सोमवार, 13 अगस्त 2012





प्रसंगवश 
बुद्धि पर जीन्स का असर कितना है ?
    यह पुरानी बहस है कि बुद्धि में कितना योगदान अनुवांशिकता का है और कितना योगदान परवरिश का है । एक ताजा अध्ययन में यह दर्शाया गया है कि एक जीन है जो बुद्धि को सीधे प्रभावित करता है । यह प्रभाव आज तक आंके गए किसी भी जीन के प्रभाव से अधिक है मगर यह भी बहुत कम है ।
    यह तो कई वैज्ञानिक मानते हैं कि बुद्धि पर जिनेटिक्स का काफी असर होता है मगर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि कोई अकेला जीन बुद्धि का निर्धारक नहीं है बल्कि इसमें सैकड़ों जीन्स का योगदान होता है ।
    एक ताजा अध्ययन २०,००० से ज्यादा लोगों के एमआरआई ब्रेन स्कैन और डीएनए सैम्पल पर आधारित है । केलिफोर्निया विश्वविघालय के पौल थॉमसन के नेतृत्व में किए गए इस अध्ययन में अंतत: एक ऐसा जीन खोजा गया है जिसका बुद्धि पर मापन योग्य असर होता है । मगर कचऋअ२ नामक यह जीन किसी व्यक्ति के आईक्यू में अधिक से अधिक १.२९ पॉइंट का बदलाव लाता है । यहां खोदा पहाड़ निकली चुहिया कहावत की याद आती है ।
    कचऋअ२ नामक इस जीन का संबंध पहले कद के साथ देखा गया था । टीम ने पाया कि इसी जीन में एक स्थान पर सायटोसीन नामक क्षार की जगह थायमीन से ही तो आईक्यू में अंतर पैदा होता है । टीम का मानना है कि सायटोसीन हो तो जीन सकारात्मक प्रभाव पैदा करता है । जीन में उस स्थान विशेष पर सायटोसीन क्षार हो तो भेजे का आयतन भी बढ़ता है - औसत साइज से ०.५८ प्रतिशत बड़ा भेजा इसका परिणाम हो सकता है । दरअसल, भेजे की साइज पर इसके असर को देखते हुए ही शोधकर्ता को यह सूझा था कि इस परिवर्तन का असर बुद्धि पर भी देंखे ।
    निष्कर्ष है कि यदि किसी व्यक्ति को माता-पिता दोनों से जीन का वह रूप मिले जिसमें संबंधित स्थान पर सायटोसीन क्षार हो तो उसका असर दुगना होता है (यानी उनका आईक्यू औसत से २.६ प्रतिशत तक ज्यादा हो सकता है) ।
    अन्य शोधकर्ताआें का मत है कि इस अध्ययन से स्पष्ट है कि एक जीन बुद्धि पर बहुत ज्यादा असर नहीं डालता और बुद्धि का नियंत्रण व विकास न सिर्फ कई जीन्स पर बल्कि उसके पर्यावरण पर भी निर्भर करता है ।
संपादकीय 
प्रकृति की रक्षा हमारा सामाजिक धर्म

पिछले कुछ समय से दुनिया में पर्यावरण के विनाश के लेकर काफी चर्चा हो रही है । मानव की गतिविधियों के कारण जंगलों की अंधाधंुध कटाई हो रही है, वाहनों से रोजाना हजारों-लाखों टन धुंआ निकल रहा है जो हवा को प्रदूषित कर रहा है । कारखाने नदियों में जहरीला कचरा बहा रहे हैं तो कुछ बड़े राष्ट्र समुद्र में परमाणु परीक्षण करके उसे विषाक्त बना रहे है ।
    मनुष्य के स्वार्थ का ही दुष्परिणाम है कि प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा   है । बढ़ते तापमान के कारण वातावरण पहले से अधिक गर्म हो गया है । इसके फलस्वरूप पहाड़ों पर जमी हुई बर्फ तेजी से पिघलने लगी है । पिघलती बर्फ का पानी समुद्र में पहुंचकर उसका जलस्तर बढ़ाने लगा है । इसका नतीजा समुद्र के किनारे बसे शहरोंको भुगतना पड़ रहा है । इनसे वहां रहने वाले हजारों-लाखों लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है ।
    आज हर आदमी प्रकृति का विनाश करने पर तुला हुआ है । शायद वह यह नहीं जानता कि इस तरह खुद उसका अस्तित्व ही खत्म हो सकता है । ऐसे में इसका उपाय यह है कि लोग पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझे ? शायद यह काम भी धर्म के जरिए आसानी से संभव हो सकता है ।
    यदि लोगों को समझाया जाए कि प्रकृति की सार-संभाल करना भी एक धार्मिक कार्य है तो यह काम आसान हो जाएगा । लोगों को समझाना होगा कि चूंकि यह सृष्टि ईश्वर की रचना है, इसलिए उसका आदर सम्मान करना और उसकी रक्षा से संबंधित आज्ञाआें का पालन करना ही धर्म है । ईश्वर की आराधना तभी पूरी मानी जाएगी, जब उसके द्वारा रची गई सुन्दर सृष्टि व उसमें विचरने वाले सभी प्रकार के जीव जन्तुआें की रक्षा की जाएगी और उनका आदर किया जाएगा । अच्छी बात यह है कि दुनिया के सभी धर्म ईश्वर और सृष्टि का आदर करना सिखाते हैं । सभी धर्मो में माना गया है कि प्रकृति की रक्षा करना ही मनुष्य की रक्षा करना है । इसलिये कहा जा सकता है कि प्रकृति की रक्षा करना ही हमारा सामाजिक धर्म है ।
सामयिक
हमारा दायित्व है, काम करना
                                               प्रणव मुखर्जी
    हमारा संघीय संविधान, आधुनिक भारत के विचार का जीता जागता स्वरूप है और यह न केवल भारत को बल्कि आधुनिकता को भी परिभाषित करता   है । आधुनिक राष्ट्र कुछ बुनियादी सिद्धांतोंपर निर्मित होता है जैसे, लोकतंत्र, अथवा हर एक नागरिक को बराबर का अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, अथवा हर एक धर्म को बराबर स्वतंत्रता हर एक क्षेत्र और भाषा को बराबर अधिकार, लैंगिक समानता तथा इनमें सबसे अधिक, आर्थिक समानता ।
    हमारा विकास वास्तविक लगे इसके लिए जरूरी है कि हमारे देश के गरीब से गरीब व्यक्ति को यह महसूस हो कि वह उभरते भारत की कहानी का एक हिस्सा है । हमने कृषि, उद्योग और सामाजिक ढाँचे के क्षेत्र मेंबहुत कुछ हासिल किया है परन्तु यह सब उसके मुकाबले कुछ भी नहीं है, जो आने वाले दशकों में, भारत की अगली पीढ़ियाँ हासिल    करेंगी ।
    हमारा राष्ट्रीय मिशन वहीं बना रहना चाहिए जिसे महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, अम्बेडकर तथा मौलाना आजाद की पीढ़ी ने भाग्य से भेंट के रूप में हमारे सुपुर्द किया था । गरीबी के अभिशाप को खत्म करना और युवाआें के लिए ऐसे अवसर पैदा करना, जिससे वे हमारे भारत को तीव्र गति से आगे लेकर जाऍ । भूख से बड़ा अपमान कोई नहीं है । सुविधाआें को धीरे-धीरे नीचे तक पहुँचाने के सिद्धांतों से गरीबों की न्यायसंगत आकांक्षाआें का समाधान नहीं हो सकता । हमें उनका उत्थान करना होगा जो कि सबसे गरीब हैं जिससे गरीबी शब्द आधुनिक भारत के शब्दकोश से मिट जाए ।
    वह बात जो हमें यहाँ तक लेकर आई है वही हमें आगे लेकर जाएगी । भारत की असली कहानी है इसकी जनता की भागीदारी । हमारी धनसंपदा को किसानों और कामगारों, उद्योगपतियों और सेवा-प्रदाताआें, सैनिकों और असैनिकों द्वारा अर्जित किया गया है । मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरूद्वारा तथा सिनागॉग के उदात्त सह-अस्तित्व में, हमारा सामाजिक सौहार्द्र दिखाई देता है, और यह हमारी अनेकता में एकता के प्रतीक हैं ।
    शांति, समृद्धि का पहला तत्व है । इतिहास को प्राय: खून के रंग से लिखा गया है, परन्तु विकास और प्रगति के जगमगाते हुए पुरस्कार शांति से प्राप्त् हो सकते हैं न कि युद्ध से । बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध के वर्षोकी अपनी कहानी है । योरप और सही मायने में पूरे विश्व ने, दूसरे विश्व युद्ध और उपनिवेशवाद की समािप्त् के बाद, खुद को फिर से स्थापित किया और परिणामस्वरूप, संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी महान संस्थानों का उदय हुआ । जिन नेताआें ने लड़ाई के मैदान, बड़ी-बड़ी सेनाएँ उतारी, और तब उनकी समझ में आया कि युद्ध में गौरव से कहीं अधिक बर्बरता होती है, तो इसके बाद उन्होंने दुनिया की सोच में परिवर्तन करके उसे बदल डाला । गाँधीजी ने हमें उदाहरण प्रस्तुत करके सिखाया और हमें अहिंसा की परम शक्ति प्रदान की ।
    भारत का दर्शन पुस्तकों में कोई अमूर्त परिकल्पना नहीं है । यह हमारे लोगों के रोजाना के जीवन में फलीभूत हो रहा है, जो मानवीयता को सबसे अधिक महत्व देते हैं । हिंसा हमारी प्रकृतिमें नहीं है, इंसान के रूप में जब हम कोई गलती करते हैं तब हम पश्चाताप तथा उत्तरदायित्व के द्वारा खुद को उससे मुक्त करते हैं ।
    परन्तु शांति के इन प्रत्यक्ष पुरस्कारों के कारण इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया गया है कि अभी युद्ध का युग समाप्त् नहीं हुआ है । हम चौथे विश्व युद्ध के बीच में हैं, तीसरा विश्व युद्ध शांति युद्ध था, परन्तु १९९० के दशक की शुरूआत में, जब यह युद्ध समाप्त् हुआ, उस समय तक एशिया, अफ्रीकाऔर लेटिन अमेरिका में बहुत गर्म माहौल था । आतंकवाद के खिलाफ लडाई चौथा युद्ध है और यह विश्व युद्ध इसलिए है क्योंकि यह अपना शैतानी सिर दुनिया में कहीं भी उठा सकता है । दूसरे देशों को इसकी जघन्यता तथा खतरनाक परिणामों के बारे में बाद में पता लगा, जबकि भारत को इस युद्ध का सामना उससे कहीं पहले से करना पड़ रहा है ।
    मुझे अपनी सशस्त्र सेनाआें की वीरता, विश्वास तथा दृढ़ निश्चय पर गर्व है, जो उन्होनें हमारी सीमाआें पर इस खतरे से लड़ते हुए दिखाया है । अपने बहादुर पुलिस बलों पर गर्व है, जिन्होनें देश के अंदर शत्रुआें का सामना किया है तथा अपनी जनता पर गर्व है जिन्होंने असाधारण उकसावे के बावजूद शांत रहकर आतंकवादियों के कुचक्र कोबेकार  कर दिया । भारत के लोगों ने घावों का दर्द सहते हुए परिपक्वता का उदाहरण प्रस्तुत किया है । जो हिंसा भड़काते हैं और घृणा फैलाते हैं, उन्हें सच्चई समझनी होगी । वर्षो के युद्ध के मुकाबले शांति के कुछ क्षणों से, कहीं अधिक उपलब्धि प्राप्त् की जा सकती है ।
    भारत आत्म-संतुष्ट है तथा समृद्धि के ऊँचे शिखर पर बैठने की इच्छा से प्रेरित है । यह अपने इस मिशन में, आतंकवाद फैलाने वाले खतरनाक लोगों के कारण विचलित नहीं होगा ।
    भारतवासियों के रूप में, हमें भूतकाल से सीखना होगा, परन्तु हमारा ध्यान भविष्य पर केंद्रित होना चाहिए । मेरी राय में, शिक्षा वह मंत्र है जो कि भारत में अगला स्वर्ण युग ला सकता  है । हमारे प्राचीनतम ग्रंथों में, समाज के ढाँचे को ज्ञान के स्तंभों पर खड़ा किया गया है । हमारी चुनौती है, ज्ञान को देश के हर एक कोने में पहुंचाकर, इसे एक लोकतांत्रिक ताकत में बदलना । हमारा ध्येय वाक्य स्पष्ट है - ज्ञान के लिए सब और ज्ञान सबके लिए ।
    मैंएक ऐसे भारत की कल्पना करता हॅूं जहाँ उद्देश्य की समानता से सबका कल्याण संचालित हो, जहाँ केन्द्र और राज्य केवल सुशासन की परिकल्पना से संचालित हो, जहाँहर एक क्रांति सकारात्मक क्रांति हो, जहाँलोकतंत्र का अर्थ केवल पाँच  वर्ष में एक बार मत देने का अधिकार न हो बल्कि जहाँ सदैव नागरिकों के हित में बोलने का अधिकार हो, जहाँ ज्ञान विवेक में बदल जाए, जहाँ युवा अपनी असाधारण ऊर्जा तथा प्रतिभा को सामूहिक लक्ष्य के लिए प्रयोग करें । जब पूरे विश्व में निरंकुशता समािप्त् पर है, जब उन क्षेत्रों में लोकतंत्र फिर से पनप रहा है जिन क्षेत्रों को पहले इसके लिए अनुपयुक्त माना जाता था, ऐसे समय में भारत आधुनिकता का मॉडल बनकर उभरा है ।
    जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने अपने सुप्रसिद्ध रूपक में कहा था कि भारत का उदय होगा, शरीर की ताकत से नहीं बल्कि मन की ताकत से, विध्वंस के ध्वज से नहीं, बल्कि शांति और प्रेम के ध्वज से । अच्छाई की सारी शक्तियों को इकट्ठा करें । यह न सोचें कि मेरा रंग क्या है - हरा, नीला अथवा लाल, बल्कि सभी रंगों को मिला लें और सफेद रंग की उस प्रखर चमक को पैदा करें, जो प्यार का रंग है । हमारा दायित्व है काम करना, परिणाम खुद ही आ जाएँगे ।
(भारत के राष्ट्रपति के पद का कार्यभार ग्रहण करने के अवसर पर श्री मुखर्जी के अभिभाषण से संक्षिप्त्)
हमारा भूमण्डल
अमीर देश कितने अमीर हैं
                                             सचिन कुमार जैन

