दायरे में आने वाला यह कोर वनखण्ड वह क्षेत्र होता है, जहां बाघ चहल-कदमी करता है, आहार के लिए शिकार करता है, जोड़ा बनाता है और फिर इसी प्रांत की किसी सुरक्षित खोह में आराम फरमाता है । यह क्षेत्र १० वर्ग किलोमीटर तक हो सकता है । न्यायालय ने इसे ही बाघों का अंदरूनी इलाका मानते हुए, इसे अधिसूचित करने के साथ, इसे पर्यटन के लिए प्रतिबंधित किया है ।
    दरअसल अभी तक हमारे यहां उद्यानों और अभयारण्यों को लेकर विरोधाभासी व पक्षपाती रवैया अपनाया जाता रहा है । वनवासियों को तो वन या वन्य प्राणियों के संरक्षण के बहाने लगातार विस्थापित किया जाता रहा है, जिनके जीवन का आधार ही जंगल है । किन्तु पर्यटन को बढ़ावा देने तथा उसे नवधनाढयों के लिए सुविधा सम्पन्न बनाने की दृष्टि से राज्य सरकारें होटल, रिसॉर्ट और मनोरंजन पार्क बनाने की खुली छूट देती रहीं । यदि उद्यानों में तालाब हैं तो उनमें नौका विहार की खुली छुट दी गई है । इस छूट के चलते जिन बाघ संरक्षित क्षेत्रोंसे गांवों और वनवासियों को बेदखल किया गया था, उन क्षेत्रों में देखते-देखते पर्यटन सुविधाआें के जंगल उगा दिए गए ।
    अकेले मध्यप्रदेश की ही बात करें तो बाघ दर्शन के प्रेमी सैलानियोंसे ही सालान ४०० करोड़ रूपए का पर्यटन उद्योग संचालित है । वन विभाग के आंकड़ो के मुताबिक २०१०-११ में केवल छह बाघ संरक्षित उद्यानों में १२ लाख देशी और एक लाख विदेशी सैलानी घूमने गए । इनमें भोपाल का वन विहार भी शामिल है जहां दुर्लभ सफेद शेर को देखने सैलानी आते हैं । इस उद्योग से राज्य सरकार को शुद्ध मुनाफा १५.४१ करोड़ का हुआ ।
    इन बाघ अभयारण्यों में आदिवासियों को उजाड़कर किस तरह होटल व लॉजों की श्रृंखला खड़ी की गई है, इसकी फेहरिस्त गौरतलब है । कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में ६० होटल, रिसॉर्ट व लॉज है, बांधवगढ़ में ४०, पन्ना में ४, पेंच में ३०, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान पचमढ़ी में २०० रिसॉर्ट और लगभग ५० होटल हैं । अकेला संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान ऐसा अपवाद है, जिसमें पर्यटकों के ठहरने की कोई सुविधा नहीं है । शिवपुरी में मध्यप्रदेश पर्यटन निगम का होटल पर्यटन ग्राम और वन विभाग का सैलिंग क्लब है ।
    वन क्षेत्रों में व्यापारिक गतिविधियों के संचालन के विरूद्ध कानून हैं । इनके बावजूद पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से पर्यटन कारोबारियों को लगातार प्रोत्साहित किया जाता रहा है । यही नहीं, राज्य सरकारें अपने चहेतों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से भू-उपयोग संंबंधी नियमों को बदलकर खनन और कारोबार की इजाजत देती रही है । जाहिर है, सरकारों को बाघ और विस्थापित वनवासियों की बजाए पर्यटन और उससे होने वाली आय की चिंता ज्यादा रहती है । ऐसी ही गतिविधियों की ओट में शिकारी अपना जाल जंगल के अंदरूनी इलाकों में फैलालेते हैं और वन्य जीवों का शिकार सहजता से कर लेते हैं । रणथंभौर, सरिस्का, कान्हा, बांधवगढ़ और पन्ना में ऐसे ही हालातों के चलते बाघ का शिकार आसान हुआ और इनकी संख्या घटी ।    
    हालांकि बाघों की संख्या घटने के लिए केवल पर्यटन उद्योग को दोषी ठहराना गलत है । खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाएं भी बाघों की संख्या पर अंकुश लगाने का कारण बनी हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघों के प्राकृतवास भी सिकुड़ रहे हैं ।
    इन्हीं वजहों से बाघ यदा-कदा रिहाइशी इलाकों में दाखिल होकर हल्ला बोल देते हैं । खनन और राजमार्ग परियोजना के लिए जितने गांवों और वनवासियों को उजाड़ा गया है, उससे चार गुना ज्यादा नई मानव बसाहटें बाघ व आरक्षित वन क्षेत्रों में बढ़ी हैं । पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बॉक्साइट, राजाजी में राष्ट्रीय राजमार्ग और शिवपुरी में पत्थर खनन तथा राष्ट्रीय राजमार्ग, तडोबा में कोयला खनन और उत्तरप्रदेश, हिमाचल व उत्तराखण्ड के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी व दवा माफिया बाघों के लिए जबरदस्त संकट बने हुए हैं ।
    इसके बावजूद खनिज परियोजनाआें के विरूद्ध बुलंदी से न तो राजनीतिज्ञों की ओर से आवाज उठ रही है और न ही वन अमले की तरफ से ? हां, इसके उलट सर्वोच्च् न्यायालय का आदेश जारी होने के बाद पचमढ़ी से जरूर इस आदेश के विरूद्ध आवाज मुखर हुई है, वह भी पर्यटन लॉबी की ओर से ।
    दरअसल पचमढ़ी में यदि यह आदेश अमल में लाया जाता है तो २०० होटल तो नेस्तनाबूद होंगे ही, ४२ गांवों को भी विस्थापित किया जाएगा । इसलिए मध्यप्रदेश सरकार की ओर से शीर्षस्थ न्यायालय में अर्जी लगाई है कि पचमढ़ी को कोर एरिया से बाहर रखा जाए । जाहिर है, राज्य सरकारों को बाघ संरक्षण से ज्यादा पर्यटन उद्योग और उससे जुड़े कारोबारियों की चिंता है ।
विज्ञान, हमारे आसपास 
मौन की संस्कृतिऔर मोबाइल
मुरलीधर वैष्णव