    दुनिया के अमीर देशों ने उपनिवेशवाद अर्थात् दूसरे देशों को अपना गुलाम बनाकर खूब संपत्ति हासिल की । उसी के माध्यम से अपनी औद्योगिक क्रान्ति को आगे बढ़ाया, रेल मार्गो का विस्तार किया और संसाधन सम्पन्न हुए । उन्होनें अपने उपनिवेशों की जमीनों और जंगलों के साथ ही साथ श्रम का भी खूब शोषण किया और यह साबित करने की कोशिश की कि पूंजीवादी विकास ही जनकल्याणकारी रास्ता है और इसी से समानता    आएगी । परन्तु आज की स्थिति कुछ और ही कहानी कह रही है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट अब इन अमीर देशों को भी लीलने को आतुर दिखाई दे रहा है ।
    अभी तक तो लोग, परिवार और कम्पनियाँ ही कंगाल हुआ करती थी लेकिन अब तो देश दिवालिया घोषित किये जाने की कगार पर आ गए है । हाल ही में ग्रीस के सामने दिवालिया हो जाने की नौबत आ गई है । ग्रीस का कुल सकल घरेलू उत्पाद ३०३ अरब डालर का है, पर उसकी सरकार पर ४८९ अरब डालर का कर्जा हो गया है । ऐसे में अब उसे कोई और अधिक कर्जा देने को तैयार नहीं है । इस स्थिति में यूरोपियन कमीशन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, और यूरोपीय केन्द्रीय बैंक ने उसे कर्ज देने से पहले यह पूछा कि वह अपने खर्चे में ३२.५ करोड़ यूरो की कटौती कैसेकरेगा । ग्रीस को १३० अरब यूरो के बेल आउट पैकेज के लिए उधार की जरूरत है और इसके लिए उसे वेतन, पेंशन और सरकारी सेवाआें में होने वाले अपने खर्चो को कम करना होगा तभी उसे किसी भी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था से कर्ज मिल पायेगा । इसका मतलब है कि उसे अपने नागरिकों को बेरोजगार करना होगा और स्वास्थ्य, शिक्षा और उनकी सामाजिक सुरक्षा पर किये जाने वाले व्यय को भी कम करना होगा ।
    ग्रीस तो केवल एक उदाहरण है । दुनिया में सम्पन्न माने जाने देशों - इटली, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी आदि भी कमोबेश इसी तरह की स्थिति में हैं । गौरतलब है कि ऐसे देश, जिनके ऊपरबाहरी कर्जा उनके सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में ज्यादा हो चुका है, उन्हें गहरे संकट में माना जाता है । ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड ऐसे ही देश है और इन देशों की बेरोजगारी की दर भी १४ प्रतिशत हो चुकी है । वैसे भी जो देश विकसित बने भी हुए हैं वे वास्तव में या तो दूसरें देशों को लूट कर विकसित हुए हैं या फिर खूब कर्जा   लेकर । आंकड़े थोड़ा बोर तो करते हैं लेकिन कई बार ये अत्यन्त रूचिकर भी दिखाई पड़ते हैं । जरा नीचे दिए आंकड़ों पर गौर कीजिए -
    - ग्रीस का सकल घरेलू उत्पाद ३०३ अरब डालर है और उस पर कर्जा है ४८९ अरब डालर तथा प्रति व्यक्ति कर्ज ३५८७४ डालर ।
    - इटली का सकल घरेलू उत्पाद २.२ खरब डालर है और कर्ज है २.५४ खरब डालर है तथा प्रति व्यक्ति कर्ज ३८३८४ डालर ।
    - अमेरिका का सकल घरेलू उत्पाद १५.१३ खरब डालर है और कर्ज है १२.८ खरब डालर है एवं प्रति व्यक्ति कर्ज ३७९५२ डालर ।
    - फ्रांस का सकल घरेलू उत्पाद २.७६ खरब डालर है तो कर्ज २.२६ खरब डालर है तथा प्रति व्यक्ति कर्ज ३५६४८ डालर ।
    - जर्मनी का सकल घरेलू उत्पाद है ३.५६ खरब डालर है तो कर्ज २.७९ खरब डालर, और प्रति व्यक्ति कर्ज २८७२८ डालर ।
    - ब्रिटेन का सकल घरेलू उत्पाद २.४६ खरब डालर तो कर्ज १.९९ खरब डालर, तथा प्रति व्यक्ति कर्ज ३२२०७ डालर ।    
    - जापान का सकल घरेलू उत्पाद ५.८८ खरब डालर है तो कर्ज १३.७ खरब डालर, एवं प्रति व्यक्ति कर्ज ८७६०० डालर ।
    प्रति व्यक्ति कर्ज जापान में भारत से १२० गुना ज्यादा, अमेरिका में भारत से ५१ गुना ज्यादा, ग्रीस और फ्रांस में भारत से ५० गुना ज्यादा है । पर जिन्हें विकासशील देश माना जाता है उनके हालात कम से कम दिवालिया होने के तो नहींहै । भारत में एक व्यक्ति के ऊपर ७२२.८२ डालर का कर्जा है और हमारे ऊपर सकल घरेलू उत्पाद के लगभग ५४ प्रतिशत हिस्से के बराबर कर्ज है । चीन पर प्रति व्यक्ति ७०९ डालर, मिस्त्र पर २०३५ डालर और इथियोपिया पर ११५.९१ डालर का कर्ज है । आज चीन दुनिया में उभर चुकी नयी ताकत है और उसकी ताकत के पीछे एक बड़ा कारण है उसका कम कर्जदार होना । इससे उसकी अर्थव्यवस्था ज्यादा संतुलित और सुरक्षित बन जाती है । चीन पर १.०९ खरब डालर का कर्ज है, परन्तु यह कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद का केवल १७.४ प्रतिशत है । जबकि भारत पर ९२७ अरब डालर का कर्ज है जो कुल सकल घरेलू उत्पाद का ५५ प्रतिशत      है । यही स्थिति हमेंपूँजी बाजार के सामने झुकने और ढांचागत बदलाव की उनकी शर्तो को मानने के लिए मजबूर करती  है ।
    आर्थिक सम्पन्नता का मतलब है कि कुछ देशोंने कर्ज लेकर उपभोक्तावादी नीति को अपनाया है और इसे ही वे पूँजी की तरलता भी मानते    है । मतलब साफ हैं - कुछ देशों ने उपनिवेशवादी तरीकों से दूसरे देशों के संसाधनों को लूटा और अपना विकास किया और दूसरी बात यह है कि जब प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद की दायरा कम हो गया तो उन्होनें बेईमानी से व्यापार के जरिये विकासशील देशों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया । तीसरी बात - उन्होंने अपने नागरिकों को कर्ज के नशे की लत लगाई, जिससे वहां का समाज इन अन्यायपूर्ण नीतियों पर चुप रहा ।
         अमेरिकी यूनाईटेड फेडरलरिजर्व के प्रमुख एलन ग्रीनस्पन ने भी स्वीकार (१३ जनवरी २०००) किया कि आर्थिक विकास की दर वास्तव मेंबनावटी है । उन्होंने कहा कि अमेरिका स्टाक मूल्य १९९३ से २००० के बीच १५० प्रतिशत बढ़ गया इससे हमें अपनी पूँजी की कीमत बढ़ी हुई नजर आती है, पर वास्तव में इसमें कोई भौतिक वृद्धि नहीं हुई है । हम मौजूदा वस्तुआें या संपत्तियों की कीमत बढ़ाते जाते हैं और उसे जोड़कर बताते है कि हमने विकास  किया । उन्होनें यह भी बताया कि करों के भुगतान के बाद अमेरिकावासियों ने अपनी आय का १००.५ प्रतिशत खर्च किया, इसका मतलब है कि उन्होनें खूब कर्ज लिया ।
    आखिर इतनी लूट के बाद भी ये देश आर्थिक संकट में क्यों है ? इसकी वजह है पिछले १०० सालों से जिस आर्थिक विकास की वकालत की जा रही है वह संसाधनों के सही उपयोग पर केन्द्रित न होकर उसके बेतहाशा शोषण पर लूट कर केन्द्रित रहा और यह माना जाता रहा है कि लोगों की उपभोक्तावादी प्रवृति को जितना उभरा जा सकता है उतना उभारा जाए ।
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
सभ्यता को बचाने की जद्दोजहद
                                                  नारायण देसाई
    बदनाम पंूजीवाद का नवसंस्करण याने भूमंडलीकरण, आर्थिक साम्राज्यवादी तानाशाही का वह मोहक एवं भ्रामक स्वरूप है जिसने वसुधैव कुटुम्बकम की मानव भावना को विश्व बाजार में पलट दिया है । परिवार का आधार परस्पर स्नेह और विश्वास होता है परन्तु बाजार चतुराई से अविश्वास को व्यवस्था की प्रतिष्ठा से पुष्ट करना चाहता है ।
       भूमण्डलीकरण, उदार मतवाद एवं उपभोक्तावाद की तिकड़ी मुट्ठीभर लोगों के हाथ मेंआर्थिक (एवं फलत: राजनैतिक) सत्ता, चरमसीमा का भोगवाद तथा संसाधन एवं निसर्ग की कल्पनातीत बरबादी वाली सभ्यता पैदा कर रही है । बाजार द्वेषभाव, अविश्वास एवं गलाकाट होड़ बढ़ाता है । विश्व बाजार व्यक्ति को स्वार्थी, समष्टि को भेदयुक्त एवं प्रकृतिको क्षरण, दोहन व शोषण सुलभ बनाता है ।
    आज प्रमुख समस्या सामंजस्य की है । इसी से हमारी स्वस्थता, समृद्धता एवं शांति   बढ़ेगी । जिस मात्रा में व्यक्ति अपनी स्वस्थता खोएगा, समाज की समता छिन्न-भिन्न होगी एवं प्रकृति के राग में बेसुरापन बढ़ेगा और हमारा पथ भी उतना अंधकारमय बनेगा । भूमण्डलीकरण तथा उसके साथ चलने वाले उदारीकरण आदि सहचारी भावों ने यही समस्या हम लोगों के सामने खड़ी की है । इस चुनौती को स्वीकार कर उसका मुकाबला करना आज सबसे महत्वपूर्ण कार्य है ।
    ग्राम स्वराज - ग्राम स्वराज का दर्शन इस वैश्विक चुनौती के एक जवाब के रूप में हमारे सामने है। गांधी ने हिंद स्वराज में जो दर्शन दिया है तथा विनोबा ने मुख्यत: भूमि के प्रश्न को हाथ में लेकर जिस दर्शन को अधिक ठोस स्वरूप दिया, उसे देश के कुछ सेवकोंतथा ग्रामों ने प्रत्यक्ष प्रयोग की कसौटी पर कस के देखा तो है फिर भी समस्या की विराटता तथा प्रयास का शैशव रूप देखते हुए यह स्पष्ट है कि इस दिशा में अभी लम्बी मंजिल तय की जानी है । चुनौती हमारे पुरूषार्थ को भी उतना ही आव्हान करने वाली है, जितनी गांधी-विनोबा के जमाने मेंथी । यह चुनौती इसलिए अधिक तीव्र है क्योंकि आज हमारे बीच गांधी-विनोबा या जयप्रकाश जैसी हस्तियां नहीं है ।
    समाज में अमीर-गरीब के बीच की खाई अधिक गहरी हुई है और विषमता बहुत बढ़ी है । इस दर्शन के पीछे यह चिन्तन काम कर रहा है कि हम जितनी जरूरतें बढ़ाते जायेंगे उतना ही हमारा विकास बढ़ेगा । विकास की इस अवधारणा से जूझना ही विकल्प ढूंढने वाले हम जैसे सेवकों के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती है ।
    इस समस्या को समझकर देश के लोगोंके सामने हमेंयह बात रखनी होगी कि विकास की मौजूदा अवधारणा स्पर्धा प्रेरक तत्व बनाती है, जो अंत में हमें कलह, युद्ध एवं महायुद्ध तक ले जाती है । इस विकास के रक्षक एवं अंतिम अधिष्ठान शस्त्र हैं । आज के संदर्भ मेंजिसका परिणाम सर्वनाश ही है ।
    समाज को तेजी से आगे ले जाने के प्रेरक तत्व स्पर्धा को समझने के बदले में पूरे समाज के हित के लिए सहयोग को प्रेरक तत्व के तौर पर स्थापित करना है एवं शस्त्र को विकास के रक्षक समझने के बदले पड़ोसीपन की भावना को विकसित करना है ।
    पंूजीवाद का विकल्प ढूंढने वाले समाजवादी तथा साम्यवादी विचारक गरीबों के प्रति करूणा से प्रेरित थे । इसलिए जगत भर मेंशोषित लोग इन विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए । समाज की विषमता पैदा करने वाले और एक तत्व के केन्द्रीकरण तथा शासन के जरिए समाज व्यवस्था में सुधार करने की उम्मीद रखने वाले इसके दुर्गुण नहींदेख पाए । अत: जहां यह व्यवस्था सफल हुई वहां राजव्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था दोनों का केन्द्रीकरण हुआ, जिससे शासक-शासित तथा व्यवस्थापक वर्ग और उपभोक्ता वर्ग के निचले वर्ग के बीच विषमता बढ़ी ।
    समाज के प्रत्येक सदस्य तथा पूरे समाज का हित सोचने वालोंके आगे व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामाजिक समता को समन्वित करने की समस्या भी आ खड़ी हुई । चूंकि भूमण्डलीकरण एक अर्थ में पूंजीवाद का गुणाकार ही है, इसलिए आज हमारे सामने यह समस्या भी अनेक गुणा आकार लेकर आ खड़ी है ।
    साम्यवादी व्यवस्था में एक हद तक वितरण की समस्या हल हुई, लेकिन केन्द्रीकरण के कारण उत्पन्न होने वाली विषमता बरकरार रही । इसके अलावा केन्द्रीकरण ने प्राकृतिक संसाधनोंके दोहन की गति एवं तीव्रता को बेतहाशा बढ़ा दिया । इससे नगरीकरण भी बढ़ गया । कुछ चिन्तकों ने तो इसे विकास का लक्षण ही माना ।
    केन्द्रीकरण के कारण व्यक्ति के मानस मेंपरायापन (एलियेनेशन) और बढ़ा, उसके कारण मानसिक तनाव तथा मानसिक बीमारियों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । स्पर्धा को सामाजिक मूल्य मानने के कारण समाज की संवादिता पर गहरी चोट पहुंची । इसमें समाज का हर व्यक्ति दूसरे का प्रतिस्पर्धा और संभवित दुश्मन   बना । सामाजिक क्लेशों ने क्रमश: कलह, संघर्ष एवं युद्ध का स्वरूप धारण किया । विषम तंत्र को टिकाये रखने के लिए क्रूर साधनों का उपयोग किया गया । तकनीक का विकास इस क्रूरता को घातक एवं विनाशक शस्त्रोंतक के ले गया । नव पंूजीवाद जहां नव साम्राज्यवाद के नग्न रूप मेंनहीं पहुंचा वहां भी वह आर्थिक साम्राज्यवाद तक तो पहुंच ही चुका है ।
    विकास के क्रमिक विचार ने विश्व समाज को आर्थिक तानाशाही तक पहुंचाया । इस तानाशाही ने अब संस्कृति के क्षेत्र  भी प्रवेश कर लिया है जहां रोजमर्रा के जीवन के रहन-सहन के लिए आवश्यक उपकरणों से आरंभ कर खेलकूद, संगीत, नृत्य, कला, शिल्प-स्थापत्य आदि नानाविध क्षेत्रों में इने गिने विज्ञापनदाताआें की जबरदस्त पकड़ सामान्य उपभोग करने वाले नागरिकों पर भारी पड़ रही है ।
    विकास की भ्रमित अवधारणा को साथ लेकर अत्याधुनिक तकनीक के सहारे गति बढ़ा कर आज जो अंधी दौड़ लगाई जा रही है उसका शायद सबसे खतरनाक असर पर्यावरण पर पड़ रहा है । वसंुधरा के मूल वस्तु यथा तेल, कोयला अन्य धातुएं आदि का इस गति के साथ दोहन हो रहा है कि वे निकट भविष्य में खत्म हो जायेगी । इसके अलावा पृथ्वी का तापमान बढ़ जाना-ग्लोबल वार्मिंग, पृथ्वी के आसपास के ओजोन आवरण में विराट ग े पड़ना, पृथ्वी की वनस्पति का कल्पनातीत गति से नष्ट होना, आबोहवा में अकल्पनीय परिवर्तन फलत: अत्यधिक गर्मी, भयानक सर्दी, बारिश, बाढ़, हिमप्रपात, हिम नदियों का पिघलना आदि एवं पृथ्वी के तल से जीवन तत्वों का शोषणा और भूमि की ऊपरी सतह का कृषि योग्य न रहना जैसे अन्य दुष्परिणाम भी अब हमारे सामने है ।
    परिस्थति की सर्वव्यापी विषमता ने मनुष्य के लिए नया विकल्प ढूंढना अनिवार्य बना दिया है । दुनियाभर की भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक विविधता के कारण ये विकल्प अलग-अलग हो सकते है । भारत की वर्तमान परिस्थति, उसके हजारोंवर्षो की परम्परा तथा गांधी-विनोबा काल के निकटवर्ती इतिहास को देखते हुए आज ग्रामस्वराज हमारे सामने एक अमोघ विकल्प के रूप में प्रस्तुत हो रहा है ।
जनजीवन
भूमि की लूट पर टिका तंत्र
                                      प्रो.(डा.) रामजी सिंह
    वर्तमान पूरा तंत्र भूमि हड़प के सिद्धान्त पर टिका हुआ है । निजी व सरकार दोनो ही संपत्ति को हथियाने में लगे है । सरकारे वैधानिक रूप में अधिग्रहण कर नागरिकों को विस्थापित बना रही हैं तो निजी क्षेत्र आधे-अधूरे दाम देकर । कुल मिलाकर स्थितियां दिन प्रतिदिन बद से बदतर होती जा रही है ।
    संपत्ति सब रघुपति के आही को धर्म-वाक्य मानकर स्वीकार नहीं भी करें, किन्तु यह तो तय है कि आदिम युग में कम से कम जमीन की व्यक्तिगत मालिकी नहीं ही थी । इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि आदमी कम थे और जमीन बहुत ज्यादा थी । खेती के औजार भी इतने विकसित नहीं थे कि एक व्यक्ति बहुत अधिक जमीन पर खेती कर सके । उस समय अथर्ववेद के पृथ्वी-सूक्त में माता भूमि: पुत्रो अहम् पृथिव्या: की भी यही पृष्ठभूमि थी ।
    जब सृष्टिकर्त्ता के रूप मेंईश्वर की अवधारणा आयी तो हम सब कुछ ब्रह्मा को ही मानने लगे - सर्व खलु इदं ब्रह्मा । या ईशावास्यमं इदं ब्रह्मा । इसी को लोक भाषा मेंसबै भूमि गोपाल की या संपत्ति सब रघुपति के आही कहा जा सकता है। सम्पत्ति के स्वामित्व को ईश्वरत्व के कारण वैदिक और श्रमण धर्मोएवं संस्कृतियों में अपरिग्रह और अस्तेय को नीति-धर्म एवं पंचशील या पंच महाव्रत में माना गया है ताकि यह हमारा व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन दोनों का धर्म बन जाये ।
    भारत के बाहर के धर्मोंा में भी संपत्ति संग्रह के बदले दान, जकात या चैरिटी पर ज्यादा ध्यान दिया गया है । फ्रांसीसी दार्शनिक प्रोधाँने तो सम्पत्ति संग्रह को चोरी बताया । सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ सम्पत्ति का घालमेल बहुत ही गंभीर रूप से हुआ   है । इसी कारण समाज में विषमतापूर्ण सामन्ती और पंूजीवादी संस्थाआें या परम्पराआें का विकास हुआ है ।
    मार्क्सवाद ने इतिहास की भौतिक आर्थिक व्याख्या के सिद्धान्त के आधार पर व्यक्तिगत सम्पत्ति का निषेध किया और उसके बदले राज्य के स्वामित्व का सिद्धान्त रखा । सोवियत संघ के द्वारा सामूहिक खेती के प्रयोग के परिष्कार के लिए कोल खोज व चीन में कम्यून के प्रयोग हुए । इसी तरह इजराइल ने लोकतांत्रिक आधार पर किवूत्स का प्रयोग किया है । भारत मेंभूमि पर राजा या सामंत के स्वामित्व के बदले राजस्व के रूप में कृषि की उपज का कुछ अंश या छठा हिस्सा लिया जाता था ।
    यदि हम वैदिक युग के गाँवों की चर्चा छोड़ भी दें और लिखित इतिहास पर दृष्टि डालें तो लगेगा कि गांव स्वावलम्बी होकर आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र थे । राजसत्ता केन्द्र मेंअवश्य थी लेकिन गांवों की स्वायत्ता सुरक्षित थी । वैशाली में लिच्छावियों के लगभग ३०० से अधिक गणतंत्र थे । पठान-मुगल राजवंशों ने भी केन्द्रीय राजसत्ता को संभालने पर ध्यान दिया और अपवादों को छोड़ ग्रामीण समाज की स्वायत्ता में छेड़छाड़ नहीं की ।
    किन्तु जब से ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश हुकूमत आयी तो लार्ड कार्नवालिस ने चिरस्थायी प्रबंध लागू कर, जमींदारी और भूमिदारी व्यवस्था को चालू कर वैधानिक सामंतवाद को इसलिए जन्म दिया कि आर्थिक रूप से उसे राजस्व मिले, साथ ही साथ बिचौलिये जमीदार एवं सामंत अंग्रेज सरकार की सुरक्षा करते रहे । यही कारण था कि आधुनिक युग में स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान जमींदारी प्रथा उन्मूलन सर्वोच्च् प्राथमिकता        में थी ।
    स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे किसान नेता साम्यवादी मित्रों से भी पूर्व किसानों की समस्याआें के लिये जूझते रहे । आजादी की लड़ाई में गांधीजी ने भी चंपारण, खेडा, बारडोली आदि किसान सत्याग्रह का नेतृत्व किया । गांधी की सोच की गतिशीलता का इसी से पता चलता है कि लुई फिशर द्वारा यह पूछे जाने पर कि आजादी के बाद भूपतियों की जमीन के विषय मेंजोतदार किसानों को कौन-सा कार्यक्रम देंगे । गांधीजी का उत्तर था - मैं किसानों को जमीन पर कब्जा कर लेने को कहूंगा । फिशर ने जब पूछा क्या इसमें हिंसा नहीं होगी ? गांधीजी ने कहा - वह कुछ ही दिनों में शांत हो जाएगी । फिर पूछा गया - आप मालिकों से क्या कहेगे ? उन्होंने कहा - मैं उनसे सहयोग की अपील करूंगा । इसके बाद पूछा कि आप मुआवजा देने की पेशकश करेंगे ? गांधी का उत्तर था - देश की परिस्थिति इस लायक नहीं कि उन्हें मुआवजा दिया जा सके ।
    जमीन की समस्या को समझने के लिए यह समझना आवश्यक है कि जमीन (जल और खनिज, जंगल और नदी) पर कोई व्यक्तिगत मालिकी नहींहोनी चाहिए तथा इस पर राज्य का भी स्वामित्व नहीं चलना चाहिए ।
    आज तो राज्य का पवित्र मिथक समाप्त् सा हो गया है । दलगत राजनीति और अधिक अधिकार प्राप्त् करने की आकांक्षा ने राज्य शासन को तानाशाही की ओर जाने का अवसर दिया है । देश में ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों घोटाले हैं जहां प्राकृतिक संपदाआें की बेरहमी से नीलामी व लूट राज्य शासन कर रहा    है । इन्हीं कारणों से गांधी ने जमीन-जंगल-जल और खनिज सम्पत्तियों को न तो व्यक्तिगत स्वामित्व, बल्कि राज्य के स्वामित्व के भी बाहर रखना चाहा था । आज की पंचायतेंया स्थानीय निकाय भी तो राजनीति के दलदल में पड़े हैं । उन पर भी यह बोझ देना खतरनाक है ।
    इस संबंध में गांधी विचार के अनुरूप संत विनोबा ने भी ग्राम-दान एवं ग्राम स्वराज्य की बात की । सौभाग्य यह है कि ग्रामदान-ग्रामस्वराज्य की इस योजना को एक राष्ट्रीय सहमति मिल चुकी है । विनोबा समझते थे कि केवल सर्वोदय के लोग इस महायज्ञ को पूरा नहींकर सकते । अत: कर्नाटक के ऐलबाल में १९५७ में उन्होंने उस समय के सभी बड़े राजनीतिक दलों के नेताआें को आमंत्रित किया था । पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं ग्रामदान का सहमति पत्र तैयार किया था । जिस पर सभी नेताआें ने हस्ताक्षर भी किये । आज बड़ी योजनाआें के कार्यान्वयन के लिए लगभग ६ करोड़ भारतीय विस्थापित हो चुके है । मुनाफे के लिये खनिजों की लूट से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जा रहा है क्योंकि अगले १५० सालों में खर्च होने वाले खनिजों का आज ही उपयोग कर लेने से भयावह स्थिति पैदा हो सकती है ।
    अत: आवश्यकता है कि प्राकृतिक संपदाआें को राज्य या पूंजीपतियों के बदले जनसमाज के हाथोंमें दिया जाए । सौभाग्य से भारतीय संविधान में संपत्ति के मौलिक अधिकार को पहले ही खत्म कर दिया गया है । इसलिए जब ग्राम-समाज या अन्य सामुदायिक संस्थाआें को यह दायित्व दिया जाए तो उसके लिए कुछ सुरक्षात्मक निर्देश रहें तथा उनके निर्णय सर्वसम्मति से हों ताकि राजनीति का रंग न चढ़े । इसमें ही सबका भला व सबका सम्मान है ।
प्रदेश चर्चा
झारखंड : परम्परा की पुर्नस्थापना
                                                  इक्वेशन टीम
    झारखंड का मुण्डा समुदाय अनादिकाल से अपनी सामूहिकता की परम्परा के साथ निवास करता रहा है । अंग्रेजों के औपनिवेशिक एवं स्वतंत्र भारत के शासन ने उनकी पारम्परिक जीवन प्रणाली को कमोवेश छिन्न-भिन्न कर दिया था । पिछले कुछ वर्षोमें मुण्डा समुदाय ने एक बार पुन: अपनी परम्पराआें को पुर्नस्थापित करने की ठान ली है । 
    झारखंड राज्य के रांची के पठार के पहाड़ी इलाके मेंगांवों में आस्ट्रिक वंशावली का मुण्डा समुदाय जो कि एस्ट्रो-एशियन परिवार की दक्षिणी मुंदरी शाखा की भाषा बोलता है, मुण्डारी खुटकुट्टी गांवों में निवास करता है । बिरसा मुण्डा और उसके अनुयायियों की शहदात के साथ सन् १९०० ई. में उपनिवेश विरोधी लड़ाई समाप्त् तो हो गई परन्तु वनभूमि अधिकारों और उन गांवों को जो कि उग्र प्रतिरोध या उल्गुलान में शामिल हुए थे, को मुण्डाआें के पारम्परिक अधिकार क्षेत्र के रूप मेंमान्यता दे दी गई थी ।
    मुण्डा जब पहली बार छोटा नागपुर में बसे तो उन्होनें वन की सफाई कर अपने मूल गांव स्थापित किए जिन्हें खुंट-कट्टी-हटु या मूल निवासियों के परिवारों के गांव के नाम से जाना जाता है । इन गांवों की सीमा के अन्तर्गत सभी जमीनें,  पहाड़ियां, जंगल व जलस्त्रोत अथवा भूमि के ऊपर और भूमि के भीतर की सभी वस्तुएं गांव के रहने वाले परिवार यानि खुंटकट्टीदारों की सामूहिक संपत्ति बन गई । एक पूरा जंगल या जंगलों के एक हिस्से को विशेष रूप से ग्राम देवता के लिए  आरक्षित रखा गया था और इन्हें सरण या पवित्र उपवन कहा जाता था ।
    मुण्डारी खुंटकट्टी पद्धति - उल्गुलान के पश्चात सन् १९०८ में अस्तित्व में आए छोटा नागपुर काश्तकारी (किराएदारी) अधिनियम के अन्तर्गत एक विशेष अध्याय में मुण्डारी खुटकट्टीदारों के अपने गांवों की भूमि, जंगल और जल संसाधनों पर अधिकारों को स्वीकार किया गया है । कानून के अन्तर्गत इन गांवों को विशेष दर्जा दिया गया है और इन गांवों की आदिवासी बंधुता की सामुहिकता के दृष्टिगत इन्हें विशेष काश्तकारी अधिकार भी प्रदान किए गए है ।
    प्रारंभिक तौर पर इस तरह के ४४६ गांवों की पहचान की गई थी जो कि आपस में जुड़े पुराने जिलों रांची, सिहंभूम और हजारीबाग में स्थित हैं । रांची जिले की अंतिम बंदोबस्ती सर्वेक्षण रिपोर्ट में रहस्योद्घाटन किया गया है कि अब मात्र १५६ गांव ऐसे बचे हैं जिनमें बाहरी गैर आदिवासियों (डिकुआें) का अतिक्रमण नहीं हुआ    है । बाकी गांवों को विभक्त खंुटकुट्टी गांव के रूप में जाना जाता है तथा अब ये सामान्य राजस्व गांव हैं ।
    मुण्डारी खंुटकुट्टी काश्तकारी एक अनूठी कृषि व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत मुण्डाआें को महज काश्तकार या किराएदार भर नहीं समझा जाता बल्कि उन्हें संपूर्ण पैतृक भूमि जिसमें जंगल और जलस्त्रोत भी शामिल हैं का पूर्ण स्वामी समझा जाता है । उन्हें राज्य को कर भुगतान करने की आवश्यकता भी नहीं हैं । गांव के सभी साथी सामूहिक रूप बहुत थोड़ी-सी रकम सहयोग के रूप में राज्य को देते है । स्थानीय तौर पर इसे चंदा कहा जाता  है । यहां पर कृषि और झूम का स्वामित्व तो सामूहिक होता है लेकिन उन पर नियंत्रण स्वतंत्र रूप से वंशानुगत परिवारोंका ही रहता है । लेकिन वनों का स्वामित्व और प्रबंधन दोनों ही सामूहिक होता है ।
    मुण्डारी खुंटकट्टी ग्राम वनों का प्रबंधन - खंुटकुट्टी समूह के प्रत्येक सदस्य को उसकी आवश्यकतानुसार घरेलू एवं कृषि कार्योहेतु ग्रामवनों से लकड़ी काटने और ले जाने का अधिकार है । केवलप्रजा होरोको (मेहमान निवासियों) को कुछ मामलों में इस हेतु खंुटकुट्टीदारों से अनुमति लेना होती      है । सामान्यतया चैत या बैसाख (मार्च से मई तक) वर्षा पूर्व के महीनों में कई मुण्डा गांवों में पहान (प्रधान) एक दिन निश्चित कर ग्रामीणों को ग्राम वनों में प्रविष्ट करा देते हैं । साथ ही उन्हें निर्देशित कर दिया जाता है कि वे जंगल के एक विशिष्ट क्षेत्र से अपनी साल भर की जरूरत के आधार पर ईधन के लिए व इमारती लकड़ियां काट लें और जंगल के दूसरोंभागों को आने वाले वर्षो में इसी तरह की कार्यवाही के लिए बिना छेड़े छोड़ दें । इस प्रक्रिया मेंजब जंगल के आखिरी हिस्से के कटने की बारी आती है तब तक सबसे पहले इस्तेमाल मेंआया क्षेत्र एक टिकाउ जंगल के रूप में विकसित हो गया होता है । मुण्डा आज तक इस प्रक्रिया का पालन कर रहे हैं ।
    औपनिवेशिक शासन के पूर्व यह पद्धति पूरे झारखंड मेंप्रचलन में थी । ब्रिटिश औपनिवेशक प्रशासन ने जंगलों पर राज्य का स्वामित्व और राज्य प्रबंधन लागू कर इस पद्धति को नष्ट कर डाला । भूमिहारी क्षेत्रों में जमींदारों को जंगलों का संरक्षक बना दिया और जिन क्षेत्रों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया वहां के वनों का प्रबंधन वन विभाग को सौंप दिया गया । केवल मुण्डारी खंुटकुट्टी क्षेत्र में अभी भी पुरानी पद्धति प्रचलन में है लेकिन अब वह भी कम होती जा रही है ।
    जमींदारी प्रथा का प्रभाव - जैसे-जैसे जमींदारी गांवों के आसपास स्थिति जंगल नष्ट होते गए वैस-वैसे लोग अधिकाधिक मुण्डारी खंुटकुट्टी वनों पर निर्भर होते चले गए । इसके अलावा लकड़ी की एक उत्पाद के रूप मेंमांग बढ़ने से ठेकेदारों ने भी इन जंगलों में घुसपैठ आरंभ कर दी । कई ग्रामीण मुण्डा स्वयं वन प्रबंधन के पुराने नियमोंको तोड़ने वाले बन गए ।
    अंग्रेजों ने सन् १७५७ के स्थायी बंदोबस्ती के दौरान प्रारंभ की गई जमींदारी पद्धति के अन्तर्गत झारखंड मेंनिजी संपत्ति के विचार या धारणा को थोपा । मुण्डारी खंुटकुट्टी भूमि का निजीकरण एक वास्तविकता बन गई जिससे स्वामित्व की पुरानी पद्धति और आर्थिक संबंध छिन्न-भिन्न हो गए और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक बिखराव भी हुआ । आंतरिक विकास के फलस्वरूप वनों का दोनों घरेलू एवं वाणिज्यिक उद्देश्यों से अत्यधिक शोषण हुआ जिसके परिणामस्वरूप वनों का ह्ास भी हुआ ।
    वन विभाग द्वारा नियंत्रण - आजादी के पश्चात् सन् १९५० के आरंभिक दशक मेंपूर्व से ही अुसरक्षित मुण्डारी खंुटकट्टी वनों को वन विभाग के प्रबंधन में ले आया गया । वनों को समुदायों द्वारा सहेजे जाने को उस वक्त जबरदस्त झटका लगा जबकि वन विभाग ने वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन प्रारंभ किया । जंगल की नई संस्कृति (सिल्वीकल्चर) और व्यावसायिक मूल्य वाले पौधों के रोपण ने जंगलों का चरित्र ही बदल डाला । जंगलों से जानवर तो पूरी तरह से खत्म हो गए । इतना हीं नहीं इससे उनके झूम खेती के एवं पड़त या बंजर वन भूमि के बदले उपजाऊ भूमि पुन: प्राप्त् करने के अधिकार पर भी रोक लगा गई । वन विभाग और इसके सहयोगी वन माफिया के आपसी गठजोड़ ने मुण्डारी खुंटकट्टी प्रणाली के मूलस्वरूप को ही नष्ट कर दिया ।
    बदलाव - वैसे दमदार झारखंड आंदोलन और बिहार से अलग होकर झारखंड के एक नए राज्य के रूप मेंगठन की पृष्ठभूमि में स्थितियों में बदलाव आने लगे हैं । मुण्डारी खुंटकट्टी गांव के मुण्डाआें ने सांस्कृतिक विलुिप्त् के आसन्न संकट से बचने के लिए अब कमर कस ली है । उन्होंने प्रत्येक गांव में वन संरक्षण समिति की स्थापना कर ली है एवं वनविभाग के अधिकारों को नकारते हुए अपने पारम्परिक सामुदायिक वन प्रबंधन प्रणाली को पुनर्जीवित कर लिया है । वनों पर सामुदायिक अधिकारों की पुर्नस्थापना एवं वनों से वन विभाग के अधिकारियों को बाहर खदेड़ने के लिए एक सशक्त जनआंदोलन खड़ा हो गया है । मुण्डारी खुंटकट्टी प्रणाली का पुनर्जागरण सन २००० में स्थापित एक संघर्ष समूह झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन (जेजेबीए) के माध्यम से संभव हो पाया है ।
    समुदाय आधारित वन प्रबंधन एवं जीविका के अवसर - झारखंड जंगल बचाआेंआंदोलन ने अपने अधिकारों की पुन: प्रािप्त् हेतु सर्वोच्च् न्यायालय में अपील की थी लेकिन याचिका को झारखंड उच्च् न्यायालय में भेज दिया गया है । उपरोक्त याचिका पर निर्णय की अभी भी प्रतीक्षा है । लेकिन मुण्डारी खुंटकट्टी गांवों के पारम्परिक वन प्रबंधन के पुनर्निर्माण का काम शुरू भी कर दिया गया है । वैसे वन अधिकार अधिनियम २००६ एक वन निवासी को घर एवं कृषि योग्य भूमि के साथ ही साथ वन संसाधनोंपर समुदाय के अधिकारों को तो मान्यता देता है लेकिन यह वन पर निर्भर व्यक्तियों को स्वामित्व के अधिकारों के मसले पर कमजोर है तथा इसमें वन प्रबंधन में समुदायों के अधिकारों को लेकर भी अस्पष्टता है ।
वनस्पति जगत 
होम रूल, गूलर का फूल और बरबैन्क
                                            डॉ. किशोर पंवार

    बात पुरानी जरूर है पर महत्वपूर्ण और मजेदार है । देश अंग्रेजोंका गुलाम था । अंग्रेजी शासन से परेशान कुछ देश भक्त नेताआेंने होम रूल आंदोलन शुरू किया था । होम रूल का मतलब अंग्रेजों के अधीन रहकर ही देश की शासन व्यवस्था में हिस्सेदारी करना था । होम रूल की मांग करने वालों में पंडित मदन मोहन मालवीय प्रमुख थे ।
    वे अपनी जन सभाआें में होम रूल की मांग उठाया करते थे । उनकी इस मांग का मजाक एक अंग्रेजी पादरी ने कुछ यूंकहकर उडाया था - कहते है मालवीय जी, होम रूल लेंगे । दीवाने हो गए हैं, गूलर का फूल लेंगे । इसके जवाब में एक वतनपरस्त शायर ने अखबारों में यह शेर छपवाया था - जब होमरूल होगा, बरबैन्क जन्म लेंगे, जी हां जनाब तब तो, गूलर भी फूल देंगे ।
    गरज यह कि जब कोई व्यक्ति किसी दुर्लभ वस्तु की मांग करता है तब कहा जाता है कि आप तो गूलर का फूल मांग रहे हैं । कालान्तर में गूलर का फूल एक मुहावरा बन    गया । परन्तु सच्ची लगन हो तो गूलर में भी फूल खिलाए जा सकते हैं ।
    कड़े संघर्ष और हजारों कुर्बानियां देकर मिली आजादी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । उस शायर को सलाम जिसने दमन और शोषण के उस दौर में भी यह हिम्मत कहने की दिखाई कि होम रूल होने पर हमारे देश में बरबैन्क जन्म लेंगे और तब गूलर में भी फूल खिलेंगे । जाहिर है, बरबैन्क उस जमाने के कोई प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री रहे होंगे । वैसे इस संदर्भ में वनस्पति विज्ञान की प्रचलित पाठ्य पुस्तकों में बरबैन्क का कोई अता-पता नहीं मिला । पता नहीं क्यों ?
    आजादी के बाद देश में कृषि के क्षेत्र मेंअभूतपूर्व प्रगति हुई है । देश भर में फैलेगेहूं, चावल, कपास, मूंगफली, गन्ना, सोयाबीन जैसी फसलों के आई.सी.ए.आर. के अनुसंधान केन्द्रों में कार्यरत वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत और लगन की बदौलत आज हम अनाज के उत्पादन में आत्मनिर्भर हैं । कभी हम अनाज का आयात करते थे, अब निर्यात करते हैं । इस वर्ष गेहूं की बम्पर फसल के चलते हालात ऐसे हैं कि अनाज भरने के लिए बारदाने नहीं मिल रहे    हैं । और तो और, खरीदे गए गेहूं के भण्डारण के लिए गोदाम तक नहीं है ।
    फलों के उत्पादन में हम एक अनार सौ बीमार से वर्तमान में हर बीमार को एक अनार की स्थिति में पहुंच गए हैं । हरित क्रांति के साथ देश मेंफल और सब्जी क्रांति भी हुई है । आम, अनार और सेब जो कभी अस्पतालों के आसपास या फल बाजार मेंही मिलते थे, अब ठेलों और बैलगाड़ियोें में गली-मुहल्लों में बेचे जा रहे है ।
    इन बदलावों के मूल में वे वनस्पति विज्ञानी है जिन्हें हम पौध प्रजनक या उद्यानविद कहते हैं । इसमें बेशक सरकार की नीतियों का भी अहम योगदान है । सरकार और वैज्ञानिकों की बदौलत ही आज हम खाद्यान्न, फल एवं सब्जियों से सम्पन्न है । कुछ प्रमुख भारतीय पौध प्रजनकों के नाम का जिक्र जरूरी है । बी.पी.पाल, एम.एस.स्वामीनाथन, डॉ. के. रमैया, डॉ. एन. पार्थसारथी, डॉ. ए.बी. जोशी, एस.एस.राजन, ई.के. जानकी अम्मल और डॉ. आर.एच. रिछारिया जैसे वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत एवं लगन से आज हम अनाज के क्षेत्र मेंअपना सिर गर्व से ऊंचा उठाए हैं।
    जिन बरबैन्क महोदय का ऊपर जिक्र आया है वे भी एक प्रसिद्ध वनस्पतिशास्त्री एवं उद्यान विशेषज्ञ थे । अकेले उन्होनें ८०० से ज्यादा प्रकार के फल, फूल और सब्जियों की प्रजातियों एवं किस्में तैयार की थी ।
    लूथर बरबैन्क एक अमरीकी वनस्पतिशास्त्री थे । उनका जन्म लैंकास्टर में हुआ था । उनके पास कोई बड़ी डिग्री नहीं थी, केवल प्राथमिक शिक्षा प्राप्त् थे । परन्तु अपनी लगन, सूझबूझ एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पौधोंसे प्यार के चलते दुनिया के जाने माने उद्यानविद बने ।
    बरबैन्क का जन्म ०७ मार्च १८४९ को हुआ था । कैलिर्फोनिया में आपकी विशिष्ट उपलब्धियों के चलते ७ मार्च वृक्ष दिवस के रूप मेंमनाया जाता है और उस दिन वृक्ष लगाए जाते हैं । इस कर्मठ उद्यानविद एवं प्रकृतिवेता की मृत्यु ७७ वर्ष की आयु में १९२६ में ११ अप्रैल को हुई । उन्हें उनके ही बगीचे में ग्रीनहाउस के पासदफनाया गया था ।
    बरबैन्क ने पौधों की कई नई किस्में ईजाद की । उन्होनें अपने कार्य में कलम लगाना और संकरण जैसी विधियों का इस्तेमाल कर लगभग ८०० किस्में तैयार की । उनकी प्रमुख उपलब्धियों में प्लम की ११३ किस्मों के अलावा १० किस्में बेरीज व ३० किस्में लिली की हैं । बरबैन्क ने हर तरह के पौधों पर कार्य किया । फल, फूल,अनाज, सब्जियां, यहां तक कि घास भी उनके कार्य का हिस्सा     रहीं । बरबैन्क को सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली आलू की एक नई किस्म बरबैन्क पोटेटो से । यह किस्म आज भी अमरीका में सर्वाधिक उगाई जाती है । इस आलू का छिलका लाल-पीला होता है । इसे चिप्स बनाने के लिए उपयुक्त माना जाता है ।
    बरबैन्क ने कैक्टस की एक कांटे रहित किस्म बनाई जिसे पशु चारे के रूप मेंउपयोग किया जा सकता था । इसके अलावा उन्होनें शस्ता, डेजी, फायर पॉपी, एलरटॉपीच और सान्तारोजा प्लम भी विकसित किए । उनका अपना ग्रीन हाउस एवं नर्सरी थी जहां वे अपने प्रायोगिक कार्य करते थे ।
    बरबैन्क ने पौधों की नई-नई किस्मों की खोज के साथ ही कई किताबें भी लिखी जिनसे उनकी प्रसिद्धि और बढ़ी । उनकी प्रमुख किताबों में न्यू क्रिएशंस इन फ्रूटस एंड फ्लावर्स (१८९३), दी ट्रेनिंग ऑफ द ह्मूमन प्लांट (१९०७), हाऊ प्लांट्स आर ट्रेन्ड टू वर्क फार मैन (१९२१), हार्वेस्ट ऑफ दी इअर्स (१९२७) हिज मेथ्स, डिस्कवरी एंड देअर प्रक्टिकल एप्लीकेशन्स और पार्टनर ऑफ नेचर (१९३९) प्रमुख हैं ।
    ऐसा नहीं है कि बरबैन्क को शोहरत ही शोहरत मिली है । उन दिनों के वैज्ञानिकों द्वारा उनके कार्यकी आलोचना भी की गई । उन पर आरोप था कि वे अपने कार्य का व्यवस्थित रिकार्ड नहीं रखते थे जो वैज्ञानिक कार्यो में जरूरी होता है । पडर््यू विश्वविद्यालय के हार्टीकल्चर और लैंडस्केपिंग के प्रोफेसर जूल्स जैनिक ने एनसायक्लोपिडिया २००४ के अंक में यहां तक कहा कि बरबैन्क को सही अर्थो में वैज्ञानिक नहीं माना जा  सकता ।
    खैर कुछ भी हो बरबैन्क की उपलब्धियां अनेक हैं । उनके कार्यो की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता   है । किसी कार्य की महत्ता उसकी उपयोगिता में ही होती है । इस लिहाज से बरबैन्क को भले वैज्ञानिक न माना जाए पर जो कार्य उन्होंने किए हैं वे वैज्ञानिक श्रेणी के तो हैं ही । नई पादप किस्में ईजाद करना वैज्ञानिकों का ही काम है और यह बरबैन्क ने बखूबी  किया ।
    किसी के कार्यको नकाराना वैज्ञानिक जगत मेंभी होता है । वैज्ञानिक भी आखिर इन्सान होते है । ईर्ष्या और प्रसिद्धि से वे परे नहीं  होते । भारतीय वनस्पति शास्त्र की पुस्तकों में इतने बड़े उद्यानिकीविद, लेखक, प्रकृतिविद और खोजकर्ता का नाम न होना अखरता है । उनके कार्योके महत्व के आलोक मेंउन्हें हायर सेकेण्डरी व स्नातक स्तर की पाठ्य पुस्तकों में थोड़ा स्थान तो मिलना ही चाहिए ताकि आगामी पीढ़ी उनके कृतित्व से प्रेरणा ले सके ।
पर्यावरण परिक्रमा
टाइगर रिजर्व के कोर क्षेत्र में पर्यटन नहीं