    सदियों से मौन हमारे धर्म और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार रहा है । ध्यान और योग की अंर्तयात्रा मौन के पथ पर चलने से ही फलीभूत होती है लेकिन माचिस की डिबियानुमा हर वक्त जौंक की तरह कान से चिपके इस मोबाइल या सेलफोन ने आज हमारे तन मन और दैनिक जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रखा है ।
    विशेष रूप से नयी पीढ़ी और बच्चें को मोबाइल के खतरों से सावधान रहना अत्यावशक  है । नि:संदेह विज्ञान के इस लुभावने उपकरण ओर दिन प्रतिदिन नित नयी सुविधाआें से सुसज्जित इसके नये मॉडल बाजार में आ रहे है । लेकिन ये यंत्र एक सिद्धी के रूप में हैं । सिद्धी के लिए यह समझना जरूरी है कि इसका प्रयोग अति आवश्यक होने पर ही होना चाहिए अन्यथा इसका दुरूपयोग या अतिउपयोग हमारे जीवन और जीवन पद्धति के लिए घातक हो    सकता है ।
    केनबरा के प्रख्यात न्यूरो सर्जन डा. विनीजी खुर्राना ने इस निष्कर्ष के पुख्ता सबूत एकत्रित किये हैं कि सेलफोन का प्रयोग ब्रेन ट्यूमर का खतरा बढ़ा देता हे । वैज्ञानिक शोध एवं सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि इसके अधिक एवं लम्बे समय तक प्रयोग से केंसर, रक्तचाप, कान का ट्यूमर, याददाश्त का कमजोर होना, त्वचा रोग एवं यहां तक कि लोग नामर्दगी के भी शिकार हो सकते है । सेलफोन से निकलने वाली विद्युत चुंबकीय तरंगों एवं ताप न केवल इसका प्रयोग करने वालों को बल्कि पास बैठे व्यक्ति को भी हानि पहुंचा सकती है । बच्चें का शरीर ओर उनकी कोमल त्वचा इन तरंगों के रेडियेसन से अधिक कुप्रभावित होती    है ।
    हाल ही में स्पेन १२ एवं १३ वर्ष के कुछ बच्चें को सेलफोन की लत ने मानसिक चिकित्सालय तक पहुंचा  दिया । दिन में ६ घंटे से अधिक सेलफोन का प्रयोग करने की लत में पड़े बच्च्े पढ़ाई में पिछड़ने लगे और मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत असामान्य व्यवहार करत पाये गये । उत्तर पूर्व स्पेन के लियेडा स्थिति चाइल्ड एंड यूथ मेंटल हेल्थ सेंटर के निदेशक डाक्टर मेट उजेस के अनुसार १६ साल से कम उम्र के बच्चें को सेलफोन का प्रयोग करने देना उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थय के लिए खतरनाक है ।
    सेलफोन का इस्तेमाल करते समय कान से दूरी रखने व दाहिने कान के ऊपर मस्तिष्क का स्मृति भाग होने से अधिकतर बायेंकान की ओर प्रयोग करना उचित है । इसी प्रकार रात में सेलफोन यथासंभव स्वीच ऑफ रखने, सेलफोन का की पेड वाला भाग शरीर के संपर्क में रहने, कार या ट्रेन में इसके इस्तेमाल से बचने से हम इसकी विद्युत चुंबकीय तरंगों के उत्सर्जन को कम कर सकते है । यथासंभव लेंड लाईन से बात करने व सेलफोन से संदेश (एस.एम.एस.) भेजकर काम चलाना अधिक सुरक्षित है । इसी प्रकार सेलफोन खरीदते समय कम से कम एस.ए.आर. (स्पेसिफिक ऑब्जोर्प्सन रेट) वाला ही उपकरण खरीदना ठीक रहता है । वाहन चलाते हुए इसका उपयोग करना दुर्घटना को आमंत्रित करना है । सेलफोन संबंधी उपभोक्ता विवादों की भी भरमार हो गयी       है । उपभोक्ता को चाहिये कि स्तरीय कंपनी का ही सेलफोन खरीदें । उसका बिल एवं वारंटी दस्तावेज अवश्य प्राप्त् करें । सेलफोन में शिकायत होने पर उसके सर्विस सेंटर पर सेलफोन देते समय रसीद अवश्य प्राप्त् करें । मोबाइल कंपनी द्वारा सेवा में कमीं रखने पर विशेषत: कंपनी व सर्विस सेंेटर के विरूद्ध संबंघित जिला उपभोक्ता (विवाद प्रतितोष) फोरम में शिकायत पेश कर उचित हर्जाना आदि प्राप्त् किया जा सकता है ।
    मोबाइल कंपनियों के बाजारवाद एवं उनके भ्रामक बेहुदे विज्ञापनों ने सेलफोन की लत को बढ़ाकर मोटा लाभ कमाकर खुद का भला जरूर किया है लेकिन आम आदमी और विशेषत: युवा पीढ़ी के दैनिक जीवन पर भारी कुप्रभाव डाल रही है जिसका खामियाजा हमें भविष्य में भुगतना होगा । प्रेमी और प्रेमिका बगीचे में पीठ से पीठ टिकाये बैठे हैं और दोनों के कानों से सेलफोन चिपके हैं । विज्ञापन है लो कर लो      बात । प्रश्न यह है कि जब पीठ से पीठ टिकाये बैठे है तब बातें करने के लिए सेलफोन की कहां जरूरत है ? सेलफोन की दरें कम होने या किसी विशेष स्थिति या नि:शुल्क बातें करने वाली सुविधा होने मात्र से क्या उचित और आवश्यक है कि आदमी अधिकांश समय केवल बातें करता रहे ।
    सेलफोन पर अनावश्यक बातें और गपशप करने से हमारे तन मन पर पड़ने वाले कुप्रभावों के अलावा बातों में फिजून उर्जा और समय का जो अपव्यय होता है उसका क्या ? हमें क्यों अनावश्यक बातों में अपना समय व उर्जा बरबाद करना चाहिए । बातें कम काम ज्यादा जैसे उपदेश पर हमें गंभीरता से अमल करना ही होगा ताकि हम अपने कर्म क्षैत्र की मौन साधना में सफल हो सकें । आदमी अक्सर बोल कर ही पछताता है, चुप रहकर कभी नहीं । यह भी सत्य है कि बातें आदमी को धोखा दे सकती हैं लेकिन मौन नहीं । प्रसिद्ध विद्वान कार्लाइल के अनुसार मौन प्राय: वाकचातुर्य से अधिक प्रभावी होता है । वेदव्यास ने गणेश जी को महाभारत के लाखों श्लोकों का डिक्टेशन दिया, लेकिन इस बीच गणेश जी एक बार भी नहीं बोले । जो किसान खेतों में अपने गाय, बैल, फसल और पेड़ पौधों की संगति में अधिकतर उनसे मौन संवाद करता है वह अधिक स्वस्थ तनावरहित एवं दीर्घ जीवन जीता हैं ।
    एक क्षणाशं में हजारों किलोमीटर दूर बात कर सकने, फोनांे एवं विडियो, आवाज रिकार्डिंग, संगीत, समाचार जानने, बिल भुगतान आदि अनेक सुविधाआें को अपने भीतर समाये सेलफोन नामक यह लघु जिन सदैव आपकी सेवा में उपलब्ध है जिसका केवलआवश्कतानुसार संतुलित एवं सावधानीपूर्वक उपयोग हमारे जीवन को सुगम बना सकता है । लेकिन यदि हम पर हावी होकर हमारे तन मन और जीवन पद्धति को कुप्रभावित करता रहा है तो इसके लिए केवल हम और हमारा विवेक ही दोषी है ।         
ज्ञान विज्ञान
दिमाग की सफाई की व्यवस्था

      यह आश्चर्य की बात ही है कि आज तक दिमाग की सफाई व्यवस्था नही पहचानी गई गई । दिमाग जैसे महत्वपूर्ण अंग में ऐसा कोई तंत्र न होना समझ से परे था जबकि पूरे शरीर में से अपशिष्ट पदार्थो को निकालने के लिए लसिका तंत्र होता है । मगर अब स्थिति बदल गई है । न्यूयॉर्क के रोचेस्टर मेडिकल सेंटर के जेफ्री इलिफ और उनके साथियों ने कम से कम चूहों में इस व्यवस्था को देख लिया है और लगता है कि इसका अध्ययन अल्जाइमर रोग के उपचार में सहायक हो सकता है ।
    श्री इलिफ ने भी जब चूहे के मस्तिष्क का विच्छेदन किया तो उन्हें भी यह देखकर अचंभा हुआ कि दिमाग जैसे अहम अंग की सफाई के लिए कोई नालियां वगैरहा नहीं हैं । मगर जब इन्हीं शोधकर्ताआें ने जीवित चूहे के सेरेब्रोस्पाइनल द्रव (मस्तिष्क व मेरूरज्जू में भरा तरल पदार्थ) में कुछ ऐसे पदार्थ डाले जो चमकते थे और जिनमें रेडियोसक्रिय गुण था तो पूरी बात खुलकर सामने आ  गई । 
 