    बाघों के संरक्षण की दिशा में कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि देश के सभी ४० टाइगर रिजर्वोके कोर क्षेत्रोंमें किसी किस्म की पर्यटन गतिविधियाँ संचालित नहीं की जाएँगी । साथ ही कोर्ट ने टाइगर रिजर्वोंा के आसपास बफर झोन संबंधी अधिसूचना जारी न करने वाले राज्यों पर जुर्माना भी लगाया है ।
    न्यायाधीश न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार तथा न्यायमूर्ति कलीफुल्ला की पीठ ने आदेश देते हुए कहा कि टाइगर रिजर्वोके कोर क्षेत्रों तथा बफर झोनों में किसी भी प्रकार से पर्यटन गतिविधियों न चलाई जाएँ । आदेश के बावजूद कई राज्यों की सरकारों ने अभी तक बफर झोन संबंधी अधिसूचना जारी नहीं करने पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा कि तीन सप्तह के अंदर यह अधिसूचना जारी न करने पर ५०-५० हजार रूपये का हर्जाना लगाया जाएगा ।
    बफर झोन की अधिसूचना जारी नहीं करने वाले राज्यों के खिलाफ अदालत की अवमानना की कार्यवाही  भी की जाएगी । कोर्ट ने आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, महाराष्ट्र तथा झारखंड सरकारों पर अदालती आदेश का पालन न करने पर १०-१० हजार रूपये का हर्जाना भी लगाया है । याचिका वन्य प्राणी संरक्षणवादी अजय दुबे ने दायर की थी ।
    सुप्रीम कोर्ट ने टाइगर रिजर्व मामले में एमपी हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश को पलट दिया है । दरसअल, हाईकोर्ट के जस्टिस अजित सिंह व संजय यादव की युगलपीठ ने ८ फरवरी २०११ को प्रदेश के सभी छ: टाइगर रिजर्व मेंपर्यटकों को प्रवेश प्रतिबंधित किए जाने की मांग वाली अंतरिम अर्जी नांमजूर कर दी थी । यह कदम तत्कालीन अतिरिक्त महाधिवक्ता नमन नागरथ की उस दलील पर गौर करने के बाद उठाया गया था, जिसके तहत कहा गया था कि मध्यप्रदेश के कान्हा, पेंच, पन्ना, बांधवगढ़, सतपुड़ा और संजय गांधी टाइगर रिजर्व में टूरिज्म सरकार के लिए राजस्व प्रािप्त् का एक अहम स्त्रोत है ।
    केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जंयती नटराजन ने टाइगर रिजर्वोके कोर व बफर क्षेत्रोंमें पर्यटन गतिविधियाँ रोकने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है । आपने कहा कि इस आदेश का सख्ती से पालन करवाने के लिए वे खुद सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियोंको पत्र लिखेगी ।
    बाघों के शिकार के चलते इनकी प्रजाति खतरे मेंहै । देश में कुल १७०० बाघ ही बचे हैं । इनके चमड़े और कुछ अंगोंसे दवाएँ बनाने के लिए इस वन्य प्राणी का अवैध शिकार होता है ।
   

पर्यावरण के प्रति भारतीय सबसे ज्यादा संवेदनशील

    प्रकृति को मित्र समझने की हमारी सनातन परम्परा आज भी कायम है । इसी की सुखद परिणति है कि पर्यावरण के प्रति दुनिया में किसी अन्य मुल्क की तुलना में भारतीय सबसे ज्यादा संवेदनशील है ।
    देश में बढ़ते उपभोक्तावाद के रूख के बावजूद पर्यावरण को नुकसान होने पर हम खुद को सबसे ज्यादा कसूरवार मानते हैं । अन्य देशों की तुलना में भारतीयों की जीवनशैली भी सबसे टिकाऊ है । इसका सीधा मतलब है कि भारतीयों के बीच प्राकृतिक संसाधनों का दोहन सबसे कम है । इसके उलट पर्यावरण संरक्षण को लेकर हो-हल्ला मचाने वाले विकसित देश इन सभी पैमानों पर फिसड्डी साबित हुए हैं । उनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क देखा गया है ।
    नेशनल जियोग्राफिक सोसायटी के दुनिया में १७ देशों के उपभोक्ता व्यवहार को आँकने के लिए कराए गए सर्वे में भारत सबसे ऊपर हैं । सूची में अमेरिका अंतिम पायदान पर है । भारत, चीन और ब्राजील जैसे विकासशील मूल्क टिकाऊ विकल्पों को सबसे अधिक प्राथमिकता देते हैं । इसके विपरीत अमीर पश्चिमी देशों में सतत जीवनशैली की प्राथमिकता निम्नतम स्तर पर है ।
    सर्वेक्षण के अनुसार, भारत और अन्य विकासशील देश पर्यावरण पर उनकी वजह से पड़ने वाले असर
को लेकर सबसे अधिक अपराधबोध  से ग्रस्त रहते हैं । ऐसा ४५ प्रतिशत भारतीय जबकि ४२ प्रतिशत चीनी उपभोक्ता मानते हैं । भारत में पेड़, पौधों, नदियों समेत अन्य प्राकृतिक संपदाआें की पूजा सदियों से की जाती रही है । जानकार मानते हैं कि यही अपराधबोध का स्तर ऊँचा रहने की वजह हो सकती है । फिलहाल इन दोनों ही एशियाई महाशक्तियों के लोगों को इस बात पर सबसे कम यकीन है कि व्यक्तिगत प्रयासों से पर्यावरण को मदद मिल सकती है । नेशनल जियोग्राफिक सोसायटी में मिशन कार्यक्रमों की वाइस प्रेसीडेंट टेरी ग्रेसिया कहती हैं कि भारत, चीन के अलावा मेक्सिको, ब्राजील और अर्जेटीना में वायु और जल प्रदूषण पर सबसे ज्यादा चिंता की जाती है ।

राजाजी पार्क मेंहै इंसान और वन्य जीवों के प्रेम का स्मारक

    साल, सागौन व शीशम के घने दरख्तों की छाँव में पत्थरों के चबूतरे पर अडिग एक शिला । शिल्प के स्तर पर यह शिला ताजमहल जैसी बेजोड़ न सही, लेकिन प्रेम का यह स्मारक है । इस इमारत से कम हसीन नहीं । एक अंग्रेज अफसर और उसकी पालतू हथिनी के बीच बना वह अटूट रिश्ता आज भी राजाजी पार्क के कोर जोन (जंगल के बीच का भाग) में महसूस किया जा सकता है । स्नेह का बंधन विशाल पत्थर पर इन शब्दों में उकेरागया ब्रेव एज ए लॉयन, स्टडी एज दिस रॉक (शेर की तरह बहादुर
और इस चट्टान की तरह अडिग) ।
    हाथियों की पंसदीदा पनाहगाह में से एक है राजाजी नेशनल पार्क की कांसरो रेंज । इसी रेंज में मुख्य मार्ग से करीब दस किलोमीटर भीतर है एक चबूतरा, जिस पर खड़ा है विशाल पत्थर । यह है मेजर स्टेनले स्किनर की पालतू हथिनी रामप्यारी की कब्र । ९० साल पहले वर्ष १९२२ में स्टेनले ने रामप्यारी को यहीं दफनाया था । दरअसल, वर्ष १९०८ मंे मेजर स्टेनले स्किनर शिवालिक वन प्रभाग में प्रभागीय वन अधिकारी (डीएफओ) बनकर आए । उस वक्त कांसरो रेंज देहरादून पूर्वी वन प्रभाग के अन्तर्गत आती थी । मेजर को वन्य जीवों से बेहद प्यार था । वे गाँव-गाँव जाकर लोगों में वन्य जीवों के खौफ को दूर करते थे और इस यात्रा में उनकी हमसफर थी उनकी प्यारी रामप्यारी । वह इसी हथिनी की पीठ पर बैठकर जंगल में गश्त पर जाते थे ।
    राजाजी पार्क के निदेशक एसपी सुबद्धि इतिहास में झांकते हुए कहते है कि जंगल में गश्त के दौरन कई बार रामप्यारी ने स्टेनले की जान बचाई थी । वे बताते है कि रामप्यारी का स्टेनले को मिलना भी एक संयोग ही था । स्टेनले अपना अधिकतर समय जंगल में ही बिताते थे । ऐसे ही किसी दिन उन्हें जंगल में हाथी का एक जख्मी बच्च दिखाई दिया । वन्य जीवों के दीवाने स्टेनले उसे अपने बंगले पर ले आए और उसका इलाज  शुरू कर दिया । इस शिशु से कब बेपनाह मुहब्बत हो गई, उन्हें इसका पता ही नहीं चला । उन्होनें उसे नाम दिया रामप्यारी ।
    वर्ष १९२२ में बीमारी के बाद रामप्यारी की मौत हो गई । रामप्यारी की मौत से स्टेनले टूट गए । उन्होनें उसे रेंज के पास ही दफना दिया । बाद में कब्र के लिए स्टेनले ने इलाहाबाद से विशेष पत्थर मॅगवाए, जो आज भी इंसान और जानवर के अलबेले रिश्ते की गवाही दे रहे हैं । बताते है कि इसके बाद इलाके मेंस्टेनले को कभी नहीं देखा गया ।