    उक्त चमकीले पदार्थ चूहे के मस्तिष्क में फैल गए । शोधकर्ताआें ने इन पदार्थो की गति को देखने के लिए एक विशेष तकनीक का उपयोग किया जिसे टू-फोटॉन सूक्ष्मदर्शी कहते हैं । इस तकनीक की मदद से इलिफ व उनके साथी देख पाए कि पूरे मस्तिष्क में तरल पदार्थ ऐसी नलिकाआें में बहता है जो रक्त नलिकाआें के ईद-गिर्द लिपटी होती हैं । यह लगभग लसिका तंत्र जैसी व्यवस्था है । दिमाग का विच्छेदन करने पर यह तंत्र तहस-नहस हो जाता है और यही कारण रहा है कि मृत प्राणियों में इसे नहीं देखा जा सका था ।
    इस प्रक्रिया का आगे अध्ययन करने पर पता चला कि यह लसिका तंत्र एक अन्य तंत्र के साथ मिलकर काम करता है । इस दूसरे तंत्र को निष्क्रिय करने पर लसिका तंत्र भी ठप हो जाता है । इस खोज से यह भी स्पष्ट हुआ कि इस तंत्र के कामकाज में ग्लियल कोशिकाआें की महत्वपूर्ण भूमिका है । ग्लियल कोशिकाएं अपने आप में कम रोचक नहीं है । पहले माना जाता था कि इन कोशिकाआें की कोई खास भूमिका नहीं है मगर आगे चलकर पता चला था कि तंत्रिका कोशिकाआें को सहारा देने और उनकी रक्षा करने में ग्लियल कोशिकाएं भूमिका निभाती हैं । अब इलिफ व साथियों के शोध कार्य से स्पष्ट हुआ है कि ग्लियल कोशिकाएं दिमाग की कचरा निपटान प्रणाली में शामिल  हैं । शोधकर्ताआें ने इस व्यवस्था को ग्लिम्फेटिक तंत्र नाम दिया है ।
    पता चला है कि ग्लिम्फेटिक तंत्र दिमाग को साफ रखने का काम करता है और इसके द्वारा हटाए जाने वाले पदार्थो में बड़ी मात्रा एमिलॉइड प्रोटीन की होती है । गौरतलब है कि अल्जाइमर रोगियों के दिमाग में एमिलॉइड प्रोटीन जमा होने लगता है । लिहाजा शोधकर्ताआें का विचार है कि अल्जाइमर से निपटने में ग्लिम्फेटिक  तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।

सौर मण्डल को नापने की नई इकाई

    अन्तर्राष्ट्रीय खगोल इकाई (यानी इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल युनिट, एयू) थोडी सी बदलने को है । एयू का मतलब होता है सूरज से पृथ्वी की औसत दूरी । १९७६ से पहले इस इकाई को १,४९,५९,७८,७०,६९१ मीटर माना जाता था और अब यह बदलकर १,४९,५९,७८,७०,७०० मीटर हो गई   है । हम देख सकते है कि अंतर महज ९ मीटर का यह अंतर शायद मामूली लगे मगर इसे लागू करने में कई साल लगे हैं । हाल ही में बीजिंग में आयोजित इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल यूनियन की बैठक में यह नया आंकड़ा स्वीकार किया गया । 

      सवाल यह उठता है कि इतने मामूली से अंतर को क्यों तूल दिया जा रहा है ।  पहले यह देख लें कि एयू का पुराना मान कैसे पता किया गया था । पारंपरिक रूप से एयू की गणना सूरज और पृथ्वी के बीच औसत दूरी (१,४९,५९,७८,७०,६९१ मीटर) के आधार पर की जाती थी । फिर ३६ साल पहले (१९७६ में) एयू के मान की गणना गॅसियन गुरूत्वाकर्षण  स्थिरां के आधार पर की गई । दिक्कत यह थी कि गुरूत्वाकर्षण स्थिरांक का मान सूर्य के द्रव्यमान पर निर्भर करता है । ऐसा करने पर एयू का मान सूर्य के द्रव्यमान से जुड़ गया । यह तो जानी-मानी बात है कि सूर्य का द्रव्यमान निरन्तर कम होता रहता है । लिहाजा पृथ्वी से सूर्य की दूरी का आंकड़ा भी बदलता रहेगा ।
    मगर गुरूत्वाकर्षण आधारित यह परिभाषा तब तक ज्यादा उपयुक्त थी जब तक हम सूरज और पृथ्वी के बीच की दूरी को बहुत सटीकता से नहीं नाप पाते थे । अब परिस्थितियां बदल गई है ।
    ड्रेसडेन तकनीकी विश्वविद्यालय के सर्जाई क्लिओनर सन २००५ से ही यह आग्रह करते आ रहे हैं कि एयू की उक्त परिभाषा सटीक नहीं है और इसे नए ढंग से परिभाषित करना चाहिए । मगर कई खगोलविदों को लगता था कि जैसा है, वैसा ही ठीक है। मगर बीजिंग बैठक में खगोलविदों ने मतदान के आधार पर एयू को एक निश्चित मान दे दिया है जिसके चलते ब्रह्मांड की बाकी दूरियों को भी ज्यादा सटीकता से व्यक्त किया जा सकेगा ।

आखिर कितने सूक्ष्मजीव हैं दुनिया में ?

    एक ताजा गणना के मुताबिक समुद्र के पेंदे में सूक्ष्मजीवों की संख्या अरबों खरबों नहीं बल्कि २.९ १०२९
है । शब्दों में कहंें तो इस संख्या का मतलब है कि समुद्रों के पेंदो में धरती के हर मनुष्य के लिए १० करोड़ खरब सूक्ष्मजीव मौजूद हैं । बहुत विशाल आंकड़ा है ना ? मगर यह आकड़ा पूर्व में लगाए गए एक अनुमान (३५.५  १०२९)  की तुलना में मात्र ८ प्रतिशत है ।
    सूक्ष्मजीवों की कुल संख्या का यह नवीन अनुमान जर्मनी के पॉट्सडैम विश्वविद्यालय के भू-सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जेन्स कालमेयर और उनके साथियोंने प्रासीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज मेंहाल ही में प्रकाशित किया है ।
       १५ वर्ष पूर्व एथेंस के जॉर्जिया विश्वविद्यालय के विलियम व्हिटमैन ने पृथ्वी पर उपस्थित सूक्ष्मजीवों की संख्या का जो अनुमान लगाया था, उसे लेकर सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों के बीच अविश्वास का भाव था । अब कालमेयर ओर उनके साथियों ने कई नए क्षेत्रों में समुद्र के पेंदे में सुराख करके वहां की तलछट में सूक्ष्मजीवों की गिनती करके नया आंकड़ा पेश किया है । 

     श्री व्हिटमैन ओर कालमेयर के अध्ययनों में प्रमुख अंतर यह है कि जहां व्हिटमैन ने अधिकांशत: समुद्र के पोषण-समृद्ध क्षेत्रों को शामिल किया था वहीं कालमेयर ने समुद्री मरूस्थनों का सर्वेक्षण किया है । ये वे क्षेत्र हैं जो पोषक तत्वों के लिहाज से काफी विपन्न हैं । कालमेयर के मुताबिक पूरी धरती पर सूक्ष्मजीवोंकी तादाद ९.२ १०२९ से ३१.७१०२९ के बीच आती है । यह अनुमान पहले के आंकड़े से आधा है । फिर भी धरती पर सूक्ष्मजीवोंे की संख्या विशाल है ।
    सूक्ष्मजीवों की इस विशाल संख्या से ही स्पष्ट है कि ये प्रकृति के चक्र में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और तो और नई-नई खोजें होने के साथ यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि सूक्ष्मजीव निहायत इन्तहाई परिस्थितियों में जीवित रहते हैं । कई बार तो ये इतनी विकट परिस्थिति में रहते है कि महज जीवित रहने के अलावा कुछ और कर ही नहीं पाते ।  ऐसी परिस्थितियों में ये सैकड़ों-हजारों सालों तक वैसे ही पड़े रहते हैं ।
कविता
वृक्षों के लिए प्रार्थना
रिचर्ड सेंट बार्ब बेकर