पानी को संविधान की समवर्ती सूची में रखें

    पिछले दिनों एक संसदीय समिति ने पानी को संविधान की समवर्ती (केन्द्र व राज्य दोनों का अधिकार) सूची में लाने का सुझाव दिया है । अभी यह राज्य सूची में शामिल है और इस कारण राज्यों के बीच नदी जल बँटवारे को लेकर विवाद चलते रहते हैं ।
    जहाँ जलपूर्ति, सिंचाई, नहरें, ड्रेनेज और बाँध राज्य सूची में आते हैं, वहीं अंतर राज्य नदी विकास जैसे मुद्दे केन्द्र की सूची में शामिल है । सूत्रों के अनुसार जल संसाधन पर सलाहकार समिति के सदस्यों में इस बात पर लगभग आम सहमति है कि पानी को समवर्ती सूची में लाया जाए ताकि केन्द्र नदी जल विवादों को सुलझाने में प्रभावी भूमिका निभा  सके । जल संसाधन मंत्री पवनकुमार बंसल की अध्यक्षता मेंबैठक में सदस्यों ने राज्यों के हितों के संरक्षण के कुछ उपायों पर भी जोर दिया ।
महिला जगत
महिलाएं पुरूषों से अधिक क्यों जीती हैं ?
नरेन्द्र देवांगन

    अगर आप अमरीका के समस्त नागरिकोंका एक विशाल ग्रुप फोटो ले सकें, तो उसमें महिलाआें की संख्या पुरूषों से ६० लाख अधिक   होगी । वहां महिलाएं पुरूषों से औसतन सात वर्ष अधिक जीवित रहती हैं । आधुनिक विश्व में संस्कृतियां, आहार, जीवन शैली तथा मृत्यु के कारण भिन्न हैं, लेकिन एक बात समान है - महिलाएं पुरूष से अधिक जीती है ।
    यह प्रक्रियाजन्म से पहले शुरू हो जाती है । गर्भधारण के समय यदि मादा भ्रूणोंकी संख्या १०० होती है तो नर भ्रूण संख्या ११० होते हैं, जन्म के समय यह अनुपात १०० लड़कियों पर १०५ लड़कों तक गिर जाता है । ३० वर्ष की आयु तक महिलाआें और पुरूषों की संख्या लगभग बराबर हो जाती है । इसके बाद महिलाएं बढ़त बनाना शुरू कर देती हैं । ८० वर्ष से अधिक उम्र की महिलाआें की संख्या पुरूषों से लगभग दुगनी है ।
    संक्रामक रोग विज्ञानी डेबोरा विंगार्ड कहती हैं, आप मृत्यु के दस या बारह मुख्य कारणोंपर विचार करें, हर रोग पुरूषों को अधिक मारता है । वे धीरे-धीरे एक के बाद एक पुरूषों के लिए ह्दय रोग, फेफड़ों का कैंसर, लिवर सिरोसिस तथा निमोनिया का जिक्र करते हुए बताती हैं कि ये सब महिलाआें की तुलना में अमरीकी पुरूषों को लगभग दुगनी दर पर शिकार बनाते हैं ।
    एक शताब्दी पूर्व अमरीकी पुरूष महिलाआें से अधिक थे तथा अधिक समय तक जीवित रहते थे । लेकिन बीसवीं सदी में महिलाआें की औसत आयु बढ़ गई, क्योंकि गर्भ धारण व प्रसव कम खतरनाक हो गए हैं । अमरीका में १९४६ में पहली बार महिलाआें की संख्या पुरूषों से अधिक पाई गई थी ।
    इस स्थिति के जिम्मेदार स्वयं पुरूष हैं । वे महिलाआें की तुलना में धूम्रपान, मद्यपान तथा जीवन को खतरे में डालने वाले अधिक जोखिम उठाते   हैं । महिलाआें की तुलना में पुरूषों की (अन्य पुरूषों द्वारा) अधिक हत्याएं होती है । उनकी आत्महत्या की दर एवं जानलेवा कार दुर्घटनाआें की दर महिलाआें की अपेक्षा अधिक होती है । पुरूष चालक एल्कोहल के कारण अकाल मृत्यु के कहींअधिक शिकार होते हैं ।
    लेकिन आयु के इस अंतर को आचरण स्पष्ट नहीं करता और न ही तनाव इसका उत्तर है । यदि उम्र के छठे दशक में ह्दय रोग ने अधिक पुरूषों को अपना शिकार बनाया, तो कहा गया कि कार्पोरेट विश्व के तनाव इसके लिए जिम्मेदार हैं। डॉक्टरों ने कहा कि जब महिलाएं घर से बाहर काम करने लगेंगी तब वे भी पुरूषों जैसी दर पर मरने लगेंगी । लेकिन सन १९५० तथा १९८५ के बीच अमरीका में कामकाजी महिलाआें की संख्या लगभग दुगनी   हुई । कई अध्ययनों ने सिद्ध किया कि ये कामकाजी महिलाएं भाी घरेलू महिलाआें की तरह ही स्वस्थ हैं ।
    लिंग भिन्नता का अध्ययन कर रहे कुछ वैज्ञानिकों का विश्वास है कि शायद प्रकृति भी महिलाआें का ही पक्ष लेती हैं । प्रत्येक सजीव अपने गुणसूत्रों के निर्देशानुसार चलता है । मानव में २३ जोड़ी गुणसूत्र होते हैं । लेकिन नर में, इनमें से एक नाजुक बेमेल जोड़ी होती है, जिसमें दो गुणसूत्र एक जैसे नहीं बल्कि अलग-अलग किस्म के होते हैं । इन्हें एक्स और वाई नाम दिए गए हैं । मादाआें में इस जोड़ी में दोनों गुणसूत्र एक्स होते हैं । इसकी आनुवंशिक प्रोत्साहक शक्ति, कभी कभार महिलाआें के उत्कृष्ट लचीलेपन के रूप मेंप्रकट होती है ।
    अगर नर का अकेला एक्स गुणसूत्र त्रुटिपूर्ण हो, तो यह संभव है कि एक गंभीर आनुवंशिक विकार प्रकट   हो । उदाहरण के लिए मांसपेशियों की एक विशेष प्रकार की विकृति इसी एक एक्स गुणसूत्र मेंखराबी के कारण होती है । महिलाआेंकी तुलना में पुरूषों में ये रोग ज्यादा आम हैं ।

    इस अकेलेएक्स सिद्धान्त से भी पूरी समस्या हल नहीं होती । कुछ अनुसंधानकर्ता वाई नर गुणसूत्र को इस अंतर के लिये दोषी मानते हैं । इसका उत्तर हार्मोन भी हो सकते हैं । ४० वर्ष की उम्र तक सभी महिलाएं लगातार एस्ट्रोजन का उत्पादन कर रही होती है, इस उम्र तक एक महिला के मुकाबले तीन पुरूष ह्दय रोग से मरते हैं । लेकिन इससे अधिक उम्र में महिलाआें की यह लाभकर स्थिति लगातार कम होती जाती है । दोनों लिंगों के लिए अब ह्दय रोग मृत्यु का मुख्य कारण है । लेकिन पुरूषों की तुलना में महिलाआें को ह्दय रोग से मृत्यु के संदर्भ मेंएक दशक की मोहलत मिल जाती है ।
    अब अगर एस्ट्रोजन ही इस कहानी का नायक है तो टेस्टोस्टेरॉन यानी नर हार्मोन शायद खलनायक । वय: संधि तक लड़कों तथा लड़कियों में कोलेस्टेरॉल स्तर समान होता है । लेकिन जब लड़के यौवनास्था को छूते हैं, टेस्टोस्टेरॉन निर्मित होने लगता है और उनके एचडीएल कोलेस्टेरॉल यानी अच्छे कोलेस्टेरॉल का स्तर कम होने लगता है । पर लड़कियों में एचडीएल का स्तर स्थिर बना रहता है । दोनों लिंगों में एलडीएल यानी बुरे कोलेस्टेरॉल का स्तर यौवनावस्था के बाद बढ़ता है, लेकिन पुरूषों में यह बढ़ोतरी कुछ तेज हैं ।
    टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन आक्रामकता को जन्म देता है और बड़ी मांसपेशियों के निर्माण में मददगार होता है । संभवत: एक समय में ये गुण मददगार रहे होंगे जब पुरूषों का मुख्य दायित्व विरोधी कबीलों से लड़ना होता था । लेकिन टेस्टोस्टेरॉन ने यह महत्व अब खो दिया है ।
    लिंगों में पाया गया प्रत्येक अंतर महिलाआें का ही पक्ष नहीं लेता । महिलाएं, पुरूषों की तुलना में, संक्रामक रोगों के प्रति कम संवेदनशील हैं जबकि वे रोजमर्रा के रोगव दर्द के प्रति अधिक नाजुक हैं। चिकित्सकों को यह कहते सुना जाता है कि उनके पास दो महिला रोगियों के अनुपात में एक पुरूष रोगी आता है । महिलाएं पुरूषों की तुलना में डॉक्टर के पास अधिक चक्कर लगाती हैं, अधिक दवाईयां लेती है तथा अधिक दिन बिस्तर पर व्यतीत करती हैं । वे गठिया, पैरों की सृजन, मूत्राशय के संक्रमण, मस्सों, बवासीर, मासिक स्त्राव रोग, सिरदर्द तथा स्फीत शिरा से परेशान रहती हैं । इसी समय पुरूषों को दिल का आघात व दौरे पड़ते हैं । अत: जहां महिलाएं मात्र बीमार पड़ती है, वहीं पुरूष मर जाते हैं ।
    मानसिक स्वास्थ्य को देखे तो अवसाद पुरूषों की तुलना में महिलाआें में आम है । लेकिन शिजोफ्रेनिया बीमारी अक्सर पुरूषों को अधिक घातक रूप से प्रभावित करती है ।
    पत्नी की मृत्यु पर पुरूष कठिनाई से जीवन बसर करते प्रतीत होते हैं । वे अधिक उदास रहते हैं अधिक बीमार रहते हैं तथा संभवत: अधिक मरते हैं । पुरूष इस अवस्था का सामना नहीं कर पाते, क्योंकि कई मामलों में पत्नियां ही उनकी एकमात्र अंतरंग होती हैं । विधुर हुए लोग टूट जाते हैं तथा मर जाते हैं । इसके विपरीतअकेली महिलाआेंका अक्सर निकट मित्रों का एक समूह होता है, जिन पर वे विश्वास कर सकती है ।
    लेकिन व्यवहार बदल रहा है, अत: पुरूषों और महिलाआें के बीच स्वास्थ्य का अंतर किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं हैं । हाल के दशकों में महिलाआें तथा पुरूषों की जीवन अवधि के बीच अंतर कम हुआ है । अर्थ यह नहीं है कि महिलाआें का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है । बल्कि महिलाआें का स्वास्थ्य सुधर रहा है, वहीं पुरूषों का स्वास्थ्य भी तेजी से सुधर रहा है ।
    पुरूष कम धूम्रपान कर रहे हैं, कम मद्यपान कर रहे हैं तथा अच्छा खाना खा रहे हैं । संक्रामक रोग विज्ञानी विंगार्ड कहती हैं कि अंतर इसलिए नहीं सिकुड़ रहा कि महिलाएं आज पुरूषों की तरह व्यवहार कर रही हैं, बल्कि इसलिए सिकुड़ रहा है क्योंकि पुरूष ही महिलाआें की तरह आचरण करने लगे हैं ।
विज्ञान हमारे आसपास
कपास और मनुष्य का साथ कैसेहुआ ?
                                         डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन

    बैक्टीरिया की कोई नई प्रजाति कैसे अस्तित्व में आती है ? कल्पना कीजिए कि संयोग से उसके जीन्स में कोई परिवर्तन हो जाता है, जिसकी बदौलत वह किसी दबाव को झेलने में सक्षम हो जाता  है । यह दबाव किसी जानलेवा दवाई या एंटीबायोटिक का हो सकता है । चूंकि बैक्टीरिया मिनटों ओर घंटों में संख्यावृद्धि करते हैं, इसलिए दवा-संवेदी किस्म के मुकाबले दवा-प्रतिरोधी किस्म चंद हफ्तों में ही भलीभांति स्थापित हो जाती है ।
    जो बात बैक्टीरिया के लिए सही है, वह वनस्पतियों और जंतुआें पर भी लागू होती है । अंतर सिर्फ समयावधि का है । वनस्पतियों और जंतुआें के संदर्भ में उक्त समयावधि वर्षों, दशकों, सदियों या सहस्राब्दियों की हो सकती है क्योंकि उनकी एक-एक पीढ़ी के बीच अंतराल ज्यादा होता है । और जब उन पर भी दबाव पड़ता है - जैसे जलवायु परिवर्तन या पालतूकरण का दबाव - तो उनमें स्थानीय परिवर्तन होतेहैं जो नई किस्मों या संकर किस्मों को जन्म देते हैं ।
    सवाल यह है कि क्या इस तरह के दबावों के चलते क्रमिक म्यूटेशन यानी उत्परिवर्तन पैदा होते हैं जो एक के बाद एक आते   जाएं ? या क्या जीनोम ज्यादा समग्र रूप में प्रतिक्रिया करता है (झटके दे-देकर) ? जो जीव वैज्ञानिक क्रमिकता में विश्वास करते हैं, वे दूसरी किस्म के जीव वैज्ञानिकों को झटका कहते हैं जबकि झटकेदार उत्परिवर्तन के समर्थक जीव वैज्ञानिकों को सरका कहते हैं ।
    मक्का, गेहूं, कपास या चावल जैसा कोई पौधा लीजिए । इसे एपिसोडिक परिवर्तनों का सामना करना होता है, जैसे जलवायु में व्यापक परिवर्तन (जैसा कि पृथ्वी के अतीत में होता रहा है), या जब मनुष्य ने पालतूकरण के दौरान इन पर सर्वथा नवीन पर्यावरण आरोपित किया ।
    पौधा इन परिवर्तनों को कैसे संभालता है ? क्या वह अपने जीन्स में छोट-छोटे  क्रमिक परिवर्तनों के जरिए पर्यावरण के साथ अनुकूलन करता है । अर्थात उत्परिवर्तन क्रमश: आएंगे और उम्मीद है कि हरेक उत्परिवर्तन अपने पूर्ववर्ती का मददगार होगा । या क्या संभव है कि एक व्यापक परिवर्तन (सरकने की बजाय झटकेदार) होगा और सर्वथा नवीन किस्में या संकर किस्में एकाएक पैदा हो  जाएंगी ?
    जीव वैज्ञानिक बारबरा मेक्ंलिक्टॉक इस बात का अध्ययन कर रही थीं कि मक्का में जिनेटिक परिवर्तन कैसे होते हैं ? और बरसों की कड़ी मेहनत के बाद उन्हें यह आश्चर्यजनक परिणाम हासिल हुआ था जीनोम में जीन श्रृंखला में एक साथ थोक बदलाव होते हैं ।
    आनुवंशिक सामग्री डीएनए में श्रृंखलाएं यहां-वहां पहुंच जाती हैं, काटकर जोड़ी जाती हैं, या उनकी नकल बनाकर जोड़ी जाती है । अर्थात जीनोम एक चितकबरी संरचना है जिसकी श्रृंखलाएं बदलती रहती हैं और तद्नुसार उनके द्वारा प्रेषित संदेश भी बदल जाते हैं ।
    उदाहरण के लिए यह वाक्य देखिए, वह, राजेश ने कहा, एक अच्छी महिला है ।  अब जरा इसमें टुकड़े काटकर या नकल करके इधर-उधर चिपकाइए और आपको मिलेगा, एक अच्छी महिला ने कहा,वह राजेश है । या एक-एक राजेश ने कहा, वह एक अच्छी महिला है । बारबरा मेक्ंलिक्टॉक ने डीएनए की इन मुक्त विचरती श्रृंखलाआें को ट्रांसपोजेबल तत्व  या ट्रांसपोजॉन्स कहा । इस अनोखी खोज के लिए उन्हें १९८३ का नोबेल पुरस्कार दिया गया था ।
    तो, ट्रांसपोजॉन्स या फुदकते जीन्स एक प्रक्रिया प्रदान करते हैं, जिसके जरिए दबाव के तहत या पालतूकरण के दौरान विकास  होसकता है । इस बात को हाल ही में वार्विक विश्वविद्यालय के एक समूह द्वारा कपास के एक पौधे के अध्ययन की मदद से समझा गया  है । 
    इस अध्ययन के लिए वार्विक विश्वविद्यालय के समूह ने कपास के पुरातात्विक नमूने लिए । इनमें से दो नमूने पेरू से, एक ब्राजील से और एक मिस्त्र से था । समूह ने इनकी डीएनए श्रृंखला का विश्लेषण करके पाया कि पालतू बनाए गए कपास के जीनोम में काफी पुनर्गठन हुआ था जबकि इसके कुदरती सम्बंधियों को जीनोम श्रृंखला में काफी स्थिरता देखी गई । इससे लगता है कि पालतूकरण का दबाव पौधे को फुदकते जीन्स यानी ट्रांसपोजॉन्स का उपयोग करने को विवश करता है ।
    ऐसा नहींहै कि सिर्फ कपास को मनुष्यों की सांस्कृतिक गतिविधियों के चलते इस तरह के झटकेदार परिवर्तनोंेका सामना करना पड़ा हो । कपास ने अपने तइंर् मनुष्य के व्यवहार और सभ्यता को भी प्रभावित किया है ।
    इस पौधे को करीब ६००० ईसा पूर्व में सिंधु घाटी में पालतू बनाया गया  था । यहां से यह अफ्रीका और अरब विश्व में पहुंचा । अरेबिया में इसका नाम हुआ अलकुतुन (स्पैनी लोगों से इसे बदल कर अल्गोडॉन किया और अंग्रेजी में यह कॉटन  हुआ) ।
    इसके स्वतंत्र, कपास की एक अन्य किस्म को मेक्सिको में ३००० ईसा पूर्व में उगाया गया था । प्रारंभिक एशियाई व मेक्सिकन लोगों ने इसकी कताई की और पहना । मसालों, सोने और चांदी के साथ-साथ कपास भी ओल्ड वर्ल्ड का एक खजाना था जिसे उपनिवेशवादियोें द्वारा लूटा गया ।
    कपास की इसी लूट और व्यापारीकरण ने गुलामी की बदनुमा व अक्षम्य प्रथा को बढ़ावा दिया । जब युरोपीय लोगों ने अमरीका की खोज की उसके अधिकांश दक्षिणी इलाकों को कपास के खेतों में तब्दील किया, तब उन्हें मजदूरों की जरूरत पड़ी । सन १७०० और १९०० के दरम्यान ही कम से कम ४० लाख अफ्रीकियों को गुलाम बनाकर यूएस भेजा गया जहां उनकी खरीद-फरोख्त जानवरों की तरह हुई ताकि कपास के खेतों के लिए मजदूर मिल सकें ।
    इसके परिणामस्वरूप कपास का फलता-फू लता कारोबार अस्तित्व में आया । उन्नीसवीं सदी के मध्य तक अमरीका प्रति वर्ष २ अरब टन कपास का निर्यात करने लगा था । इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाजें तो उठती रही थीं, मगर इसने एक गृह युद्ध की शक्ल अख्तियार कर ली, तब राष्ट्रपति लिंकन ने हस्तक्षेप किया, युद्ध में फतह हासिल की और देश का एकीकरण किया ।
    मगर इस बात का श्रेय तो अश्वेत लोगों (और उनके गोरे समर्थकों) को जाता है, जिन्होंने गांधीवादी मार्टिन लुथर किंग के नेतृत्व में संघर्ष करते हुए अश्वेत और श्वेत लोगों के लिए समान अधिकारों का सपना साकार किया । ये वही मार्टिन लुथर किंग हैं, जिनका सपना साकार था कि हम होंगे कामयाब एक दिन, हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन ।
    भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रमुख खोज केलिको थी । केलिको कोजिकोड में बनाया जाने वाला एक कपड़ा था जिसमें कपास के रेशे और बीज के छिलकों का उपयोग किया जाता था । केलिको नाम कालीकट से आया ।
    कंपनी और उसके बाद स्थापित हुए ब्रिटिश साम्राज्य ने भारतीय (तथा मिस्त्री) कपास के दम पर सालाना करोड़ों पाउण्ड कमाए    थे । और जब औद्योगिक क्रांति के दौरान इंग्लैण्ड में कपड़े के कारखाने स्थापित हुए, तो सूती वस्त्र ज्यादा महीन हो गया और उसकी मांग बढ़ गई । भारतीय सूती कपड़ों की कीमत भारत में गिर गई और इंग्लैण्ड में भी, जहां इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था ।
    गांधीजी ने मिलों में बने सूत के सांस्कृतिक महत्व को भी पहचाना और यह भी समझा कि इसमें कितना शोषण निहित है । इस समझ के आधार पर उन्होनेंचरखे और खादी को अपनाया । आर्थिक महत्व तो इसका था ही, इसने जो राष्ट्रीय गौरव और देशभक्ति पैदा की वह आज भी कायम है ।
    कपास ने क्रमिक या धीमा परिवर्तन पैदा नहीं किया । इसने तो एक झटकेदार परिवर्तन पैदा किया था जिसका गहरा असर भारतीय राष्ट्रीयता पर हुआ था । ऐसे में, यह कितना अन्यायपूर्ण है कि ढाई लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है क्योंकि वे वह कर्ज नहीं चुका पाए जो उन्होंने कपास पैदा करने के लिए लिया था । यह विचारणीय प्रश्न है ?      
कविता
बुलाते है, पीपल बाबा
                             कुमार शर्मा अनिल
बेटा ! बस एक बार, एक बार
चले आओ गाँव ।
सपने में बार-बार
अपनी मजबूत शाखों को
बाहों की तरह पसारकर
बुलाते हैं पीपल बाबा ।
नींद खुलने पर देर तक
पसीने में नहाया मैं
भटकता रहता हॅूं
अतीत की स्मृतियों में ।
गाँव की चौपाल पर
मजबूत हरी-भरी शाखों से
सबका अभिवादन करते
नंग-धड़ंग बच्चें को
बाहों में भर, स्नेह से दुलारते
अल्हड़ किशोरियों, सुहागनों को
शाखों पर झूला झुलाते
अंधेरा होते ही
घर जाने की हिदायत देते
गाँव-भर के शुभचिंतक पीपल बाबा ।
बैलोस गाँव !
अल्हड़ गलियों को समझाता-बुझाता
घर की दहलीजों को मर्यादाएं बताता
खेतों को बदलते मौसम समझाता
न कोई अपराध, न खून-खराबा
गाँव के गौरवशाली अतीत पर
तब कितना इतराते थे पीपल बाबा ।
अब ढेरों आशंकाआें से त्रस्त
शहर के आगमन पर स्तब्ध
चकित से हैं पीपल बाबा ।
चिंतित पीपल बाबा
बुलाते हैं मुझे बार-बार
बेटा, बस आखिरी बार
मिल जा गाँव आकर ।
मैं सोच में निमग्न हॅूं
लम्बी फेहरिस्त, ढेरों काम
कैसे मिलेगी फुरसत ।
पत्नी सुझाव देती है
पच्चीस बरस नहीं गए
तो पाँच महीने और रूक जाओ
तब तक वहाँ भी पहुँच जाएंगे
मोबाइल, इंटरनेट और टेलीफोन
जी भरके कर लेना फिर बात उनसे
जो भी होंये तुम्हारे पीपल बाबा ।
पत्नी को समझाना व्यर्थ है
गॉव जाना तो चाहता हूूँ मैं
पर एक आशंका है मन में
शहर जब लील चुका होगा
पूरा का पूरा गाँव
तब क्या शर्त है कि मुझे
पीपल बाबा, वहीं चौपाल पर
शाखों से स्वागत करते मिलेंगे
और वहां उनकी जगह
नहीं होगा कोई बीयर-बार
ज्ञान विज्ञान
क्या यह पक्षी खेती करता है ?

    हाल में एक अध्ययन के नतीजे प्रकाशित हुए हैं, जिनसे लगता है कि एक पक्षी है जो अपने घोंसले के आसपास पौधे उगाता है । और इस जंगल से तय होता है कि वह नर पक्षी साथी ढूंढने में कितना सफल होगा । अभी यह कहना मुश्किल है कि क्या वह जानबूझकर यह जंगल रोपता है । 

         धब्बेदार बॉवरबर्ड  का नर तिनके जोड़- जोड़कर एक घोंसला बनाता हैं । यह कुटिया बनाने के बाद वह इसे तरह-तरह की चीजों से सजाता है ताकि किसी मादा को रिझा सके । सजावट की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु सोलेनम एलिप्टिम नामक पौधे की बेरियां होती हैं । और लगता है कि अपने घोंसले को सजाने के चक्कर में यह पक्षी उस इलाके में पौधों के वितरण को बदल रहा है ।
    यूके के एक्सेटर विश्वविद्यालय के जोआ मैडन ने ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैण्ड क्षेत्र में सोलेनम एलिप्टिम के वितरण का अध्ययन किया यह क्षेत्र धब्बेदार बॉवर पक्षी का प्राकृतवास है । हालांकि ये पक्षी अपना घोंसला उन जगहों पर नहीं बनाते जहां सोलेनम एलिप्टिम की बहुतायत हो, मगर घोंसला बनाने के एक साल बाद हर घोंसले के आसपास औसतन ४० सोलेनम एलिप्टिम पौधे पाए गए ।  जिन पक्षियों के घोसलों के आसपास ज्यादा पौधे थे उनके घोसलों में बेरियां भी ज्यादा पाई गई । मैडन यह तो पहले ही देख चुके थे कि बेरियों की संख्या के आधार पर नर पक्षी की संतानोत्पत्ति में सफलता का अच्छा अनुमान लगाया जा सकता है । तो मैडन का अनुमान है कि मुख्य काम घोंसले में बेरियां इकट्टी करना है । जो बेरियां मुरझा जाती हैं उन्हें यह पक्षी घोंसले से बाहर फेंक देता होगा और वे वहां उग आती होगी ।
    इस तरह से बॉवर पक्षी इलाके में सोलेनम एलिप्टिम के वितरण को बदल रहा है  । मगर क्या इसे खेती करना कहेंगे? खुद मैडन मानते हैं कि उक्त परिणामों के आधार पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि यह पक्षी जानबूझकर पौधे रोप रहा है । मगर साथ ही वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि मनुष्य द्वारा खेती की शुरूआत अनायास ही हुई थी । तो फिर बॉवर पक्षी के क्रियाकलापोंको भी प्रारंभिक खेती क्यों नहीं माना जा सकता ?