हे प्रभो !
वृक्षों के लिए तेरा     धन्यवाद ।
तू अपने वृक्षों के द्वारा हमारे बहुत निकट आया है,
उनसे हमें
सौन्दर्य, बुद्धिमता, प्रेम,
साँस लेने के लिए प्राणवायु,
पीने के लिए पानी,
भोजन और शक्ति मिली है ।
प्रभो ! हमारी सहायता करो
जिससे हम इस दुनिया को
अधिक सुन्दर और रहने योग्य बनाकर
छोड़कर जा सकें ।
हमारे वृक्षारोपण को सफल करो,
और इस धरती पर प्रेम
और परस्पर विश्वास का साम्राज्य स्थापित करो ।
(अनुवाद सुन्दरलाल बहुगुणा)
अभिव्यक्ति
भाषा की उत्पत्ति पर वाक्युद्ध
डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन

    सौ से ज्यादा प्राचीन व समकालीन इंडो-युरोपीय भाषाआें के मूल शब्द भंडारों के अध्ययन से पता चलता है कि इंडो-युरोपीय भाषाआें की पूर्वज भाषा की उत्पत्ति एनाटोलिया यानी एशिया माइनर में हुई थी, जो आजकल का तुर्की है ।
    इंडो-युरोपीय भाषाआें की पूर्वज भाषा की उत्पत्ति कहां हुई इससे जर्मन, इतालवी, रूसी, फारसी, हिन्दी आदि विविध भाषाएं कैसे पैदा हुई ?
    हैदराबाद विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपकुलपति प्रोफेसर भद्रीराजू कृष्णमूर्ति के निधन के साथ ही भारतीय भाषाआें के विद्वत्तापूर्ण विश्लेषण का एक युग समाप्त् हो गया है । उनकी किताब दी द्रविडियन लैंगवेजेस में द्रविडियन भाषाआें की उत्पत्ति, विकास और विविधता का सटीक विवरण प्रस्तुत हुआ है ।
    उन्होनें ही मुझे आनुवांशिकी विशेषज्ञ ल्यूगी केवेलीस्फोर्जा के इस मत से परिचित कराया था कि आनुवंशिक वंशवृक्ष और भाषा वृक्ष में कई समानतांए है । और उन्होने ही मुझे इन मान्यताआें के बारे में सोचने को प्रेरित किया था ।
    यह सच है कि डीएनए वह बीज है जिसके आधार आनुवंशिक वंशवृक्ष विकसित हुआ है, फल-फूला है और विविधतापूर्ण बना है । इसी तरह शब्द एक बीज है जिससे भाषा बनते है, विकसित होती है और संख्या वृद्धि करती है । जिस तरह से जीन्स डीएनए के क्रम होते हैंऔर जीन्स का संग्रह  (जिनोम) सजीव की रचना को निर्धारित करता है, उसी तरह शब्द, वाक्यांश, वाक्य और व्याकरण भाषा को परिभाषित करते हैं ।
    जिस तरह से जीवों का विकास अपने पूर्वजों से हुआ है, उसी तरह भाषाएं भी किसी पैतृक भाषा या प्रोटो भाषा से विकसित हुई है । सवाल यह है कि इंडो-युरोपीय भाषाआें के पूर्वज यानी प्रोटो-इंडो-युरोपीय भाषा की उत्पत्ति कहां हुई और जर्मन, इतालवी, रूसी, फारसी और हिन्दी जैसी विविध भाषाआें का विकास कैसे हुआ । यह फिलहाल विवाद का मुद्दा है या यों कहें कि इस पर वाक्युद्ध जारी है ।
    इस संबंध में हाल ही में ऑकलैण्ड विश्वविघालय, न्यूजीलैंड के डॉ.क्वेन्टिन एटकिन्सन और उनके साथियों ने साइंस के अंक में एक पर्चा प्रस्तुत किया है जिसमें  प्रोफेसर कृष्णमूर्ति की भी गहरी रूचि थी ।
    एटकिन्सन ने ल्यूगी केवेली स्फोर्जा के उसी विचार को आगे बढ़ाया है और इंडो-युरोपीय भाषाआें की उत्पत्ति के अध्ययन में उसी सांख्यिकीय पद्धति का उपयोग किया है जो जैव विकास के अध्ययन में इस्तेमाल होती है । जैव विकास के अध्ययन में हम डीएनए अणु के क्रम से शुरू करते हैं यह देखने की कोशिश करते हैं कि समय के साथ-साथ इसमें कैसे परिवर्तन होते हैं और नई प्रजातियां अस्तित्व में आती हैं ।
    दूसरा उतना ही प्रभावी तरीका यह है कि हम किसी वर्तमान समूह, जैसे स्तनधारियों के डीएनए (जीनोम) से शुरू करें और फिर पीछे लौटते हुए देखें कि विकास के क्रम में कहां-कहां इनमें विविधता पैदा हुई और कैसे  कुत्ते, बिल्ली, गाय-भैंस और मनुष्य जैसी विभिन्न प्रजातियां बनती गई ।
    भाषा विज्ञान में हम मूल शब्दों (प्रोटो-शब्दों) से शुरू करते हैं । ये वे मूल शब्द हैं जिनसे विविधता की उत्पत्ति हुई है । उदाहरण के तौर पर प्रोटो-इंडो-युरोपीय शब्द मेहटर हिन्दी में मां या माता, जर्मन में मुटर, लेटिन में माटेर, रूसी में माट और फारसी में मादर हुआ।
    एटकिन्सन ने इसी तरह के सजातीय शब्दों के साथ शुरूआत की और सभी शब्दों को एक-एक अंक   दिया । जब इन सजातीय शब्दों का स्थान किसी अन्य शब्द ने ले लिया तो इन्हें शून्य अंक दिया गया । इस द्विअंकीय स्कोर के आधार पर उन्होनें उसी सांख्यिकी पद्धति का उपयोग किया जिसके जरिए डीएनए क्रम का विश्लेषण करके वायरस महामारियों की खोजबीन हुई थी ।
    पिछले दिनों १०३ प्राचीन या समकालीन भाषाआें के मूल शब्द भण्डार के डैटा का उपयोग करके उन मूल बिन्दुआें का पता लगाया गया है जहां से भाषाएं अलग-अलग होना शुरू हुई थीं । इसका परिणाम यह निकला कि प्रोटो-इंडो-युरोपीय भाषा की शुरूआत एनाटोलिया या एशिया मायनर से हुई थी जो आजकल का टर्की है ।
    सांइस में प्रकाशित अपने शोध पत्र में एटकिन्सन कहते है हमें इस बात के निर्णायक प्रमाण मिले हैं कि (प्रोटो भाषा की) उत्पत्ति घास के मैदानों(स्टेपीज) की बजाय एनाटोलिया में हुई है । इंडो-युरोपीय भषा वृक्ष के समय और उसके मूल स्थान संबंधी अनुमान एनाटोलिया से कृषि के विस्तार से मेल खाते हैं जो करीब ८०००-९५०० वर्ष पूर्व शुरू हुआ था ।
    ऊपर दिए गए दो शब्द घास के मैदानों और कृषि पर गौर करें। ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता कोलिन रेनफू्र ने १९८७ में ही कहा था कि कृषि और भाषा का प्रसार साथ-साथ हुआ है ।
    जब शिकारी संग्रहकर्ता समुदाय से कृषि समुदाय बना, तो एक सुगठित समाज अस्तित्व में आया जहां समुदाय के अंदर और अन्य समुदायों के साथ गहन अंतर्क्रिया होती थी । जब ये समुदाय फैले या अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदाय बने, तो संप्रेषण में सक्रियता आई और भाषा का विकास शुरू हुआ ।
    अन्य प्रमाण दर्शाते हैं कि इंडो-युरोपीय भाषा क्षेत्र में कृषि का विकास एनाटोलिया में हुआ था और वह भी मात्र ९५००-१०००० साल पूर्व । ऐसा माना जाता है कि यहीं से कृषि पूरब और पश्चिम दोनो तरफ फैली । जैसे-जैसे नए-नए कृषि समुदाय बने, भाषा में भी विविधता बढ़ती गई ।
    इस व्याख्या से सब सहमत नहीं है । एटकिन्सन के शोध पत्र के ऑनलाइन प्रकाशन के चंद घंटो के भीतर ई-मेल और ब्लॉग पर वाक्युद्ध शुरू हो गया । इस संबंध में दूसरा सिद्धांत यह है कि प्रोटो-इंडो-युरोपीय भाषा की उत्पत्ति पश्चिम एशिया में केस्पियन क्षेत्र में हुई । इसे स्टेपीज भी कहते हैं - स्टेपीज यानी दक्षिण-पूर्वी युरोप और एशिया का समतल मैदान जहां पेड़ नहीं हैं और वह घास से पूरी तरह ढंका हुआ है ।
    आंधप्रदेश के ज्यादातर हिस्से में तेलगू बोली जाती है, जो इंडो-युरोपीय भाषा परिवार का ही हिस्सा है । लेकिन उसके दक्षिण के राज्य में बोली जाने वाली भाषा तमिल की उत्पत्ति भी राज बनी हुई है ।
पर्यावरण समाचार
गैस त्रासदी : २८ साल भी न्याय नहीं मिला

    भोपाल गैस त्रासदी को २८ साल हो चुके हैं, लेकिन इससे प्रभावित हुए बाशिंदे अभी भी इंसाफ की बाट जोह रहे हैं । २८ बरस पहले २ और ३ दिसम्बर १९८४ की दरमियानी रात को लगभग पांच हजार लोगों तथा सरकारी रिकार्ड के मुताबिक अब तक लगभग १५ हजार लोगोंको मौत की नींद सुला चुकी तथा हजारों अन्य लोगों को बीमार-लाचार बना चुकी इस त्रासदी को याद कर भोपालवासियों की रूह आज भी कांप उठती है । इससे न केवल उस समय के लोग प्रभावित हुए, बल्कि बाद की पीढ़ियां भी इसके असर से अछूती नहीं रही ।
    लेकिन बीसवीं सदी की इस भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के गुनहगारों को सजा दिलाने का मामला अभी भी कानूनी और राजनीतिक झमेलों में उलझा हुआ है । केन्द्र और राज्य सरकार ने सभी आरोपियों को माकूल सजा और पीड़ितों को पर्याप्त् मुआवजा दिलाने के अलावा उनके दीर्घकालिक पुनर्वास संबंधी कुछ निर्णय भी लिए, लेकिन वे सिर्फ घोषणा बनकर रह गए । कार्बाइड कारखाने के घातक रसायनों का सुरक्षित निपटारा भी अभी तक नहीं हुआ है, जबकि यह काम केन्द्र और राज्य सरकारों की प्राथमिकता सूची में अव्वल होना चाहिए था । यहीं नहीं सरकार और न्यायपालिका यह सुनिश्चित करने में भी नाकाम रहे कि भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार लोगों को न सिर्फ हादसे के लिए जवाबदेह ठहराया जाए, बल्कि उन्हें देश में कोई भी व्यवसाय करने की अनुमति भी न दी जाए ।
    यह देखकर हैरानी होती है कि यूनियन कार्बाइड पर नियंत्रण कर लेने वाली डॉउ केमिकल्स भारत में आराम से कारोबार कर रही है, जबकि इस कंपनी ने भोपाल त्रासदी के लिए जिम्मेदारी लेने और इससे प्रभावित लोगों को आवश्यक राहत व मुआवजा देने से इंकार कर दिया है । यह सरकारों की कमजोरीं का ही नतीजा है कि आज भी बड़ी औद्योगिक परियोजनाआें में आपदा प्रबंधन तंत्र विकसित नहीं किए जा रहे हैं । आज भी हमारे पास यह सुनिश्चित करने के लिए  कोई विश्वसनीय तंत्र नहीं है, जिससे कि ऐसी उद्योगजनित दुर्घटनाआें के लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराया जा सके ।

बुधवार, 7 नवंबर 2012







सोमवार, 5 नवंबर 2012

प्रसंगवश   
मान्यताआें का मारा उल्लू बेचारा
    प्रकृति और पर्यावरण के साझा अस्तित्व में धरती पर मौजूद हर परिंदा खूबसूरत कविता के समान है । इस सच्चई के बावजूद मनुष्य की रूढ़िवादी सोच ने हजारों पक्षी प्रजातियों के अस्तित्व पर तलवार लटका दी है ।
    उल्लू के अस्तित्व पर मंडराते खतरे पर इटली और स्वीडन के पक्षी वैज्ञानिकों द्वारा हाल में की गई खोजों में साफ तौर से चेतावनी दी गई है कि यदि धरती से उल्लू जैसे बहुपयोगी परिंदे का अस्तित्व समाप्त् हो गया तो पूरी दुनिया में अंधाधुंध गति से बढ़ती चूहों की फौज खाघान्न संकट की नई समस्या पैदा कर देगी । चूहों की बढ़ती फौज न केवलअन्न संकट पैदा करेगी बल्कि प्लेग जैसी घातक बीमारी भी दोबारा अस्तित्व में आ सकती है । उल्लू की शक्ल देखने में कुछ भयानक तो अवश्य लगती है, मगर इस बेहद चतुर और अक्लमंद पक्षी को मूर्ख मानना तथ्यों से परे है । इसके शरीर की बनावट सुंदर नहीं होती मगर देखने और सुनने की क्षमता में यह इंसानों से कहीं आगे है । उल्लू फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों जैसे चूहो, चमगादड़ों, टिडि्डयों, सांप, छछूंदर व खरगोश आदि का सफाया करके फसलों को बचाता है । शुद्ध मांसाहारी जीव होनेके इससे फसलों के नुकसान की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है । वास्तव में उल्ले के घर में बैठने, उसे देखने, छूने या बोलने से जुड़ी अपशकुन की बातें बेबुनियाद है । उल्लू व अन्य परिंदों के खात्मे के दर्जनों कारण हैं ।
    हरियाणा के वन्य प्राणी विभाग के मुख्य संरक्षक डॉ. परवेज अहमद बताते है कि भारत सहित कुछ एशियाई देशों में उल्लू को लेकर प्रचलित अंधविश्वास, ओझाआें और तांत्रिकों के  अनगिनत मनगढ़त किस्से कहानियों में उल्लू का अशुभ और मनहूस कराए दिए जाने की वजह से उल्लुआें की संख्या तेजी से घट रही है । यही वजह है कि देश के उत्तरी राज्यों में उल्लू की घटती संख्या की वजह से चूहे हर साल इतना अनाज नष्ट कर डालते है जो पूरे उत्तरप्रदेश की सवा अठारह करोड़ की आबादी के लिए पर्याप्त् होगा ।
नरेन्द्र देवांगन
इंसानों का कुल वजन बढ़ रहा है
           ब्रिटिश मेडिकल कौंसिल पब्लिक हेल्थ के ताजा अंक में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया में इंसानों का कुल वजन बढ़ रहा है और यह स्वास्थ्य की नई समस्याआें को जन्म देने के साथ-साथ इकॉलॉजी को भी प्रभावित करेगा । यह तो जानी-मानी बात है कि अन्य प्रजातियों के समान, इंसानों की कुल भोजन संबंधी जरूरतें उनकी कुल संख्या और उनके वजन पर निर्भर करती हैं । ज्यादा मोटे तगड़े लोगों को ज्यादा भोजन व ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
    राष्ट्र संघ का अनुमान है कि २५०० में हमारी आबादी ९ अरब हो जाएगी । इस बढ़ी हुई आबादी के लिए ज्यादा खाद्यान्न की जरूरत होगी । इसके अलावा यदि ये लोग ज्यादा वजनी हुए, तो भोजन की जरूरत और भी ज्यादा होगी ।
    सारा वालपोल और उनके साथियों ने राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट द्वारा संकलित आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि फिलहाल दुनिया की वयस्क आबादी का कुल वजन २८.७ करोड़ टन है हालांकि इसमें काफी क्षेत्रीय विविधता भी है । उक्त २८.७ करोड़ टन में से १.५ करोड़ टन तो सामान्य से ज्यादा वजन वाले लोगों (जिनका बॉडी मास इंडेक्स २५ से ज्यादा है) के कारण है । और इसमें से करीब एक-तिहाई तो उत्तरी अमरीका के मोटे लोगों की वजह से है जबकि यहां दुनिया की मात्र ६ प्रतिशत आबादी निवास करती है । बॉडी मास इंडेक्स शरीर के वजन और ऊंचाई के वर्ग का अनुपात होता है और इससे पता चलता है कि व्यक्ति अपनी ऊंचाई के मान से कितना अधिक मोटा है ।
    इसके विपरीत एशिया में दुनिया की ६१ प्रतिशत आबादी रहती है मगर दुनिया में मोटापे के कारण जो वजन है उसका मात्र १३ प्रतिशत एशिया के कारण है । शोधकर्ताआें ने पाया कि यूएस की ३६ प्रतिशत आबादी मोटापे की शिकार है । यदि पूरी दुनिया की आबादी इसी प्रवृत्ति का अनुसरण करे, तो इस अतिरिक्त वजन को सहारा देने के लिए ४८१ प्रतिशत ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होगी ।
    इसी बात को अलग ढंग से देखें, तो एक टन मानव जैव पदार्थ का मतलब होता है १२ उत्तरी अमरीकी व्यक्ति या १७ एशियाई व्यक्ति अर्थात भोजन के मामले में अमरीकी एशियावालों से आगे है ।
सामयिक
प्रकृति और पुरूष
शम्भु प्रसाद भट्ट स्नेहिल

    ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत पृथ्वी सौर परिवार का वह अत्यन्त महत्वपूर्ण सदस्य है, जो कि भौगोलिक ज्ञान के आधार पर सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने वाला ग्रह है । पृथ्वी का तीन-चौथाई भाग स्थलीय है, जिसमें कि विश्व के विभिन्न देश विद्यमान है ।
    धार्मिक दृष्टि से सम्पूर्ण व्योमण्डल के साथ ही इस भू-धरा को संचालित एवं नियंत्रित करने वाली कोई अदृश्य व अलौकिक शक्ति है, जिसे मात्र एहसास ही किया जा सकता है, क्योंकि वह स्वयं निराकार परब्रह्म परमेश्वर है । जबकि संसार के विभिन्न राष्ट्रों का संचालन व नियंत्रण जनता के मध्य निर्वाचित एवं नियुक्त जनप्रतिनिधियों व राजा-महाराजाआें द्वारा किया जाता है ।
    संसार-सिन्धु में प्रकृतिही वह आवरण एवं आकृति है, जो कि प्राकृतिक सुन्दरता, विकटता विभिन्नता एवं विषमता के रूप में सर्वत्र व्याप्त् रहती   है । प्रकृति के मनोरम व विभिन्नता से भरे-पूरे दृश्यों को ही प्राकृतिकता कहते है अर्थात् जो स्वत: व्याप्त् है और जिसमें कृत्रिमता का कोई समावेश नहीं है ।    भू-मण्डल में फैले मैदान, पठार, रेगिस्तान, चट्टान, हिमाच्छादित पर्वत, नदी-नाले, झील और जंगल आदि सभी प्रकृति ही तो है । प्रकृति शब्द को वृहत् अर्थ में लिया जाता है क्योंकि यत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगोचर होने वाली सभी कुछ प्रकृति के अन्दर ही समावेशित है । प्र उपसर्गात्मक है, जो कि कृ धातु से बने कृति संयुक्त है, प्र  = परमेश्वर और कृति = रचना । इस प्रकार प्र+कृति = प्रकृति शब्द का स्पष्ट अर्थ है, परमेश्वर की रचना अर्थात वह रचना जो कि परमेश्वर द्वारा परोपकार के लिए ही रची गयी      है । सांसारिक कृति के पीछे ईश्वर का परमोद्देश्य भी यही रहा है कि यह समस्त प्राणियों के जीवनानुकूल रहते हुए उनका मार्ग प्रशस्त करे ।
    मानव को उसके जीवन की आवश्कतानुसार ही प्रकृति के अन्तर्गत व्याप्त् अथाह भण्डार का दोहन कर उपभोग  करने का अधिकार है, जबकि प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन सम्बन्धी असीमित कर्तव्य है । एक बुद्धिजीवी प्राणी होने के कारण मानव का यह परम कर्तव्य है कि वह अधीनस्थ-असहाय व निरीह प्राणियोंकी सेवार्थ एवं कल्याणार्थ ही अधिक से अधिक समय व्यतीत    करे । प्रकृति के असीमित भण्डार का दोहन एवं उपभोग करना वह मानव की बुद्धि एवं योग्यता पर निर्भर है । उसके द्वारा प्रकृति का अनैतिक दोहन किया गया तो प्रकृति द्वारा चेतावनी के तौर पर समय-समय पर प्राकृतिक व दैवीय प्रकोप व घटनाआें के माध्यम से सचेत करने की चेष्ठा की जाती है ।
    पर्यावरण के विचलित होने से प्रदूषण का प्रभाव बढ़कर मानव ही नहीं अपितु सम्पूर्ण प्राणी-जगत के सम्मुख स्वस्थ जीवन जीने का प्रश्न खड़ा हो जाता है, वैसे तो प्रकृति आवश्यकतानुरूप उचित दोहन से मानव के लिये ईश्वरीय स्वयं सिद्ध वरदान स्वरूप है । जहाँ पुरूष उसकी कार्य क्षमता, शारीरिक बनावट एवं प्राणी प्रजनन शीलता के आधार पर पुल्ंलिग के अन्तर्गत एक नर है, वहीं प्रकृति उस सुन्दर आवरण, आकृति तथा उत्पादन क्षमता के आधार पर स्त्रीलिंग के अन्तर्गत रूत्री स्वरूपिणी नारी है । नर का नारी के साथ संसर्ग का परिणाम पुत्रोत्पत्ति है । इसी प्रकार मानव का प्रकृति में कार्य हेतु निरन्तर प्रगतिशील रहने पर विकास अवश्यम्भावी है ।
    धरती में उत्खनन कर कृषि कार्य करना, भवन निर्माण, यातायात हेतु सड़क निर्माण, विद्युत उत्पादन और प्रकृति प्रदत्त चीजों/वस्तुआें को वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा जीवनोपयोगी बनाना, यह सब मानव के सतत् संघर्ष एवं प्रयत्नशीलता का ही परिणाम है । यह कहा जा सकता है कि पुरूष रूपी साधन के माध्यम से विकास रूपी लक्ष्य की प्रािप्त् होती है । सृष्टि के प्रारम्भिक चरण में संसार संरचना के निमित्त परमेश्वर की माया से मनु नामक आदि पुरूष (नर) का श्रद्धा नाम्नी प्रकृति स्वरूपिणी  आदि स्त्री (नारी) से मेल हुआ । जिसका परिणाम मानव जाति का विकास है ।
    मनु की सन्तान होने से ही मानव नामक प्राणी को मनुष्य कहा जाता है । मानवीय भावना एवं व्यवहार के आधार पर मनुष्य के दो रूप देखने में आते है । प्रथमत: - इन्सान ओर द्वितीयत: - हैवान । इन्सान वही है, जो   ईश्वरीय शान एवं मान के अनुरूप न्यवहार एवं कार्य करे हैवान वह जो अपनी कठोरतम वाणी से दुसरों को हानि तथा ईश्वरीय मान-मर्यादा को अमान्य कर समाज को अपने न्यवहार से परेशानी एवं स्ंवय के सम्मानार्थ/लाभार्थ अन्यों के सम्मान को ठेस पहुँचायें । उसे दानव भी कहा जा सकता है ।