पहाड़ों पर पैदा की सब्जियों की ७८ किस्में

    लद्दाख के बर्फीले रेगिस्तान में हमारे होनहार रक्षा वैज्ञानिकों ने सब्जियों की ७८ किस्में विकसित करने का कारनामा कर दिखाया है । अब उनकी मंजिल १०० किस्मों के गिनीज वर्ल्ड बुक में नाम दर्ज कराना है ।
     रक्षा वैज्ञानिकों  ने लद्दाख के बेहद ऊंचाई वाले बर्फानी रेगिस्तान में सब्जियों की ७८ किस्में विकसित कर, लिम्का बुक वर्ल्ड रिकॉर्ड में स्थान बना लिया है और अब वे १०० किस्मों के साथ गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉड्र्स में नाम दर्ज कराने की तैयारी कर रहें है ।







    




लेह में रक्षा अनुसंधान विकास संगठन की प्रयोगशाला ने यह उपलब्धि हासिल की है । इस प्रयोगशाला ने समुद्र तल से करीब १२ हजार फीट की ऊंचाई पर सब्जियों की ये किस्में उगाने का कीर्तिमान बनाया है । रक्षा उच्च् क्षेत्र शोध संस्थान, दिहार की प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने तीन मामलों में लिम्का बुक में स्थान बनाया है । पहली बात तो यह कि यह विश्व की सबसे ऊंचे स्थान पर काम करने वाली कृषि एवं पशुपालन प्रयोगशाला है और दूसरे उसने ५ किलो वजन का बड़े आकार का आलू उगाने में कामयाबी हासिल की है । तीसरे इस प्रयोगशाला ने सब्जियों की ७८ किस्में इस क्षेत्र में उगा ली हैं, जबकि दो दशक पहले तक वहां सिर्फ चार-पांच सब्जियां ही उगाई जा सकती थी । दिहार के निदेशक डॉ. आरबी श्रीवास्तव ने बताया कि अब वे इस क्षेत्र में १०० सब्जियां उगाकर गिनीज बुक ऑफ वल्ड रिकार्ड में स्थान बनाने के लिए जुट गए हैं ।
    अब सियाचिन में तैनात फौजियों के लिए सब्जियों की ५१ प्रतिशत जरूरतें यही से पूरी हो रही है । सियाचिन के सैनिकोंके लिए बाकी हरी सब्जियां चंडीगढ़ से मंगाना पड़ती हैं । वहां से परिवहन की कीमत ही बेहद बढ़ जाती है और एक किलो आलू की कीमत सियाचिन पहुंचते-पहुंचते १०० रूपए हो जाती है । बाहर से मंगाई गई सब्जियां बासी और खराब भी हो जाती है, लेकिन लेह में विकसित किस्मों की सब्जियां तरोताजा हो सैनिकों को मिल जाती है । इस संस्थान की परतापुर की इकाई से हर साल स्थानीय लोगों को बीस हजार पौधे दिए जा रहे हैं, ताकि लद्दाख को हरा-भरा बनाया जा सके । हालांकि, तापमान शून्य से कही २० तो कहीं ४० डिग्री तक नीचे चला जाता है और पौधों को जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है ।

नाले के कचरे से बनेगी जैविक खाद

    देश के प्रमुख परमाणु अनुसंधान संगठन भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (बार्क) ने नाले के गंदे कचरे का विकिरण के जरिये शोधन करने और उसे जैविक उर्वरक में तब्दील करने के लिए अपनी प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की योजना बनाई है । इसके लिए बार्क तारापुर में एक प्लांट लगने वाला है, जिसके जरिए परमाणु कचरे को अलग कर उसे रीसाइकिल करने के बाद नए सिरे से उसका बतौर ऊर्जा उपयोग हो सकेगा । 









बार्क के निदेशक शेखर बसु ने कहा है कि बार्क, राज्य सरकारों और विभिन्न नगर निकायों को अपनी प्रौद्योगिकी प्रदान करना चाहता है। खासकर कृषि क्षेत्र में वह सभी संभव तकनीक देने को तैयार है । श्री बसु ने कहा कि हम परमाणु प्रौद्योगिकियों का सामाजिक उपयोग फैलाने के लिए निश्चित रूप से राज्य सरकारों और अन्य संगठनों से संपर्क करना  चाहते हैं । उन्होनें बताया कि महाराष्ट्र के तारापुर में संभवत: अगले साल परमाणु कचरे को अलग करके उसे रीसाइकिल करने वाला प्लांट काम करना शुरू कर देगा । उन्होनें बताया कि खर्च किए गए ईधन का केवल २ से ३ प्रतिशत अवशेष ही परमाणु कचरा होता है । अब इसके ही कुछ हिस्से को अलग करके रीसाइकिल किया जाना है । श्री बसु ने कचरे से उर्वरक बनाने की प्रक्रिया के बारे में कहा कि विकिरण के जरिये नुकसान दायक वैक्टीरिया और अन्य रोगाणुआें को समाप्त् कर दिया जाएगा और बचे हुए कचरे को सूख जाने के बाद जैव उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा ।  इस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल गुजरात में एक मल-जल शोधन संयंत्र में हो रहा है । बार्क अब इसके लिए नगर निकायों से संपर्क करना शुरू करेगा । श्री बसु ने कहा कि उनकी संस्था, बीज की अपनी किस्मों तथा कृषि उत्पादों के संरक्षण की तकनीक के प्रसार के लिए देश के कृषि विश्वविद्यालयों से भी बातचीत शुरू  करेगी ।

बढ़ते तापमान से सिकुड़ रही है, पत्तियां

    वैज्ञानिकों का दावा है कि आस्ट्रेलिया में एक झाड़ियों की पत्तियों का आकार छोटा हो गया है और इसका कारण वैश्विक स्तर पर बढ़ता तापमान है । एडीलेड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताआें ने छोटे आकार की पत्तियों वाली होपबुश प्रजातियों का परीक्षण किया जिनका पुराने जमाने में बीयर बनाने में उपयोग होता था ।







    

शोधकर्ता ने पाया कि १९८० के दशक और वर्तमान समय के बीच पत्तियों के आकार में औसत रूप से ०.०८ इंच का अंतर आया है । अध्ययन में शोधकर्ता ग्रेग गुइरिन के हवाले से लाइवसांइस ने कहा कि जलवायु परिवर्तन पर अक्सर भविष्य में असर को लेकर चर्चा की जाती है लेकिन हाल के दशकों में तापमान में आए अंतर ने पारिस्थितिक रूप से असर छोड़ना शुरू कर दिया है । 
सामाजिक पर्यावरण 
समाज, पर्यावरण और गॉधी
                                                 अनसार अली

    कहा जा रहा है कि समाज तरक्की कर रहा है, गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं, फ्लाईओवर बन रहे है, प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ रही है, जमीन के दाम भी बढ़ रहे हैं परन्तु लोगों को उजाड़ दिया गया है और उनकी जमीन पर बांध और हवाई अड्डे बनाए जा रहे हैं । धन के इस लालच ने व्यक्ति को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह खेती लायक जमीन को भोग विलास के लिए बेच दे ।
    विकास के नाम पर प्रकृति का जी भरकर शोषण व दोहन किया जा रहा  है ।  समाज, प्रकृति व व्यक्ति के बीच का संतुलन छिन्न-भिन्न हो रहा है । वनों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है, जिससे वन्य संसाधन, जीव-जन्तु और जैव विविधता खतरे में पड़ गए हैं, जलस्तर भी लगातार नीचे जा रहा है, रेगिस्तानी क्षेत्र का विस्तार हो रहा है दूसरी ओर नदियां भी गंदे नालों में बदलती जा रही हैं । धरती भी लगातार गरम होती जा रही है ।
    आज विकास के नाम पर शहरीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है और  लोगों का शहरों की ओर लगातार फ्लायन हो रहा है । शहरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । स्वतंत्रता के समय कुछ गिने-चुने शहर ही होते थे,अब ये सैकड़ों की संख्या में हैं और खेती योग्य भूमि को चट करते जा रहे हैं । शहरों में लोगों के लिए रोजगार के अवसर व सृजन, खाने, पीने और आवागमन के संसाधनों पर बोझ पड़ रहा है ।
    समाज में एक तरफ तो ऐसा छोटा तबका है जिसके पास अधिकांश संसाधनों तक पहुंच और कब्जा है तो दूसरी ओर ज्यादातार लोगों के पास जीवन निर्वाह के लिए संसाधनों की कमी है । इस छोटे तबके के पास पैसा है और समय की बहुत कमी है अतएव इसने इस्तेमाल करो और फेको की संस्कृति को पैदा किया है । इसीलिए जगह-जगह कूड़े के ढेर नजर आ रहे है और हमारे सामने इस कूड़े का बेहतर ढंग से निपटारे की समस्या आ खड़ी हो गई है।
    यह समस्या युवा पीढ़ी को खाओ, पीओ और ऐश करो का दर्शन दे रही है । प्रकृति के संसाधनों का खूब शोषण करो और आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है  । गांधीजी के अनुसार धरती के संसाधनों को ईश्वर की देन माना जाए । ये संसाधन हमारे लिए उपहार समान हैं और इन पर सबका समान अधिकार है । अतएव हमारा यह कर्तव्य है कि इन संसाधनों का इस ढंग से प्रयोग करें कि आने वाली पीढ़ियों के हितों को कोई नुकसान न पहुंचे ।
    गांधीजी का यह भी कहना था कि व्यक्ति को अपना जीवन सादगी व मितव्ययता से बिताना चाहिए । परमात्मा परिग्रह नहीं करता । हम प्रकृति से जितना लें उतना ही लौटा दें तभी परिस्थितिकीय संतुलन बना रहता है और मानव, प्रकृतिव जीव जतु के अस्तित्व को कोई खतरा भी उत्पन्न नहीं होता है । वे कहते थे कि प्रकृति व्यक्ति की इच्छा को तो पूरा कर सकती है लेकिन उसके लालच को नहीं । उन्होंने बढ़ते हुए उपयोगवाद के खतरों से हमें चेताया है ।
    गांधीजी का दर्शन समाज, व्यक्ति व प्रकृति को साथ लेकर चलता है । वे मानते थे समाज की सारी इकाइयां एक दूसरे से निकटता से जुड़ी हुई है । एक का शोषण या नुकसान दूसरे के लिए खतरे की निशानी है । गांधीजी का वसुधैव कुटुम्बकम में दृढ़ विश्वास था जिसके अनुसार सारा संसार हमारा है और हम सब एक परिवार के सदस्य की तरह से हैं। हमें दूसरों के सुख-दुख को अपना ही सुख-दुख मानना चाहिए ।
    गांधीजी ने पर्यावरण को एक विषय के रूप मेंतो नहीं पढ़ा और ना ही वे कोई पर्यावरणविद थे, परन्तु उनके लेखों,  भाषणों व दैनिक व्यवहार में हम पर्यावरण के प्रति उनकी चिंता को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । सन् १९७० के दशक में उभरा चिपको आंदोलन गांधी दर्शन से प्रभावित था ।
    शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोकने के लिए आवश्यक है कि गांव में ही रोजगार के अवसर पैदा किए जाए व लघु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए । गांव व शहरों के बीच मधुर व सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित होने चाहिए । गांव के विनाश पर शहर का विकास न हो बल्कि दोनों का साथ-साथ विकास होना चाहिए, दोनों एक-दूसरे का सहयोग व सहकार करें ।  
    हम विकास की इस अंधी दौड़ में पर्वत की चोटी पर पहुंच गए है और अगर आगे बढ़े तो गिरना अवश्यम्भावी है । अत: हमें गांधीजी यानि अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा । पर्यावरण को लेकर उनका दर्शन सार्वभौम और सर्वकालिक  है ।
पर्यावरण समाचार
गाँव में बिना बिजली के चलेंगे एटीएम

    अगले कुछ दिनों में देश के दूरदराज ग्रामीण इलाकों में जब आप जाएँगे तो ऐसे गाँवों में एटीएम की सुविधा पाएँगे, जहाँ बिजली मौजूद नहीं है । चौकिए नहीं । दरअसल यह एटीएम सौर ऊर्जा से संचालित होंगे । इनकी खासियत यह होगी कि इसकी ऑटोमेटेड वॉयस और रसीद स्थानीय भाषा में होगी ।
    यह सब संभव हो पाया है इंटरनेशनल फाइनेंस कॉर्पोरेशन (आईएफसी) के कारण, जो विश्व बैंक का सदस्य है । पिछले महीने आईएफसी ने घोषणा की थी कि वे चेन्नई के वोरटेक्स इंजीनियरिंग में २७ लाख डॉलर (१४.९ करोड़ रूपए) का निवेश करेगा, जो कम कीमत के सौर ऊर्जा एटीएम बना रहा है । आईएफसी और मंत्रालय के इस प्रयास से वोरटेक्स को देश के दूरदराज क्षेत्रों में २००० सौर ऊर्जा  संचालित संयंत्र लगाने में मदद मिलेगी । चार साल के शोध के बाद वोरटेक्स के चीफ ऑपरेटिंग अधिकारी विजय बाबू ने र्आआईटी मद्रास के सहयोग से वर्ष २००८ में कंपनी की शुरूआत की      थी । फिलहाल वे देशभर के अंदरूनी हिस्सों में छ: सौ एटीएम स्थापित कर चुके हैं ।

अमरकंटक यूनेस्को की जैव संरक्षण सूची मेंशामिल
    संयुक्त राष्ट्र ने अचनकमार-अमरकंटक क्षेत्र को अपनी जैव संरक्षण सूची में शामिल किया है । छत्तीसगढ़ व म.प्र. के इन क्षेत्रों को यूनेस्को ने विश्व में चुने २० नए स्थानों की सूची में इन्हें शामिल किया है । इसके बाद जैव संरक्षण सूची में ५९९ स्थान हो गए है।
    यूनेस्को की अंतरराष्ट्रीय समन्वय परिषद मानव और जीवमंडल कार्यक्रम ने हैती, कजाखिस्तान, साओ तोमे और प्रीसिप को भी पहली बार वैश्विक जीवमंडल संरक्षण नेटवर्क में शामिल किया है । जीवमंडल संरक्षण स्थानों में कार्यक्रम द्वारा मान्यता प्राप्त् वे स्थान होते हैं, जहाँ स्थानीय लोग ही सामाजार्थिक विकास के लिए प्रबंधन, संचालन, शोध, शिक्षा, प्रशिक्षण और निगरानी करते हो । अचनकमार- अमरकंटक क्षेत्र पहाड़ी इलाके में है । गहरी घाटी और पठार आदि इस इलाके में हैं । घने जंगल ६० प्रश इलाके मेंहै । यूनेस्को का कहना है कि यह जैव विविधता से समृद्ध है और इनका संरक्षण किया जाना चाहिए ।