    प्रकृतिमें भावुकता तथा विभिन्न प्रकार की अत्याकर्षक वनस्पतियों सुन्दरता से युक्त स्थानों एवं प्राकृतिक वस्तुआें का भण्डार होने के कारण पूर्वकाल से ही यह पुरूष के लिए आकर्षक का केन्द्र बनी हुई है । सुन्दरता के प्रति आकर्षक होने के कारण महातपस्वी राजा पुरूरवा जैसे पुरूष भी उर्वसी नाम की अप्सरा के सम्मुख आत्मार्पित हो गये । आकर्षण इन्द्रास्त्र है, क्योंकि तपस्वियों के तपोबल को क्षीण करने के लिए देवराज इन्द्र बार-बार आकर्षणार्थ अप्सराआें की सुन्दरता रूपी अरूत्र का ही प्रयोग करत रहे है ।
    सुन्दरता एक ऐसा विशेषणात्मक शब्द एवं गुण है । जिससे आकर्षण जैसी क्रिया का होना स्वाभाविक हो जाता है । विपरीत लिंगी की सुन्दरता, आकर्षण अदायेंकठोर दिल मानव ही नहीं, दानव तक को भी मुलायम बनाकर पिघला देती है । आकर्षण शब्द आ उपसर्ग तथा कर्षण इन शब्दों के योग से बना है । आ का अर्थ निकटता से और कर्षण शब्द घर्षण से सम्बन्धित होने के कारण मिलकर कोई क्रिया करना है । इस प्रकार इसका स्पष्ट अर्थ है - किसी वस्तु प्राणी या स्थान के प्रति भावनात्मक लगाव व उसी में समायें रहने को चाह । प्रकृति सुन्दरता का आदि रूप है, इसलिए इसके प्रति लगाव व झुकाव तथा उसी समाये रहने की अभिलाषा का होना स्वाभाविक ही है ।
    आकर्षण शब्द क्रिया विशेषणात्मक है, जहां वह अपनी ओर आकृष्ट करने की क्रिया करता, वहींउसकी यह विशेषता एवं गुण भी है कि वह आकर्षित करने की क्षमता स्वयं रखता है । प्रकृति और पुरूष के मध्य आकर्षण ही ऐसा सेतु है, जो कि इन दोनों को परस्पर जोड़ने का कार्य करता है । जिस प्रकार मानव एक सामाजिक प्राणी है और समाज में न रहना उसकी मानवीय क्रिया पर प्रश्न चिन्ह है । उसी प्रकार इसके भावनात्मक जीव होने पर भी दूसरे को आकर्षित करने एवं आकर्षित होने की क्षमता का अभाव होना उसके सांसारिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन यापन में सन्देहास्पद स्थिति पैदा कर देता है ।
    प्रकृतिस्त्री स्वरूपिणी है, इसलिए पुरूष द्वारा संघर्ष या कार्य करना सार्थक है । यही विकास का द्योत्तक भी है । प्राय: देखा जाता है कि कृषि-कार्य अधिकतर महिला श्रम पर ही आधारित है । प्रकृति और स्वयं महिला दोनों समलिंगी मेल से विकास रूप परिणाम अर्थात् तृतीय वस्तु उत्पादन सम्भव नही है । इससे जमीनी उत्पादन क्षमता का स्तर पतन की ओर निरन्तर अग्रसर हो रहा है, यह वास्तविकता पुराधार्मिकता पर पूर्णत: आधारित है । यही स्थिति रही तो मानव के साथ अन्य प्राणियों के अस्तित्व के लिए खतरा मंडराने लगेगा, क्योंकि दो विपरीत लिंगी के मेल से ही प्राणी की विकास/वृद्धि सम्भव है ।
    अतीत के वर्षोमें मानवीय बौद्धिक स्तर चरणबद्ध रूप में विकसित होकर जो उच्चयु वर्ग में विद्यमान होता  था । वह वर्तमान विकास के साथ अल्पायु में ही विकसित होता चला जा रहा है, अन्तर मात्र बौद्धिक ज्ञान के सापेक्ष एवं निरपेक्ष क्रियान्वयन का है । आज निरपेक्षता का प्रतिशत बढ़ रहा है, यदि ज्ञान का शत-प्रतिशत उपयोग सकारात्मक कार्योंा में किया जाय तो विकास का क्रम निरन्तर प्रगति की ऊँचाईयों को छुयेगा । मानसिक विकास एवं वृहत् सोच प्रकृति के विभिन्न स्थानों की भौगोलिकता एवं आर्थिक-सामाजिक स्तर पर जन्मे पले-पोशे बच्च्े में अलग-अलग पाई जाती है ।
    नर-नारी के मध्य आकर्षण वेग रूप में प्रवाहित होकर प्रगाढ़ता बढ़ाते हुए परस्पर भावनाआें के आदान-प्रदान से एक दूसरे को बार-बार देखने की चाह, स्पर्श करने की इच्छा व आपस में खो जाने को अभिलाषाआें को जन्म देता है, जिससे जीवन से थका हतोत्साहित एवं नीरस मानव जीने की चाह लेकर आशा की किरण के सहारे जिन्दगी के क्षणों को व्यतीत करता है । जहाँ नर नारी के यौवन एवं सौन्दर्यता के साथ पहनावे व चाल-ढ़ाल से प्रथमदृष्टि ही आकर्षित हो जाता है । वहीं नारी नर के साहसिकता से भरे कार्योंा, सम्मानित पद, तन्दुरूस्त, गठीले सुन्दर शरीराकृति एवं व्यवहार की गम्भीरता से अध्ययन करने के बाद ही आकर्षित होती है । नारी की संवेदनशीलता एवं भावुकता ही उसे नर के दिखावा-खोखले वायदों के आगे त्वरित आत्मार्पित कर देती है ।
    प्रकृति के आंचल में अवस्थित हमारा यह महान राष्ट्र (भारतवर्ष) विभिन्न प्राकृतिक सुन्दरता से परिपूर्ण सामग्रियों से भरा-पूरा है । जिसे नारी (स्त्री) स्वरूपिणी मानते हुए माँ जैसे परम पूज्य व सम्मानित आत्मभाव के रूप में पूर्वकाल से ही भारत माता कहकर सम्बोधित करते आ रहे हैं ।
हमारा भूमण्डल
अलाव से जलते हाथ
मार्टिन खोर

    भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था में गिरावट की वजह अमेरिका और यूरोप में आई मंदी को बताया जा रहा है । १२० करोड़ की आबादी वाले देश की विदेशों पर इतनी निर्भरता खतरनाक सिद्ध हो सकती     है । जिस नई अर्थव्यवस्था की दुहाई देते उभरती अर्थव्यवस्थाएं नहीं थकती थीं, वे स्वयं उन्हीं के द्वारा बनाई आर्थिक नीतियों का शिकार हो गई है ।
    यूरोप और अमेरिका के आए आर्थिक संकट के फलस्वरूप विकासशील देशों पर अब विपरीत  प्रभाव पड़ने लगा है । यह उम्मीद थाी कि चीन, भारत एवं ब्राजील जैसे प्रमुख उभरती हुई अर्थव्यवस्थाआें की तेज विकास दर जारी रहेगी, वे स्वयं को पश्चिमी अर्थव्यवस्थाआें से पृथक रख पाएंगी एवं वैश्विक वृद्धि के विकल्प के रूप में उभरेंगी, लेकिन ये उम्मीद धराशायी हो गई है । हालिया आकड़े दर्शा रहे हैं कि वे स्वयं कमजोर होती जा रही है । वर्ष २००८ से २०१० तक चले वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से पश्चिम की मांग में आई कमी के परिणामस्वरूप   घटते निर्यात का प्रभाव विकासशील देशों पर भी पड़ा है । विकासशील देशों में पूंजी की आवक न केवल बाधित हुई है बल्कि पूंजी की वापसी जैसी नई स्थितियां भी पैदा हो गई है । बैंकिग उद्योग के सर्वेक्षण बताते हैं कि उभरती अर्थव्यवस्थाआें में बैंकों की ऋण संबंधी शर्तोंा में भी गिरावट आई है । हालिया रिपोर्टोंा ने भी मुख्य विकासशील अर्थव्यवस्थाआें  में गिरावट की बात को सुनिश्चित किया है ।
    चीन में इस वर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर घटकर ७.६ प्रतिशत पर आ गई      है । इसकी निरंतरता को वर्ष २०१० में १०.४ प्रतिशत, वर्ष २०११ में ८.१ प्रतिशत वृद्धि से समझा जा सकता है ।
    अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की इस वर्ष की अनुमानित वृद्धि दर ६.१ प्रतिशत बताई है । यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखे तो यह पिछले दो वर्षोंा में क्रमश: ६.५ एवं ८.४ प्रतिशत रही थी । वार्षिक दर के हिसाब से सिंगापुर की अर्थव्यवस्था दूसरी तिमाही सिकुड़कर १.१ प्रतिशत पर आ गई है । इसकी मुख्य वजह निर्माण क्षेत्र में आई ६ प्रतिशत गिरावट थी । इसी तरह मलेशिया आर्थिक शोध संस्थान ने इस वर्ष मलेशिया की अनुमानित वृद्धि दर ४.२ प्रतिशत बताई है । पिछले वर्ष यह ५.१ प्रतिशत थी एवं इस वर्ष की पहली तिमाही में यह ४.७ प्रतिशत ही थी ।
    इंडोनेशिया के केंद्रीय बैंक ने इस वर्ष की अनुमानित वृद्धि दर ६.२ प्रतिशत रहने की बात कही है । तुलनात्मक रूप से देखें तो यह पिछले वर्ष ६.५ प्रतिशत एवं इस वर्ष की पहली तिमाही में ६.३ प्रतिशत रही थी । दक्षिण अमेरिकी की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाआें में भी वृद्धि में कमी की संभावना जताई जा रही है । ब्राजील में सरकार ने इस वर्ष अपनी वृद्धि दर पुर्व अनुमानित ४.५ प्रतिशत से घटाकर ३ प्रतिशत आ जाने की बात कहीं है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नवीनतम अनुमान के आधार पर इसके २.५ प्रतिशत पर ही रहने की संभावना है । पिछले वर्ष वृद्धि दर २.७ प्रतिशत थी । लेकिन मई में समाप्त् हुए १२ महीनोंे के दौरान औद्योगिक उत्पादन में ४.३ प्रतिशत की कमी आई है ।
    अर्जेटीना विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाआें में से एक     था । वर्ष २०११ में इसकी वृद्धिदर ८.९ प्रतिशत थी और वर्ष २००३ से २०११ के मध्य यह औसतन ७.६ प्रतिशत बनी रही । परंतु मई में समाप्त् हुए १२ महीनों में औद्योगिक उत्पाद में ४.४ प्रतिशत की कमी जिसकी मुख्य वजह ऑटो-मोबाइल क्षेत्र में आई ३१ प्रतिशत की गिरावट रही है, के कारण यहां की अर्थव्यवस्था में ०.५ प्रतिशत की गिरावट आई है । दक्षिण अफ्रीका में पिछली तिमाही में वृद्धि दर २.७ प्रतिशत थी, जबकि वर्ष २०११ की चौथी तिमाही में यह ३.२ प्रतिशत थी ।  
    २० जुलाई को विश्व बैंक के नए अध्यक्ष जिम योंग किम ने चेतावनी देते हुए कहा था कि यूरोप का ऋण संकट विश्व के अधिकांश हिस्सों को प्रभावित करेगा । उन्होनें भविष्यवाणी की है कि यदि यूरोप में बड़ा आर्थिक संकट खड़ा हो गया तो विकासशील देशों की वृद्धि में ४ प्रतिशत या अधिक की कमी आ सकती हैं । यदि यूरोजोन के संकट को काबू में कर भी लिया जाता है तो भी दुनिया के अधिकांश हिस्सों में वृद्धि में करीब १.५ प्रतिशत की कमी आ सकती है । मुद्राकोष ने अपने नवीनतम आकलन में यूरोप एवं अमेरिका की आर्थिक स्थितियों की वजह से विकासशील देशों पर विपरीत असर पड़ने वाली तस्वीर पेश की गई है । विकासशील देशों में पूंजी वापसी की स्थिति अभी चिंताजनक स्थिति पर नहीं पहुंची है लेकिन यदि स्थितियां और बिगड़ती है तो समस्याएं पैदा हो सकती हैं । यदि विकासशील अर्थव्यवस्थाआें के वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखें तो साफ समझ में आता है कि एकाएक आए परिवर्तन के परिणामस्वरूप ये उभरती वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं पश्चिम में आई मंदी की शिकार हो गई हैं ।
    दक्षिण केन्द्र (साउथ सेंटर) के मुख्य अर्थशास्त्री यिल्माज अक्यूझ द्वारा तैयार दस्तावेज मेंकहा गया है कि दक्षिण के आश्चर्यचकित कर देने वाले उदय वाले सिद्धांत ने बतला दिया है कि विकासशील देशों की बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई आर्थिक तरक्की को बेवजह विकसित देशों के दुर्भाग्य या आर्थिक लाभों से अलग करके दिखाया जा रहा था । पिछले दशक में विकासशील देशों की उच्च् वृद्धि दर पश्चिमी देशों द्वारा पैदा की गई अनुकूल बाहरी स्थितियों का ही परिणाम थी ।
    अमेरिका की उच्च् उपभोक्ता वृद्धि चीन एवं अन्य पूर्वी एशियाई देशों के उच्च् निर्यात की मुख्य वजह थी । ठीक इसी तरह अफ्रीका एवं दक्षिणी अमेरिका में वस्तुआें (कमाडिटी) के मूल्योंमें आई तेजी भी इसी का परिणाम थी । मुख्य विकासशील देशों के पूंजी प्रवाह मेंआई तेजी से भी उनकी वृद्धि में ईधन का काम किया और उनमें से अनेक के घाटे की पूर्ति में सहायता दी । लेकिन वर्ष २००८-०९ के वैश्विक संकट ने विकासशील देशों की निर्यात वृद्धि एवं पूंजी की वापसी को बढ़ावा दिया ।
    लेकिन विकसित देशों में मंदी के खिलाफ उठाए ठोस कदमों, वित्तीय प्रोत्साहन, कम ब्याज दरें एवं तरलता में वृद्धि के परिणामस्वरूप विकासशील देशों के निर्यात वृद्धि एवं पूंजी की वापसी को बढ़ावा दिया । लेकिन विकसित देशों में मंदी के खिलाफ उठाए ठोस कदमों, वित्तीय प्रोत्साहन, कम ब्याज दरें एवं तरलता में वृद्धि के परिणामस्वरूप विकासशील देशों के निर्यात वृद्धि एवं पूंजी को पुन: आना प्रारंभ हो गया है । इसके बावजूद विकसित देशों द्वारा मितव्यतता अपनाने एवं यूरोप में मंदी की स्थिति से एक बार पुन: विकासशील देशों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा है ।
    दक्षिण या विकासशील देशों के अनुकूल स्थितियां अब कायम नहीं है बल्कि ये नकारात्मक होती जा रही हैं । इस वजह से विकासशील देशों की प्रगति धुंधली नजर आ रही है तथा विकास रणनीति में परिवर्तन आवश्यक हो गया है । इस बीच वांशिगटन पोस्ट ने लिखा है कि यूरो जोन संकट की वजह से हाल की महीनों में उभरती अर्थव्यवस्थाआें की ऋण की स्थितियों में गिरावट आई  है । अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में उभरते बाजार बैंकों में ऋण की स्थिति कठिन हो गई है वहीं दूसरी तिमाही में डूबत ऋणों की संख्या में भी वृद्धि हुई   है । इन परिणामों से यह निष्कर्ष निकलता है कि आगे आने वाले समय में उभरती अर्थव्यव-स्थाआें के सामने संकट गहराएगा क्योंकि एशिया और लेटिन अमेरिका में बैंकों ने गहरी चिंता दर्शाना प्रारंभ कर दिया है, जिसकी परिणिति कमजोर ऋण व्यवस्था को जन्म दे सकती है ।